Page 213 of 350
PDF/HTML Page 241 of 378
single page version
श्रद्धानमें शुभबन्धका कारण जाननेसे वैसा अनुराग नहीं है। बाह्यमें कदाचित् ज्ञानीको अनुराग
बहुत होता है, कभी अज्ञानीको होता है
तप करते हैं, क्षुधादि परीषह सहते हैं, किसीसे क्रोधादि नहीं करते हैं, उपदेश देकर औरोंको
धर्ममें लगाते हैं
अतिव्याप्तिपना है। इनके द्वारा सच्ची परीक्षा नहीं होती।
ही रहते हैं। तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग वह ही मुनियोंका सच्चा लक्षण
है उसे नहीं पहिचानते। क्योंकि यह पहिचान हो जाये तो मिथ्यादृष्टि रहते नहीं। इसप्रकार
यदि मुनियोंका सच्चा स्वरूप ही नहीं जानेंगे तो सच्ची भक्ति कैसे होगी? पुण्यबन्धके कारणभूत
शुभक्रियारूप गुणोंको पहिचानकर उनकी सेवासे अपना भला होना जानकर उनमें अनुरागी
होकर भक्ति करते हैं।
Page 214 of 350
PDF/HTML Page 242 of 378
single page version
महिमा कैसे जानें? इसलिये इसप्रकार सच्ची परीक्षा नहीं होती। यहाँ तो अनेकान्तरूप सच्चे
जीवादितत्त्वोंका निरूपण है और सच्चा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग दिखलाया है। उसीसे जैनशास्त्रोंकी
उत्कृष्टता है, उसे नहीं पहिचानते। क्योंकि यह पहिचान हो जाये तो मिथ्यादृष्टि रहती नहीं।
है। सच्ची प्रतीतिके बिना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती; इसलिये मिथ्यादृष्टि ही है।
लगाता है, औरोंको उपदेश देता है; परन्तु उन तत्त्वोंका भाव भासित नहीं होता; और यहाँ
उस वस्तुके भावका ही नाम तत्त्व कहा है। सो भाव भासित हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धान कैसे
होगा? भाव भासना क्या है? सो कहते हैंः
निर्णय करके नहीं मानता है; इसलिये उसके चतुरपना नहीं होता। उसी प्रकार कोई जीव
सम्यक्त्वी होनेके अर्थ शास्त्र द्वारा जीवादिक तत्त्वोंका स्वरूप सीख लेता है; परन्तु उनके
स्वरूपको नहीं पहिचानता है। स्वरूपको पहिचाने बिना अन्य तत्त्वोंको अन्य तत्त्वरूप मान
लेता है, अथवा सत्य भी मानता है तो निर्णय करके नहीं मानता; इसलिये उसके सम्यक्त्व
नहीं होता। तथा जैसे कोई शास्त्रादि पढ़ा हो या न पढ़ा हो; परन्तु स्वरादिके स्वरूपको
पहिचानता है तो वह चतुर ही है। उसी प्रकार शास्त्र पढ़ा हो या न पढ़ा हो; यदि
जीवादिकके स्वरूपको पहिचानता है तो वह सम्यग्दृष्टि ही है। जैसे हिरन स्वर
Page 215 of 350
PDF/HTML Page 243 of 378
single page version
नाम नहीं जानते, परन्तु उनके स्वरूपको पहिचानते हैं कि ‘यह मैं हूँ; ये पर है, ये भाव
बुरे हैं, ये भले हैं’;
ग्यारह अंगके पाठी जीवादितत्त्वोंके विशेष भेद जानते हैं; परन्तु भाव भासित नहीं होता,
इसलिये मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं।
भेदविज्ञानको कारणभूत व वीतरागदशा होनेको कारणभूत जैसा निरूपण किया है वैसा नहीं
जानता।
भी परमें न मिलाना ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता है। जैसे अन्य मिथ्यादृष्टि निर्धार बिना
पर्यायबुद्धिसे जानपनेमें व वर्णादिमें अहंबुद्धि धारण करते हैं; उसी प्रकार यह भी आत्माश्रित
ज्ञानादिमें तथा शरीराश्रित उपदेश
प्रकार इसे सम्यक्त्वी नहीं कहते।
Page 216 of 350
PDF/HTML Page 244 of 378
single page version
क्रिया है उसका जीव निमित्त है
जाननेका तो यह ही प्रयोजन था, वह हुआ नहीं।
उपादेयपना मानना वही मिथ्यादृष्टि है। वही समयसारके बन्धाधिकारमें कहा है
जीवोंको जिलानेका अथवा सुखी करनेका अध्यवसाय हो वह तो पुण्यबन्धका कारण है और
मारनेका अथवा दुःखी करनेका अध्यवसाय हो वह पापबन्धका कारण है।
अहिंसादिकको भी बन्धका कारण जानकर हेय ही मानना।
आयु अवशेष हुए बिना वह जीता नहीं है, यह अपनी प्रशस्त रागपरिणतिसे आप ही पुण्य
बाँधता है। इस प्रकार यह दोनों हेय हैं; जहाँ वीतराग होकर दृष्टाज्ञातारूप प्रवर्ते वहाँ निर्बन्ध
है सो उपादेय हैं।
होता है।
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात्पुमानमरणजीवितदुःखसौख्यम्।।१६८।।
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्।
कर्म्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति।।१६९।।
Page 217 of 350
PDF/HTML Page 245 of 378
single page version
नहीं करता।
इस प्रकार आस्रवोंका स्वरूप अन्यथा जानता है।
तथा राग-द्वेष-मोहरूप जो आस्रवभाव हैं, उनका तो नाश करनेकी चिन्ता नहीं और
मिटता। द्रव्यलिंगी मुनि अन्य देवादिककी सेवा नहीं करता, हिंसा या विषयोंमें नहीं प्रवर्तता,
क्रोधादि नहीं करता, मन-वचन-कायको रोकता है; तथापि उसके मिथ्यात्वादि चारों आस्रव पाये
जाते हैं। तथा कपटसे भी वे कार्य नहीं करता है, कपटसे करे तो ग्रैवेयकपर्यन्त कैसे पहुँचे?
इसलिये जो अन्तरंग अभिप्रायमें मिथ्यात्वादिरूप रागादिभाव हैं वे ही आस्रव हैं।
दुःख-सामग्रीमें द्वेष और सुख-सामग्रीमें राग पाया जाता है, सो इसके भी राग-द्वेष करनेका
श्रद्धान हुआ। जैसा इस पर्याय सम्बन्धी सुख-दुःख सामग्रीमें राग-द्वेष करना है वैसा ही आगामी
पर्याय सम्बन्धी सुख-दुःख सामग्रीमें राग-द्वेष करना है।
होता है, वे सर्व पापरूप ही हैं और वही आत्मगुणके घातक हैं। इसलिये अशुद्ध भावोंसे
कर्मबन्ध होता है, उसमें भला-बुरा जानना वही मिथ्या श्रद्धान है।
Page 218 of 350
PDF/HTML Page 246 of 378
single page version
दो कार्य बनते हैं, परन्तु एक प्रशस्त रागसे ही पुण्यास्रव भी मानना और संवर-निर्जरा भी
मानना सो भ्रम है। मिश्रभावमें भी यह सरागता है, यह वीतरागता है
पहिचान नहीं है, इसलिये सरागभावमें संवरके भ्रमसे प्रशस्तरागरूप कार्योंको उपादेयरूप श्रद्धा
करता है।
नाना विकल्प होते हैं, वचन-कायकी चेष्टा स्वयंने रोक रखी है; वहाँ शुभप्रवृत्ति है और प्रवृत्तिमें
गुप्तिपना बनता नहीं है; इसलिये वीतरागभाव होने पर जहाँ मन-वचन-कायकी चेष्टा न हो
वही सच्ची गुप्ति है।
कारण कौन ठहरेगा? तथा एषणा समितिमें दोष टालता है वहाँ रक्षाका प्रयोजन है नहीं;
इसलिये रक्षाके ही अर्थ समिति नहीं है।
जीवोंको दुःखी करके अपना गमनादि प्रयोजन नहीं साधते, इसलिये स्वयमेव ही दया पलती
है। इसप्रकार सच्ची समिति है।
Page 219 of 350
PDF/HTML Page 247 of 378
single page version
क्रोधादिकका त्यागी नहीं है। तो कैसे त्यागी होता है? पदार्थ अनिष्ट-इष्ट भासित होनेसे
क्रोधादिक होते हैं; जब तत्त्वज्ञानके अभ्याससे कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयमेव
ही क्रोधादिक उत्पन्न नहीं होते; तब सच्चा धर्म होता है।
उससे राग था और पश्चात् उसके अवगुण देखकर उदासीन हुआ; उसी प्रकार शरीरादिकसे
राग था, पश्चात् अनित्यादि अवगुण अवलोककर उदासीन हुआ; परन्तु ऐसी उदासीनता तो
द्वेषरूप है। अपना और शरीरादिकका जहाँ
उदासीनताके अर्थ यथार्थ अनित्यत्वादिकका चिंतवन करना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है।
दुःखी हुआ, रति आदिका कारण मिलने पर सुखी हुआ; तो वे दुःख-सुखरूप परिणाम हैं,
वही आर्तध्यान-रौद्रध्यान हैं। ऐसे भावोंसे संवर कैसे हो? इसलिये दुःखका कारण मिलने
पर दुःखी न हो और सुखका कारण मिलने पर सुखी न हो, ज्ञेयरूपसे उनका जाननेवाला
ही रहे; वही सच्चा परीषहजय है।
हुए महाव्रत-अणुव्रतको भी आस्रवरूप कहा है। वे उपादेय कैसे हों? तथा आस्रव तो बन्धका
साधक है और चारित्र मोक्षका साधक है; इसलिये महाव्रतादिरूप आस्रवभावोंको चारित्रपना
संभव नहीं होता; सकल कषायरहित जो उदासीनभाव उसीका नाम चारित्र है।
परन्तु जैसे कोई पुरुष कन्दमूलादि बहुत दोषवाली हरितकायका त्याग करता है और कितनी
ही हरितकायोंका भक्षण करता है; परन्तु उसे धर्म नहीं मानता; उसी प्रकार मुनि हिंसादि
तीव्रकषायरूप भावोंका त्याग करते हैं और कितने ही मन्दकषायरूप महाव्रतादिका पालन करते
हैं; परन्तु उसे मोक्षमार्ग नहीं मानते।
Page 220 of 350
PDF/HTML Page 248 of 378
single page version
कारण है, इसलिये उपचारसे तपको भी निर्जराका कारण कहा है। यदि बाह्य दुःख सहना
ही निर्जराका कारण हो तो तिर्यंचादि भी भूख-तृषादि सहते हैं।
करनेसे थोड़ी निर्जरा हो
निर्जरा कही है।
Page 221 of 350
PDF/HTML Page 249 of 378
single page version
शरीर या परिणामोंकी शिथिलताके कारण शुद्धोपयोगको शिथिल होता जानें तो वहाँ आहारादिक
ग्रहण करते हैं। यदि उपवासादिकसे ही सिद्धि हो तो अजितनाथ आदि तेईस तीर्थंकर दीक्षा
लेकर दो उपवास ही क्यों धारण करते? उनकी तो शक्ति भी बहुत थी। परन्तु जैसे परिणाम
हुए वैसे बाह्यसाधन द्वारा एक वीतराग शुद्धोपयोगका अभ्यास किया।
पायेगा, क्योंकि परिणामशून्य शरीरकी क्रिया फलदाता नहीं है।
हो?
बन्ध होता है। परन्तु यदि तीव्रकषाय होने पर भी कष्ट सहनेसे पुण्यबन्ध होता हो तो सर्व
तिर्यंचादिक देव ही हों, सो बनता नहीं है। उसी प्रकार इच्छापूर्वक उपवासादि करनेसे वहाँ
भूख-प्यासादि कष्ट सहते हैं, सो यह बाह्य निमित्त है; परन्तु वहाँ जैसा परिणाम हो वैसा फल
पाता है। जैसे अन्नको प्राण कहा उसी प्रकार। तथा इसप्रकार बाह्यसाधन होनेसे अंतरंग तप
की वृद्धि होती है, इसलिये उपचारसे इनको तप कहा है; परन्तु यदि बाह्य तप तो करे और
अंतरंग तप न हो तो उपचारसे भी उसे तपसंज्ञा नहीं है। कहा भी हैः
Page 222 of 350
PDF/HTML Page 250 of 378
single page version
सिद्धि नहीं है और यदि धर्मबुद्धिसे आहारादिकका अनुराग छोड़ता है तो जितना राग छूटा
उतना ही छूटा; परन्तु इसीको तप जानकर इससे निर्जरा मानकर संतुष्ट मत हो।
हैं। ऐसा बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अन्तरंग परिणामोंकी शुद्धता हो उसका नाम अन्तरंग
तप जानना।
अंश रहता है; इसलिये जितनी शुद्धता हुई उससे तो निर्जरा है और जितना शुभभाव है
उससे बन्ध है। ऐसा मिश्रभाव युगपत् होता है; वहाँ बन्ध और निर्जरा दोनों होते हैं।
पलटकर शुभप्रकृतिरूप होते हैं
तप करे उस कालमें भी उसके निर्जरा थोड़ी होती है। और छठवें गुणस्थानवाला आहार-
विहारादि क्रिया करे उस कालमें भी उसके निर्जरा बहुत होती है, तथा बन्ध उससे भी थोड़ा
होता है।
Page 223 of 350
PDF/HTML Page 251 of 378
single page version
विशुद्धता हो वह सच्चा तप निर्जराका कारण जानना।
है। कोई इन्द्रियादिक प्राणोंको न जाने और इन्हींको प्राण जानकर संग्रह करे तो मरणको
ही प्राप्त होगा। उसी प्रकार अनशनादिको तथा प्रायश्चित्तको तप कहा है, क्योंकि अनशनादि
साधनसे प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्तन करके वीतरागभावरूप सत्य तपका पोषण किया जाता है;
इसलिये उपचारसे अनशनादिको तथा प्रायश्चित्तादिको तप कहा है। कोई वीतरागभावरूप तपको
न जाने और इन्हींको तप जानकर संग्रह करे तो संसारमें ही भ्रमण करेगा।
नहीं जानता, इसलिये उसके निर्जराका सच्चा श्रद्धान नहीं है।
यदि इन्हींके अर्थ मोक्षकी इच्छा की तो इसके अन्य जीवोंके श्रद्धानसे क्या विशेषता हुई?
सामग्रीजनित सुख होता है, उसकी जाति इसे भासित होती है; परन्तु मोक्षमें विषयादिक सामग्री
है नहीं, सो वहाँके सुखकी जाति इसे भासित तो नहीं होती; परन्तु महान पुरुष स्वर्गसे भी
मोक्षको उत्तम कहते हैं, इसलिये यह भी उत्तम ही मानता है। जैसे
है। उसी प्रकार यह मोक्षको उत्तम मानता है।
Page 224 of 350
PDF/HTML Page 252 of 378
single page version
एक जाति नहीं है; परन्तु लोकमें इन्द्रादिसुखकी महिमा है, उससे बहुत महिमा बतलानेके लिये
उपमालंकार करते हैं।
धर्मका फल हुआ मानता है। ऐसा तो मानता है कि जिसके साधन थोड़ा होता है वह इन्द्रादि
पद प्राप्त करता है, जिसके सम्पूर्ण साधन हो वह मोक्ष प्राप्त करता है; परन्तु वहाँ धर्मकी जाति
एक जानता है। सो जो कारणकी एक जाति जाने, उसे कार्यकी भी एक जातिका श्रद्धान
अवश्य हो; क्योंकि कारणविशेष होने पर ही कार्यविशेष होता है। इसलिये हमने यह निश्चय
किया कि उसके अभिप्रायमें इन्द्रादिसुख और सिद्धसुखकी एक जातिका श्रद्धान है।
दुःखी-सुखी नहीं है; परन्तु आत्मा अशुद्ध अवस्थामें दुःखी था, अब उसका अभाव होनेसे
निराकुल लक्षण अनन्तसुखकी प्राप्ति हुई।
प्रशस्तराग है और मोक्षसुखका कारण वीतरागभाव है; इसलिये कारणमें भी विशेष है; परन्तु
ऐसा भाव इसे भासित नहीं होता।
इस प्रकार इसके सच्चा तत्त्वश्रद्धान नहीं है। इसलिये समयसारमें
तत्त्वार्थश्रद्धान कार्यकारी नहीं है।
Page 225 of 350
PDF/HTML Page 253 of 378
single page version
बीज बोए बिना खेतके सब साधन करने पर भी अन्न नहीं होता; उसी प्रकार सच्चा तत्त्वश्रद्धान
हुए बिना सम्यक्त्व नहीं होता। पंचास्तिकाय व्याख्यामें जहाँ अन्तमें व्यवहाराभासवालेका वर्णन
किया वहाँ ऐसा ही कथन किया है।
क्रियाओंमें तो उपयोगको रमाता है; परन्तु उसके प्रयोजन पर दृष्टि नहीं है। इस उपदेशमें
मुझे कार्यकारी क्या है, सो अभिप्राय नहीं है; स्वयं शास्त्राभ्यास करके औरोंको सम्बोधन देनेका
अभिप्राय रखता है, और बहुतसे जीव उपदेश मानें वहाँ सन्तुष्ट होता है; परन्तु ज्ञानाभ्यास
तो अपने लिये किया जाता है और अवसर पाकर परका भी भला होता हो तो परका
भी भला करे। तथा कोई उपदेश न सुने तो मत सुनो
निरूपण तो है नहीं। इनका तो प्रयोजन इतना ही है कि अपनी बुद्धि बहुत हो तो थोड़ा
थोड़ी हो तो आत्महितके साधक सुगम शास्त्रोंका ही अभ्यास करे। ऐसा नहीं करना कि
व्याकरणादिका ही अभ्यास करते-करते आयु पूर्ण हो जाये और तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न बने।
Page 226 of 350
PDF/HTML Page 254 of 378
single page version
दूसरे देशमें जाये, तो वहाँ उसका अर्थ कैसे भासित होगा? इसलिये प्राकृत, संस्कृतादि शुद्ध
शब्दरूप ग्रन्थ रचे हैं।
भाषामें भी उनकी थोड़ी-बहुत आम्नाय आने पर ही उपदेश हो सकता है; परन्तु बहुत आम्नायसे
भली-भाँति निर्णय हो सकता है।
समाधानः
करनेके लिये काव्यका अवगाहन करते हैं,
अर्थ जो तत्त्वादिकका निर्णय करते हैं वही धर्मात्मा
विचारते, तब तो तोते जैसा ही पढ़ना हुआ और यदि इनका प्रयोजन विचारते हैं तो वहाँ
पापको बुरा जानना, पुण्यको भला जानना, गुणस्थानादिकका स्वरूप जान लेना, तथा जितना
इनका अभ्यास करेंगे उतना हमारा भला है,
नहीं।
हुआ इनका अभ्यास करे तो सम्यग्ज्ञान हो।
Page 227 of 350
PDF/HTML Page 255 of 378
single page version
आपरूप, परको पररूप और आस्रवादिका आस्रवादिरूप श्रद्धान नहीं करते। मुखसे तो यथावत्
निरूपण ऐसा भी करें जिसके उपेदशसे अन्य जीव सम्यग्दृष्टि हो जायें। परन्तु जैसे कोई
लड़का स्त्रीका स्वांग बनाकर ऐसा गाना गाये जिसे सुनकर अन्य पुरुष-स्त्री कामरूप हो जायें;
परन्तु वह तो जैसा सीखा वैसा कहता है, उसे कुछ भाव भासित नहीं होता, इसलिये स्वयं
कामासक्त नहीं होता। उसी प्रकार यह जैसा लिखा है वैसे उपदेश देता है; परन्तु स्वयं
अनुभव नहीं करता। यदि स्वयंको श्रद्धान हुआ होता तो अन्य तत्त्वका अंश अन्य तत्त्वमें
न मिलाता; परन्तु इसका ठिकाना नहीं है, इसलिये सम्यग्ज्ञान नहीं होता।
उसके तो ऐसा भी श्रद्धान है कि यह ग्रन्थ सच्चे हैं, परन्तु तत्त्वश्रद्धान सच्चा नहीं हुआ।
समयसारमें एक ही जीवके धर्मका श्रद्धान, ग्यारह अंगका ज्ञान और महाव्रतादिका पालन करना
लिखा है। प्रवचनसारमें ऐसा लिखा है कि आगमज्ञान ऐसा हुआ जिसके द्वारा सर्व पदार्थोंको
हस्तामलकवत् जानता है। यह भी जानता है कि इनका जाननेवाला मैं हूँ; परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप
हूँ इस प्रकार स्वयंको परद्रव्यसे भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य अनुभव नहीं करता। इसलिये
आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नहीं है।
रहती है, परन्तु उन परिणामोंकी परम्पराका विचार करने पर अभिप्रायमें जो वासना है उसका
Page 228 of 350
PDF/HTML Page 256 of 378
single page version
इसका विशेष व्याख्यान आगे करेंगे। वहाँ स्वरूप भलीभाँति भासित होगा।
वहाँ कितने ही जीव तो कुलक्रमसे अथवा देखा-देखी या क्रोध, मान, माया, लोभादिकसे
कोई तो भोले हैं व कोई कषायी हैं; सो अज्ञानभाव व कषाय होने पर सम्यक्चारित्र नहीं
होता।
सो तत्त्वज्ञानके बिना महाव्रतादिका आचरण भी मिथ्याचारित्र ही नाम पाता है और तत्त्वज्ञान
होने पर कुछ भी व्रतादिक नहीं हैं तथापि असंयतसम्यग्दृष्टि नाम पाता है। इसलिये पहले
तत्त्वज्ञानका उपाय करना, पश्चात् कषाय घटानेके लिये बाह्यसाधन करना। यही योगीन्द्रदेवकृत
श्रावकाचारमें
परिणाम दुःखी होते हैं। जैसे
ही प्रतिज्ञा क्यों न ले? दुःखी होनेमें आर्तध्यान हो, उसका फल अच्छा कैसे लगेगा? अथवा
उस प्रतिज्ञाका दुःख नहीं सहा जाता तब उसके बदले विषय-पोषणके लिये अन्य उपाय करता
है। जैसे
Page 229 of 350
PDF/HTML Page 257 of 378
single page version
वहाँ तो उलटा रागभाव तीव्र होता है।
महापाप है; इससे तो प्रतिज्ञा न लेना भला है।
गुण हो उसे जाने; फि र अपने परिणामोंको ठीक करे; वर्तमान परिणामोंके ही भरोसे प्रतिज्ञा
न कर बैठे; भविष्यमें निर्वाह होता जाने तो प्रतिज्ञा करे; तथा शरीरकी शक्ति व द्रव्य, क्षेत्र,
काल, भावादिकका विचार करे।
आम्नाय है।
समाधानः
तथा जिनके अन्तरंग विरक्तता नहीं और बाह्यप्रतिज्ञा धारण करते हैं, वे प्रतिज्ञाके
धारणे-पारणेके भोजनमें अति लोभी होकर गरिष्ठादि भोजन करते हैं, शीघ्रता बहुत करते हैं।
जैसे
Page 230 of 350
PDF/HTML Page 258 of 378
single page version
विषयवृत्ति होने लगी; सो प्रतिज्ञाके कालमें विषयवासना मिटी नहीं, आगे-पीछे उसके बदले
अधिक राग किया; सो फल तो रागभाव मिटनेसे होगा। इसलिये जितनी विरक्ति हुई हो
उतनी प्रतिज्ञा करना। महामुनि भी थोड़ी प्रतिज्ञा करके फि र आहारादिमें उछटि (कमी) करते
हैं और बड़ी प्रतिज्ञा करते हैं। तो अपनी शक्ति देखकर करते हैं। जिसप्रकार परिणाम
चढ़ते रहें वैसा करते हैं। प्रमाद भी न हो और आकुलता भी उत्पन्न न हो
संयमादि धारण करें। तथा कभी तो किसी धर्मकार्यमें बहुत धन खर्च करते हैं और कभी
कोई धर्मकार्य आ पहुँचा हो तब भी वहाँ थोड़ा भी धन खर्च नहीं करते। सो धर्मबुद्धि
हो तो यथाशक्ति यथायोग्य सभी धर्मकार्योमें धन खर्चते रहें।
कार्योंका तो त्याग करके धर्मात्मापना प्रगट करते हैं; और पश्चात् खोटे व्यापारादि कार्य करते
हैं, लोकनिंद्य पापक्रियाओंमें प्रवर्तते हैं।
ऐसे कार्य करता है। जैसे कोई पुरुष एक वस्त्र तो अति उत्तम पहिने और एक वस्त्र अति
हीन पहिने तो हँसी ही होती है; उसी प्रकार यह भी हँसीको प्राप्त होता है।
तो निचले पदमें ही प्रवर्तन करे; परन्तु उच्चपद धारण करके नीची क्रिया न करे।
Page 231 of 350
PDF/HTML Page 259 of 378
single page version
ही नहीं है, उसका करना तो कषायभावोंसे ही होता है। जैसे
धर्म है; तथापि पहले सप्तव्यसनका त्याग हो, तभी स्वस्त्रीका त्याग करना योग्य है।
कितने ही तपकी मुख्यतासे आर्त्तध्यानादिक करके भी उपवासादि करते हैं, तथा अपनेको
तपस्वी मानकर निःशंक क्रोधित करते हैं; कितने ही दानकी मुख्यतासे बहुत पाप करके भी
धन उपार्जन करके दान देते हैं; कितने ही आरम्भ-त्यागकी मुख्यतासे याचना आदि करते
हैं;
है, सर्व विचार कर जैसे नफा बहुत हो वैसा करे; उसी प्रकार ज्ञानीका प्रयोजन वीतरागभाव
है, सर्व विचार कर जैसे वीतरागभाव बहुत हो वैसा करे, क्योंकि मूलधर्म वीतरागभाव है।
अर्थ उनका साधन करते हैं, किन्हीं स्वर्गादिकके भोगोंकी भी इच्छा नहीं रखते; परन्तु तत्त्वज्ञान
पहले नहीं हुआ, इसलिये आप तो जानते हैं कि मैं मोक्षका साधन कर रहा हूँ; परन्तु जो
मोक्षका साधन है उसे जानते भी नहीं, केवल स्वर्गादिकका ही साधन करते हैं। कोई मिसरीको
अमृत जानकर भक्षण करे तो उससे अमृतका गुण तो नहीं होता; अपनी प्रतीतिके अनुसार
फल नहीं होता; फल तो जैसे साधन करे वैसा ही लगता है।
Page 232 of 350
PDF/HTML Page 260 of 378
single page version
पाता है। जैसे
अन्य साधन करे तो मोक्षप्राप्ति कैसे हो? देवपद आदि ही होंगे।
अयथार्थ साधन करके व्रतादिमें प्रवर्तते हैं। यद्यपि वे व्रतादिकका यथार्थ आचरण करते हैं
तथापि यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान बिना सर्व आचरण मिथ्याचारित्र ही है।
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्
ज्ञानं ज्ञानगुणं बिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि
होते हुए क्लेश करते हैं तो करो; परन्तु यह साक्षात् मोक्षस्वरूप सर्वरोगरहित पद, जो अपने
आप अनुभवमें आये ऐसा ज्ञानस्वभाव, वह तो ज्ञानगुणके बिना अन्य किसी भी प्रकारसे
प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं है।
तथा इहीं ग्रन्थोंमें व अन्य परमात्मप्रकाशादि शास्त्रोंमें इस प्रयोजनके लिये जहाँ-तहाँ
यहाँ कोई जाने कि बाह्यमें तो अणुव्रत-महाव्रतादि साधते हैं? परन्तु अन्तरंग परिणाम