Moksha-Marg Prakashak (Hindi). Parishisht 3 - Parmarth Vachnika; Parishisht 4 - Upadan Nimittki Chithi.

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रहस्यपूर्ण चिठ्ठी ][ ३४३
पश्चात् परका भी विचार छूट जाय, केवल स्वात्मविचार ही रहता है; वहाँ अनेक प्रकार
निजस्वरूपमें अहंबुद्धि धरता है। चिदानन्द हूँ, शुद्ध हूँ, सिद्ध हूँ, इत्यादि विचार होने पर
सहज ही आनन्द तरंग उठती है, रोमांच हो आता है; तत्पश्चात् ऐसा विचार तो छूट जाय,
केवल चिन्मात्रस्वरूप भासने लगे; वहाँ सर्व परिणाम उस रूपमें एकाग्र होकर प्रवर्तते हैं; दर्शन-
ज्ञानादिकका व नय-प्रमाणादिकका भी विचार विलय हो जाता है।
चैतन्यस्वरूप जो सविकल्पसे निश्चय किया था, उसहीमें व्याप्त-व्यापकरूप होकर इसप्रकार
प्रवर्तता है जहाँ ध्याता-ध्येयपना दूर हो गया। सो ऐसी दशाका नाम निर्विकल्प अनुभव
है। बड़े नयचक्र ग्रन्थमें ऐसा ही कहा है :
तच्चाणेसणकाले समयं बुज्झेहि जुत्तिमग्गेण।
णो आराइणसमये पच्चक्खोअणुहवो जह्म।।२६६।।
अर्थःतत्त्वके अवलोकन (अन्वेषण) का जो काल उसमें समय अर्थात् शुद्धात्माको
युक्ति अर्थात् नय-प्रमाण द्वारा पहले जाने। पश्चात् आराधनसमय जो अनुभवकाल उसमें नय-
प्रमाण नहीं हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष अनुभव है।
जैसेरत्नको खरीदनेमें अनेक विकल्प करते हैं, जब प्रत्यक्ष उसे पहिनते हैं, तब विकल्प
नहीं हैपहिननेका सुख ही है। इसप्रकार सविकल्पके द्वारा निर्विकल्प अनुभव होता है।
तथा जो ज्ञान पाँच इन्द्रियों व छठवें मनके द्वारा प्रवर्तता था, वह ज्ञान सब ओरसे
सिमटकर इस निर्विकल्प अनुभवमें केवल स्वरूपसन्मुख हुआ। क्योंकि वह ज्ञान क्षयोपशमरूप
है, इसलिये एक कालमें एक ज्ञेयको ही जानता है, वह ज्ञान स्वरूप जाननेको प्रवर्तित हुआ
तब अन्यका जानना सहज ही रह गया। वहाँ ऐसी दशा हुई कि बाह्य अनेक शब्दादिक
विकार हों तो भी स्वरूपध्यानीको कुछ खबर नहीं
इसप्रकार मतिज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ।
तथा नयादिकके विचार मिटने पर श्रुतज्ञान भी स्वरूपसन्मुख हुआ।
ऐसा वर्णन समयसारकी टीका आत्मख्यातिमें है तथा आत्मावलोकनादिमें है। इसीलिये
निर्विकल्प अनुभवको अतीन्द्रिय कहते हैं। क्योंकि इन्द्रियोंका धर्म तो यह है कि स्पर्श, रस,
गंध, वर्ण, शब्दको जानें, वह यहाँ नहीं है; और मनका धर्म यह है कि अनेक विकल्प
करे, वह यहाँ नहीं है; इसलिये यद्यपि जो ज्ञान इन्द्रिय
मनमें प्रवर्तता था, वही ज्ञान अनुभवमें
प्रवर्तता है; तथापि इस ज्ञानको अतीन्द्रिय कहते हैं।
तथा इस स्वानुभवको मन द्वारा हुआ भी कहते हैं, क्योंकि इस अनुभवमें मतिज्ञान-
श्रुतज्ञान ही हैं, अन्य कोई ज्ञान नहीं है।

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३४४ ] [ रहस्यपूर्ण चिठ्ठी
मति-श्रुतज्ञान इन्द्रिय-मनके अवलम्बन बिना नहीं होता, सो यहाँ इन्द्रियका तो अभाव
ही है, क्योंकि इन्द्रियका विषय मूर्तिक पदार्थ ही है। तथा यहाँ मनज्ञान है, क्योंकि मनका
विषय अमूर्तिक पदार्थ भी है, इसलिये यहाँ मन-सम्बन्धी परिणाम स्वरूपमें एकाग्र होकर अन्य
चिन्ताका निरोध करते हैं, इसलिये इसे मन द्वारा कहते हैं। ‘‘एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्’’
ऐसा ध्यानका भी लक्षण ऐसे अनुभव दशामें सम्भव है।
तथा समयसार नाटकके कवित्तमें कहा हैः
वस्तु विचारत ध्यावतैं, मन पावै विश्राम।
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याकौ नाम।।
इसप्रकार मन बिना जुदे ही परिणाम स्वरूपमें प्रवर्तित नहीं हुए, इसलिये स्वानुभवको
मनजनित भी कहते हैं; अतः अतीन्द्रिय कहनेमें और मनजनित कहनेमें कुछ विरोध नहीं है,
विवक्षाभेद है।
तथा तुमने लिखा कि ‘‘आत्मा अतीन्द्रिय है, इसलिये अतीन्द्रिय द्वारा ही ग्रहण किया
जाता है;’’ सो (भाईजी) मन अमूर्तिकका भी ग्रहण करता है, क्योंकि मति-श्रुतज्ञानका विषय
सर्वद्रव्य कहे हैं। उक्तं च तत्त्वार्थ सूत्रेः
‘‘मतिश्रुतयोर्निबन्धो द्रव्येष्वसर्वपर्यायेषु।’’ (१२६)
तथा तुमने प्रत्यक्षपरोक्षका प्रश्न लिखा सो भाईजी, प्रत्यक्षपरोक्ष तो सम्यक्त्वके भेद
हैं नहीं। चौथे गुणस्थानमें सिद्धसमान क्षायिक सम्यक्त्व हो जाता है, इसलिये सम्यक्त्व तो केवल
यथार्थ श्रद्धानरूप ही है। वह (जीव) शुभाशुभकार्य करता भी रहता है। इसलिये तुमने जो
लिखा था कि ‘‘निश्चयसम्यक्त्व प्रत्यक्ष है और व्यवहारसम्यक्त्व परोक्ष है’’, सो ऐसा नहीं है।
सम्यक्त्वके तो तीन भेद हैं
वहाँ उपशमसम्यक्त्व और क्षायिकसम्यक्त्व तो निर्मल हैं, क्योंकि वे
मिथ्यात्वके उदयसे रहित हैं और क्षयोपशमसम्यक्त्व समल है, क्योंकि सम्यक्त्वमोहनीयके उदयसे
सहित है। परन्तु इस सम्यक्त्वमें प्रत्यक्ष
परोक्ष कोई भेद तो नहीं हैं।
क्षायिक सम्यक्त्वीके शुभाशुभरूप प्रवर्तते हुए व स्वानुभवरूप प्रवर्तते हुए सम्यक्त्वगुण
तो समान ही है, इसलिये सम्यक्त्वके तो प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद नहीं मानना।
तथा प्रमाणके प्रत्यक्ष-परोक्ष भेद हैं, सो प्रमाण सम्यग्ज्ञान है; इसलिये मतिज्ञान-श्रुतज्ञान
तो परोक्षप्रमाण हैं, अवधि-मनःपर्यय-केवलज्ञान प्रत्यक्षप्रमाण हैं। ‘‘आद्ये परोक्षं प्रत्यक्षमन्यत्’’
(तत्त्वार्थसूत्र अ० १, सूत्र ११-१२) ऐसा सूत्रका वचन है। तथा तर्कशास्त्रमें प्रत्यक्ष-परोक्षका

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रहस्यपूर्ण चिठ्ठी ][ ३४५
ऐसा लक्षण कहा है‘‘स्पष्टप्रतिभासात्मकं प्रत्यक्षमस्पष्टं परोक्षं।’’
जो ज्ञान अपने विषयको निर्मलतारूप स्पष्टतया भलीभाँति जाने सो प्रत्यक्ष और जो
स्पष्ट भलीभाँति न जाने सो परोक्ष। वहाँ मतिज्ञान-श्रुतज्ञानके विषय तो बहुत हैं, परन्तु एक
भी ज्ञेयको सम्पूर्ण नहीं जान सकता, इसलिये परोक्ष कहे और अवधि
मनःपर्ययज्ञानके विषय
थोड़े हैं; तथापि अपने विषयको स्पष्ट भलीभाँति जानते हैं, इसलिये एकदेश प्रत्यक्ष हैं और
केवलज्ञान सर्व ज्ञेयको आप स्पष्ट जानता है इसलिये सर्वप्रत्यक्ष है।
तथा प्रत्यक्षके दो भेद हैंःएक परमार्थ प्रत्यक्ष, दूसरा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष। वहाँ
अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान तो स्पष्ट प्रतिभासरूप हैं ही, इसलिये पारमार्थिक प्रत्यक्ष
हैं। तथा नेत्रादिकसे वर्णादिकको जानते हैं वहाँ व्यवहारसे ऐसा कहते हैं
‘इसने वर्णादिक
प्रत्यक्ष जाने’, एकदेश निर्मलता भी पाई जाती है, इसलिये इनको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते
हैं; परन्तु यदि एक वस्तुमें अनेक मिश्र वर्ण हैं वे नेत्र द्वारा भलीभाँति नहीं ग्रहण किये
जाते हैं, इसलिये इसको परमार्थ-प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता है।
तथा परोक्ष प्रमाणके पांच भेद हैंःस्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, और आगम।
वहाँ पूर्व कालमें जो वस्तु जानी थी उसे याद करके जानना, उसे स्मृति कहते हैं।
दृष्टांत द्वारा वस्तुका निश्चय किया जाये उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। हेतुके विचारयुक्त जो
ज्ञान उसे तर्क कहते हैं। हेतुसे साध्य वस्तुका जो ज्ञान उसे अनुमान कहते हैं। आगमसे
जो ज्ञान हो उसे आगम कहते हैं।
ऐसे प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाणके भेद कहे हैं।
वहाँ इस स्वानुभवदशामें जो आत्माको जाना जाता है सो श्रुतज्ञान द्वारा जाना जाता
है। श्रुतज्ञान है वह मतिज्ञानपूर्वक ही है, वे मतिज्ञान-श्रुतज्ञान परोक्ष कहे हैं, इसलिये यहाँ
आत्माका जानना प्रत्यक्ष नहीं है। तथा अवधि-मनःपर्ययका विषय रूपी पदार्थ ही है और
केवलज्ञान छद्मस्थके है नहीं, इसलिये अनुभवमें अवधि-मनःपर्यय-केवल द्वारा आत्माका जानना
नहीं है। तथा यहाँ आत्माको स्पष्ट भलीभाँति नहीं जानता है, इसलिये पारमार्थिक प्रत्यक्षपना
तो सम्भव नहीं है।
तथा जैसे नेत्रादिकसे वर्णादिक जानते हैं वैसे एकदेश निर्मलता सहित भी आत्माके
असंख्यात प्रदेशादिक नहीं जानते हैं, इसलिये सांव्यवहारिक प्रत्यक्षपना भी संभव नहीं है।
यहाँ पर तो आगम-अनुमानादिक परोक्ष ज्ञानसे आत्माका अनुभव होता है। जैनागममें

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३४६ ] [ रहस्यपूर्ण चिठ्ठी
जैसा आत्माका स्वरूप कहा है, उसे वैसा जानकर उसमें परिणामोंको मग्न करता है, इसलिये
आगम परोक्षप्रमाण कहते हैं। अथवा ‘‘मैं आत्मा ही हूँ, क्योंकि मुझमें ज्ञान है; जहाँ-जहाँ
ज्ञान है वहाँ-वहाँ आत्मा है
जैसे सिद्धादिक हैं; तथा जहाँ आत्मा नहीं है वहाँ ज्ञान भी नहीं
हैजैसे मृतक कलेवरादिक हैं।’’ इसप्रकार अनुमान द्वारा वस्तुका निश्चय करके उसमें
परिणाम मग्न करता है, इसलिये अनुमान परोक्षप्रमाण कहा जाता है। अथवा आगम-
अनुमानादिक द्वारा जो वस्तु जाननेमें आयी उसीको याद रखकर उसमें परिणाम मग्न करता
है, इसलिये स्मृति कही जाती है;
इत्यादि प्रकारसे स्वानुभवमें परोक्षप्रमाण द्वारा ही आत्माका
जानना होता है। वहाँ पहले जानना होता है, पश्चात् जो स्वरूप जाना उसीमें परिणाम मग्न
होते हैं, परिणाम मग्न होने पर कुछ विशेष जानपना होता नहीं है।
यहाँ फि र प्रश्नःयदि सविकल्प-निर्विकल्पमें जाननेका विशेष नहीं है तो अधिक आनन्द
कैसे होता है?
उसका समाधानःसविकल्प दशामें ज्ञान अनेक ज्ञेयोंको जाननेरूप प्रवर्तता था,
निर्विकल्पदशामें केवल आत्माका ही जानना है; एक तो यह विशेषता है। दूसरी विशेषता
यह है कि जो परिणाम नाना विकल्पोंमें परिणमित होता था वह केवल स्वरूपसे ही तादात्म्यरूप
होकर प्रवृत्त हुआ। दूसरी यह विशेषता हुई।
ऐसी विशेषताएँ होने पर कोई वचनातीत ऐसा अपूर्व आनन्द होता है जो कि विषय-
सेवनमें उसकी जातिका अंश भी नहीं है, इसलिये उस आनन्दको अतीन्द्रिय कहते हैं।
यहाँ फि र प्रश्नःअनुभवमें भी आत्मा परोक्ष ही है, तो ग्रन्थोंमें अनुभवको प्रत्यक्ष कैसे
कहते हैं? ऊपरकी गाथामें ही कहा है ‘पच्चखो अणुहवो जम्हा’ सो कैसे है?
उसका समाधानःअनुभवमें आत्मा तो परोक्ष ही है, कुछ आत्माके प्रदेश आकार तो
भासित होते नहीं हैं; परन्तु स्वरूपमें परिणाम मग्न होनेसे जो स्वानुभव हुआ वह स्वानुभवप्रत्यक्ष
है। स्वानुभव स्वाद कुछ आगम
अनुमानादिक परोक्षप्रमाण द्वारा नहीं जानता है, आप ही
अनुभवके रसस्वादको वेदता है। जैसे कोई अंध-पुरुष मिश्रीको आस्वादता है; वहाँ मिश्रीके
आकारादि तो परोक्ष हैं, जो जिह्वा से स्वाद लिया है वह स्वाद प्रत्यक्ष है
वैसे स्वानुभवमें
आत्मा परोक्ष है, जो परिणामसे स्वाद आया वह स्वाद प्रत्यक्ष है;ऐसा जानना।
अथवा जो प्रत्यक्षकी ही भाँति हो उसे भी प्रत्यक्ष कहते हैं। जैसे लोकमें कहते
हैं कि ‘‘हमने स्वप्नमें अथवा ध्यानमें अमुक पुरुषको प्रत्यक्ष देखा’’; वहाँ कुछ प्रत्यक्ष देखा
नहीं है, परन्तु प्रत्यक्षकी ही भाँति प्रत्यक्षवत् यथार्थ देखा, इसलिये उसे प्रत्यक्ष कहा जाता

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रहस्यपूर्ण चिठ्ठी ][ ३४७
है। उसीप्रकार अनुभवमें आत्मा प्रत्यक्षकी भाँति यथार्थ प्रतिभासित होता है, इसलिये इस
न्यायसे आत्माका भी प्रत्यक्ष जानना होता है
ऐसा कहें तो दोष नहीं है। कथन तो अनेक
प्रकारसे है, वह सर्व आगम-अध्यात्म शास्त्रोंसे जैसे विरोध न हो वैसे विवक्षाभेदसे कथन
जानना।
यहाँ प्रश्नःऐसा अनुभव कौनसे गुणस्थानमें होता है?
उसका समाधानःचौथेसे ही होता है, परन्तु चौथेमें तो बहुत कालके अन्तरालसे होता
है और ऊपरके गुणस्थानोंमें शीघ्र-शीघ्र होता है।
फि र यहाँ प्रश्नःअनुभव तो निर्विकल्प है, वहाँ ऊपरके और नीचेके गुणस्थानोंमें भेद
क्या?
उसका समाधानःपरिणामोंकी मग्नतामें विशेष है। जैसे दो पुरुष नाम लेते हैं और
दोनोंके ही परिणाम नाममें हैं; वहाँ एकको तो मग्नता विशेष है और एकको थोड़ी है
उसीप्रकार जानना।
फि र प्रश्नःयदि निर्विकल्प अनुभवमें कोई विकल्प नहीं है तो शुक्लध्यानका प्रथम भेद
पृथक्त्ववितर्कविचार कहा, वहाँ ‘पृथक्त्ववितर्क’नाना प्रकारके श्रुतका ‘विचार’अर्थ-व्यंजन-
योगसंक्रमणऐसा क्यों कहा?
समाधानःकथन दो प्रकार हैएक स्थूलरूप है, एक सूक्ष्मरूप है। जैसे स्थूलतासे
तो छठवें ही गुणस्थानमें सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत कहा और सूक्ष्मतासे नववें गुणस्थान तक मैथुन
संज्ञा कही; उसीप्रकार यहाँ अनुभवमें निर्विकल्पता स्थूलरूप कहते हैं। तथा सूक्ष्मतासे
पृथक्त्ववितर्क विचारादिक भेद व कषायादिक दसवें गुणस्थान तक कहे हैं। वहाँ अपने जाननेमें
व अन्यके जाननेमें आये ऐसे भावका कथन स्थूल जानना, तथा जो आप भी न जाने और
केवली भगवान ही जानें
ऐसे भावका कथन सूक्ष्म जानना। चरणानुयोगादिकमें स्थूलकथनकी
मुख्यता है और करणानुयोगमें सूक्ष्मकथनकी मुख्यता है;ऐसा भेद अन्यत्र भी जानना।
इसप्रकार निर्विकल्प अनुभवका स्वरूप जानना।
तथा भाईजी, तुमने तीन दृष्टान्त लिखे व दृष्टान्तमें प्रश्न लिखा, सो दृष्टान्त सर्वांग
मिलता नहीं है। दृष्टान्त है वह एक प्रयोजनको बतलाता है; सो यहाँ द्वितीयाका विधु
(चन्द्रमा), जलबिन्दु, अग्निकणिका
यह तो एकदेश हैं और पूर्णमासीका चन्द्र, महासागर तथा
अग्निकुण्डयह सर्वदेश हैं। उसीप्रकार चौथे गुणस्थानमें आत्माके ज्ञानादिगुण एकदेश प्रगट

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३४८ ] [ रहस्यपूर्ण चिठ्ठी
हुए हैं, तेरहवें गुणस्थानमें आत्माके ज्ञानादिक गुण सर्वथा प्रगट होते हैं; और जैसे दृष्टान्तोंकी
एक जाति है वैसे ही जितने गुण अव्रत-सम्यग्दृष्टि के प्रगट हुए हैं, उनकी और तेरहवें
गुणस्थानमें जो गुण प्रगट होते हैं, उनकी एक जाति है।
वहाँ तुमने प्रश्न लिखा कि एक जाति है तो जिसप्रकार केवली सर्वज्ञेयोंको प्रत्यक्ष जानते
हैं उसीप्रकार चौथे गुणस्थानवाला भी आत्माको प्रत्यक्ष जानता होगा?
उत्तरःभाईजी, प्रत्यक्षताकी अपेक्षा एक जाति नहीं है, सम्यग्ज्ञान की अपेक्षा एक
जाति है। चौथे गुणस्थानवालेको मति-श्रुतरूप सम्यग्ज्ञान है और तेरहवें गुणस्थान वालेको
केवलरूप सम्यग्ज्ञान है। तथा एकदेश सर्वदेशका अन्तर तो इतना ही है कि मति-श्रुतज्ञानवाला
अमूर्तिक वस्तुको अप्रत्यक्ष और मूर्तिक वस्तुको भी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष, किंचित् अनुक्रमसे जानता
है तथा सर्वथा सर्व वस्तुको केवलज्ञान युगपत् जानता है; वह परोक्ष जानता है, यह प्रत्यक्ष
जानता है इतना ही विशेष है। और सर्वप्रकार एक ही जाति कहें तो जिसप्रकार केवली
युगपत् प्रत्यक्ष अप्रयोजनरूप ज्ञेयको निर्विकल्परूप जानते हैं, उसीप्रकार यह भी जाने
ऐसा
तो है नहीं; इसलिये प्रत्यक्ष-परोक्षका विशेष जानना।
उक्तं च अष्टसहस्री मध्येः
स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने।
भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत्।।
(अष्टसहस्री, दशमः परिच्छेदः १०५)
अर्थःस्याद्वाद अर्थात् श्रुतज्ञान और केवलज्ञानयह दोनों सर्व तत्त्वोंका प्रकाशन
करनेवाले हैं। विशेष इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है, श्रुतज्ञान परोक्ष है, परन्तु वस्तु
है सो और नहीं है।
तथा तुमने निश्चयसम्यक्त्वका स्वरूप और व्यवहारसम्यक्त्वका स्वरूप लिखा है सो सत्य
है, परन्तु इतना जानना कि सम्यक्त्वीके व्यवहारसम्यक्त्वमें व अन्य कालमें अन्तरङ्गनिश्चयसम्यक्त्व
गर्भित है, सदैव गमनरूप रहता है।
तथा तुमने लिखाकोई साधर्मी कहता है कि आत्माको प्रत्यक्ष जाने तो कर्मवर्गणाको
प्रत्यक्ष क्यों न जाने?
सो कहते हैं कि आत्माको तो प्रत्यक्ष केवली ही जानते हैं, कर्मवर्गणाकौ अवधिज्ञानी
भी जानते हैं।

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रहस्यपूर्ण चिठ्ठी ][ ३४९
तथा तुमने लिखाद्वितीयाके चन्द्रमाकी भाँति आत्माके प्रदेश थोड़ेसे खुले कहो?
उत्तरःयह दृष्टान्त प्रदेशोंकी अपेक्षा नहीं है, यह दृष्टान्त गुणकी अपेक्षा है।
जो सम्यक्त्व सम्बन्धी और अनुभव सम्बन्धी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्षादिकके प्रश्न तुमने लिखे
थे, उनका उत्तर अपनी बुद्धि अनुसार लिखा है; तुम भी जिनवाणीसे तथा अपनी परिणतिसे
मिलान कर लेना।
अरे भाईजी, विशेष कहाँ तक लिखें, जो बात जानते हैं वह लिखनेमें नहीं आती।
मिलने पर कुछ कहा भी जाय, परन्तु मिलना कर्माधीन है, इसलिये भला यह है कि
चैतन्यस्वरूपके अनुभवका उद्यमी रहना।
वर्तमानकालमें अध्यात्मतत्त्व तो आत्मख्यातिसमयसारग्रंथकी अमृतचन्द्र आचार्यकृत
संस्कृतटीकामें है और आगमकी चर्चा गोम्मटसारमें है तथा और अन्य ग्रन्थोंमें है।
जो जानते हैं वह सब लिखनेमें आवे नहीं, इसलिये तुम भी अध्यात्म तथा आगम-
ग्रन्थोंका अभ्यास रखना और स्वरूपानन्दमें मग्न रहना।
और तुमने कोई विशेष ग्रन्थ जाने हों सो मुझको लिख भेजना। साधर्मियोंको तो
परस्पर चर्चा ही चाहिये। और मेरी तो इतनी बुद्धि है नहीं, परन्तु तुम सरीखे भाइयोंसे
परस्पर विचार है सो बड़ी वार्ता है।
जब तक मिलना नहीं हो तब तक पत्र तो अवश्य ही लिखा करोगे।
मिती फागुन वदी ५, सं० १८११

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३५० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
परमार्थवचनिका
[ कविवर पं० बनारसीदासजी रचित ]
एक जीवद्रव्य, उसके अनंत गुण, अनंत पर्यायें, एक-एक गुणके असंख्यात प्रदेश,
एक-एक प्रदेशमें अनन्त कर्मवर्गणाएँ, एक-एक कर्मवर्गणामें अनंत-अनंत पुद्गलपरमाणु, एक-
एक पुद्गलपरमाणु अनंत गुण अनंत पर्यायसहित विराजमान।
यह एक संसारावस्थित जीवपिण्डकी अवस्था। इसीप्रकार अनंत जीवद्रव्य सपिण्डरूप
जानना। एक जीवद्रव्य अनंत-अनंत पुद्गलद्रव्यसे संयोगित (संयुक्त) मानना।
उसका विवरणअन्य अन्यरूप जीवद्रव्यकी परिणति, अन्य अन्यरूप पुद्गलद्रव्यकी
परिणति।
उसका विवरणएक जीवद्रव्य जिसप्रकारकी अवस्था सहित नाना आकाररूप परिणमित
होता है वह प्रकार अन्य जीवसे नहीं मिलता; उसका और प्रकार है। इसीप्रकार अनंतानंतरूप
जीवद्रव्य अनंतानंतस्वरूप अवस्थासहित वर्त रहे हैं। किसी जीवद्रव्यके परिणाम किसी अन्य
जीवद्रव्यसे नहीं मिलते। इसीप्रकार एक पुद्गलपरमाणु एक समयमें जिसप्रकारकी अवस्था धारण
करता है, वह अवस्था अन्य पुद्गलपरमाणुद्रव्यसे नहीं मिलती। इसलिये पुद्गल (परमाणु)
द्रव्यकी भी अन्य-अन्यता जानना।
अब, जीवद्रव्य पुद्गलद्रव्य एकक्षेत्रावगाही अनादिकालके हैं, उनमें विशेष इतना कि
जीवद्रव्य एक, पुद्गलपरमाणुद्रव्य अनंतानंत, चलाचलरूप, आगमनगमनरूप, अनंताकार
परिणमनरूप, बन्धमुक्ति शक्तिसहित वर्तते हैं।
अब, जीवद्रव्यकी अनंती अवस्थाएँ, उनमें तीन अवस्थाएँ मुख्य स्थापित कींएक
अशुद्ध अवस्था, एक शुद्धाशुद्धरूप मिश्र अवस्था, एक शुद्ध अवस्थायह तीन अवस्थाएँ संसारी
जीवद्रव्यकी। संसारातीत सिद्ध अनवस्थितरूप कहे जाते हैं।
अब तीनों अवस्थाओंका विचारएक अशुद्ध निश्चयात्मक द्रव्य, एक शुद्ध निश्चयात्मक
द्रव्य, एक मिश्र निश्चयात्मक द्रव्य। अशुद्ध निश्चयद्रव्यको सहकारी अशुद्ध व्यवहार, मिश्रद्रव्यको
सहकारी मिश्रव्यवहार, शुद्ध द्रव्यको सहकारी शुद्ध व्यवहार।

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परमार्थवचनिका ][ ३५१
अब, निश्चय-व्यवहारका विवरण लिखते हैंः
निश्चय तो अभेदरूप द्रव्य, व्यवहार द्रव्यके यथास्थित भाव। परन्तु विशेष इतना कि
जितने काल संसारावस्था उतने काल व्यवहार कहा जाता है, सिद्ध व्यवहारातीत कहे जाते हैं,
क्योंकि संसार व्यवहार एकरूप बतलाया है। संसारी सो व्यवहारी, व्यवहारी सो संसारी।
अब, तीनों अवस्थाओंका विवरण लिखते हैंः
जितने काल मिथ्यात्व अवस्था, उतने काल अशुद्ध निश्चयात्मक द्रव्य अशुद्ध-व्यवहारी।
सम्यग्दृष्टि होते ही चतुर्थ गुणस्थानमें बारहवें गुणस्थानक पर्यंत मिश्र निश्चयात्मक द्रव्य
मिश्रव्यवहारी। केवलज्ञानी शुद्धनिश्चयात्मक शुद्धव्यवहारी।
अब, निश्चय तो द्रव्यका स्वरूप, व्यवहार संसारावस्थित भाव, उसका
विवरण कहते हैंः
मिथ्यादृष्टि जीव अपना स्वरूप नहीं जानता, इसलिये परस्वरूपमें मग्न होकर कार्य मानता
है; वह कार्य करता हुआ अशुद्ध व्यवहारी कहा जाता है।
सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूपको परोक्ष प्रमाण द्वारा अनुभवता है; परसत्तापरस्वरूपसे अपना
कार्य न मानता हुआ योगद्वारसे अपने स्वरूपके ध्यान-विचाररूप क्रिया करता है, वह कार्य
करते हुए मिश्रव्यवहारी कहा जाता है।
केवलज्ञानी यथाख्यातचारित्रके बलसे शुद्धात्मस्वरूपका रमणशील है, इसलिये
शुद्धव्यवहारी कहा जाता है। योगारूढ़ अवस्था विद्यमान है, इसलिये व्यवहारी नाम कहते
हैं। शुद्धव्यवहारकी सरहद तेरहवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त जानना।
असिद्धत्वपरिणमनत्वात् व्यवहारः।
अब, तीनों व्यवहारका स्वरूप कहते हैंः
अशुद्धव्यवहार शुभाशुभाचाररूप, शुद्धाशुद्धाव्यवहार शुभोपयोगमिश्रित स्वरूपाचरणरूप,
शुद्धव्यवहार शुद्धस्वरूपाचरणरूप।
परन्तु विशेष इनका इतना कि कोई कहे कि शुद्धस्वरूपाचरणात्म तो सिद्धमें भी विद्यमान
है, वहाँ भी व्यवहार संज्ञा कहना चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि संसारी अवस्थापर्यन्त
व्यवहार कहा जाता है। संसारावस्थाके मिटने पर व्यवहार भी मिटा कहा जाता है। यहाँ
यह स्थापना की है। इसलिये सिद्ध व्यवहारातीत कहे जाते हैं।
इति व्यवहार विचार समाप्त।

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३५२ ] [ परमार्थवचनिका
अब, आगम अध्यात्मका स्वरूप कहते हैंः
आगमवस्तुका जो स्वभाव उसे आगम कहते हैं। आत्माका जो अधिकार उसे
अध्यात्म कहते हैं। आगम तथा अध्यात्मस्वरूप भाव आत्मद्रव्यके जानने। वे दोनों भाव
संसार-अवस्थामें त्रिकालवर्ती मानने।
उसका विवरणआगमरूप कर्मपद्धति, अध्यात्मरूप शुद्धचेतनापद्धति।
उसका विवरणकर्मपद्धति पौद्गलिकद्रव्यरूप अथवा भावरूप; द्रव्यरूप पुद्गल-
परिणाम, भावरूप पुद्गलाकार आत्माकी अशुद्धपरिणतिरूप परिणाम; उन दोनों परिणामोंको
आगमरूप स्थापित किया। अब शुद्धचेतनापद्धति शुद्धात्मपरिणाम; वह भी द्रव्यरूप अथवा
भावरूप। द्रव्यरूप तो जीवत्वपरिणाम, भावरूप ज्ञान
दर्शनसुखवीर्य आदि
अनन्तगुणपरिणाम; वे दोनों परिणाम अध्यात्मरूप जानना।
आगम अध्यात्म दोनों पद्धतियोंमें अनन्तता माननी।
अनन्तता कही उसका विचार
अनन्तताका स्वरूप दृष्टान्त द्वारा बतलाते हैं। जैसे वटवृक्षका बीज हाथमें लेकर उसका
विचार दीर्घदृष्टिसे करें तो उस वटके बीजमें एक वटका वृक्ष है; वह वृक्ष जैसा कुछ भाविकालमें
होनहार है वैसे विस्तारसहित विद्यमान उसमें वास्तवरूप मौजूद है, अनेक शाखा
प्रशाखा, पत्र,
पुष्प, फल संयुक्त है। फलफलमें अनेक बीज होते हैं।
इसप्रकारकी अवस्था एक वटके बीज सम्बन्धी विचारें। और भी सूक्ष्मदृष्टि दें तो
जो-जो बीज उस वटवृक्षमें हैं वे-वे अंतर्गर्भित वटवृक्ष संयुक्त होते हैं। इसी भाँति एक वटमें
अनेक-अनेक बीज, एक-एक बीजमें एक-एक वट, उसका विचार करें तो भाविनयप्रमाणसे
न वटवृक्षोंकी मर्यादा पाई जाती है, न बीजोंकी मर्यादा पाई जाती है।
इसीप्रकार अनन्तताका स्वरूप जानना।
उस अनन्तताके स्वरूपको केवलज्ञानी पुरुष भी अनन्त ही देखते-जानते-कहते हैं;
अनन्तका दूसरा अन्त है ही नहीं जो ज्ञानमें भाषित हो। इसलिये अनन्तता अनन्तरूप ही
प्रतिभासित होती है।
इसप्रकार आगम अध्यात्मकी अनन्तता जानना।
उसमें विशेष इतना कि अध्यात्मका स्वरूप अनन्त, आगमका स्वरूप अनन्तानन्तरूप,
यथापना-प्रमाणसे अध्यात्म एक द्रव्याश्रित, आगम अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्याश्रित।

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परमार्थवचनिका ][ ३५३
इन दोनोंका स्वरूप सर्वथा प्रकार तो केवलज्ञानगोचर है, अंशमात्र मति-श्रुतज्ञान ग्राह्य
है, इसलिये सर्वथाप्रकार आगमी अध्यात्मी तो केवली, अंशमात्र मतिश्रुतज्ञानी, देशमात्र ज्ञाता
अवधिज्ञानी मनःपर्ययज्ञानी;
यह तीनों यथावस्थित ज्ञानप्रमाण न्यूनाधिकरूप जानना।
मिथ्यादृष्टि जीव न आगमी, न अध्यात्मी है। क्यों? इसलिये कि कथनमात्र तो
ग्रन्थपाठसे बलसे आगमअध्यात्मका स्वरूप उपदेशमात्र कहता है, परन्तु आगम अध्यात्मका
स्वरूप सम्यक्प्रकारसे नहीं जानता; इसलिये मूढ जीव न आगामी, न अध्यात्मी निर्वेदकत्वात्।
अब, मूढ तथा ज्ञानी जीवका विशेषपना और भी सुनोः
ज्ञाता तो मोक्षमार्ग साधना जानता है, मूढ मोक्षमार्गको साधना नहीं जानता।
क्यों?
इसलिये, सुनो! मूढ़ जीव आगमपद्धतिको व्यवहार कहता है, अध्यात्म-पद्धतिको
निश्चय कहता है; इसलिये आगम-अंगको एकान्तपने साधकर मोक्षमार्ग दिखलाता है, अध्यात्म-
अंगको व्यवहारसे नहीं जानता
यह मूढदृष्टिका स्वभाव है; उसे इसीप्रकार सूझता है।
क्यों? इसलिये कि आगम-अंग बाह्यक्रियारूप प्रत्यक्ष-प्रमाण है, उसका स्वरूप साधना
सुगम। वह बाह्यक्रिया करता हुआ मूढ जीव अपनेको मोक्षका अधिकारी मानता है; अन्तर्गर्भित
जो अध्यात्मरूप क्रिया वह अन्तर्दृष्टिग्राह्य है, वह क्रिया मूढ जीव नहीं जानता। अन्तर्दृष्टिके
अभावसे अन्तर्क्रिया दृष्टिगोचर नहीं होती, इसलिये मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्ग साधनेमें असमर्थ है।
अब, सम्यग्दृष्टिका विचार सुनोः
सम्यग्दृष्टि कौन है सो सुनोसंशय, विमोह, विभ्रमये तीन भाव जिसमें नहीं सो
सम्यग्दृष्टि।
संशय, विमोह, विभ्रम क्या है? उसका स्वरूप दृष्टान्त द्वारा दिखलाते हैं सो सुनो
जैसे चार पुरुष किसी एक स्थानमें खड़े थे। उन चारोंके पास आकर किसी और पुरुषने
एक सीपका टुकड़ा दिखाया और प्रत्येकसे प्रश्न किया कि यह क्या है?
सीप है या चाँदी
है? प्रथम ही एक संशयवान पुरुष बोलाकुछ सुध (समझ) नहीं पड़ती कि यह सीप है
या चाँदी है? मेरी दृष्टिमें इसका निरधार नहीं होता। दूसरा विमोहवान पुरुष बोलामुझे
यह समझ नहीं है कि तुम सीप किससे कहते हो, चाँदी किससे कहते हो? मेरी दृष्टिमें
कुछ नहीं आता, इसलिये हम नहीं जानते कि तू क्या कहता है। अथवा चुप हो रहता
है बोलता नहीं गहलरूपसे। तीसरा विभ्रमवाला पुरुष भी बोला कि यह तो प्रत्यक्षप्रमाण
चाँदी है, इसे सीप कौन कहेगा? मेरी दृष्टिमें तो चाँदी सूझती है, इसलिये सर्वथा प्रकार

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३५४ ] [ परमार्थवचनिका
यह चाँदी है;इसप्रकार तीनों पुरुषोंने तो उस सीपका स्वरूप जाना नहीं, इसलिए तीनों
मिथ्यावादी हैं। अब, चौथा पुरुष बोला कि यह तो प्रत्यक्षप्रमाण सीपका टुकड़ा है, इसमें
क्या धोखा? सीप सीप सीप, निरधार सीप, इसको जो कोई और वस्तु कहे वह प्रत्यक्षप्रमाण
भ्रामक अथवा अंध। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिको स्व-पर स्वरूपमें न संशय, न विमोह, न विभ्रम,
यथार्थ दृष्टि है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अंतर्दृष्टिसे मोक्षपद्धतिको साधना जानता है। बाह्यभाव
बाह्यनिमित्तरूप मानता है, वह निमित्त नानारूप है, एकरूप नहीं है। अंतर्दृष्टिके प्रमाणमें
मोक्षमार्ग साधे और सम्यग्ज्ञान स्वरूपाचरणकी कणिका जागने पर मोक्षमार्ग सच्चा।
मोक्षमार्गको साधना यह व्यवहार, शुद्धद्रव्य अक्रिया सो निश्चय। इसप्रकार निश्चय-
व्यवहारका स्वरूप सम्यग्दृष्टि जानता है, मूढ जीव न जानता है, न मानता है। मूढ जीव
बंधपद्धतिको साधकर मोक्ष कहता है, वह बात ज्ञाता नहीं मानते।
क्यों? इसलिये कि बन्धके साधनेसे बन्ध सधता है, मोक्ष नहीं सधता। ज्ञाता जब
कदाचित् बन्धपद्धतिका विचार करता है तब जानता है कि इस पद्धतिसे मेरा द्रव्य अनादिका
बन्धरूप चला आया है; अब इस पद्धतिसे मोह तोड़कर प्रवर्त; इस पद्धतिका राग पूर्वकी
भाँति हे नर! किसलिये करते हो? क्षणमात्र भी बन्धपद्धतिमें मग्न नहीं होता, वह ज्ञाता
अपने स्वरूपको विचारता है, अनुभव करता है, ध्याता है, गाता है, श्रवण करता है,
नवधाभक्ति, तप, क्रिया, अपने शुद्धस्वरूपके सन्मुख होकर करता है। यह ज्ञाताका आचार,
इसीका नाम मिश्रव्यवहार।
अब, हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप ज्ञाताकी चाल उसका विचार लिखते हैंः
हेयत्यागरूप तो अपने द्रव्यकी अशुद्धता; ज्ञेयविचाररूप अन्य षट्द्रव्योंका स्वरूप;
उपादेयआचरणरूप अपने द्रव्यकी शुद्धता; उसका विवरणगुणस्थानप्रमाण हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप
शक्ति ज्ञाताकी होती है। ज्यों ज्यों ज्ञाताकी हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप शक्ति वर्धमान हो त्यों-त्यों
गुणस्थानकी बढ़वारी कही है।
गुणस्थानप्रमाण ज्ञान, गुणस्थानप्रमाण क्रिया। उसमें विशेष इतना कि एक गुणस्थानवर्ती
अनेक जीव हों तो अनेकरूपका ज्ञान कहा जाता है, अनेकरूपकी क्रिया कही जाती है।
भिन्न-भिन्न सत्ताके प्रमाणसे एकता नहीं मिलती। एक-एक जीवद्रव्यमें अन्य-अन्यरूप
औदयिकभाव होते हैं, उन औदयिक भावानुसार ज्ञानकी अन्य-अन्यता जानना।
परन्तु विशेष इतना कि किसी जातिका ज्ञान ऐसा नहीं होता कि परसत्तावलंबनशीली
होकर मोक्षमार्ग साक्षात् कहे। क्यों? अवस्था-प्रमाण परसत्तावलंबक है; (परन्तु) परसत्तावलंबी
ज्ञानको परमार्थता नहीं कहता।

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परमार्थवचनिका ][ ३५५
जो ज्ञान हो वह स्वसत्तावलंबनशील होता है, उसका नाम ज्ञान। उस ज्ञानको
सहकारभूत निमित्तरूप नानाप्रकारके औदयिकभाव होते हैं, उन औदयिकभावोंका ज्ञाता तमाशगीर
है, न कर्ता है, न भोक्ता है, न अवलम्बी है; इसलिये कोई ऐसा कहे कि इसप्रकारके
औदयिकभाव सर्वथा हों तो फलाना गुणस्थान कहा जाय तो झूठ है। उन्होंने द्रव्यका स्वरूप
सर्वथा प्रकार नहीं जाना है।
क्यों?इसलिये कि और गुणस्थानोंकी कौन बात चलाये? केवलीके भी
औदयिकभावोंकी नानाप्रकारता जानना। केवलीके भी औदयिकभाव एक-से नहीं होते। किसी
केवलीको दण्ड-कपाटरूप क्रियाका उदय होता है, किसी केवलीको नहीं होता। जब केवलीमें
भी उदयकी नानाप्रकारता है तब और गुणस्थानकी कौन बात चलाये?
इसलिये औदयिकभावोंके भरोसे ज्ञान नहीं है, ज्ञान स्वशक्तिप्रमाण है। स्व-पर-
प्रकाशकज्ञानकी शक्ति, ज्ञायकप्रमाण ज्ञान, स्वरूपाचरणरूप चारित्र यथानुभवप्रमाणयह ज्ञाताका
सामर्थ्यपना है।
इन बातोंका विवरण कहाँ तक लिखें, कहाँ तक कहें? वचनातीत, इन्द्रियातीत,
ज्ञानातीत है, इसलिए यह विचार बहुत क्या लिखें? जो ज्ञाता होगा वह थोड़ा ही लिखा
बहुत करके समझेगा, जो अज्ञानी होगा वह यह चिट्ठी सुनेगा सही, परन्तु समझेगा नहीं।
यह वचनिका ज्यों की त्यों सुमतिप्रमाण केवलीवचनानुसारी है। जो इसे सुनेगा, समझेगा,
श्रद्धेगा; उसे कल्याणकारी है
भाग्यप्रमाण।
इति परमार्थवचनिका।

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३५६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
परिशिष्ट ४
उपादान-निमित्तकी चिट्ठी
[ कविवर पं० बनारसीदासजी लिखित ]
प्रथम ही कोई पूछता है कि निमित्त क्या, उपादान क्या?
उसका विवरण
निमित्त तो संयोगरूप कारण, उपादान वस्तुकी सहजशक्ति।
उसका विवरणएक द्रव्यार्थिक निमित्त-उपादान, एक पर्यायार्थिक निमित्त-उपादान।
उसका विवरणद्रव्यार्थिक निमित्त-उपादान गुणभेदकल्पना, पर्यायार्थिक निमित्त-उपादान
परयोगकल्पना। उसकी चौभंगी।
प्रथम ही गुणभेदकल्पनाकी चौभंगीका विस्तार कहता हूँ। सो किसप्रकार? इसप्रकार,
सुनोजीवद्रव्य, उसके अनंतगुण, सब गुण असहाय स्वाधीन सदाकाल। उनमें दो गुण प्रधान-
मुख्य स्थापित किये; उस पर चौभंगीका विचार
एक तो जीवका ज्ञानगुण, दूसरा जीवका चारित्रगुण। ये दोनों गुण शुद्धरूप भाव
जानने, अशुद्धरूप भी जानने, यथायोग्य स्थानक मानने। उसका विवरणइन दोनोंकी गति
न्यारी-न्यारी, शक्ति न्यारी-न्यारी, जाति न्यारी-न्यारी, सत्ता न्यारी-न्यारी।
उसका विवरणज्ञानगुणकी तो ज्ञान-अज्ञानरूप गति, स्व-परप्रकाशक शक्ति, ज्ञानरूप तथा
मिथ्यात्वरूप जाति, द्रव्यप्रमाण सत्ता; परन्तु एक विशेष इतना किज्ञानरूप जातिका नाश नहीं
है, मिथ्यात्वरूप जातिका नाश सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होने पर;यह तो ज्ञानगुणका निर्णय हुआ।
अब चारित्रगुणका विवरण कहते हैंसंक्लेशविशुद्धरूप गति, थिरता-अस्थिरता शक्ति,
मंद-तीव्ररूप जाति, द्रव्यप्रमाण सत्ता; परन्तु एक विशेष मन्दताकी स्थिति चौदहवें गुणस्थान
पर्यन्त है, तीव्रताकी स्थिति पाँचवें गुणस्थान पर्यन्त है।
यह तो दोनोंका गुणभेद न्यारा-न्यारा किया। अब इनकी व्यवस्थान ज्ञान चारित्रके
आधीन है, न चारित्र ज्ञानके आधीन है; दोनों असहायरूप हैं। यह तो मर्यादाबंध है।
अब, चौभंगीका विचार-ज्ञानगुण निमित्त, चारित्रगुण उपादानरूप, उसका विवरणः
एक तो अशुद्ध निमित्त, अशुद्ध उपादान; दूसरा अशुद्ध निमित्त, शुद्ध उपादान; तीसरा
शुद्ध निमित्त, अशुद्ध उपादान; चौथा शुद्ध निमित्त, शुद्ध उपादान।

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उपादान-निमित्तका चिठ्ठी ][ ३५७
उसका विवरणसूक्ष्मदृष्टि देकर एक समयकी अवस्था द्रव्यकी लेना, समुच्चयरूप
मिथ्यात्व-सम्यक्त्वकी बात नहीं चलाना। किसी समय जीवकी अवस्था इसप्रकार होती है कि
जानरूप ज्ञान, विशुद्ध चारित्र; किसी समय अजानरूप ज्ञान, विशुद्ध चारित्र; किसी समय
जानरूप ज्ञान, संक्लेशरूप चारित्र; किसी समय अजानरूप ज्ञान, संक्लेश चारित्र। जिस समय
अजानरूप गति ज्ञानकी, संक्लेशरूप गति चारित्रकी; उस समय निमित्त-उपादान दोनों अशुद्ध।
किसी समय अजानरूप ज्ञान, विशुद्धरूप चारित्र; उस समय अशुद्ध निमित्त, शुद्ध उपादान।
किसी समय जानरूप ज्ञान, संक्लेशरूप चारित्र; उस समय शुद्ध निमित्त, अशुद्ध उपादान।
किसी समय जानरूप ज्ञान, विशुद्धरूप चारित्र; उस समय शुद्ध निमित्त, शुद्ध उपादान।
इस प्रकार जीवकी अन्य-अन्य दशा सदाकाल अनादिरूप है।
उसका विवरणजानरूप ज्ञानकी शुद्धता कही जाय, विशुद्धरूप चारित्रकी शुद्धता कही
जाय; अज्ञानरूप ज्ञानकी अशुद्धता कही जाय, संक्लेशरूप चारित्रकी अशुद्धता कही जाय।
अब उसका विचार सुनोः
मिथ्यात्व अवस्थामें किसी समय जीवका ज्ञानगुण जानरूप होता है, तब क्या जानता
है? ऐसा जानता है कि लक्ष्मी, पुत्र, कलत्र इत्यादि मुझसे न्यारे हैं, प्रत्यक्षप्रमाण; मैं मरूँगा,
ये यहाँ ही रहेंगे
ऐसा जानता है। अथवा ये जायेंगे, मैं रहूँगा, किसी काल इनसे मेरा
एक दिन वियोग है, ऐसा जानपना मिथ्यादृष्टिको होता है सो तो शुद्धता कही जाय, परन्तु
सम्यक्-शुद्धता नहीं, गर्भित शुद्धता; जब वस्तुका स्वरूप जाने तब सम्यक्शुद्धता; वह ग्रन्थिभेदके
बिना नहीं होती; परन्तु गर्भित शुद्धता सो भी अकामनिर्जरा है।
उसी जीवको किसी समय ज्ञानगुण अजानरूप है गहलरूप, उससे केवल बंध है।
इसीप्रकार मिथ्यात्व-अवस्थामें किसी समय चारित्रगुण विशुद्धरूप है, इसलिये चारित्रावरण कर्म
मन्द है, उस मन्दतासे निर्जरा है। किसी समय चारित्रगुण संक्लेशरूप है, इसलिये केवल
तीव्रबंध है। इसप्रकार मिथ्या-अवस्थामें जिस समय जानरूप ज्ञान है और विशुद्धतारूप चारित्र
है, उस समय निर्जरा है। जिस समय अजानरूप ज्ञान है, संक्लेशरूप चारित्र है, उस समय
बंध है। उसमें विशेष इतना कि अल्प निर्जरा बहुत बंध इसलिये मिथ्यात्व-अवस्थामें केवल
बंध कहा; अल्पकी अपेक्षा। जैसा किसी पुरुषको नफा थोड़ा टोटा बहुत, उस पुरुषको
टोटावाला ही कहा जाय। परन्तु बंध-निर्जराके बिना जीव किसी अवस्थामें नहीं है। दृष्टांत
यह कि
विशुद्धतासे निर्जरा न होती तो एकेन्द्रिय जीव निगोद अवस्थासे व्यवहारराशिमें किसके
बल आता, वहाँ तो ज्ञानगुण अजानरूप गहलरूप हैअबुद्धरूप है, इसलिये ज्ञानगुणका तो

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३५८ ] [ उपादान-निमित्तका चिठ्ठी
बल नहीं है। विशुद्धरूप चारित्रके बलसे जीव व्यवहारराशिमें चढ़ता है, जीवद्रव्यमें कषायकी
मन्दता होती है, उससे निर्जरा होती है। उसी मन्दताके प्रमाणमें शुद्धता जानना।
अब और भी विस्तार सुनोः
जानपना ज्ञानका और विशुद्धता चारित्रकी दोनों मोक्षमार्गानुसारी हैं, इसलिये दोनोंमें
विशुद्धता मानना; परन्तु विशेष इतना कि गर्भितशुद्धता प्रगट शुद्धता नहीं है। इन दोनों
गुणोंकी गर्भितशुद्धता जब तक ग्रन्थिभेद न हो तब तक मोक्षमार्ग नहीं साधती; परन्तु ऊर्ध्वताको
करे, अवश्य ही क रे। इन दोनों गुणोंकी गर्भितशुद्धता जब ग्रन्थिभेद होता है तब इन दोनोंकी
शिखा फू टती है, तब दोनों गुण धाराप्रवाहरूपसे मोक्षमार्गको चलते हैं; ज्ञानगुणकी शुद्धतासे
ज्ञानगुण निर्मल होता है, चारित्रगुणकी शुद्धतासे चारित्रगुण निर्मल होता है। वह केवलज्ञानका
अंकुर, वह यथाख्यातचारित्रका अंकुर।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि तुमने कहा कि जानपना और चारित्रकी विशुद्धता
दोनोंसे निर्जरा है; वहाँ ज्ञानके जानपनेसे निर्जरा, यह हमने माना; चारित्रकी विशुद्धतासे निर्जरा
कैसे? यह हम नहीं समझे।
उसका समाधानःसुन भैया! विशुद्धता स्थिरतारूप परिणामसे कहते हैं; वह स्थिरता
यथाख्यातका अंश है; इसलिये विशुद्धतामें शुद्धता आयी।
वह प्रश्नकार बोलातुमने विशुद्धतासे निर्जरा कही। हम कहते हैं कि विशुद्धतासे
निर्जरा नहीं है, शुभबन्ध है।
उसका समाधान :सुन भैया! यह तो तू सच्चा; विशुद्धतासे शुभबन्ध, संक्लेशतासे
अशुभबन्ध, यह तो हमने भी माना, परन्तु और भेद इसमें हैं सो सुनअशुभपद्धति अधोगतिका
परिणमन है, शुभपद्धति ऊर्ध्वगतिका परिणमन है; इसलिये अधोरूप संसार और ऊर्ध्वरूप
मोक्षस्थान पकड़ (स्वीकार कर), शुद्धता उसमें आयी मान, मान, इसमें धोखा नहीं है; विशुद्धता
सदाकाल मोक्षका मार्ग है, परन्तु ग्रन्थिभेद बिना शुद्धताका जोर नहीं चलता है न?
जैसेकोई पुरुष नदीमें डुबकी मारे, फि र जब उछले तब दैवयोगसे उस पुरुषके ऊपर
नौका आ जाये तो यद्यपि वह तैराक पुरुष है तथापि किस भाँति निकले? उसका जोर
नहीं चलता; बहुत कलबल करे परन्तु कुछ वश नहीं चलता; उसीप्रकार विशुद्धताकी भी
ऊर्ध्वता जाननी। इसलिये गर्भितशुद्धता कही है। वह गर्भितशुद्धता ग्रन्थिभेद होने पर
मोक्षमार्गको चली; अपने स्वभावसे वर्द्धमानरूप हुई तब पूर्ण यथाख्यात प्रगट कहा गया।
विशुद्धता की जो ऊर्ध्वता वही उसकी शुद्धता।

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उपादान-निमित्तका चिठ्ठी ][ ३५९
और सुन, जहाँ मोक्षमार्ग साधा वहाँ कहा कि‘‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः’’
और ऐसा भी कहा कि‘‘ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः’’।
उसका विचारचतुर्थ गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थानपर्यंत मोक्षमार्ग कहा; उसका
विवरणसम्यक्रूप ज्ञानधारा, विशुद्धरूप चारित्रधारादोनों धाराएँ मोक्षमार्गको चलीं, वहाँ
ज्ञानसे ज्ञानकी शुद्धता, क्रियासे क्रियाकी शुद्धता है। यदि विशुद्धतामें शुद्धता है तो
यथाख्यातरूप होती है। यदि विशुद्धतामें वह नहीं होती तो केवलीमें ज्ञानगुण शुद्ध होता,
क्रिया अशुद्ध रहती; परन्तु ऐसा तो नहीं है। उसमें शुद्धता थी, उससे विशुद्धता हुई है।
यहाँ कोई कहे कि ज्ञानकी शुद्धतासे क्रिया शुद्ध हुई सो ऐसा नहीं है। कोई गुण
किसी गुणके सहारे नहीं है, सब असहायरूप हैं।
और भी सुनयदि क्रियापद्धति सर्वथा अशुद्ध होती तो अशुद्धताकी इतनी शक्ति नहीं
है कि मोक्षमार्गको चले, इसलिये विशुद्धतामें यथाख्यातका अंश है, इसलिये वह अंश क्रम-
क्रमसे पूर्ण हुआ।
हे भाई प्रश्नवाले, तूने विशुद्धतामें शुद्धता मानी या नहीं? यदि तूने वह मानी, तो
कुछ और कहनेका काम नहीं है; यदि तूने नहीं मानी तो तेरा द्रव्य इसीप्रकार परिणत हुआ
है हम क्या करें? यदि मानी तो शाबाश!
यह द्रव्यार्थिककी चौभंगी पूर्ण हुई।
निमित्त-उपादान शुद्धाशुद्धरूप विचारः
अब पर्यायार्थिककी चौभंगी सुनोएक तो वक्ता अज्ञानी, श्रोता भी अज्ञानी; वहाँ तो
निमित्त भी अशुद्ध, उपादान भी अशुद्ध। दूसरा वक्ता अज्ञानी, श्रोता ज्ञानी; वहाँ निमित्त
अशुद्ध और उपादान शुद्ध। तीसरा वक्ता ज्ञानी, श्रोता अज्ञानी; वहाँ निमित्त शुद्ध और उपादान
अशुद्ध। चौथा वक्ता ज्ञानी, श्रोता भी ज्ञानी; वहाँ तो निमित्त भी शुद्ध, उपादान भी शुद्ध।
यह पर्यायार्थिककी चौभंगी सिद्ध की।
इति निमित्त-उपादान शुद्धाशुद्धरूप विचार वचनिका।