Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २२३
वहाँ वह पूछता हैऐसा है तो ज्ञानीसे अज्ञानीके भक्तिकी अधिकता होती होगी?
उत्तरः यथार्थताकी अपेक्षा तो ज्ञानीके सच्ची भक्ति है, अज्ञानीके नहीं है और
रागभावकी अपेक्षा अज्ञानीके श्रद्धानमें भी उसे मुक्तिका कारण जाननेसे अति अनुराग है, ज्ञानीके
श्रद्धानमें शुभबन्धका कारण जाननेसे वैसा अनुराग नहीं है। बाह्यमें कदाचित् ज्ञानीको अनुराग
बहुत होता है, कभी अज्ञानीको होता है
ऐसा जानना।
इस प्रकार देवभक्तिका स्वरूप बतलाया।
गुरुभक्तिका अन्यथारूप
अब, गुरुभक्ति उसके कैसी होती है सो कहते हैंः
कितने ही जीव आज्ञानुसारी हैं। वे तोयह जैनके साधु हैं, हमारे गुरु हैं, इसलिये
इनकी भक्ति करनीऐसा विचारकर उनकी भक्ति करते हैं और कितने ही जीव परीक्षा
भी करते हैं। वहाँ यह मुनि दया पालते हैं, शील पालते हैं, धनादि नहीं रखते, उपवासादि
तप करते हैं, क्षुधादि परीषह सहते हैं, किसीसे क्रोधादि नहीं करते हैं, उपदेश देकर औरोंको
धर्ममें लगाते हैं
इत्यादि गुणोंका विचार कर उनमें भक्तिभाव करते हैं। परन्तु ऐसे गुण
तो परमहंसादिक अन्यमतियोंमें तथा जैनी मिथ्यादृष्टियोंमें भी पाये जाते हैं, इसलिये इनमें
अतिव्याप्तिपना है। इनके द्वारा सच्ची परीक्षा नहीं होती।
तथा जिन गुणोंका विचार करते हैं उनमें कितने ही जीवाश्रित हैं, कितने ही
पुद्गलाश्रित हैं; उनके विशेष न जानते हुए असमानजातीय मुनिपर्यायमें एकत्वबुद्धिसे मिथ्यादृष्टि
ही रहते हैं। तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकतारूप मोक्षमार्ग वह ही मुनियोंका सच्चा लक्षण
है उसे नहीं पहिचानते। क्योंकि यह पहिचान हो जाये तो मिथ्यादृष्टि रहते नहीं। इसप्रकार
यदि मुनियोंका सच्चा स्वरूप ही नहीं जानेंगे तो सच्ची भक्ति कैसे होगी? पुण्यबन्धके कारणभूत
शुभक्रियारूप गुणोंको पहिचानकर उनकी सेवासे अपना भला होना जानकर उनमें अनुरागी
होकर भक्ति करते हैं।
इसप्रकार गुरुभक्तिका स्वरूप कहा।
शास्त्रभक्तिका अन्यथारूप
अब, शास्त्रभक्तिका स्वरूप कहते हैंः
कितने ही जीव तो यह केवली भगवानकी वाणी है, इसलिये केवलीके पूज्यपनेके
कारण यह भी पूज्य हैऐसा जानकर भक्ति करते हैं। तथा कितने ही इसप्रकार परीक्षा
करते हैं कि इन शास्त्रोंमें विरागता, दया, क्षमा, शील, संतोषादिकका निरूपण है; इसलिये

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२२४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
यह उत्कृष्ट हैंऐसा जानकर भक्ति करते हैं। सो ऐसा कथन तो अन्य शास्त्र वेदान्तादिकमें
भी पाया जाता है।
तथा इन शास्त्रोंमें त्रिलोकादिकका गम्भीर निरूपण है, इसलिये उत्कृष्टता जानकर भक्ति
करते हैं। परन्तु यहाँ अनुमानादिकका तो प्रवेश हैं नहीं, इसलिये सत्य-असत्यका निर्णय करके
महिमा कैसे जानें? इसलिये इसप्रकार सच्ची परीक्षा नहीं होती। यहाँ तो अनेकान्तरूप सच्चे
जीवादितत्त्वोंका निरूपण है और सच्चा रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग दिखलाया है। उसीसे जैनशास्त्रोंकी
उत्कृष्टता है, उसे नहीं पहिचानते। क्योंकि यह पहिचान हो जाये तो मिथ्यादृष्टि रहती नहीं।
इस प्रकार शास्त्रभक्तिका स्वरूप कहा।
इसप्रकार इसको देव-गुरु-शास्त्रकी प्रतीति हुई, इसलिये व्यवहारसम्यक्त्व हुआ मानता
है। परन्तु उनका सच्चा स्वरूप भासित नहीं हुआ है; इसलिये प्रतीति भी सच्ची नहीं हुई
है। सच्ची प्रतीतिके बिना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती; इसलिये मिथ्यादृष्टि ही है।
सप्ततत्त्वका अन्यथारूप
तथा शास्त्रमें ‘‘तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं’’ (तत्त्वार्थसूत्र १२) ऐसा वचन कहा है,
इसलिये शास्त्रोंमें जैसे जीवादि तत्त्व लिखे हैं वैसे आप सीख लेता है और वहाँ उपयोग
लगाता है, औरोंको उपदेश देता है; परन्तु उन तत्त्वोंका भाव भासित नहीं होता; और यहाँ
उस वस्तुके भावका ही नाम तत्त्व कहा है। सो भाव भासित हुए बिना तत्त्वार्थश्रद्धान कैसे
होगा? भाव भासना क्या है? सो कहते हैंः
जैसे कोई पुरुष चतुर होनेके अर्थ शास्त्र द्वारा, स्वर, ग्राम, मूर्छना, रागोंका स्वरूप
और तालतानके भेद तो सीखता है; परन्तु स्वरादिका स्वरूप नहीं पहिचानता। स्वरूपकी
पहिचान हुए बिना अन्य स्वरादिको अन्य स्वरादि मानता है, अथवा सत्य भी मानता है तो
निर्णय करके नहीं मानता है; इसलिये उसके चतुरपना नहीं होता। उसी प्रकार कोई जीव
सम्यक्त्वी होनेके अर्थ शास्त्र द्वारा जीवादिक तत्त्वोंका स्वरूप सीख लेता है; परन्तु उनके
स्वरूपको नहीं पहिचानता है। स्वरूपको पहिचाने बिना अन्य तत्त्वोंको अन्य तत्त्वरूप मान
लेता है, अथवा सत्य भी मानता है तो निर्णय करके नहीं मानता; इसलिये उसके सम्यक्त्व
नहीं होता। तथा जैसे कोई शास्त्रादि पढ़ा हो या न पढ़ा हो; परन्तु स्वरादिके स्वरूपको
पहिचानता है तो वह चतुर ही है। उसी प्रकार शास्त्र पढ़ा हो या न पढ़ा हो; यदि
जीवादिकके स्वरूपको पहिचानता है तो वह सम्यग्दृष्टि ही है। जैसे हिरन स्वर
रागादिकका

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सातवाँ अधिकार ][ २२५
नाम नहीं जानता, परन्तु उनके स्वरूपको पहिचानता है; उसी प्रकार तुच्छबुद्धि जीवादिकका
नाम नहीं जानते, परन्तु उनके स्वरूपको पहिचानते हैं कि ‘यह मैं हूँ; ये पर है, ये भाव
बुरे हैं, ये भले हैं’;
इस प्रकार स्वरूपको पहिचाने उसका नाम भाव भासना है। शिवभूति
मुनि जीवादिकका नाम नहीं जानते थे, और ‘तुषमाषभिन्न’ ऐसा रटने लगे। सो यह
सिद्धान्तका शब्द था नहीं; परन्तु स्व-परके भावरूप ध्यान किया, इसलिये केवली हुए। और
ग्यारह अंगके पाठी जीवादितत्त्वोंके विशेष भेद जानते हैं; परन्तु भाव भासित नहीं होता,
इसलिये मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं।
अब, इसके तत्त्वश्रद्धान किस प्रकार होता है सो कहते हैंः
जीव-अजीवतत्त्वका अन्यथारूप
जिनशास्त्रोंसे जीवके त्रस-स्थावरादिरूप तथा गुणस्थान-मार्गणादिरूप भेदको जानता है,
अजीवके पुद्गलादि भेदोंको तथा उनके वर्णादि विशेषोंको जानता है, परन्तु अध्यात्मशास्त्रोंमें
भेदविज्ञानको कारणभूत व वीतरागदशा होनेको कारणभूत जैसा निरूपण किया है वैसा नहीं
जानता।
तथा किसी प्रसंगवश उसी प्रकार जानना हो जाये तब शास्त्रानुसार जान तो लेता
है; परन्तु अपनेको आपरूप जानकर परका अंश भी अपनेमें न मिलाना और अपना अंश
भी परमें न मिलाना ऐसा सच्चा श्रद्धान नहीं करता है। जैसे अन्य मिथ्यादृष्टि निर्धार बिना
पर्यायबुद्धिसे जानपनेमें व वर्णादिमें अहंबुद्धि धारण करते हैं; उसी प्रकार यह भी आत्माश्रित
ज्ञानादिमें तथा शरीराश्रित उपदेश
उपवासादि क्रियाओंमें अपनत्व मानता है।
तथा कभी शास्त्रानुसार सच्ची बात बनाता है; परन्तु अंतरंग निर्धाररूप श्रद्धान नहीं
है। इसलिये जिस प्रकार मतवाला माताको माता भी कहे तो वह सयाना नहीं है; उसी
प्रकार इसे सम्यक्त्वी नहीं कहते।
तथा जैसे किसी औरकी ही बातें कर रहा हो, उस प्रकारसे आत्माका कथन करता
है; परन्तु यह आत्मा ‘मैं हूँ’ऐसा भाव भासित नहीं होता।
तथा जैसे किसी औरको औरसे भिन्न बतलाता हो, उस प्रकार आत्मा और शरीरकी
भिन्नता प्ररूपित करता है; परन्तु मैं इन शरीरादिकसे भिन्न हूँऐसा भाव भासित नहीं होता।
तथा पर्यायमें जीव-पुद्गलके परस्पर निमित्तसे अनेक क्रियाएँ होती हैं, उन्हें दोनों द्रव्योंके
१. तुसमासं घोसंतो भावविसुद्धो महाणुभावो य।
णामेण य सिवभूई केवलणाणी फु डं जाओ।। (भावपाहुड़५३)

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२२६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
मिलापसे उत्पन्न हुई जानता है; यह जीवकी क्रिया है उसका पुद्गल निमित्त है, यह पुद्गलकी
क्रिया है उसका जीव निमित्त है
ऐसा भिन्न-भिन्न भाव भासित नहीं होता। इत्यादि भाव
भासित हुए बिना उसे जीव-अजीवका सच्चा श्रद्धानी नहीं कहते; क्योंकि जीव-अजीवको
जाननेका तो यह ही प्रयोजन था, वह हुआ नहीं।
आस्रवतत्त्वका अन्यथारूप
तथा आस्रवतत्त्वमें जो हिंसादिरूप पापास्रव हैं उन्हें हेय जानता है; अहिंसादिरूप
पुण्यास्रव हैं उन्हें उपादेय मानता है। परन्तु यह तो दोनों ही कर्मबन्धके कारण हैं इनमें
उपादेयपना मानना वही मिथ्यादृष्टि है। वही समयसारके बन्धाधिकारमें कहा है
:
सर्व जीवोंके जीवन-मरण, सुख-दुःख अपने कर्मके निमित्तसे होते हैं। जहाँ अन्य जीव
अन्य जीवके इन कार्योंका कर्ता हो, वही मिथ्याध्यवसाय बन्धका कारण है। वहाँ अन्य
जीवोंको जिलानेका अथवा सुखी करनेका अध्यवसाय हो वह तो पुण्यबन्धका कारण है और
मारनेका अथवा दुःखी करनेका अध्यवसाय हो वह पापबन्धका कारण है।
इस प्रकार अहिंसावत् सत्यादिक तो पुण्यबन्धके कारण हैं और हिंसावत् असत्यादिक
पापबन्धके कारण हैं। ये सर्व मिथ्याध्यवसाय हैं, वे त्याज्य हैं। इसलिये हिंसादिवत्
अहिंसादिकको भी बन्धका कारण जानकर हेय ही मानना।
हिंसामें मारनेकी बुद्धि हो, परन्तु उसकी आयु पूर्ण हुए बिना मरता नहीं है, यह
अपनी द्वेषपरिणतिसे आप ही पाप बाँधता है। अहिंसामें रक्षा करनेकी बुद्धि हो, परन्तु उसकी
आयु अवशेष हुए बिना वह जीता नहीं है, यह अपनी प्रशस्त रागपरिणतिसे आप ही पुण्य
बाँधता है। इस प्रकार यह दोनों हेय हैं; जहाँ वीतराग होकर दृष्टाज्ञातारूप प्रवर्ते वहाँ निर्बन्ध
है सो उपादेय हैं।
सो ऐसी दशा न हो तब तक प्रशस्तरागरूप प्रवर्तन करो; परन्तु श्रद्धान तो ऐसा
रखो कि यह भी बन्धका कारण है, हेय है; श्रद्धानमें इसे मोक्षमार्ग जाने तो मिथ्यादृष्टि ही
होता है।
तथा मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, योगये आस्रवके भेद हैं; उन्हें बाह्यरूप तो मानता
१. समयसार गाथा २५४ से २५६ तथा समयसारके निम्नलिखित कलश
सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम्।
अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात्पुमानमरणजीवितदुःखसौख्यम्।।१६८।।
अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम्।
कर्म्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति।।१६९।।

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सातवाँ अधिकार ][ २२७
है, परन्तु अन्तरंग इन भावोंकी जातिको नहीं पहिचानता।
वहाँ अन्य देवादिके सेवनरूप गृहीतमिथ्यात्वको मिथ्यात्व जानता है, परन्तु अनादि
अगृहीतमिथ्यात्व है उसे नहीं पहिचानता।
तथा बाह्य त्रस-स्थावरकी हिंसा तथा इन्द्रिय-मनके विषयोंमें प्रवृत्ति उसको अविरति
जानता है; हिंसामें प्रमाद-परिणति मूल है और विषयसेवनमें अभिलाषा मूल है, उसका अवलोकन
नहीं करता।
तथा बाह्य क्रोधादि करना उसको कषाय जानता है, अभिप्रायमें राग-द्वेष बस रहे
हैं, उनको नहीं पहिचानता।
तथा बाह्य चेष्टा हो उसे योग जानता है, शक्तिभूत योगोंको नहीं जानता।
इस प्रकार आस्रवोंका स्वरूप अन्यथा जानता है।
तथा राग-द्वेष-मोहरूप जो आस्रवभाव हैं, उनका तो नाश करनेकी चिन्ता नहीं और
बाह्यक्रिया अथवा बाह्यनिमित्त मिटानेका उपाय रखता है; सो उनके मिटानेसे आस्रव नहीं
मिटता। द्रव्यलिंगी मुनि अन्य देवादिककी सेवा नहीं करता, हिंसा या विषयोंमें नहीं प्रवर्तता,
क्रोधादि नहीं करता, मन-वचन-कायको रोकता है; तथापि उसके मिथ्यात्वादि चारों आस्रव पाये
जाते हैं। तथा कपटसे भी वे कार्य नहीं करता है, कपटसे करे तो ग्रैवेयकपर्यन्त कैसे पहुँचे?
इसलिये जो अन्तरंग अभिप्रायमें मिथ्यात्वादिरूप रागादिभाव हैं वे ही आस्रव हैं।
उन्हें नहीं पहिचानता, इसलिये इसके आस्रवतत्त्वका भी सत्य श्रद्धान नहीं है।
बन्धतत्त्वका अन्यथारूप
तथा बन्धतत्त्वमें जो अशुभभावोंसे नरकादिरूप पापका बन्ध हो उसे तो बुरा जानता
है और शुभभावोंसे दोवादिरूप पुण्यका बन्ध हो उसे भला जानता है। परन्तु सभी जीवोंके
दुःख-सामग्रीमें द्वेष और सुख-सामग्रीमें राग पाया जाता है, सो इसके भी राग-द्वेष करनेका
श्रद्धान हुआ। जैसा इस पर्याय सम्बन्धी सुख-दुःख सामग्रीमें राग-द्वेष करना है वैसा ही आगामी
पर्याय सम्बन्धी सुख-दुःख सामग्रीमें राग-द्वेष करना है।
तथा शुभ-अशुभ भावोंसे पुण्य-पापका विशेष तो अघातिकर्मोंमें होता है, परन्तु
अघातिकर्म आत्मगुणके घातक नहीं हैं। तथा शुभ-अशुभभावोंमें घातिकर्मोंका तो निरन्तर बन्ध
होता है, वे सर्व पापरूप ही हैं और वही आत्मगुणके घातक हैं। इसलिये अशुद्ध भावोंसे
कर्मबन्ध होता है, उसमें भला-बुरा जानना वही मिथ्या श्रद्धान है।
सो ऐसे श्रद्धानसे बन्धका भी उसे सत्य श्रद्धान नहीं है।

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२२८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
संवरतत्त्वका अन्यथास्वरूप
तथा संवरतत्त्वमें अहिंसादिरूप शुभास्रवभावोंको जानता है। परन्तु एक ही कारणसे
पुण्यबन्ध भी माने और संवर भी माने वह नहीं हो सकता।
प्रश्नः मुनियोंके एक कालमें एक भाव होता है, वहाँ उनके बन्ध भी होता है
और संवर-निर्जरा भी होते हैं, सो किस प्रकार है?
समाधानःवह मिश्ररूप है। कुछ वीतराग हुआ है, कुछ सराग रहा है। जो अंश
वीतराग हुए उनसे संवर है और जो अंश सराग रहे उनसे बन्ध है। सो एक भावसे तो
दो कार्य बनते हैं, परन्तु एक प्रशस्त रागसे ही पुण्यास्रव भी मानना और संवर-निर्जरा भी
मानना सो भ्रम है। मिश्रभावमें भी यह सरागता है, यह वीतरागता है
ऐसी पहिचान
सम्यग्दृष्टिके होती है, इसलिये अवशेष सरागताको हेयरूप श्रद्धा करता है। मिथ्यादृष्टिके ऐसी
पहिचान नहीं है, इसलिये सरागभावमें संवरके भ्रमसे प्रशस्तरागरूप कार्योंको उपादेयरूप श्रद्धा
करता है।
तथा सिद्धान्तमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय, चारित्रइनके द्वारा संवर
होता है ऐसा कहा है, सो इनकी भी यथार्थ श्रद्धा नहीं करता।
किस प्रकार? सो कहते हैं :
गुप्तिःबाह्य मन-वचन-कायकी चेष्टा मिटाये, पाप-चिंतवन न करे, मौन धारण करे,
गमनादि न करे; उसे वह गुप्ति मानता है। सो यहाँ तो मनमें भक्ति आदिरूप प्रशस्त रागसे
नाना विकल्प होते हैं, वचन-कायकी चेष्टा स्वयंने रोक रखी है; वहाँ शुभप्रवृत्ति है और प्रवृत्तिमें
गुप्तिपना बनता नहीं है; इसलिये वीतरागभाव होने पर जहाँ मन-वचन-कायकी चेष्टा न हो
वही सच्ची गुप्ति है।
समितिःतथा परजीवोंकी रक्षाके अर्थ यत्नाचार प्रवृत्ति उसको समिति मानता है।
सो हिंसाके परिणामोंसे तो पाप होता है और रक्षाके परिणामोंसे संवर कहोगे तो पुण्यबन्धका
कारण कौन ठहरेगा? तथा एषणा समितिमें दोष टालता है वहाँ रक्षाका प्रयोजन है नहीं;
इसलिये रक्षाके ही अर्थ समिति नहीं है।
तो समिति कैसी होती है? मुनियोंके किंचित् राग होने पर गमनादि क्रिया होती है,
वहाँ उन क्रियाओंमें अति आसक्तताके अभावसे प्रमादरूप प्रवृत्ति नहीं होती। तथा अन्य
जीवोंको दुःखी करके अपना गमनादि प्रयोजन नहीं साधते, इसलिये स्वयमेव ही दया पलती
है। इसप्रकार सच्ची समिति है।
१. स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरिषहजयचारित्रैः। (तत्त्वार्थसूत्र ९-२)

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सातवाँ अधिकार ][ २२९
धर्मःतथा बन्धादिकके भयसे अथवा स्वर्ग-मोक्षकी इच्छासे क्रोधादि नहीं करते, परन्तु
वहाँ क्रोधादि करनेका अभिप्राय तो मिटा नहीं है। जैसेकोई राजादिकके भयसे अथवा
महन्तपनेके लोभसे परस्त्रीका सेवन नहीं करता, तो उसे त्यागी नहीं कहते। वैसे ही यह
क्रोधादिकका त्यागी नहीं है। तो कैसे त्यागी होता है? पदार्थ अनिष्ट-इष्ट भासित होनेसे
क्रोधादिक होते हैं; जब तत्त्वज्ञानके अभ्याससे कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयमेव
ही क्रोधादिक उत्पन्न नहीं होते; तब सच्चा धर्म होता है।
अनुप्रेक्षाःतथा अनित्यादि चिंतवनसे शरीरादिकको बुरा जान, हितकारी न जानकर
उनसे उदास होना; उसका नाम अनुप्रेक्षा कहता है। सो यह तो जैसे कोई मित्र था तब
उससे राग था और पश्चात् उसके अवगुण देखकर उदासीन हुआ; उसी प्रकार शरीरादिकसे
राग था, पश्चात् अनित्यादि अवगुण अवलोककर उदासीन हुआ; परन्तु ऐसी उदासीनता तो
द्वेषरूप है। अपना और शरीरादिकका जहाँ
जैसा स्वभाव है वैसा पहिचानकर, भ्रमको
मिटाकर, भला जानकर राग नहीं करना और बुरा जानकर द्वेष नहीं करना; ऐसी सच्ची
उदासीनताके अर्थ यथार्थ अनित्यत्वादिकका चिंतवन करना ही सच्ची अनुप्रेक्षा है।
परीषहजयःतथा क्षुधादिक होने पर उनके नाशका उपाय नहीं करना; उसे परीषह
सहना कहता है। सो उपाय तो नहीं किया और अन्तरंगमें क्षुधादि अनिष्ट सामग्री मिलनेपर
दुःखी हुआ, रति आदिका कारण मिलने पर सुखी हुआ; तो वे दुःख-सुखरूप परिणाम हैं,
वही आर्तध्यान-रौद्रध्यान हैं। ऐसे भावोंसे संवर कैसे हो? इसलिये दुःखका कारण मिलने
पर दुःखी न हो और सुखका कारण मिलने पर सुखी न हो, ज्ञेयरूपसे उनका जाननेवाला
ही रहे; वही सच्चा परीषहजय है।
चारित्रःतथा हिंसादि सावद्ययोगके त्यागको चारित्र मानता है, वहाँ महाव्रतादिरूप
शुभयोगको उपादेयपनेसे ग्राह्य मानता है। परन्तु तत्त्वार्थसूत्रमें आस्रव पदार्थका निरूपण करते
हुए महाव्रत-अणुव्रतको भी आस्रवरूप कहा है। वे उपादेय कैसे हों? तथा आस्रव तो बन्धका
साधक है और चारित्र मोक्षका साधक है; इसलिये महाव्रतादिरूप आस्रवभावोंको चारित्रपना
संभव नहीं होता; सकल कषायरहित जो उदासीनभाव उसीका नाम चारित्र है।
जो चारित्रमोहके देशघाती स्पर्द्धकोंके उदयसे महामन्द प्रशस्तराग होता है, वह चारित्रका
मल है। उसे छूटता न जानकर उसका त्याग नहीं करते, सावद्ययोगका ही त्याग करते हैं।
परन्तु जैसे कोई पुरुष कन्दमूलादि बहुत दोषवाली हरितकायका त्याग करता है और कितनी
ही हरितकायोंका भक्षण करता है; परन्तु उसे धर्म नहीं मानता; उसी प्रकार मुनि हिंसादि
तीव्रकषायरूप भावोंका त्याग करते हैं और कितने ही मन्दकषायरूप महाव्रतादिका पालन करते
हैं; परन्तु उसे मोक्षमार्ग नहीं मानते।

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२३० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
प्रश्नःयदि ऐसा है तो चारित्रके तेरह भेदोंमें महाव्रतादि कैसे कहे हैं?
समाधानःवह व्यवहारचारित्र कहा है और व्यवहार नाम उपचारका है। सो
महाव्रतादि होने पर ही वीतरागचारित्र होता हैऐसा सम्बन्ध जानकर महाव्रतादिमें चारित्रका
उपचार किया है; निश्चयसे निःकषायभाव है, वही सच्चा चारित्र है।
इस प्रकार संवरके कारणोंको अन्यथा जानते हुए संवरका सच्चा श्रद्धानी नहीं होता।
निर्जरातत्त्वका अन्यथारूप
तथा यह अनशनादि तपसे निर्जरा मानता है, परन्तु केवल बाह्य तप ही करनेसे तो
निर्जरा होती नहीं है। बाह्य तप तो शुद्धोपयोग बढ़ानेके अर्थ करते हैं। शुद्धोपयोग निर्जराका
कारण है, इसलिये उपचारसे तपको भी निर्जराका कारण कहा है। यदि बाह्य दुःख सहना
ही निर्जराका कारण हो तो तिर्यंचादि भी भूख-तृषादि सहते हैं।
तब वह कहता हैवे तो पराधीनतासे सहते हैं; स्वाधीनतासे धर्मबुद्धिपूर्वक
उपवासादिरूप तप करे उसके निर्जरा होती है।
समाधानःधर्मबुद्धिसे बाह्य उपवासादि तो किये; और वहाँ उपयोग अशुभ, शुभ,
शुद्धरूप जैसा परिणमित हो वैसा परिणमो। यदि बहुत उपवासादि करनेसे बहुत निर्जरा हो, थोड़े
करनेसे थोड़ी निर्जरा हो
ऐसा नियम ठहरे; तब तो उपवासादिक ही मुख्य निर्जराका कारण
ठहरेगा; सो तो बनता नहीं। परिणाम दुष्ट होने पर उपवासादिकसे निर्जरा कैसे सम्भव है?
यदि ऐसा कहें कि जैसा अशुभ, शुभ, शुद्धरूप उपयोग परिणमित हो उसके अनुसार
बन्ध-निर्जरा है; तो उपवासादि तप मुख्य निर्जराका कारण कैसे रहा? अशुभशुभपरिणाम
बन्धके कारण ठहरे, शुद्धपरिणाम निर्जराके कारण ठहरे।
प्रश्नःतत्त्वार्थसूत्रमें ‘‘तपसा निर्जरा च’’ (९-३) ऐसा कैसे कहा है?
समाधानःशास्त्रमें ‘‘इच्छानिरोधस्तपः’’ ऐसा कहा है; इच्छाको रोकना इसका नाम
तप है। सो शुभ-अशुभ इच्छा मिटने पर उपयोग शुद्ध हो वहाँ निर्जरा है। इसलिये तपसे
निर्जरा कही है।
यहाँ कहता हैआहारादिरूप अशुभकी तो इच्छा दूर होने पर ही तप होता है;
परन्तु उपवासादिक व प्रायश्चित्तादिक शुभकार्य हैं इनकी इच्छा तो रहती है?
१. धवला पुस्तक १३, खण्ड ५, भाग ४, सूत्र २६, पृष्ठ ५४

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सातवाँ अधिकार ][ २३१
समाधानःज्ञानीजनोंको उपवासादिककी इच्छा नहीं है, एक शुद्धोपयोगकी इच्छा है;
उपवासादि करनेसे शुद्धोपयोग बढ़ता है, इसलिये उपवासादि करते हैं। तथा यदि उपवासादिकसे
शरीर या परिणामोंकी शिथिलताके कारण शुद्धोपयोगको शिथिल होता जानें तो वहाँ आहारादिक
ग्रहण करते हैं। यदि उपवासादिकसे ही सिद्धि हो तो अजितनाथ आदि तेईस तीर्थंकर दीक्षा
लेकर दो उपवास ही क्यों धारण करते? उनकी तो शक्ति भी बहुत थी। परन्तु जैसे परिणाम
हुए वैसे बाह्यसाधन द्वारा एक वीतराग शुद्धोपयोगका अभ्यास किया।
प्रश्नःयदि ऐसा है तो अनशनादिकको तप संज्ञा कैसे हुई?
समाधानःउन्हें बाह्य तप कहा है। सो बाह्यका अर्थ यह है कि ‘बाहरसे औरोंको
दिखाई दे कि यह तपस्वी है’; परन्तु आप तो फल जैसे अंतरंग परिणाम होगें वैसा ही
पायेगा, क्योंकि परिणामशून्य शरीरकी क्रिया फलदाता नहीं है।
यहाँ फि र प्रश्न है कि शास्त्रमें तो अकाम-निर्जरा कही है। वहाँ बिना इच्छाके भूख-
प्यास आदि सहनेसे निर्जरा होती है; तो फि र उपवासादि द्वारा कष्ट सहनेसे कैसे निर्जरा न
हो?
समाधानःअकाम-निर्जरामें भी बाह्य निमित्त तो बिना इच्छाके भूख-प्यासका सहन
करना हुआ है और वहाँ मन्दकषायरूप भाव हो; तो पापकी निर्जरा होती है, देवादि पुण्यका
बन्ध होता है। परन्तु यदि तीव्रकषाय होने पर भी कष्ट सहनेसे पुण्यबन्ध होता हो तो सर्व
तिर्यंचादिक देव ही हों, सो बनता नहीं है। उसी प्रकार इच्छापूर्वक उपवासादि करनेसे वहाँ
भूख-प्यासादि कष्ट सहते हैं, सो यह बाह्य निमित्त है; परन्तु वहाँ जैसा परिणाम हो वैसा फल
पाता है। जैसे अन्नको प्राण कहा उसी प्रकार। तथा इसप्रकार बाह्यसाधन होनेसे अंतरंग तप
की वृद्धि होती है, इसलिये उपचारसे इनको तप कहा है; परन्तु यदि बाह्य तप तो करे और
अंतरंग तप न हो तो उपचारसे भी उसे तपसंज्ञा नहीं है। कहा भी हैः
कषायविषयाहारो त्यागो यत्र विधीयते
उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः।।
जहाँ कषाय-विषय और आहारका त्याग किया जाता है उसे उपवास जानना, शेषको
श्रीगुरु लंघन कहते हैं।
यहाँ कहेगायदि ऐसा है तो हम उपवासादि नहीं करेंगे?
उससे कहते हैंउपदेश तो ऊँचा चढ़नेको दिया जाता है; तू उल्टा नीचे गिरेगा

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२३२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
तो हम क्या करेंगे? यदि तू मानादिकसे उपवासादि करता है तो कर या मत कर; कुछ
सिद्धि नहीं है और यदि धर्मबुद्धिसे आहारादिकका अनुराग छोड़ता है तो जितना राग छूटा
उतना ही छूटा; परन्तु इसीको तप जानकर इससे निर्जरा मानकर संतुष्ट मत हो।
तथा अन्तरंग तपोंमें प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, त्याग और ध्यानरूप जो
क्रियाएँउनमें बाह्य प्रवर्तन उसे तो बाह्यतपवत् ही जानना। जैसे अनशनादि बाह्य क्रिया
हैं उसी प्रकार यह भी बाह्य क्रिया हैं; इसलिये प्रायश्चित्तादि बाह्यसाधन अन्तरंग तप नहीं
हैं। ऐसा बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अन्तरंग परिणामोंकी शुद्धता हो उसका नाम अन्तरंग
तप जानना।
वहाँ भी इतना विशेष है कि बहुत शुद्धता होने पर शुद्धोपयोगरूप परिणति होती
है वहाँ तो निर्जरा ही है; बन्ध नहीं होता और अल्प शुद्धता होने पर शुभोपयोगका भी
अंश रहता है; इसलिये जितनी शुद्धता हुई उससे तो निर्जरा है और जितना शुभभाव है
उससे बन्ध है। ऐसा मिश्रभाव युगपत् होता है; वहाँ बन्ध और निर्जरा दोनों होते हैं।
यहाँ कोई कहे कि शुभभावोंसे पापकी निर्जरा होती है, पुण्यका बन्ध होता है; परन्तु
शुद्धभावोंसे दोनोंकी निर्जरा होती हैऐसा क्यों नहीं कहते?
उत्तर :मोक्षमार्गमें स्थितिका तो घटना सभी प्रकृतियोंका होता है; वहाँ पुण्य-पापका
विशेष है ही नहीं और अनुभागका घटना पुण्यप्रकृतियोंमें शुद्धोपयोग से भी नहीं होता।
ऊपर-ऊपर पुण्यप्रकृतियोंके अनुभागका तीव्र बन्ध-उदय होता है और पापप्रकृतियोंके परमाणु
पलटकर शुभप्रकृतिरूप होते हैं
ऐसा संक्रमण शुभ तथा शुद्ध दोनों भाव होने पर होता
है; इसलिये पूर्वोक्त नियम संभव नहीं है, विशुद्धताहीके अनुसार नियम संभव है।
देखो, चतुर्थ गुणस्थानवाला शास्त्राभ्यास, आत्मचिंतवन आदि कार्य करेवहाँ भी
निर्जरा नहीं, बन्ध भी बहुत होता है। और पंचम गुणस्थानवाला उपवासादि या प्रायश्चित्तादि
तप करे उस कालमें भी उसके निर्जरा थोड़ी होती है। और छठवें गुणस्थानवाला आहार-
विहारादि क्रिया करे उस कालमें भी उसके निर्जरा बहुत होती है, तथा बन्ध उससे भी थोड़ा
होता है।
इसलिये बाह्य प्रवृत्तिके अनुसार निर्जरा नहीं है, अन्तरंग कषायशक्ति घटनेसे विशुद्धता
होने पर निर्जरा होती है। सो इसके प्रगट स्वरूपका आगे निरूपण करेंगे वहाँसे जानना।
इस प्रकार अनशनादि क्रियाको तपसंज्ञा उपचारसे जानना। इसीसे इसे व्यवहार-तप

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सातवाँ अधिकार ][ २३३
कहा है। व्यवहार और उपचारका एक अर्थ है। तथा ऐसे साधनसे जो वीतरागभावरूप
विशुद्धता हो वह सच्चा तप निर्जराका कारण जानना।
यहाँ दृष्टान्त हैजैसे धनको व अन्नको प्राण कहा है। सो धनसे अन्न लाकर, उसका
भक्षण करके प्राणोंका पोषण किया जाता है; इसलिये उपचारसे धन और अन्नको प्राण कहा
है। कोई इन्द्रियादिक प्राणोंको न जाने और इन्हींको प्राण जानकर संग्रह करे तो मरणको
ही प्राप्त होगा। उसी प्रकार अनशनादिको तथा प्रायश्चित्तको तप कहा है, क्योंकि अनशनादि
साधनसे प्रायश्चित्तादिरूप प्रवर्तन करके वीतरागभावरूप सत्य तपका पोषण किया जाता है;
इसलिये उपचारसे अनशनादिको तथा प्रायश्चित्तादिको तप कहा है। कोई वीतरागभावरूप तपको
न जाने और इन्हींको तप जानकर संग्रह करे तो संसारमें ही भ्रमण करेगा।
बहुत क्या, इतना समझ लेना कि निश्चयधर्म तो वीतरागभाव है, अन्य नाना विशेष
बाह्यसाधनकी अपेक्षा उपचारसे किये हैं, उनको व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना। इस रहस्यको
नहीं जानता, इसलिये उसके निर्जराका सच्चा श्रद्धान नहीं है।
मोक्षतत्त्वका अन्यथारूप
तथा सिद्ध होना उसे मोक्ष मानता है। वहाँ जन्म-मरण-रोग-क्लेशादि दुःख दूर हुए,
अनन्तज्ञान द्वारा लोकालोकका जानना हुआ, त्रिलोकपूज्यपना हुआ,इत्यादि रूपसे उसकी महिमा
जानता है। सो सर्व जीवोंके दुःख दूर करनेकी, ज्ञेय जाननेकी, तथा पूज्य होनेकी इच्छा है।
यदि इन्हींके अर्थ मोक्षकी इच्छा की तो इसके अन्य जीवोंके श्रद्धानसे क्या विशेषता हुई?
तथा इसके ऐसा भी अभिप्राय है कि स्वर्गमें सुख है उससे अनन्तगुना सुख मोक्षमें
है। सो इस गुणाकारमें वह स्वर्ग-मोक्षसुखकी एक जाति जानता है। वहाँ स्वर्गमें तो विषयादिक
सामग्रीजनित सुख होता है, उसकी जाति इसे भासित होती है; परन्तु मोक्षमें विषयादिक सामग्री
है नहीं, सो वहाँके सुखकी जाति इसे भासित तो नहीं होती; परन्तु महान पुरुष स्वर्गसे भी
मोक्षको उत्तम कहते हैं, इसलिये यह भी उत्तम ही मानता है। जैसे
कोई गायनका स्वरूप
न पहिचाने; परन्तु सभाके सर्व लोग सराहना करते हैं, इसलिए आप भी सराहना करता
है। उसी प्रकार यह मोक्षको उत्तम मानता है।
यहाँ वह कहता हैशास्त्रमें भी तो इन्द्रादिकसे अनन्तगुना सुख सिद्धोंके प्ररूपित
किया है?
उत्तरःजैसे तीर्थंकरके शरीरकी प्रभाको सूर्यप्रभासे कोटिगुनी कही, वहाँ उनकी एक
जाति नहीं है; परन्तु लोकमें सूर्यप्रभाकी महिमा है, उससे भी अधिक महिमा बतलानेके लिये

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२३४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
उपमालंकार करते हैं। उसी प्रकार सिद्धसुखको इन्द्रादिसुखसे अनन्तगुना कहा है, वहाँ उनकी
एक जाति नहीं है; परन्तु लोकमें इन्द्रादिसुखकी महिमा है, उससे बहुत महिमा बतलानेके लिये
उपमालंकार करते हैं।
फि र प्रश्न है कि वह सिद्धसुख और इन्द्रादिसुखकी एक जाति जानता हैऐसा निश्चय
तुमने कैसे किया?
समाधानःजिस धर्मसाधनका फल स्वर्ग मानता है, उस धर्मसाधनका ही फल मोक्ष
मानता है। कोई जीव इन्द्रादि पद प्राप्त करे, कोई मोक्ष प्राप्त करे, वहाँ उन दोनोंको एक जातिके
धर्मका फल हुआ मानता है। ऐसा तो मानता है कि जिसके साधन थोड़ा होता है वह इन्द्रादि
पद प्राप्त करता है, जिसके सम्पूर्ण साधन हो वह मोक्ष प्राप्त करता है; परन्तु वहाँ धर्मकी जाति
एक जानता है। सो जो कारणकी एक जाति जाने, उसे कार्यकी भी एक जातिका श्रद्धान
अवश्य हो; क्योंकि कारणविशेष होने पर ही कार्यविशेष होता है। इसलिये हमने यह निश्चय
किया कि उसके अभिप्रायमें इन्द्रादिसुख और सिद्धसुखकी एक जातिका श्रद्धान है।
तथा कर्मनिमित्तसे आत्माके औपाधिक भाव थे, उनका अभाव होने पर आप
शुद्धभावरूप केवल आत्मा हुआ। जैसेपरमाणु स्कन्धसे पृथक् होने पर शुद्ध होता है, उसी
प्रकार यह कर्मादिकसे भिन्न होकर शुद्ध होता है। विशेष इतना कि वह दोनों अवस्थामें
दुःखी-सुखी नहीं है; परन्तु आत्मा अशुद्ध अवस्थामें दुःखी था, अब उसका अभाव होनेसे
निराकुल लक्षण अनन्तसुखकी प्राप्ति हुई।
तथा इन्द्रादिकके जो सुख है वह कषायभावोंसे आकुलतारूप है, सो वह परमार्थसे
दुःख ही है; इसलिये उसकी और इसकी एक जाति नहीं है। तथा स्वर्गसुखका कारण
प्रशस्तराग है और मोक्षसुखका कारण वीतरागभाव है; इसलिये कारणमें भी विशेष है; परन्तु
ऐसा भाव इसे भासित नहीं होता।
इसलिये मोक्षका भी इसको सच्चा श्रद्धान नहीं है।
इस प्रकार इसके सच्चा तत्त्वश्रद्धान नहीं है। इसलिये समयसारमें
कहा है कि अभव्यको
तत्त्वश्रद्धान होने पर भी मिथ्यादर्शन ही रहता है। तथा प्रवचनसारमें कहा है कि आत्मज्ञानशून्य
तत्त्वार्थश्रद्धान कार्यकारी नहीं है।
तथा व्यवहारदृष्टिसे सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे हैं उनको यह पालता है, पच्चीस
१. गाथा २७६२७७ की आत्मख्याति टीका

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सातवाँ अधिकार ][ २३५
दोष कहे हैं उनको टालता है, संवेगादिक गुण कहे हैं उनको धारण करता है; परन्तु जैसे
बीज बोए बिना खेतके सब साधन करने पर भी अन्न नहीं होता; उसी प्रकार सच्चा तत्त्वश्रद्धान
हुए बिना सम्यक्त्व नहीं होता। पंचास्तिकाय व्याख्यामें जहाँ अन्तमें व्यवहाराभासवालेका वर्णन
किया वहाँ ऐसा ही कथन किया है।
इसप्रकार इसको सम्यग्दर्शनके अर्थ साधन करने पर भी सम्यग्दर्शन नहीं होता।
सम्यग्ज्ञानका अन्यथारूप
अब, शास्त्रमें सम्यग्ज्ञानके अर्थ शास्त्राभ्यास करनेसे सम्यग्ज्ञान होना कहा है; इसलिये
यह शास्त्राभ्यासमें तत्पर रहता है। वहाँ सीखना, सिखाना, याद करना, बाँचना, पढ़ना आदि
क्रियाओंमें तो उपयोगको रमाता है; परन्तु उसके प्रयोजन पर दृष्टि नहीं है। इस उपदेशमें
मुझे कार्यकारी क्या है, सो अभिप्राय नहीं है; स्वयं शास्त्राभ्यास करके औरोंको सम्बोधन देनेका
अभिप्राय रखता है, और बहुतसे जीव उपदेश मानें वहाँ सन्तुष्ट होता है; परन्तु ज्ञानाभ्यास
तो अपने लिये किया जाता है और अवसर पाकर परका भी भला होता हो तो परका
भी भला करे। तथा कोई उपदेश न सुने तो मत सुनो
स्वयं क्यों विषाद करे? शास्त्रार्थका
भाव जानकर अपना भला करना।
तथा शास्त्राभ्यासमें भी कितने ही तो व्याकरण, न्याय, काव्य आदि शास्त्रोंका बहुत
अभ्यास करते हैं, परन्तु वे तो लोकमें पांडित्य प्रगट करनेके कारण हैं, उनमें आत्महितका
निरूपण तो है नहीं। इनका तो प्रयोजन इतना ही है कि अपनी बुद्धि बहुत हो तो थोड़ा
बहुत इनका अभ्यास करके पश्चात् आत्महितके साधक शास्त्रोंका अभ्यास करना। यदि बुद्धि
थोड़ी हो तो आत्महितके साधक सुगम शास्त्रोंका ही अभ्यास करे। ऐसा नहीं करना कि
व्याकरणादिका ही अभ्यास करते-करते आयु पूर्ण हो जाये और तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति न बने।
यहाँ कोई कहेऐसा है तो व्याकरणादिका अभ्यास नहीं करना चाहिये?
उससे कहते हैं कि उनके अभ्यासके बिना महान ग्रन्थोंका अर्थ खुलता नहीं है, इसलिये
उनका भी अभ्यास करना योग्य है।
फि र प्रश्न है किमहान ग्रन्थ ऐसे क्यों बनाये जिनका अर्थ व्याकरणादिके बिना न
खुले? भाषा द्वारा सुगमरूप हितोपदेश क्यों नहीं लिखा? उनके कुछ प्रयोजन तो था नहीं?
समाधानःभाषामें भी प्राकृत, संस्कृतादिकके ही शब्द हैं; परन्तु अपभ्रंश सहित हैं।
तथा देश-देशमें भाषा अन्य-अन्य प्रकार है, तो महंत पुरुष शास्त्रोंमें अपभ्रंश शब्द कैसे

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२३६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
लिखते? बालक तोतला बोले, परन्तु बड़े तो नहीं बोलते। तथा एक देशकी भाषारूप शास्त्र
दूसरे देशमें जाये, तो वहाँ उसका अर्थ कैसे भासित होगा? इसलिये प्राकृत, संस्कृतादि शुद्ध
शब्दरूप ग्रन्थ रचे हैं।
तथा व्याकरणके बिना शब्दका अर्थ यथावत् भासित नहीं होता; न्यायके बिना लक्षण,
परीक्षा आदि यथावत् नहीं हो सकतेइत्यादि। वचन द्वारा वस्तुके स्वरूपका निर्णय
व्याकरणादि बिना भली-भाँति न होता जानकर उनकी आम्नाय अनुसार कथन किया है।
भाषामें भी उनकी थोड़ी-बहुत आम्नाय आने पर ही उपदेश हो सकता है; परन्तु बहुत आम्नायसे
भली-भाँति निर्णय हो सकता है।
फि र कहोगे कि ऐसा है तो अब भाषारूप ग्रन्थ किसलिये बनाते हैं ?
समाधानः
कालदोषसे जीवोंकी मन्दबुद्धि जानकर किन्हीं जीवोंके जितना ज्ञान होगा
उतना ही होगाऐसा विचारकर भाषाग्रन्थ रचते हैंइसलिये जो जीव व्याकरणादिका
अभ्यास न कर सकें उन्हें ऐसे ग्रन्थों द्वारा ही अभ्यास करना।
तथा जो जीव शब्दोंकी नाना युक्तियोंसहित अर्थ करनेके लिये ही व्याकरणका अवगाहन
करते हैं, वादादि करके महंत होनेके लिये न्यायका अवगाहन करते हैं और चतुराई प्रगट
करनेके लिये काव्यका अवगाहन करते हैं,
इत्यादि लौकिक प्रयोजनसहित इनका अभ्यास
करते हैं वे धर्मात्मा नहीं हैं। इनका बन सके उतना थोड़ा-बहुत अभ्यास करके आत्महितके
अर्थ जो तत्त्वादिकका निर्णय करते हैं वही धर्मात्मा
पण्डित जानना।
तथा कितने ही जीव पुण्य-पापादिक फलके निरूपक पुराणादिक शास्त्रोंका; पुण्य-
पापक्रियाके निरूपक आचारादि शास्त्रोंका, तथा गुणस्थानमार्गणा, कर्मप्रकृति, त्रिलोकादिके
निरूपक करणानुयोगके शास्त्रोंका अभ्यास करते हैं, परन्तु यदि आप इनका प्रयोजन नहीं
विचारते, तब तो तोते जैसा ही पढ़ना हुआ और यदि इनका प्रयोजन विचारते हैं तो वहाँ
पापको बुरा जानना, पुण्यको भला जानना, गुणस्थानादिकका स्वरूप जान लेना, तथा जितना
इनका अभ्यास करेंगे उतना हमारा भला है,
इत्यादि प्रयोजनका विचार किया है; सो इससे
इतना तो होगा कि नरकादि नहीं होंगे, स्वर्गादिक होंगे; परन्तु मोक्षमार्गकी तो प्राप्ति होगी
नहीं।
प्रथम सच्चा तत्त्वज्ञान हो; वहाँ फि र पुण्य-पापके फलको संसार जाने, शुद्धपयोगसे
मोक्ष माने, गुणस्थानादिरूप जीवका व्यवहारनिरूपण जाने; इत्यादि ज्योंका त्यों श्रद्धान करता
हुआ इनका अभ्यास करे तो सम्यग्ज्ञान हो।

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सातवाँ अधिकार ][ २३७
सो तत्त्वज्ञानके कारण अध्यात्मरूप द्रव्यानुयोगके शास्त्र हैं और कितने ही जीव उन
शास्त्रोंका भी अभ्यास करते हैं; परन्तु वहाँ जैसा लिखा है वैसा निर्णय स्वयं करके आपको
आपरूप, परको पररूप और आस्रवादिका आस्रवादिरूप श्रद्धान नहीं करते। मुखसे तो यथावत्
निरूपण ऐसा भी करें जिसके उपेदशसे अन्य जीव सम्यग्दृष्टि हो जायें। परन्तु जैसे कोई
लड़का स्त्रीका स्वांग बनाकर ऐसा गाना गाये जिसे सुनकर अन्य पुरुष-स्त्री कामरूप हो जायें;
परन्तु वह तो जैसा सीखा वैसा कहता है, उसे कुछ भाव भासित नहीं होता, इसलिये स्वयं
कामासक्त नहीं होता। उसी प्रकार यह जैसा लिखा है वैसे उपदेश देता है; परन्तु स्वयं
अनुभव नहीं करता। यदि स्वयंको श्रद्धान हुआ होता तो अन्य तत्त्वका अंश अन्य तत्त्वमें
न मिलाता; परन्तु इसका ठिकाना नहीं है, इसलिये सम्यग्ज्ञान नहीं होता।
इस प्रकार यह ग्यारह अंग तक पढ़े, तथापि सिद्धि नहीं होती। सो समयसारादिमें
मिथ्यादृष्टिको ग्यारह अंगोंका ज्ञान होना लिखा है।
यहाँ कोई कहे कि ज्ञान तो इतना होता है; परन्तु जैसा अभव्यसेनको श्रद्धानरहित
ज्ञान हुआ वैसा होता है?
समाधानःवह तो पापी था, जिसे हिंसादिकी प्रवृत्तिका भय नहीं था। परन्तु जो
जीव ग्रैवेयक आदिमें जाता है उसके ऐसा ज्ञान होता है; वह तो श्रद्धानरहित नहीं है।
उसके तो ऐसा भी श्रद्धान है कि यह ग्रन्थ सच्चे हैं, परन्तु तत्त्वश्रद्धान सच्चा नहीं हुआ।
समयसारमें एक ही जीवके धर्मका श्रद्धान, ग्यारह अंगका ज्ञान और महाव्रतादिका पालन करना
लिखा है। प्रवचनसारमें ऐसा लिखा है कि आगमज्ञान ऐसा हुआ जिसके द्वारा सर्व पदार्थोंको
हस्तामलकवत् जानता है। यह भी जानता है कि इनका जाननेवाला मैं हूँ; परन्तु मैं ज्ञानस्वरूप
हूँ इस प्रकार स्वयंको परद्रव्यसे भिन्न केवल चैतन्यद्रव्य अनुभव नहीं करता। इसलिये
आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान भी कार्यकारी नहीं है।
इस प्रकार यह सम्यग्ज्ञानके अर्थ जैनशास्त्रोंका अभ्यास करता है, तथापि इसके
सम्यग्ज्ञान नहीं है।
सम्यक्चारित्रका अन्यथारूप
तथा इनके सम्यक्चारित्रके अर्थ कैसी प्रवृत्ति है सो कहते हैंः
बाह्य क्रिया पर तो इनकी दृष्टि है और परिणाम सुधरने-बिगड़नेका विचार नहीं है।
और यदि परिणामोंका भी विचार हो तो जैसे अपने परिणाम होते दिखाई दें उन्हीं पर दृष्टि
रहती है, परन्तु उन परिणामोंकी परम्पराका विचार करने पर अभिप्रायमें जो वासना है उसका

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२३८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
विचार नहीं करते। और फल लगता है सो अभिप्रायमें जो वासना है उसका लगता है।
इसका विशेष व्याख्यान आगे करेंगे। वहाँ स्वरूप भलीभाँति भासित होगा।
ऐसी पहिचानके बिना बाह्य आचरणका ही उद्यम है।
वहाँ कितने ही जीव तो कुलक्रमसे अथवा देखा-देखी या क्रोध, मान, माया, लोभादिकसे
आचरण करते हैं; उनके तो धर्मबुद्धि ही नहीं है, सम्यक्चारित्र कहाँसे हो? उन जीवोंमें
कोई तो भोले हैं व कोई कषायी हैं; सो अज्ञानभाव व कषाय होने पर सम्यक्चारित्र नहीं
होता।
तथा कितने ही जीव ऐसा मानते हैं कि जाननेमें क्या है, कुछ करेंगे तो फल लगेगा।
ऐसा विचारकर व्रत-तप आदि क्रियाके ही उद्यमी रहते हैं और तत्त्वज्ञानका उपाय नहीं करते।
सो तत्त्वज्ञानके बिना महाव्रतादिका आचरण भी मिथ्याचारित्र ही नाम पाता है और तत्त्वज्ञान
होने पर कुछ भी व्रतादिक नहीं हैं तथापि असंयतसम्यग्दृष्टि नाम पाता है। इसलिये पहले
तत्त्वज्ञानका उपाय करना, पश्चात् कषाय घटानेके लिये बाह्यसाधन करना। यही योगीन्द्रदेवकृत
श्रावकाचारमें
कहा हैः
‘‘दंसणभूमिह बाहिरा, जिय वयरुक्ख ण हुंति’’
अर्थःइस सम्यग्दर्शन भूमिका बिना हे जीव! व्रतरूपी वृक्ष नहीं होते, अर्थात् जिन
जीवोंके तत्त्वज्ञान नहीं है वे यथार्थ आचरण नहीं आचरते।
वही विशेष बतलाते हैं :
कितने ही जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा धारण कर बैठते हैं; परन्तु अन्तरंगमें विषय-
कषाय वासना मिटी नहीं है, इसलिये जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते हैं। वहाँ उस प्रतिज्ञासे
परिणाम दुःखी होते हैं। जैसे
कोई बहुत उपवास कर बैठता है और पश्चात् पीड़ासे दुःखी
हुआ रोगीकी भाँति काल गँवाता है, धर्म साधन नहीं करता; तो प्रथम ही सधती जाने उतनी
ही प्रतिज्ञा क्यों न ले? दुःखी होनेमें आर्तध्यान हो, उसका फल अच्छा कैसे लगेगा? अथवा
उस प्रतिज्ञाका दुःख नहीं सहा जाता तब उसके बदले विषय-पोषणके लिये अन्य उपाय करता
है। जैसे
तृषा लगे तब पानी तो न पिये और अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करे,
व घृत तो छोड़े और अन्य स्निग्ध वस्तुका उपाय करके भक्षण करे।इसीप्रकार अन्य
जानना।
१. सावयधम्म, दोहा ५७

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सातवाँ अधिकार ][ २३९
यदि परीषह नहीं सहे जाते थे, विषय-वासना नहीं छूटी थी; तो ऐसी प्रतिज्ञा किसलिये
की? सुगम विषय छोड़कर पश्चात् विषम विषयोंका उपाय करना पड़े ऐसा कार्य क्यों करे?
वहाँ तो उलटा रागभाव तीव्र होता है।
अथवा प्रतिज्ञामें दुःख हो तब परिणाम लगानेके लिये कोई आलम्बन विचारता है।
जैसेउपवास करके फि र क्रीडा करता है, कितने ही पापी जुआ आदि कुव्यसनोंमें लग
जाते हैं अथवा सो रहना चाहते हैं। ऐसा जानते हैं कि किसी प्रकार काल पूरा करना।
इसीप्रकार अन्य प्रतिज्ञामें जानना।
अथवा कितने ही पापी ऐसे भी हैं पहले प्रतिज्ञा करते हैं, बादमें उससे दुःखी हों
तब प्रतिज्ञा छोड़ देते हैं। प्रतिज्ञा लेना-छेड़ना उनको खेलमात्र है; सो प्रतिज्ञा भंग करनेका
महापाप है; इससे तो प्रतिज्ञा न लेना भला है।
इस प्रकार पहले तो निर्विचार होकर प्रतिज्ञा करते हैं और पश्चात् ऐसी दशा होती
है।
जैनधर्ममें प्रतिज्ञा न लेनेका दण्ड तो है नहीं। जैनधर्ममें तो ऐसा उपदेश है कि
पहले तो तत्त्वज्ञानी हो; फि र उसका त्याग कर उसका दोष पहिचाने। त्याग करनेमें जो
गुण हो उसे जाने; फि र अपने परिणामोंको ठीक करे; वर्तमान परिणामोंके ही भरोसे प्रतिज्ञा
न कर बैठे; भविष्यमें निर्वाह होता जाने तो प्रतिज्ञा करे; तथा शरीरकी शक्ति व द्रव्य, क्षेत्र,
काल, भावादिकका विचार करे।
इस प्रकार विचार करके फि र प्रतिज्ञा करनी। वह भी
ऐसी करनी जिससे प्रतिज्ञाके प्रति निरादरभाव न हो, परिणाम चढ़ते रहें। ऐसी जैनधर्मकी
आम्नाय है।
यहाँ कोई कहे कि चांडालादिकने प्रतिज्ञा की, उनके इतना विचार कहाँ होता है?
समाधानः
मरणपर्यन्त कष्ट हो तो हो, परन्तु प्रतिज्ञा नहीं छोड़नाऐसा विचार
करके वे प्रतिज्ञा करते हैं; प्रतिज्ञाके प्रति निरादरपना नहीं होता।
और सम्यग्दृष्टि जो प्रतिज्ञा करते हैं सो तत्त्वज्ञानादिपूर्वक ही करते हैं।
तथा जिनके अन्तरंग विरक्तता नहीं और बाह्यप्रतिज्ञा धारण करते हैं, वे प्रतिज्ञाके
पहले और बादमें जिसकी प्रतिज्ञा करें उसमें अति आसक्त होकर लगते हैं। जैसे उपवासके
धारणे-पारणेके भोजनमें अति लोभी होकर गरिष्ठादि भोजन करते हैं, शीघ्रता बहुत करते हैं।
जैसे
जलको रोक रखा था, जब वह छूटा तभी बहुत प्रवाह चलने लगा; उसी प्रकार प्रतिज्ञा

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२४० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
द्वारा विषयवृत्ति रोक रखी थी, अंतरंग आसक्ति बढ़ती गई और प्रतिज्ञा पूर्ण होते ही अत्यन्त
विषयवृत्ति होने लगी; सो प्रतिज्ञाके कालमें विषयवासना मिटी नहीं, आगे-पीछे उसके बदले
अधिक राग किया; सो फल तो रागभाव मिटनेसे होगा। इसलिये जितनी विरक्ति हुई हो
उतनी प्रतिज्ञा करना। महामुनि भी थोड़ी प्रतिज्ञा करके फि र आहारादिमें उछटि (कमी) करते
हैं और बड़ी प्रतिज्ञा करते हैं। तो अपनी शक्ति देखकर करते हैं। जिसप्रकार परिणाम
चढ़ते रहें वैसा करते हैं। प्रमाद भी न हो और आकुलता भी उत्पन्न न हो
ऐसी प्रवृत्ति
कार्यकारी जानना।
तथा जिनकी धर्म पर दृष्टि नहीं है वे कभी तो बड़ा धर्म आचरते हैं, कभी अधिक
स्वच्छन्द होकर प्रवर्तते हैं। जैसेकिसी धर्मपर्वमें तो बहुत उपवासादि करते हैं, किसी
धर्मपर्वमें बारम्बार भोजनादि करते हैं। यदि धर्मबुद्धि हो तो यथायोग्य सर्व धर्मपर्वोंमें योग्य
संयमादि धारण करें। तथा कभी तो किसी धर्मकार्यमें बहुत धन खर्च करते हैं और कभी
कोई धर्मकार्य आ पहुँचा हो तब भी वहाँ थोड़ा भी धन खर्च नहीं करते। सो धर्मबुद्धि
हो तो यथाशक्ति यथायोग्य सभी धर्मकार्योमें धन खर्चते रहें।
इसीप्रकार अन्य जानना।
तथा जिनके सच्चा धर्मसाधन नहीं है वे कोई क्रिया तो बहुत बड़ी अंगीकार करते हैं,
तथा कोई हीन क्रिया करते हैं। जैसेधनादिकका तो त्याग किया और अच्छा भोजन, अच्छे
वस्त्र इत्यादि विषयोंमें विशेष प्रवर्तते हैं। तथा कोई जामा पहिनना, स्त्री-सेवन करना इत्यादि
कार्योंका तो त्याग करके धर्मात्मापना प्रगट करते हैं; और पश्चात् खोटे व्यापारादि कार्य करते
हैं, लोकनिंद्य पापक्रियाओंमें प्रवर्तते हैं।
इसीप्रकार कोई क्रिया अति उच्च तथा कोई क्रिया
अति नीची करते हैं। वहाँ लोकनिंद्य होकर धर्मकी हँसी कराते हैं कि देखो, अमुक धर्मात्मा
ऐसे कार्य करता है। जैसे कोई पुरुष एक वस्त्र तो अति उत्तम पहिने और एक वस्त्र अति
हीन पहिने तो हँसी ही होती है; उसी प्रकार यह भी हँसीको प्राप्त होता है।
सच्चे धर्मकी तो यह आम्नाय है कि जितने अपने रागादि दूर हुए हों उसके अनुसार
जिस पदमें जो धर्मक्रिया सम्भव हो वह सब अंगीकार करे। यदि अल्प रागादि मिटे हों
तो निचले पदमें ही प्रवर्तन करे; परन्तु उच्चपद धारण करके नीची क्रिया न करे।
यहाँ प्रश्न है कि स्त्री-सेवनादि त्याग ऊपरकी प्रतिमामें कहा है; इसलिये निचली
अवस्थावाला उनका त्याग करे या नहीं?
समाधानःनिचली अवस्थावाला उनका सर्वथा त्याग नहीं कर सकता, कोई दोष
लगता है, इसलिये ऊपरकी प्रतिमामें त्याग कहा है। निचली अवस्थामें जिस प्रकारका त्याग

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सातवाँ अधिकार ][ २४१
सम्भव हो वैसा निचली अवस्थावाला भी करे; परन्तु जिस निचली अवस्थामें जो कार्य संभव
ही नहीं है, उसका करना तो कषायभावोंसे ही होता है। जैसे
कोई सप्तव्यसनका सेवन
करता हो और स्वस्त्रीका त्याग करे; तो कैसे हो सकता है? यद्यपि स्वस्त्रीका त्याग करना
धर्म है; तथापि पहले सप्तव्यसनका त्याग हो, तभी स्वस्त्रीका त्याग करना योग्य है।
इसी
प्रकार अन्य जानना।
तथा सर्व प्रकारसे धर्मको न जानता होऐसा जीव धर्मके अंगको मुख्य करके अन्य
धर्मोंको गौण करता है। जैसेकोई जीव दया-धर्मको मुख्य करके पूजाप्रभावनादि कार्यका
उत्थापन करते हैं; कितने ही पूजा-प्रभावनादि धर्मको मुख्य करके हिंसादिकका भय नहीं रखते;
कितने ही तपकी मुख्यतासे आर्त्तध्यानादिक करके भी उपवासादि करते हैं, तथा अपनेको
तपस्वी मानकर निःशंक क्रोधित करते हैं; कितने ही दानकी मुख्यतासे बहुत पाप करके भी
धन उपार्जन करके दान देते हैं; कितने ही आरम्भ-त्यागकी मुख्यतासे याचना आदि करते
हैं;
इत्यादि प्रकारसे किसी धर्मको मुख्य करके अन्य धर्मको नहीं गिनते तथा उसके आश्रयसे
पापका आचरण करते हैं।
उनका यह कार्य ऐसा हुआ जैसे अविवेकी व्यापारीको किसी व्यापारमें नफे के अर्थ
अन्य प्रकारसे बहुत टोटा पड़ता है। चाहिये तो ऐसा कि जैसे व्यापारीका प्रयोजन नफा
है, सर्व विचार कर जैसे नफा बहुत हो वैसा करे; उसी प्रकार ज्ञानीका प्रयोजन वीतरागभाव
है, सर्व विचार कर जैसे वीतरागभाव बहुत हो वैसा करे, क्योंकि मूलधर्म वीतरागभाव है।
इसीप्रकार अविवेकी जीव अन्यथा धर्म अंगीकार करते हैं; उनके तो सम्यक्चारित्रका
आभास भी नहीं होता।
तथा कितने ही जीव अणुव्रत-महाव्रतादिरूप यथार्थ आचरण करते हैंऔर आचरणके
अनुसार ही परिणाम हैं, कोई माया-लोभादिकका अभिप्राय नहीं है; उन्हें धर्म जानकर मोक्षके
अर्थ उनका साधन करते हैं, किन्हीं स्वर्गादिकके भोगोंकी भी इच्छा नहीं रखते; परन्तु तत्त्वज्ञान
पहले नहीं हुआ, इसलिये आप तो जानते हैं कि मैं मोक्षका साधन कर रहा हूँ; परन्तु जो
मोक्षका साधन है उसे जानते भी नहीं, केवल स्वर्गादिकका ही साधन करते हैं। कोई मिसरीको
अमृत जानकर भक्षण करे तो उससे अमृतका गुण तो नहीं होता; अपनी प्रतीतिके अनुसार
फल नहीं होता; फल तो जैसे साधन करे वैसा ही लगता है।
१. यहाँ पं. टोडरमलजीकी हस्तलिखित प्रतिके हासियेमें इस प्रकार लिखा है‘इहाँ स्नानादि शौचधर्म्मका
कथन तथा लौकिक कार्य आएँ धर्म्म छोड़ि तहाँ लगि जाय तिनिका कथन लिखनां है।’

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२४२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
शास्त्रमें ऐसा कहा है कि चारित्रमें ‘सम्यक्’ पद है; वह अज्ञानपूर्वक आचरणकी
निवृत्तिके अर्थ है; इसलिये प्रथम तत्त्वज्ञान हो और पश्चात् चारित्र हो सो सम्यक्चारित्र नाम
पाता है। जैसे
कोई किसान बीज तो बोये नहीं और अन्य साधन करे तो अन्न प्राप्ति
कैसे हो? घास-फू स ही होगा; उसी प्रकार अज्ञानी तत्त्वज्ञानका तो अभ्यास करे नहीं और
अन्य साधन करे तो मोक्षप्राप्ति कैसे हो? देवपद आदि ही होंगे।
वहाँ कितने ही जीव तो ऐसे हैं जो तत्त्वादिकके भली-भाँति नाम भी नहीं जानते,
केवल व्रतादिकमें ही प्रवर्तते हैं। कितने ही जीव ऐसे हैं जो पूर्वोक्त प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञानका
अयथार्थ साधन करके व्रतादिमें प्रवर्तते हैं। यद्यपि वे व्रतादिकका यथार्थ आचरण करते हैं
तथापि यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान बिना सर्व आचरण मिथ्याचारित्र ही है।
यही समयसार कलशमें कहा हैः
क्लिश्यन्तां स्वयमेव दुष्करतरैर्मोक्षोन्मुखैः कर्मभिः
क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम्
साक्षान्मोक्षमिदं निरामयपदं संवेद्यमानं स्वयं
ज्ञानं ज्ञानगुणं बिना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि
।।१४२।।
अर्थःमोक्षसे पराड्मुख ऐसे अति दुस्तर पंचाग्नि तपनादि कार्यों द्वारा आप ही क्लेश
करते हैं तो करो; तथा अन्य कितने ही जीव महाव्रत और तपके भारसे चिरकालपर्यन्त क्षीण
होते हुए क्लेश करते हैं तो करो; परन्तु यह साक्षात् मोक्षस्वरूप सर्वरोगरहित पद, जो अपने
आप अनुभवमें आये ऐसा ज्ञानस्वभाव, वह तो ज्ञानगुणके बिना अन्य किसी भी प्रकारसे
प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं है।
तथा पंचास्तिकायमें जहाँ अंतमें व्यवहाराभासीका कथन किया है वहाँ तेरह प्रकारका
चारित्र होने पर भी उसका मोक्षमार्गमें निषेध किया है।
तथा प्रवचनसारमें आत्मज्ञानशून्य संयमभावको अकार्यकारी कहा है।
तथा इहीं ग्रन्थोंमें व अन्य परमात्मप्रकाशादि शास्त्रोंमें इस प्रयोजनके लिये जहाँ-तहाँ
निरूपण है।
इसलिये पहले तत्त्वज्ञान होने पर ही आचरण कार्यकारी है।
यहाँ कोई जाने कि बाह्यमें तो अणुव्रत-महाव्रतादि साधते हैं? परन्तु अन्तरंग परिणाम
नहीं हैं और स्वर्गादिककी वांछासे साधते हैं,सो इस प्रकार साधनेसे पापबन्ध होता है।