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राग-द्वेष नहीं होना चाहिये। वहाँ राग छोड़नेके अर्थ इष्ट सामग्री भोजनादिकका त्यागी होता
है, और द्वेष छोड़नेके अर्थ अनिष्ट सामग्री अनशनादिको अंगीकार करता है। स्वाधीनरूपसे
ऐसा साधन हो तो पराधीन इष्ट-अनिष्ट सामग्री मिलने पर भी राग-द्वेष न हो, सो होना तो
ऐसा ही चाहिये; परन्तु तुझे अनशनादिसे द्वेष हुआ, इसलिये उसे क्लेश ठहराया। जब यह
क्लेश हुआ तब भोजन करना सुख स्वयमेव ठहरा और वहाँ राग आया; सो ऐसी परिणति
तो संसारियोंके पाई ही जाती है, तूने मोक्षमार्गी होकर क्या किया?
है, तथा तपका तेरे उद्यम नहीं है, इसलिये तुझे सम्यग्दृष्टि कैसे हो?
गणधरादिक तप किसलिए करें? इसलिये अपनी शक्ति-अनुसार तप करना योग्य है।
हिंसादिक कारणोंका त्यागी अवश्य होना चाहिये।
विषय-सेवनादि क्रिया अथवा प्रमादरूप गमनादि क्रिया परिणाम बिना कैसे हो? वह क्रिया
तो स्वयं उद्यमी होकर तू करता है और वहाँ हिंसादिक होते हैं उन्हें गिनता नहीं है, परिणाम
शुद्ध मानता है। सो ऐसी मान्यतासे तेरे परिणाम अशुद्ध ही रहेंगे।
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होता रहता है; इसलिये प्रतिज्ञा अवश्य करने योग्य है। तथा कार्य करनेका बन्धन हुए
बिना परिणाम कैसे रुकेंगे? प्रयोजन पड़ने पर तद्रूप परिणाम होंगे, तथा बिना प्रयोजन पड़े
उसकी आशा रहती है; इसलिये प्रतिज्ञा करना योग्य है।
क्या कार्यकारी हुई? प्रतिज्ञा ग्रहण करते हुए तो यह परिणाम है कि मरणान्त होने पर
भी नहीं छोडूँगा, तो ऐसी प्रतिज्ञा करना युक्त ही है। बिना प्रतिज्ञा किये अविरत सम्बन्धी
बन्ध नहीं मिटता।
प्रकार अपने से निर्वाह होता जाने उतनी प्रतिज्ञा करे। कदाचित् किसीके प्रतिज्ञासे भ्रष्टपना
हुआ हो और उस भयसे प्रतिज्ञा करना छोड़ दे तो असंयम ही होगा; इसलिये जो बन
सके वह प्रतिज्ञा लेना योग्य है।
तेरी दशा हो जायेगी तब हम प्रारब्ध ही मानेंगे, तेरा कर्तव्य नहीं मानेगे। इसलिये स्वच्छन्द
होनेकी युक्ति किसलिये बनाता है? बने वह प्रतिज्ञा करके व्रत धारण करना योग्य ही है।
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अथवा बुरी वासनासे या निमित्तसे कर्मके स्थिति-अनुभाग बढ़ जायें तो सम्यक्त्वादिक महा
दुर्लभ हो जायें।
खाना और विष खाना। यो यह अज्ञानता है।
अपेक्षा समान बतलाया है।
प्रकार विचार करने पर अशुभकी अपेक्षा सिद्धान्तमें शुभको भला भी कहा जाता है। जैसे
हैं।
इसलिये शुभका उद्यम नहीं करना?
अभ्यास करना। उद्यम करने पर भी यदि कामादिक व क्षुधादिक पीड़ित करते हैं तो उनके
अर्थ जिससे थोड़ा पाप लगे वह करना। परन्तु शुभोपयोगको छोड़कर निःशंक पापरूप प्रवर्तन
करना तो योग्य नहीं है।
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धन जाता जाने वहाँ अपनी इच्छासे थोड़ा धन देनेका उपाय करता है; उसी प्रकार ज्ञानी
किंचित्मात्र भी कषायरूप कार्य नहीं करना चाहता, परन्तु जहाँ बहुत कषायरूप अशुभ- कार्य
होता जाने वहाँ इच्छा करके अल्प कषायरूप शुभकार्य करनेका उद्यम करता है।
योग्य है।
विशेषण अन्य द्रव्योंमें भी संभवित हैं। तथा यह विशेषण किस अपेक्षासे हैं सो विचार नहीं
है। तथा कदाचित् सोते-बैठते जिस-तिस अवस्थामें ऐसा विचार रखकर अपनेको ज्ञानी मानता
है।
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दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वशून्याः
ही हैं। यह दोनों आत्मा-अनात्माके ज्ञानरहितपनेसे सम्यक्त्वरहित ही हैं।
श्रद्धान है।
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ज्ञाता रहे यह तो बनता नहीं है
शुद्धोपयोगको प्राप्त हुए नहीं हैं; इसलिए वे जीव अर्थ, काम, धर्म, मोक्षरूप पुरुषार्थसे रहित
होते हुए आलसी
नहीं है, बारम्बार एकरूप चिंतवनमें छद्मस्थका उपयोग लगता नहीं है, गणधरादिकका भी उपयोग
इसप्रकार नहीं रह सकता, इसलिये वे भी शास्त्रादि कार्योंमें प्रवर्तते हैं, तेरा उपयोग गणधरादिकसे
भी कैसे शुद्ध हुआ मानें? इसलिये तेरा कहना प्रमाण नहीं है।
(समयसार कलश-१५१)
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है, कभी बातें बनाता है, कभी भोजनादि करता है; परन्तु अपना उपयोग निर्मल करनेके
लिए शास्त्राभ्यास, तपश्चरण, भक्ति आदि कर्मोंमें नहीं प्रवर्तता। सूना-सा होकर प्रमादी होनेका
नाम शुद्धोपयोग ठहराता है। वहाँ क्लेश थोड़ा होनेसे जैसे कोई आलसी बनकर पड़े रहनेमें
सुख माने वैसे आनन्द मानता है।
होता है; उसी प्रकार कुछ विचार करनेमें रति मानकर सुखी होता है; उसे अनुभवजनित
आनन्द कहता है। तथा जैसे कहीं अरति मानकर उदास होता है; उसी प्रकार व्यापारादिक,
पुत्रादिकको खेदका कारण जानकर उनसे उदास रहता और उसे वैराग्य मानता है
सच्चा आनन्द, ज्ञान, वैराग्य ज्ञानी जीवोंके चारित्रमोहकी हीनता होने पर प्रगट होता है।
होता है। जहाँ सुखसामग्रीको छोड़कर दुःखसामग्रीका संयोग होने पर संक्लेश न हो, राग-
द्वेष उत्पन्न न हों; तब निःकषायभाव होता है।
इस प्रकार जो जीव केवल निश्चयाभासके अवलम्बी हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना।
इष्ट लगता है।
भावोंका और अपने अतिरिक्त अन्य जीव-पुद्गलादिका चिंतवन करनेसे आस्रव-बन्ध होता है;
इसलिये अन्य विचारसे पराङ्मुख रहते हैं।
हों वहाँ आस्रव-बन्ध ही है। यदि परद्रव्यको जाननेसे ही आस्रव-बन्ध होते हों, तो केवली
तो समस्त परद्रव्योंको जानते हैं, इसलिये उनके भी आस्रव-बन्ध होंगे।
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निरूपण किया है, और अवधि-मनःपर्यय आदिमें परद्रव्यको जाननेकी ही विशेषता होती है;
तथा चौथे गुणस्थानमें कोई अपने स्वरूपका चिंतवन करता है उसके भी आस्रव-बन्ध अधिक
हैं तथा गुणश्रेणी निर्जरा नहीं है; पाँचवे-छट्ठे गुणस्थानमें आहार-विहारादि क्रिया होने पर परद्रव्य
चिंतवनसे भी आस्रव-बन्ध थोड़ा है और गुणश्रेणी निर्जरा होती रहती है। इसलिये स्वद्रव्य-
परद्रव्यके चिंतवनसे निर्जरा-बन्ध नहीं होते, रागादि घटने से निर्जरा है और रागादि होने से
बन्ध है। उसे रागादिके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं है, इसलिये अन्यथा मानता है।
हैं, वस्तुका निश्चय होने पर उनका प्रयोजन कुछ नहीं रहता; इसलिये इन विकल्पोंको भी
छोड़कर अभेदरूप एक आत्माका अनुभव करना, इनके विचाररूप विकल्पोंमें ही फँसा रहना
योग्य नहीं है।
वीतरागतासहित होता है; उसीका नाम निर्विकल्पदशा है।
आत्माके होता नहीं है। इसलिये विचार तो रहता है।
नहीं होता।
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ही निश्चित हो जाये। पश्चात् भेदविज्ञान करनेका प्रयोजन नहीं रहता; स्वयमेव परको पररूप और
आपको आपरूप जानता रहता है। ऐसा नहीं है कि परद्रव्यका जानना ही मिट जाता है। इसलिये
परद्रव्यको जानने या स्वद्रव्यके विशेषोंको जाननेका नाम विकल्प नहीं है।
अन्य ज्ञेयको जाननेके अर्थ उपयोगको भ्रमाते नहीं हैं; वहाँ निर्विकल्पदशा जानना।
जानना होता है; परन्तु जब तक वीतरागता रहे, रागादिसे आप उपयोगको न भ्रमाये तब
तक निर्विकल्पदशा कहते हैं।
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किसीके घर जाकर यथायोग्य प्रवर्ते तो कुछ दोष है नहीं। उसी प्रकार उपयोगरूप परिणति
राग-द्वेषभावसे परद्रव्योंमें प्रवर्तती थी; उसे मना किया कि परद्रव्योंमें प्रवर्तन मत कर, स्वरूपमें
मग्न रह। तथा जो उपयोगरूप परिणति वीतरागभावसे परद्रव्यको जानकर यथायोग्य प्रवर्ते
तो कुछ दोष है नहीं।
कारण नहीं हैं ऐसे पराये घरोंमें जानेका त्याग है नहीं; उसी प्रकार जो राग-द्वेषके कारण
नहीं हैं ऐसे परद्रव्योंको जाननेका त्याग है नहीं।
सात तत्त्वोंका विचार करना, बिना प्रयोजन गुणस्थानादिकका विचार करना योग्य नहीं है?
यहाँ ऐसा जानना कि जैसे शीलवती स्त्री उद्यमपूर्वक तो विट पुरुषोंके स्थान पर न जाये;
यदि परवश वहाँ जाना बन जाये और वहाँ कुशील सेवन न करे तो स्त्री शीलवती ही
है। उसी प्रकार वीतराग परिणति उपायपूर्वक तो रागादिकके कारण परद्रव्योंमें न लगे; यदि
स्वयमेव उनका जानना हो जाये और वहाँ रागादिक न करे तो परिणति शुद्ध ही है। इसलिये
मुनियोंको स्त्री आदिके परीषह होने पर उनको जानते ही नहीं, अपने स्वरूपका ही जानना
रहता है
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परद्रव्यरूप श्रद्धानादि करनेसे सम्यग्दर्शनादि न होते हों तो केवलीके भी उनका अभाव हो।
जहाँ परद्रव्यको बुरा जानना, निजद्रव्यको भला जानना हो; वहाँ तो राग-द्वेष सहज ही हुए।
जहाँ आपको आपरूप और परको पररूप यथार्थ जानता रहे, वैसे ही श्रद्धानादिरूप प्रवर्तन
करे; तभी सम्यग्दर्शनादि होते हैं
जिसप्रकारसे रागादि मिटें वही आचरण सम्यक्चारित्र है; ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।
होकर सच्चे मोक्षमार्गमें उद्यमी नहीं होते हैं, उन्हें मोक्षमार्गमें सन्मुख करनेके लिये उस शुभरूप
मिथ्याप्रवृत्तिका भी निषेधरूप निरूपण करते हैं।
भला होगा। जैसे
धर्मका निषेध सुनकर धर्मसाधन छोड़ विषय-कषायरूप प्रवर्तन करेगा तो वही नरकादिमें दुःख
पायेगा। उपदेशदाताका तो दोष है नहीं। उपदेश देनेवालेका अभिप्राय तो असत्यश्रद्धानादि
छुड़ाकर मोक्षमार्गमें लगानेका जानना।
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प्रवर्तते हैं उसी प्रकार यह प्रवर्तते हैं। यदि कुलक्रमसे ही धर्म हो तो मुसलमान आदि सभी
धर्मात्मा हो जायें। जैनधर्मकी विशेषता क्या रही?
देते हैं। तो त्रिलोकप्रभु जिनेन्द्रदेवके धर्मके अधिकारमें क्या कुलक्रमानुसार न्याय संभव है?
जाये और पुत्र मोक्ष जाता है, वहाँ कुलक्रम कैसे रहा? यदि कुल पर दृष्टि हो तो पुत्र
भी नरकगामी होना चाहिये। इसलिये धर्ममें कुलक्रमका कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
त्याग करके जिन-आज्ञानुसार प्रवर्तन करना योग्य है।
उससे कहते हैं
पुरातन जैनशास्त्रोंमें जैसा धर्म लिखा था, वैसे प्रवर्तन करे तो उसे नवीन मार्ग कैसे कहा
जा सकता है?
फलादिकका निश्चय करके अंगीकार करना। जो सच्चे भी धर्मको कुलाचार जानकर प्रवर्तता
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छोड़ देगा। तथा वह जो आचरण करता है सो कुलके भयसे करता है, कुछ धर्मबुद्धिसे
नहीं करता, इसलिये वह धर्मात्मा नहीं है।
अपने-अपने शास्त्रकी आज्ञा मानकर धर्मात्मा हो जायें; इसलिये परीक्षा करके जिनवचनकी
सत्यता पहिचानकर जिनाज्ञा मानना योग्य है।
यह तो पक्षसे आज्ञा मानना है।
प्रकार है?
ही प्रमाण होते हैं। वहाँ नाना शास्त्रोंमें जो कथन समान हों उनकी तो परीक्षा करनेका
प्रयोजन ही नहीं है; परन्तु जो कथन परस्पर विरुद्ध हों उनमेंसे जो कथन प्रत्यक्ष-अनुमानादि
गोचर हों उनकी तो परीक्षा करना। वहाँ जिन शास्त्रोंके कथनकी प्रमाणता ठहरे, उन शास्त्रोंमें
जो प्रत्यक्ष-अनुमानगोचर नहीं हैं
नहीं। तूनें परीक्षा भले प्रकार नहीं की, इसलिये भ्रम है।
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परीक्षा होती है।
यह अन्यथा प्ररूपित किये हों उनकी आज्ञा नहीं मानना।
कहा, उसमें प्रयोजनरहित द्वीप-समुद्रादिकका कथन अन्यथा कैसे होगा? क्योंकि देवादिकका
कथन अन्यथा करनेसे वक्ताके विषय-कषायका पोषण होता है।
ठहरेगी। वहाँ तुच्छबुद्धि भ्रममें पड़ जाते हैं कि यह भी मत है, यह भी मत है। इसलिये
प्रयोजनभूतका अन्यथापना मिलानेके लिये अप्रयोजनभूत कथन भी अन्यथा बहुत किये हैं। तथा
प्रतीति करानेके अर्थ कोई-कोई सच्चे कथन भी किये हैं। परन्तु जो चतुर हो सो भ्रममें नहीं
पड़ता। प्रयोजनभूत कथनकी परीक्षा करके जहाँ सत्य भासित हो, उस मतकी सर्व आज्ञा माने।
उसका नाम आज्ञासम्यक्त्व है। और वहाँ एकाग्र चिंतवन होनेसे उसीका नाम आज्ञाविचय-
धर्मध्यान है।
जाते हैं; उनके मिथ्यादृष्टिपना कैसे रहा? इसलिये कुछ परीक्षा करके आज्ञा मानने पर ही
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करते हैं।
आज्ञाप्रधानसे परीक्षाप्रधानको उत्तम किसलिये कहा? पृच्छना आदि स्वाध्यायके अंग कैसे कहे?
प्रमाण-नयसे पदार्थोंका निर्णय करनेका उपदेश किसलिये दिया? इसलिये परीक्षा करके आज्ञा
मानना योग्य है।
करके, व परस्पर शास्त्रोंसे विधि मिलाकर, व इस प्रकार सम्भव है या नहीं
ग्रन्थादि बनाकर वहाँ कर्ताका नाम जिन, गणधर, आचार्योंका रखा; उस नामके भ्रमसे झूठ
श्रद्धान करे तो मिथ्यादृष्टि ही होगा।
श्रद्धान होने पर तो सर्वथा सम्यक्त्व रहता नहीं है
व जिनधर्मसे इष्ट प्राप्ति होनेके कारण जिनमतको उत्तम जानकर, प्रीतिवंत होकर जैनी होते
हैं। सो अन्यमतोंमें भी ये कार्य तो पाये जाते हैं; इसलिये इन लक्षणोंमें तो अतिव्याप्ति
पाया जाता है।
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हैं। इसी प्रकार अन्य जानना।
है, व वास्तवमें रागादिक मिटने पर सम्यक्चारित्र होता है। सो इनके स्वरूपका जैसा जिनमतमें
निरूपण किया है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं किया, तथा जैनीके सिवाय अन्यमती ऐसा कार्य
कर नहीं सकते। इसलिये यह जिनमतका सच्चा लक्षण है। इस लक्षणको पहिचानकर जो
परीक्षा करते हैं वे ही श्रद्धानी हैं। इसके सिवाय जो अन्य प्रकारसे परीक्षा करते हैं वे
मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं।
प्रवर्तते हैं।
भी औरोंसे तो भले ही हैं।
ऐसी बुद्धि आती है। उनका सुलझना भी कठिन है। जैनधर्मका सेवन तो संसार नाशके
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हैं। इसलिये वे तो मिथ्यादृष्टि हैं ही।
तो पाप ही होगा। हिंसादि द्वारा भोगादिकके हेतु अलग मकान बनवाता है तो बनवाये,
परन्तु चैत्यालयमें भोगादि करना योग्य नहीं है। उसी प्रकार धर्मका साधन पूजा, शास्त्रादिक
कार्य हैं; उन्हींको आजीविकादि पापका भी साधन बनाये तो पापी ही होगा। हिंसादिसे
आजीविकादिके अर्थ व्यापारादि करता है तो करे, परन्तु पूजादि कार्योंमें तो आजीविकादिका
प्रयोजन विचारना योग्य नहीं है।
है नहीं। तथा यदि आप भोजनादिकका प्रयोजन विचारकर धर्म साधता है तो पापी है ही।
जो विरागी होकर मुनिपना अंगीकार करते हैं उनको भोजनादिकका प्रयोजन कहीं है। शरीरकी
स्थितिके अर्थ स्वयमेव भोजनादि कोई दे तो लेते हैं नहीं तो समता रखते हैं
और आपके जिसका त्याग नहीं है वैसा उपकार कराते हैं। कोई साधर्मी स्वयमेव उपकार
करता है तो करे, और यदि न करे तो उन्हें कुछ संक्लेश होता नहीं।
भोजनादिक उपकार कोई न करे वहाँ संक्लेश करे, याचना करे, उपाय करे, अथवा धर्म-
साधनमें शिथिल हो जाये; तो उसे पापी ही जानना।
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हूँ, किस प्रयोजनके अर्थ स्तुति करता हूँ, पाठमें क्या अर्थ है, सो कुछ पता नहीं है।
विचार ही नहीं है, तथा बाह्यमें भी रागादिके पोषणके साधन करता है।
कार्य करना कहा है। सो परिणामोंकी तो पहिचान नहीं है और यहाँ अपराध कितना लगता
है, गुण कितना होता है
लेता है; परन्तु शास्त्राभ्यासका प्रयोजन है उसे आप अन्तरंगमें नहीं अवधारण करता।
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विचारसहित अभूतार्थधर्मको साधते हैं।
प्रकारसे अपने परिणामोंको भी सुधारते हैं
साधन करते हैं।
है; परन्तु उनके गुण-अवगुणकी परीक्षा नहीं करते, अथवा परीक्षा भी करते हैं तो
तत्त्वज्ञानपूर्वक सच्ची परीक्षा नहीं करते, बाह्यलक्षणों द्वारा परीक्षा करते हैं। ऐसी प्रतीतिसे
सुदेव-गुरु-शास्त्रोंकी भक्तिमें प्रवर्तते हैं।
हैं, केवलज्ञान द्वारा लोकालोकको जानते हैं, काम-क्रोधादिक नष्ट किये हैं
भिन्न-भिन्न नहीं पहिचानते। जिस प्रकार कोई असमानजातीय मनुष्यादि पर्यायोंमें जीव-पुद्गलके
विशेषणोंको भिन्न न जानकर मिथ्यादृष्टि धारण करता है, उसी प्रकार यह भी असमानजातीय
अरहन्तपर्यायमें जीव-पुद्गलके विशेषणोंको भिन्न न जानकर मिथ्यादृष्टि धारण करता है।
महन्तपना आज्ञानुसार मानता है अथवा अन्यथा मानता है। क्योंकि यथावत् जीवके विशेषण
जाने तो मिथ्यादृष्टि न रहे।
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ऐसा नहीं जानता कि फल तो अपने परिणामोंका लगता है, अरहन्त उनको निमित्तमात्र हैं,
इसलिये उपचार द्वारा वे विशेषण सम्भव होते हैं।
हैं; परन्तु बिना परिणामके नाम लेनेवालेको भी स्वर्गकी प्राप्ति नहीं होती, तब सुननेवालेको
कैसे होगी? श्वानादिकको नाम सुननेके निमित्तसे कोई मन्दकषायरूप भाव हुए हैं उनका फल
स्वर्ग हुआ है; उपचारसे नामकी ही मुख्यता की है।
है। सो इष्ट-अनिष्टका कारण तो पूर्वकर्मका उदय है, अरहन्त तो कर्ता हैं नहीं।
अरहन्तादिककी भक्तिरूप शुभोपयोग परिणामोंसे पूर्वपापके संक्रमणादि हो जाते हैं, इसलिये
उपचारसे अनिष्टके नाशका व इष्टकी प्राप्तिका कारण अरहन्तादिककी भक्ति कही जाती है।
परन्तु जो जीव प्रथमसे ही सांसारिक प्रयोजनसहित भक्ति करता है उसके तो पापका ही
अभिप्राय हुआ। कांक्षा, विचिकित्सारूप भाव हुए
परन्तु भक्ति तो रागरूप है और रागसे बन्ध है, इसलिये मोक्षका कारण नहीं है। जब रागका
उदय आता है तब भक्ति न करे तो पापानुराग हो, इसलिये अशुभराग छोड़नेके लिये ज्ञानी
भक्तिमें प्रवर्तते हैं और मोक्षमार्गको बाह्य निमित्तमात्र भी जानते हैं; परन्तु यहाँ ही उपादेयपना
मानकर सन्तुष्ट नहीं होते, शुद्धोपयोगके उद्यमी रहते हैं।
भी होती है।