Moksha-Marg Prakashak (Hindi).

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सातवाँ अधिकार ][ २०३
तथा वह तपश्चरण को वृथा क्लेश ठहराता है; सो मोक्षमार्गी होने पर तो संसारी
जीवोंसे उल्टी परिणति चाहिये। संसारियोंको इष्ट-अनिष्ट सामग्रीसे राग-द्वेष होता है, इसके
राग-द्वेष नहीं होना चाहिये। वहाँ राग छोड़नेके अर्थ इष्ट सामग्री भोजनादिकका त्यागी होता
है, और द्वेष छोड़नेके अर्थ अनिष्ट सामग्री अनशनादिको अंगीकार करता है। स्वाधीनरूपसे
ऐसा साधन हो तो पराधीन इष्ट-अनिष्ट सामग्री मिलने पर भी राग-द्वेष न हो, सो होना तो
ऐसा ही चाहिये; परन्तु तुझे अनशनादिसे द्वेष हुआ, इसलिये उसे क्लेश ठहराया। जब यह
क्लेश हुआ तब भोजन करना सुख स्वयमेव ठहरा और वहाँ राग आया; सो ऐसी परिणति
तो संसारियोंके पाई ही जाती है, तूने मोक्षमार्गी होकर क्या किया?
यदि तू कहेगाकितने ही सम्यग्दृष्टि भी तपश्चरण नहीं करते हैं?
उत्तरःकारण विशेषसे तप नहीं हो सकता, परन्तु श्रद्धानमें तपको भला जानते
हैं और उसके साधनका उद्यम रखते हैं। तुझे तो श्रद्धान यह है कि तप करना क्लेश
है, तथा तपका तेरे उद्यम नहीं है, इसलिये तुझे सम्यग्दृष्टि कैसे हो?
फि र वह कहता हैशास्त्रमें ऐसा कहा है कि तप आदिका क्लेश करता है तो
करो, ज्ञान बिना सिद्धि नहीं है?
उत्तरःजो जीव तत्त्वज्ञानसे तो पराङ्मुख हैं, तपसे ही मोक्ष मानते हैं, उनको ऐसा
उपदेश दिया हैतत्त्वज्ञानके बिना केवल तपसे ही मोक्षमार्ग नहीं होता। तथा तत्त्वज्ञान
होने पर रागादिक मिटानेके अर्थ तप करनेका तो निषेध है नहीं। यदि निषेध हो तो
गणधरादिक तप किसलिए करें? इसलिये अपनी शक्ति-अनुसार तप करना योग्य है।
तथा वह व्रतादिकको बन्धन मानता है; सो स्वच्छन्दवृत्ति तो अज्ञान-अवस्थामें थी ही,
ज्ञान प्राप्त करने पर तो परिणतिको रोकता ही है। तथा उस परिणतिको रोकनेके अर्थ बाह्य
हिंसादिक कारणोंका त्यागी अवश्य होना चाहिये।
फि र वह कहता हैहमारे परिणाम तो शुद्ध हैं; बाह्यत्याग नहीं किया तो नहीं किया?
उत्तर :यदि यह हिंसादि कार्य तेरे परिणाम बिना स्वयमेव होते हों तो हम ऐसा
मानें। और यदि तू अपने परिणामसे कार्य करता है तो वहाँ तेरे परिणाम शुद्ध कैसे कहें?
विषय-सेवनादि क्रिया अथवा प्रमादरूप गमनादि क्रिया परिणाम बिना कैसे हो? वह क्रिया
तो स्वयं उद्यमी होकर तू करता है और वहाँ हिंसादिक होते हैं उन्हें गिनता नहीं है, परिणाम
शुद्ध मानता है। सो ऐसी मान्यतासे तेरे परिणाम अशुद्ध ही रहेंगे।

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२०४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
फि र वह कहता हैपरिणामोंको रोकें, बाह्य हिंसादिक भी कम करें; परन्तु प्रतिज्ञा
करनेमें बन्धन होता है, इसलिये प्रतिज्ञारूप व्रत अंगीकार नहीं करना?
समाधान :जिस कार्य को करनेकी आशा रहे उसकी प्रतिज्ञा नहीं लेते। और
आशा रहे उससे राग रहता है। उस रागभावसे बिना कार्य किये भी अविरतिसे कर्मबन्ध
होता रहता है; इसलिये प्रतिज्ञा अवश्य करने योग्य है। तथा कार्य करनेका बन्धन हुए
बिना परिणाम कैसे रुकेंगे? प्रयोजन पड़ने पर तद्रूप परिणाम होंगे, तथा बिना प्रयोजन पड़े
उसकी आशा रहती है; इसलिये प्रतिज्ञा करना योग्य है।
फि र वह कहता हैन जाने कैसा उदय आये और बादमें प्रतिज्ञा भंग हो, तो
महापाप लगता है। इसलिये प्रारब्धअनुसार कार्य बने सो बनो, प्रतिज्ञाका विकल्प नहीं
करना?
समाधान :प्रतिज्ञा ग्रहण करते हुए जिसका निर्वाह होता न जाने, वह प्रतिज्ञा तो
न करे; प्रतिज्ञा लेते ही यह अभिप्राय रहे कि प्रयोजन पड़ने पर छोड़ दूँगा, तो वह प्रतिज्ञा
क्या कार्यकारी हुई? प्रतिज्ञा ग्रहण करते हुए तो यह परिणाम है कि मरणान्त होने पर
भी नहीं छोडूँगा, तो ऐसी प्रतिज्ञा करना युक्त ही है। बिना प्रतिज्ञा किये अविरत सम्बन्धी
बन्ध नहीं मिटता।
तथा आगामी उदयके भयसे प्रतिज्ञा न ली जाये, तो उदयको विचारनेसे सर्व ही
कर्तव्यका नाश होता है। जैसेअपनेको पचता जाने उतना भोजन करे। कदाचित् किसीको
भोजनसे अजीर्ण हुआ हो, और उस भयसे भोजन करना छोड़ दे तो मरण ही होगा। उसी
प्रकार अपने से निर्वाह होता जाने उतनी प्रतिज्ञा करे। कदाचित् किसीके प्रतिज्ञासे भ्रष्टपना
हुआ हो और उस भयसे प्रतिज्ञा करना छोड़ दे तो असंयम ही होगा; इसलिये जो बन
सके वह प्रतिज्ञा लेना योग्य है।
तथा प्रारब्ध-अनुसार तो कार्य बनता ही है, तू उद्यमी होकर भोजनादि किसलिये करता
है? यदि वहाँ उद्यम करता है तो त्याग करनेका भी उद्यम करना योग्य ही है। जब प्रतिमावत्
तेरी दशा हो जायेगी तब हम प्रारब्ध ही मानेंगे, तेरा कर्तव्य नहीं मानेगे। इसलिये स्वच्छन्द
होनेकी युक्ति किसलिये बनाता है? बने वह प्रतिज्ञा करके व्रत धारण करना योग्य ही है।
तथा वह पूजनादि कार्यको शुभास्रव जानकर हेय मानता है, सो यह सत्य ही है;
परन्तु यदि इन कार्योंको छोड़कर शुद्धोपयोगरूप हो तो भला ही है, और विषय- कषायरूप
अशुभरूप प्रवर्ते तो अपना बुरा ही किया।

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सातवाँ अधिकार ][ २०५
शुभोपयोगसे स्वर्गादि हों, अथवा भली वासनासे या भले निमित्तसे कर्मके स्थिति-अनुभाग
घट जायें तो सम्यक्त्वादिकी भी प्राप्ति हो जाये। और अशुभोपयोगसे नरक-निगोदादि हों,
अथवा बुरी वासनासे या निमित्तसे कर्मके स्थिति-अनुभाग बढ़ जायें तो सम्यक्त्वादिक महा
दुर्लभ हो जायें।
तथा शुभोपयोग होनेसे कषाय मन्द होती है और अशुभोपयोग होनेसे तीव्र होती है;
सो मन्दकषायका कार्य छोड़कर तीव्रकषायका कार्य करना तो ऐसा है जैसे कड़वी वस्तु न
खाना और विष खाना। यो यह अज्ञानता है।
फि र वह कहता हैशास्त्रमें शुभ-अशुभको समान कहा है, इसलिये हमें तो विशेष
जानना योग्य नहीं है?
समाधानःजो जीव शुभोपयोगको मोक्षका कारण मानकर उपादेय मानते हैं और
शुद्धोपयोगको नहीं पहिचानते, उन्हें शुभ-अशुभ दोनोंको अशुद्धताकी अपेक्षा व बन्धकारणकी
अपेक्षा समान बतलाया है।
तथा शुभ-अशुभका परस्पर विचार करें तो शुभभावोंमें कषाय मन्द होती है, इसलिये
बन्ध हीन होता है; अशुभभावोंमें कषाय तीव्र होती है, इसलिये बन्ध बहुत होता है। इस
प्रकार विचार करने पर अशुभकी अपेक्षा सिद्धान्तमें शुभको भला भी कहा जाता है। जैसे
रोग तो थोड़ा या बहुत बुरा ही है, परन्तु बहुत रोगकी अपेक्षा थोड़े रोगको भला भी कहते
हैं।
इसलिये शुद्धोपयोग न हो, तब अशुभसे छूटकर शुभमें प्रवर्तना योग्य है; शुभको
छोड़कर अशुभमें प्रवर्तना योग्य नहीं है।
फि र वह कहता हैकामादिक या क्षुधादिक मिटानेकी अशुभरूप प्रवृत्ति तो हुए बिना
रहती नहीं है, और शुभ प्रवृत्ति इच्छा करके करनी पड़ती है; ज्ञानीको इच्छा नहीं चाहिये,
इसलिये शुभका उद्यम नहीं करना?
उत्तर :शुभ प्रवृत्तिमें उपयोग लगनेसे तथा उसके निमित्तसे विरागता बढ़नेसे
कामादिक हीन होते हैं और क्षुधादिकमें भी संक्लेश थोड़ा होता है। इसलिये शुभोपयोगका
अभ्यास करना। उद्यम करने पर भी यदि कामादिक व क्षुधादिक पीड़ित करते हैं तो उनके
अर्थ जिससे थोड़ा पाप लगे वह करना। परन्तु शुभोपयोगको छोड़कर निःशंक पापरूप प्रवर्तन
करना तो योग्य नहीं है।

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२०६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
और तू कहता हैज्ञानीके इच्छा नहीं है और शुभोपयोग इच्छा करनेसे होता है;
सो जिस प्रकार कोई पुरुष किंचित्मात्र भी अपना धन देना नहीं चाहता; परन्तु जहाँ बहुत
धन जाता जाने वहाँ अपनी इच्छासे थोड़ा धन देनेका उपाय करता है; उसी प्रकार ज्ञानी
किंचित्मात्र भी कषायरूप कार्य नहीं करना चाहता, परन्तु जहाँ बहुत कषायरूप अशुभ- कार्य
होता जाने वहाँ इच्छा करके अल्प कषायरूप शुभकार्य करनेका उद्यम करता है।
इसप्रकार यह बात सिद्ध हुई कि जहाँ शुद्धोपयोग होता जाने वहाँ तो शुभ कार्यका
निषेध ही है और जहाँ अशुभोपयोग होता जाने वहाँ शुभका उपाय करके अंगीकार करना
योग्य है।
इसप्रकार अनेक व्यवहारकार्योंका उत्थापन करके जो स्वच्छन्दपनेको स्थापित करता है,
उसका निषेध किया।
केवल निश्चयाभासके अवलम्बी जीवकी प्रवृत्ति
अब, उसी केवल निश्चयावलम्बी जीवकी प्रवृत्ति बतलाते हैंः
एक शुद्धात्माको जाननेसे ज्ञानी हो जाते हैंअन्य कुछ भी नहीं चाहिये; ऐसा जानकर
कभी एकान्तमें बैठकर ध्यानमुद्रा धारण करके ‘मैं सर्व कर्मोपाधिरहित सिद्धसमान आत्मा हूँ’
इत्यादि विचारसे संतुष्ट होता है; परन्तु यह विशेषण किस प्रकार सम्भव हैऐसा विचार
नहीं है। अथवा अचल, अखण्ड, अनुपमादि विशेषण द्वारा आत्माको ध्याता है; सो यह
विशेषण अन्य द्रव्योंमें भी संभवित हैं। तथा यह विशेषण किस अपेक्षासे हैं सो विचार नहीं
है। तथा कदाचित् सोते-बैठते जिस-तिस अवस्थामें ऐसा विचार रखकर अपनेको ज्ञानी मानता
है।
तथा ज्ञानीके आस्रव-बन्ध नहीं हैंऐसा आगममें कहा है; इसलिये कदाचित् विषय-
कषायरूप होता है, वहाँ बन्ध होनेका भय नहीं है, स्वच्छन्द हुआ रागादिरूप प्रवर्तता है।
सो स्व-परको जाननेका तो चिह्न वैराग्यभाव है। सो समयसारमें कहा हैः
‘‘सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः’’
अर्थःसम्यग्दृष्टिके निश्चयसे ज्ञान-वैराग्यशक्ति होती है।
१. सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः, स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या।
यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च, स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।।
(समयसार कलश-१३६)

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सातवाँ अधिकार ][ २०७
फि र कहा हैः
सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्या-
दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु
आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा
आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वशून्याः
।।१३७।।
अर्थःस्वयमेव यह मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मेरे कदाचित् बन्ध नहीं हैइस प्रकार ऊँचा
फु लाया है मुँह जिन्होंनेऐसे रागी वैराग्यशक्ति रहित आचरण करते हैं तो करो, तथा पाँच
समितिकी सावधानीका अवलम्बन लेते हैं तो लो; परन्तु वे ज्ञानशक्ति बिना आज भी पापी
ही हैं। यह दोनों आत्मा-अनात्माके ज्ञानरहितपनेसे सम्यक्त्वरहित ही हैं।
फि र पूछते हैंपरको पर जाना तो परद्रव्योंमें रागादि करनेका क्या प्रयोजन रहा?
वहाँ वह कहता हैमोहके उदयसे रागादिक होते हैं। पूर्वकालमें भरतादिक ज्ञानी हुए, उनके
भी विषय-कषायरूप कार्य हुआ सुनते हैं।
उत्तरःज्ञानीके भी मोहके उदयसे रागादिक होते हैं यह सत्य है; परन्तु बुद्धिपूर्वक
रागादिक नहीं होते। उसका विशेष वर्णन आगे करेंगे।
तथा जिसके रागादिक होनेका कुछ विषाद नहीं है, उनके नाशका उपाय भी नहीं
है, उसको रागादिक बुरे हैंऐसा श्रद्धान भी नहीं सम्भवित होता। और ऐसे श्रद्धान बिना
सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकता है? जीवाजीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान करनेका प्रयोजन तो इतना ही
श्रद्धान है।
तथा भरतादिक सम्यग्दृष्टियोंके विषय-कषायोंकी प्रवृत्ति जैसे होती है वह भी विशेषरूपसे
आगे कहेंगे। तू उनके उदाहरणसे स्वच्छन्द होगा तो तुझे तीव्र आस्रव-बन्ध होगा।
वही कहा हैः
‘‘मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः’’
अर्थःज्ञाननयका अवलोकन करनेवाले भी जो स्वच्छन्द मन्दउद्यमी होते हैं, वे संसारमें
डूबते हैं।
१. मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति यन्, मग्ना ज्ञाननयैषिणोऽपि यदतिस्वच्छन्दमन्दोद्यमाः।
विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च।।
(समयसार कलश१११)

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२०८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
और भी वहाँ ‘‘ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं’’ इत्यादि क लशमें तथा ‘‘तथापि
न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनः’’इत्यादि क्लशमें स्वच्छन्दी होनेका निषेध किया है। बिना
इच्छाके जो कार्य हो वह कर्मबन्धका कारण नहीं है। अभिप्रायसे कर्ता होकर करे और
ज्ञाता रहे यह तो बनता नहीं है
इत्यादि निरूपण किया है।
इसलिये रागादिकको बुरेअहितकारी जानकर उनके नाशके अर्थ उद्यम रखना।
वहाँ अनुक्रमसे पहले तीव्र रागादि छोड़नेके अर्थ अशुभ कार्य छोड़कर शुभमें लगना,
और पश्चात् मन्द रागादि भी छोड़नेके अर्थ शुभको छोड़कर शुद्धोपयोगरूप होना।
तथा कितने ही जीव अशुभमें क्लेश मानकर व्यापारादि कार्य व स्त्री-सेवनादि कार्योंको
भी घटाते हैं, तथा शुभको हेय जानकर शास्त्राभ्यासादि कार्योंमें नहीं प्रवर्तते हैं, वीतरागभावरूप
शुद्धोपयोगको प्राप्त हुए नहीं हैं; इसलिए वे जीव अर्थ, काम, धर्म, मोक्षरूप पुरुषार्थसे रहित
होते हुए आलसी
निरुद्यमी होते हैं।
उनकी निन्दा पंचास्तिकायकी व्याख्यामें की है। उनके लिये दृष्टान्त दिया है कि जैसे
बहुत खीर-शक्कर खाकर पुरुष आलसी होता है व जैसे वृक्ष निरुद्यमी हैं; वैसे वे जीव आलसी
निरुद्यमी हुए हैं।
अब इनसे पूछते हैं कि तुमने बाह्य तो शुभ-अशुभ कार्योंको घटाया, परन्तु उपयोग
तो बिना आलम्बनके रहता नहीं है; तो तुम्हारा उपयोग कहाँ रहता है? सो कहो।
यदि वह कहे कि आत्माका चिंतवन करता है, तो शास्त्रादि द्वारा अनेक प्रकारसे आत्माके
विचारको तो तुमने विकल्प ठहराया, और आत्माका कोई विशेषण जाननेमें बहुत काल लगता
नहीं है, बारम्बार एकरूप चिंतवनमें छद्मस्थका उपयोग लगता नहीं है, गणधरादिकका भी उपयोग
इसप्रकार नहीं रह सकता, इसलिये वे भी शास्त्रादि कार्योंमें प्रवर्तते हैं, तेरा उपयोग गणधरादिकसे
भी कैसे शुद्ध हुआ मानें? इसलिये तेरा कहना प्रमाण नहीं है।
जैसे कोई व्यापारादिमें निरुद्यमी होकर निठल्ला जैसे-तैसे काल गँवाता है; उसीप्रकार
१. ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते, भुंक्षे हंत न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः।
बंधः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते, ज्ञानं सन्वस बंधमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्ध्रुवम्।।
(समयसार कलश-१५१)
२. तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनां तदायतनमेव सा किल निरर्गला व्यापृतिः।
अकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च।।
(समयसार कलश१६६)
३. गाथा १७२ की टीकामें।

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सातवाँ अधिकार ][ २०९
तू धर्ममें निरुद्यमी होकर प्रमाद सहित यों ही काल गंवाता है। कभी कुछ चिंतवन-सा करता
है, कभी बातें बनाता है, कभी भोजनादि करता है; परन्तु अपना उपयोग निर्मल करनेके
लिए शास्त्राभ्यास, तपश्चरण, भक्ति आदि कर्मोंमें नहीं प्रवर्तता। सूना-सा होकर प्रमादी होनेका
नाम शुद्धोपयोग ठहराता है। वहाँ क्लेश थोड़ा होनेसे जैसे कोई आलसी बनकर पड़े रहनेमें
सुख माने वैसे आनन्द मानता है।
अथवा जैसे कोई स्वप्नमें अपनेको राजा मानकर सुखी हो; उसी प्रकार अपनेको भ्रमसे
सिद्ध समान शुद्ध मानकर स्वयं ही आनन्दित होता है। अथवा जैसे कहीं रति मानकर सुखी
होता है; उसी प्रकार कुछ विचार करनेमें रति मानकर सुखी होता है; उसे अनुभवजनित
आनन्द कहता है। तथा जैसे कहीं अरति मानकर उदास होता है; उसी प्रकार व्यापारादिक,
पुत्रादिकको खेदका कारण जानकर उनसे उदास रहता और उसे वैराग्य मानता है
सो ऐसा
ज्ञान-वैराग्य तो कषायगर्भित है। वीतरागरूप उदासीनदशा में जो निराकुलता होती है वह
सच्चा आनन्द, ज्ञान, वैराग्य ज्ञानी जीवोंके चारित्रमोहकी हीनता होने पर प्रगट होता है।
तथा वह व्यापारादिक क्लेश छोड़कर यथेष्ट भोजनादि द्वारा सुखी हुआ प्रवर्तता है
और वहाँ अपनेको कषायरहित मानता है; परन्तु इस प्रकार आनन्दरूप होनेसे तो रौद्रध्यान
होता है। जहाँ सुखसामग्रीको छोड़कर दुःखसामग्रीका संयोग होने पर संक्लेश न हो, राग-
द्वेष उत्पन्न न हों; तब निःकषायभाव होता है।
ऐसी भ्रमरूप उनकी प्रवृत्ति पायी जाती है।
इस प्रकार जो जीव केवल निश्चयाभासके अवलम्बी हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानना।
जैसेवेदान्ती व सांख्यमती जीव केवल शुद्धात्माके श्रद्धानी हैं; उसी प्रकार इन्हें भी जानना।
क्योंकि श्रद्धानकी समानताके कारण उनका उपदेश इन्हें इष्ट लगता है, इनका उपदेश उन्हें
इष्ट लगता है।
तथा उन जीवोंको ऐसा श्रद्धान है कि केवल शुद्धात्माके चिंतवनसे तो संवर-निर्जरा
होते हैं व मुक्तात्माके सुखका अंश वहाँ प्रगट होता है; तथा जीवके गुणस्थानादि अशुद्ध
भावोंका और अपने अतिरिक्त अन्य जीव-पुद्गलादिका चिंतवन करनेसे आस्रव-बन्ध होता है;
इसलिये अन्य विचारसे पराङ्मुख रहते हैं।
सो यह भी सत्यश्रद्धान नहीं है, क्योंकि शुद्ध स्वद्रव्यका चिंतवन करो या अन्य चिंतवन
करो; यदि वीतरागतासहित भाव हों तो वहाँ संवर-निर्जरा ही है, और जहाँ रागादिरूप भाव
हों वहाँ आस्रव-बन्ध ही है। यदि परद्रव्यको जाननेसे ही आस्रव-बन्ध होते हों, तो केवली
तो समस्त परद्रव्योंको जानते हैं, इसलिये उनके भी आस्रव-बन्ध होंगे।

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२१० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
फि र वह कहता है कि छद्मस्थके तो परद्रव्य चिंतवनसे आस्रव-बन्ध होता है? सो
भी नहीं है; क्योंकि शुक्लध्यानमें भी मुनियोंको छहों द्रव्योंके द्रव्य-गुण-पर्यायोंका चिंतवन होनेका
निरूपण किया है, और अवधि-मनःपर्यय आदिमें परद्रव्यको जाननेकी ही विशेषता होती है;
तथा चौथे गुणस्थानमें कोई अपने स्वरूपका चिंतवन करता है उसके भी आस्रव-बन्ध अधिक
हैं तथा गुणश्रेणी निर्जरा नहीं है; पाँचवे-छट्ठे गुणस्थानमें आहार-विहारादि क्रिया होने पर परद्रव्य
चिंतवनसे भी आस्रव-बन्ध थोड़ा है और गुणश्रेणी निर्जरा होती रहती है। इसलिये स्वद्रव्य-
परद्रव्यके चिंतवनसे निर्जरा-बन्ध नहीं होते, रागादि घटने से निर्जरा है और रागादि होने से
बन्ध है। उसे रागादिके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान नहीं है, इसलिये अन्यथा मानता है।
अब वह पूछता कि ऐसा है तो निर्विकल्प अनुभवदशामें नय-प्रमाण-निक्षेपादिकके तथा
दर्शन-ज्ञानादिकके भी विकल्पोंका निषेध किया हैसो किस प्रकार है?
उत्तरःजो जीव इन्हीं विकल्पोंमें लगे रहते हैं और अभेदरूप एक आत्माका अनुभव
नहीं करते उन्हें ऐसा उपदेश दिया है कि यह सर्व विकल्प वस्तुका निश्चय करनेमें कारण
हैं, वस्तुका निश्चय होने पर उनका प्रयोजन कुछ नहीं रहता; इसलिये इन विकल्पोंको भी
छोड़कर अभेदरूप एक आत्माका अनुभव करना, इनके विचाररूप विकल्पोंमें ही फँसा रहना
योग्य नहीं है।
तथा वस्तुका निश्चय होनेके पश्चात् ऐसा नहीं है कि सामान्यरूप स्वद्रव्यका ही चिंतवन
रहा करे। स्वद्रव्यका तथा परद्रव्यका सामान्यरूप और विशेषरूप जानना होता है, परन्तु
वीतरागतासहित होता है; उसीका नाम निर्विकल्पदशा है।
वहाँ वह पूछता हैयहाँ तो बहुत विकल्प हुए, निर्विकल्प संज्ञा कैसे सम्भव है?
उत्तरःनिर्विचार होनेका नाम निर्विकल्प नहीं है; क्योंकि छद्मस्थके जानना
विचारसहित है, उसका अभाव माननेसे ज्ञानका अभाव होगा और तब जड़पना हुआ; सो
आत्माके होता नहीं है। इसलिये विचार तो रहता है।
तथा यह कहे कि एक सामान्यका ही विचार रहता है, विशेषका नहीं। तो सामान्यका
विचार तो बहुत काल रहता नहीं है व विशेषकी अपेक्षा बिना सामान्यका स्वरूप भासित
नहीं होता।
तथा यह कहे कि अपना ही विचार रहता है, परका नहीं; तो परमें परबुद्धि हुए
बिना अपनेमें निजबुद्धि कैसे आये?
वहाँ वह कहता हैसमयसारमें ऐसा कहा हैः

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सातवाँ अधिकार ][ २११
भावयेद्भेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधारया
तावद्यावत्पराच्च्युत्वा ज्ञानं ज्ञाने प्रतिष्ठते।।(कलश१३०)
अर्थःभेदज्ञानको तब तक निरन्तर भाना, जब तक परसे छूटकर ज्ञान ज्ञानमें स्थित हो।
इसलिये भेदज्ञान छूटने पर जानना मिट जाता है, केवल आपहीको आप जानता रहता है।
यहाँ तो यह कहा है कि पूर्वकालमें स्व-परको एक जानता था; फि र भिन्न जाननेके लिये
भेदज्ञानको तब तक भाना ही योग्य है जब तक ज्ञान पररूपको भिन्न जानकर अपने ज्ञानस्वरूपमें
ही निश्चित हो जाये। पश्चात् भेदविज्ञान करनेका प्रयोजन नहीं रहता; स्वयमेव परको पररूप और
आपको आपरूप जानता रहता है। ऐसा नहीं है कि परद्रव्यका जानना ही मिट जाता है। इसलिये
परद्रव्यको जानने या स्वद्रव्यके विशेषोंको जाननेका नाम विकल्प नहीं है।
तो किस प्रकार है? सो कहते हैं। राग-द्वेषवश किसी ज्ञेयको जाननेमें उपयोग लगाना
और किसी ज्ञेयके जाननेसे छुड़ानाइस प्रकार बारम्बार उपयोगको भ्रमानाउसका नाम
विकल्प है। तथा जहाँ वीतरागरूप होकर जिसे जानते हैं उसे यथार्थ जानते हैं, अन्य-
अन्य ज्ञेयको जाननेके अर्थ उपयोगको भ्रमाते नहीं हैं; वहाँ निर्विकल्पदशा जानना।
यहाँ कोई कहे कि छद्मस्थका उपयोग तो नाना ज्ञेयोंमें भ्रमता ही भ्रमता है; वहाँ
निर्विकल्पता कैसे सम्भव है?
उत्तरःजितने काल तक जाननेरूप रहे तब तक निर्विकल्प नाम पाता है। सिद्धान्तमें
ध्यानका लक्षण ऐसा ही किया है
‘‘एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्’’ (तत्त्वार्थसूत्र ९-२७)
एकका मुख्य चिंतवन हो और अन्य चिन्ता रुक जायेउसका नाम ध्यान है।
सर्वार्थसिद्धि सूत्रकी टीकामें यह विशेष कहा हैयदि सर्व चिन्ता रुकनेका नाम ध्यान हो
तो अचेतनपना आ जाये। तथा ऐसी भी विवक्षा है कि सन्तान-अपेक्षा नाना ज्ञेयोंका भी
जानना होता है; परन्तु जब तक वीतरागता रहे, रागादिसे आप उपयोगको न भ्रमाये तब
तक निर्विकल्पदशा कहते हैं।
फि र वह कहता हैऐसा है तो परद्रव्यसे छुड़ाकर स्वरूपमें उपयोग लगानेका उपदेश
किसलिये दिया है?
समाधानःजो शुभ-अशुभभावोंके कारण परद्रव्य हैं; उनमें उपयोग लगानेसे जिनको
राग-द्वेष हो आते हैं, और स्वरूप-चिंतवन करें तो जिनके राग-द्वेष घटते हैंऐसे निचली

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२१२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
अवस्थावाले जीवोंको पूर्वोक्त उपदेश है। जैसेकोई स्त्री विकारभावसे पराये घर जाती थी;
उसे मना किया कि पराये घर मत जा, घरमें बैठी रह। तथा जो स्त्री निर्विकार भावसे
किसीके घर जाकर यथायोग्य प्रवर्ते तो कुछ दोष है नहीं। उसी प्रकार उपयोगरूप परिणति
राग-द्वेषभावसे परद्रव्योंमें प्रवर्तती थी; उसे मना किया कि परद्रव्योंमें प्रवर्तन मत कर, स्वरूपमें
मग्न रह। तथा जो उपयोगरूप परिणति वीतरागभावसे परद्रव्यको जानकर यथायोग्य प्रवर्ते
तो कुछ दोष है नहीं।
फि र वह कहता हैऐसा है तो महामुनि परिग्रहादिक चिंतवनका त्याग किसलिये
करते हैं?
समाधानःजैसे विकाररहित स्त्री कुशीलके कारण पराये घरोंका त्याग करती है; उसी
प्रकार वीतराग परिणति राग-द्वेषके कारण परद्रव्योंका त्याग करती है। तथा जो व्यभिचारके
कारण नहीं हैं ऐसे पराये घरोंमें जानेका त्याग है नहीं; उसी प्रकार जो राग-द्वेषके कारण
नहीं हैं ऐसे परद्रव्योंको जाननेका त्याग है नहीं।
फि र वह कहता हैजैसे जो स्त्री प्रयोजन जानकर पितादिकके घर जाती है तो जाये,
बिना प्रयोजन जिस-तिसके घर जाना तो योग्य नहीं है। उसी प्रकार परिणतिको प्रयोजन जानकर
सात तत्त्वोंका विचार करना, बिना प्रयोजन गुणस्थानादिकका विचार करना योग्य नहीं है?
समाधानःजैसे स्त्री प्रयोजन जानकर पितादिक या मित्रादिकके भी घर जाये; उसी
प्रकार परिणति तत्त्वोंके विशेष जाननेके कारण गुणस्थानादिक व कर्मादिकको भी जाने। तथा
यहाँ ऐसा जानना कि जैसे शीलवती स्त्री उद्यमपूर्वक तो विट पुरुषोंके स्थान पर न जाये;
यदि परवश वहाँ जाना बन जाये और वहाँ कुशील सेवन न करे तो स्त्री शीलवती ही
है। उसी प्रकार वीतराग परिणति उपायपूर्वक तो रागादिकके कारण परद्रव्योंमें न लगे; यदि
स्वयमेव उनका जानना हो जाये और वहाँ रागादिक न करे तो परिणति शुद्ध ही है। इसलिये
मुनियोंको स्त्री आदिके परीषह होने पर उनको जानते ही नहीं, अपने स्वरूपका ही जानना
रहता है
ऐसा मानना मिथ्या है। उनको जानते तो हैं, परन्तु रागादिक नहीं करते।
इस प्रकार परद्रव्यको जानते हुए भी वीतरागभाव होता है।ऐसा श्रद्धान करना।
तथा वह कहता हैऐसा है तो शास्त्रमें ऐसा कैसे कहा है कि आत्माका श्रद्धान-
ज्ञान-आचरण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है?
समाधानःअनादिसे परद्रव्यमें आपरूप श्रद्धान-ज्ञान-आचरण था; उसे छुड़ानेके लिये
यह उपदेश है। अपनेमें ही आपरूप श्रद्धान-ज्ञान-आचरण होनेसे परद्रव्यमें राग-द्वेषादि परिणति

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सातवाँ अधिकार ][ २१३
करनेका श्रद्धान व ज्ञान व आचरण मिट जाये तब सम्यग्दर्शनादि होते हैं। यदि परद्रव्यका
परद्रव्यरूप श्रद्धानादि करनेसे सम्यग्दर्शनादि न होते हों तो केवलीके भी उनका अभाव हो।
जहाँ परद्रव्यको बुरा जानना, निजद्रव्यको भला जानना हो; वहाँ तो राग-द्वेष सहज ही हुए।
जहाँ आपको आपरूप और परको पररूप यथार्थ जानता रहे, वैसे ही श्रद्धानादिरूप प्रवर्तन
करे; तभी सम्यग्दर्शनादि होते हैं
ऐसा जानना।
इसलिये बहुत क्या कहेंजिस प्रकारसे रागादि मिटानेका श्रद्धान हो वही श्रद्धान
सम्यग्दर्शन है, जिस प्रकारसे रागादि मिटानेका जानना हो वही जानना सम्यग्ज्ञान है, तथा
जिसप्रकारसे रागादि मिटें वही आचरण सम्यक्चारित्र है; ऐसा ही मोक्षमार्ग मानना योग्य है।
इस प्रकार निश्चयनयसे आभाससहित एकान्तपक्षके धारी जैनाभासोंके मिथ्यात्वका
निरूपण किया।
व्यवहारभासी मिथ्यादृष्टि
अब, व्यवहाराभासपक्षके धारक जैनाभासोंके मिथ्यात्वका निरूपण करते हैंः
जिनागममें जहाँ व्यवहारकी मुख्यतासे उपदेश है, उसे मानकर बाह्यसाधनादिकका ही
श्रद्धानादिक करते हैं, उनके सर्वधर्मके अंग अन्यथारूप होकर मिथ्याभावको प्राप्त होते हैं
सो विशेष कहते हैं।
यहाँ ऐसा जान लेना कि व्यवहारधर्मकी प्रवृत्तिसे पुण्यबन्ध होता है, इसलिये
पापप्रवृत्तिकी अपेक्षा तो इसका निषेध है नहीं; परन्तु यहाँ जो जीव व्यवहारप्रवृत्तिसे ही सन्तुष्ट
होकर सच्चे मोक्षमार्गमें उद्यमी नहीं होते हैं, उन्हें मोक्षमार्गमें सन्मुख करनेके लिये उस शुभरूप
मिथ्याप्रवृत्तिका भी निषेधरूप निरूपण करते हैं।
यह जो कथन करते हैं उसे सुनकर यदि शुभप्रवृत्ति छोड़ अशुभमें प्रवृत्ति करोगे तब
तो तुम्हारा बुरा होगा; और यदि यथार्थ श्रद्धान करके मोक्षमार्गमें प्रवर्तन करोगे तो तुम्हारा
भला होगा। जैसे
कोई रोगी निर्गुण औषधिका निषेध सुनकर औषधि साधनको छोड़कर
कुपथ्य करे तो वह मरेगा, उसमें वैद्यका कुछ दोष नहीं है; उसी प्रकार कोई संसारी पुण्यरूप
धर्मका निषेध सुनकर धर्मसाधन छोड़ विषय-कषायरूप प्रवर्तन करेगा तो वही नरकादिमें दुःख
पायेगा। उपदेशदाताका तो दोष है नहीं। उपदेश देनेवालेका अभिप्राय तो असत्यश्रद्धानादि
छुड़ाकर मोक्षमार्गमें लगानेका जानना।
सो ऐसे अभिप्रायसे यहाँ निरूपण करते हैं।

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२१४ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
[ कुलअपेक्षा धर्मधारक व्यवहाराभासी ]
वहाँ कोई जीव तो कुलक्रमसे ही जैनी हैं, जैनधर्मका स्वरूप जानते नहीं, परन्तु कुलमें
जैसी प्रवृत्ति चली आयी है वैसे प्रवर्तते हैं। वहाँ जिस प्रकार अन्यमती अपने कुलधर्ममें
प्रवर्तते हैं उसी प्रकार यह प्रवर्तते हैं। यदि कुलक्रमसे ही धर्म हो तो मुसलमान आदि सभी
धर्मात्मा हो जायें। जैनधर्मकी विशेषता क्या रही?
वही कहा हैः
लोयम्मि रायणीई णायं ण कुलकम्मि कइयावि
किं पुण तिलोय पहुणो जिणंदधम्माहिगारम्मि।।।। (उपदेशसिद्धान्तरत्नमाला)
अर्थःलोकमें यह राजनीति है कि कदाचित् कुलक्रमसे न्याय नहीं होता है। जिसका
कुल चोर हो, उसे चोरी करते पकड़ लें तो उसका कुलक्रम जानकर छोड़ते नहीं हैं, दण्ड ही
देते हैं। तो त्रिलोकप्रभु जिनेन्द्रदेवके धर्मके अधिकारमें क्या कुलक्रमानुसार न्याय संभव है?
तथा यदि पिता दरिद्री हो और आप धनवान हो, तब वहाँ तो कुलक्रमका विचार
करके आप दरिद्री रहता ही नहीं, तो धर्ममें कुलका क्या प्रयोजन है? तथा पिता नरकमें
जाये और पुत्र मोक्ष जाता है, वहाँ कुलक्रम कैसे रहा? यदि कुल पर दृष्टि हो तो पुत्र
भी नरकगामी होना चाहिये। इसलिये धर्ममें कुलक्रमका कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
शास्त्रोंका अर्थ विचारकर यदि कालदोषसे जिनधर्ममें भी पापी पुरुषों द्वारा कुदेव-कुगुरु-
कुधर्म सेवनादिरूप तथा विषय-कषाय पोषणादिरूप विपरीत प्रवृत्ति चलाई गई हो, तो उसका
त्याग करके जिन-आज्ञानुसार प्रवर्तन करना योग्य है।
यहाँ कोई कहे कि परम्परा छोड़कर नवीन मार्गमें प्रवर्तन करना योग्य नहीं है?
उससे कहते हैं
यदि अपनी बुद्धिसे नवीन मार्ग पकड़े तो योग्य नहीं है। जो
परम्पराअनादिनिधन जैनधर्मका स्वरूप शास्त्रोंमें लिखा है, उसकी प्रवृत्ति मिटाकर पापी पुरुषोंने
बीचमें अन्यथा प्रवृत्ति चलाई हो, उसे परम्परा-मार्ग कैसे कहा जा सकता है? तथा उसे छोड़कर
पुरातन जैनशास्त्रोंमें जैसा धर्म लिखा था, वैसे प्रवर्तन करे तो उसे नवीन मार्ग कैसे कहा
जा सकता है?
तथा यदि कुलमें जैसी जिनदेवकी आज्ञा है, उसी प्रकार धर्मकी प्रवृत्ति है तो अपनेको
भी वैसे ही प्रवर्तन करना योग्य है; परन्तु उसे कुलाचार न जान धर्म जानकर, उसके स्वरूप,
फलादिकका निश्चय करके अंगीकार करना। जो सच्चे भी धर्मको कुलाचार जानकर प्रवर्तता

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सातवाँ अधिकार ][ २१५
है तो उसे धर्मात्मा नहीं कहते; क्योंकि सर्व कुलके उस आचरणको छोड़ दें तो आप भी
छोड़ देगा। तथा वह जो आचरण करता है सो कुलके भयसे करता है, कुछ धर्मबुद्धिसे
नहीं करता, इसलिये वह धर्मात्मा नहीं है।
इसलिये विवाहादि कुलसम्बधी कार्योंमें तो कुलक्रमका विचार करना, परन्तु धर्मसम्बन्धी
कार्यमें कुलका विचार नहीं करना। जैसा धर्ममार्ग सच्चा है, उसी प्रकार प्रवर्तन करना योग्य है।
[ परीक्षारहित आज्ञानुसारी धर्मधारक व्यवहाराभासी ]
तथा कितने ही आज्ञानुसारी जैनी होते हैं। जैसी शास्त्रमें आज्ञा है उस प्रकार मानते
हैं, परन्तु आज्ञाकी परीक्षा करते नहीं। यदि आज्ञा ही मानना धर्म हो तो सर्व मतवाले
अपने-अपने शास्त्रकी आज्ञा मानकर धर्मात्मा हो जायें; इसलिये परीक्षा करके जिनवचनकी
सत्यता पहिचानकर जिनाज्ञा मानना योग्य है।
बिना परीक्षा किये सत्य-असत्यका निर्णय कैसे हो? और बिना निर्णय किये जिस
प्रकार अन्यमती अपने शास्त्रोंकी आज्ञा मानते हैं उसी प्रकार इसने जैनशास्त्रोंकी आज्ञा मानी।
यह तो पक्षसे आज्ञा मानना है।
कोई कहे कि शास्त्रमें दस प्रकारके सम्यक्त्वमें आज्ञासम्यक्त्व कहा है व आज्ञाविचय
धर्मध्यानका भेद कहा है व निःशंकित अंगमें जिनवचनमें संशयका निषेध किया है; वह किस
प्रकार है?
समाधानःशास्त्रोंमें कितने ही कथन तो ऐसे हैं जिनकी प्रत्यक्ष-अनुमानादि द्वारा परीक्षा
कर सकते हैं, तथा कई कथन ऐसे हैं जो प्रत्यक्ष-अनुमानादि गोचर नहीं हैं; इसलिये आज्ञासे
ही प्रमाण होते हैं। वहाँ नाना शास्त्रोंमें जो कथन समान हों उनकी तो परीक्षा करनेका
प्रयोजन ही नहीं है; परन्तु जो कथन परस्पर विरुद्ध हों उनमेंसे जो कथन प्रत्यक्ष-अनुमानादि
गोचर हों उनकी तो परीक्षा करना। वहाँ जिन शास्त्रोंके कथनकी प्रमाणता ठहरे, उन शास्त्रोंमें
जो प्रत्यक्ष-अनुमानगोचर नहीं हैं
ऐसे कथन किये हों, उनकी भी प्रमाणता करना। तथा
जिन शास्त्रोंके कथनकी प्रमाणता न ठहरे उनके सर्व ही कथनकी अप्रमाणता मानना।
यहाँ कोई कहे कि परीक्षा करने पर कोई कथन किसी शास्त्रमें प्रमाण भासित हो,
तथा कोई कथन किसी शास्त्रमें प्रमाण भासित हो; तब क्या करें?
समाधानःजो आप्त-भासित शास्त्र हैं उनमें कोई भी कथन प्रमाण-विरुद्ध नहीं होते।
क्योंकि या तो जानपना ही न हो अथवा राग-द्वेष हो तब असत्य कहें, सो आप्त ऐसे होते
नहीं। तूनें परीक्षा भले प्रकार नहीं की, इसलिये भ्रम है।

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२१६ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
फि र वह कहता हैछद्मस्थसे अन्यथा परीक्षा हो जाये तो वह क्या करे?
समाधानःसच्ची-झूठी दोनों वस्तुओंको कसनेसे और प्रमाण छोड़कर परीक्षा करनेसे
तो सच्ची ही परीक्षा होती है। जहाँ पक्षपातके कारण भले प्रकार परीक्षा न करे वहीं अन्यथा
परीक्षा होती है।
तथा वह कहता है कि शास्त्रोंमें परस्पर-विरुद्ध कथन तो बहुत हैं, किन-किनकी परीक्षा
की जाये?
समाधानःमोक्षमार्गमें देव-गुरु-धर्म, जीवादि तत्त्व व बन्ध-मोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं, सो
इनकी परीक्षा कर लेना। जिन शास्त्रोंमें यह सच्चे कहे हों उनकी सर्व आज्ञा मानना, जिनमें
यह अन्यथा प्ररूपित किये हों उनकी आज्ञा नहीं मानना।
जैसेलोकमें जो पुरुष प्रयोजनभूत कार्योंमें झूठ न बोले, वह प्रयोजनरहित कार्योंमें
कैसे झूठ बोलेगा? उसी प्रकार जिस शास्त्रमें प्रयोजनभूत देवादिकका स्वरूप अन्यथा नहीं
कहा, उसमें प्रयोजनरहित द्वीप-समुद्रादिकका कथन अन्यथा कैसे होगा? क्योंकि देवादिकका
कथन अन्यथा करनेसे वक्ताके विषय-कषायका पोषण होता है।
प्रश्नःदेवादिकका अन्यथा कथन तो विषय-कषायवश किया; परन्तु उन्हीं शास्त्रोंमें
अन्य कथन अन्यथा किसलिये किये?
समाधानःयदि एक ही कथन अन्यथा करे तो उसका अन्यथापना शीघ्र प्रगट हो
जायेगा और भिन्न पद्धति ठहरेगी नहीं; इसलिये बहुत कथन अन्यथा करनेसे भिन्न पद्धति
ठहरेगी। वहाँ तुच्छबुद्धि भ्रममें पड़ जाते हैं कि यह भी मत है, यह भी मत है। इसलिये
प्रयोजनभूतका अन्यथापना मिलानेके लिये अप्रयोजनभूत कथन भी अन्यथा बहुत किये हैं। तथा
प्रतीति करानेके अर्थ कोई-कोई सच्चे कथन भी किये हैं। परन्तु जो चतुर हो सो भ्रममें नहीं
पड़ता। प्रयोजनभूत कथनकी परीक्षा करके जहाँ सत्य भासित हो, उस मतकी सर्व आज्ञा माने।
सो परीक्षा करने पर जैनमत ही भासित होता हैअन्य नहीं; क्योंकि इसके वक्ता
सर्वज्ञ-वीतराग हैं, वे झूठ किसलिये कहेंगे? इसप्रकार जिनाज्ञा माननेसे जो सच्चा श्रद्धान हो,
उसका नाम आज्ञासम्यक्त्व है। और वहाँ एकाग्र चिंतवन होनेसे उसीका नाम आज्ञाविचय-
धर्मध्यान है।
यदि ऐसा न मानें और बिना परीक्षा किये ही आज्ञा माननेसे सम्यक्त्व व धर्मध्यान
हो जाये तो जो द्रव्यलिंगी आज्ञा मानकर मुनि हुए, आज्ञानुसार साधन द्वारा ग्रैवेयक पर्यन्त
जाते हैं; उनके मिथ्यादृष्टिपना कैसे रहा? इसलिये कुछ परीक्षा करके आज्ञा मानने पर ही

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सातवाँ अधिकार ][ २१७
सम्यक्त्व व धर्मध्यान होता है। लोकमें भी किसी प्रकार परीक्षा होने पर ही पुरुषकी प्रतीति
करते हैं।
तथा तूने कहा कि जिनवचनमें संशय करनेसे सम्यक्त्वके शंका नामक दोष होता है;
सो ‘न जाने यह किस प्रकार है’ऐसा मानकर निर्णय न करे वहाँ शंका नामक दोष होता
है। तथा यदि निर्णय करनेका विचार करते ही सम्यक्त्वमें दोष लगता हो तो अष्टसहस्रीमें
आज्ञाप्रधानसे परीक्षाप्रधानको उत्तम किसलिये कहा? पृच्छना आदि स्वाध्यायके अंग कैसे कहे?
प्रमाण-नयसे पदार्थोंका निर्णय करनेका उपदेश किसलिये दिया? इसलिये परीक्षा करके आज्ञा
मानना योग्य है।
तथा कितने ही पापी पुरुषोंने अपने कल्पित कथन किये हैं और उन्हें जिनवचन
ठहराया है, उन्हें जैनमतके शास्त्र जानकर प्रमाण नहीं करना। वहाँ भी प्रमाणादिकसे परीक्षा
करके, व परस्पर शास्त्रोंसे विधि मिलाकर, व इस प्रकार सम्भव है या नहीं
ऐसा विचार
करके विरुद्ध अर्थको मिथ्या ही जानना।
जैसेकिसी ठगने स्वयं पत्र लिखकर उसमें लिखनेवालेका नाम किसी साहूकारका
रखा; उस नामके भ्रमसे धनको ठगाये तो दरिद्री होगा। उसी प्रकार पापी लोगोंने स्वयं
ग्रन्थादि बनाकर वहाँ कर्ताका नाम जिन, गणधर, आचार्योंका रखा; उस नामके भ्रमसे झूठ
श्रद्धान करे तो मिथ्यादृष्टि ही होगा।
तथा वह कहता हैगोम्मटसारमें ऐसा कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव अज्ञानी गुरुके
निमित्तसे झूठ भी श्रद्धान करे तो आज्ञा माननेसे सम्यग्दृष्टि ही है। सो यह कथन कैसे किया?
उत्तरःजो प्रत्यक्ष-अनुमानादिगोचर नहीं हैं, और सूक्ष्मपनेसे जिनका निर्णय नहीं हो
सकता उनकी अपेक्षा यह कथन है; परन्तु मूलभूत देव-गुरु-धर्मादि तथा तत्त्वादिकका अन्यथा
श्रद्धान होने पर तो सर्वथा सम्यक्त्व रहता नहीं है
यह निश्चय करना। इसलिये बिना परीक्षा
किये केवल आज्ञा ही द्वारा जो जैनी हैं उन्हें भी मिथ्यादृष्टि जानना।
तथा कितने ही परीक्षा करके भी जैनी होते हैं; परन्तु मूल परीक्षा नहीं करते।
दया, शील, तप, संयमादि क्रियाओं द्वारा; व पूजा, प्रभावनादि कार्योंसे; अतिशय, चमत्कारादिसे
व जिनधर्मसे इष्ट प्राप्ति होनेके कारण जिनमतको उत्तम जानकर, प्रीतिवंत होकर जैनी होते
हैं। सो अन्यमतोंमें भी ये कार्य तो पाये जाते हैं; इसलिये इन लक्षणोंमें तो अतिव्याप्ति
पाया जाता है।
१. सम्माइठ्ठी जीवो उवइट्ठं पवयणं तु सद्दहदि।
सद्दहदि असब्भावं अजाणमासौ गुरुणियोगा।।२७।। (जीवकाण्ड)

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२१८ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
कोई कहेजैसे जिनधर्ममें ये कार्य हैं, वैसे अन्यमतोंमें नहीं पाये जाते; इसलिये
अतिव्याप्ति नहीं है?
समाधानःयह तो सत्य है, ऐसा ही है। परन्तु जैसे तू दयादिक मानता है उसी
प्रकार तो वे भी निरूपण करते हैं। परजीवोंकी रक्षाको दया तू कहता है, वही वे कहते
हैं। इसी प्रकार अन्य जानना।
फि र वह कहता हैउनके ठीक नहीं है; क्योंकि कभी दया प्ररूपित करते हैं, कभी
हिंसा प्ररूपित करते हैं?
उत्तरःवहाँ दयादिकका अंशमात्र तो आया; इसलिये अतिव्याप्तिपना इन लक्षणोंके
पाया जाता है। इनके द्वारा सच्ची परीक्षा होती नहीं।
तो कैसे होती है? जिनधर्ममें सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको मोक्षमार्ग कहा है। वहाँ सच्चे
देवादिक व जीवादिकका श्रद्धान करनेसे सम्यक्त्व होता है, व उनको जाननेसे सम्यग्ज्ञान होता
है, व वास्तवमें रागादिक मिटने पर सम्यक्चारित्र होता है। सो इनके स्वरूपका जैसा जिनमतमें
निरूपण किया है वैसा अन्यत्र कहीं नहीं किया, तथा जैनीके सिवाय अन्यमती ऐसा कार्य
कर नहीं सकते। इसलिये यह जिनमतका सच्चा लक्षण है। इस लक्षणको पहिचानकर जो
परीक्षा करते हैं वे ही श्रद्धानी हैं। इसके सिवाय जो अन्य प्रकारसे परीक्षा करते हैं वे
मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं।
तथा कितने ही संगतिसे जैनधर्म धारण करते हैं, कितने ही महान् पुरुषको जिनधर्ममें
प्रवर्तता देख आप भी प्रवर्तते हैं, कितने ही देखादेखी जिनधर्मकी शुद्ध या अशुद्ध क्रियाओंमें
प्रवर्तते हैं।
इत्यादि अनेक प्रकारके जीव आप विचारकर जिनधर्मका रहस्य नहीं पहिचानते
और जैनी नाम धारण करते हैं। वे सब मिथ्यादृष्टि ही जानना।
इतना तो है कि जिनमतमें पापकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती और पुण्यके निमित्त बहुत
हैं, तथा सच्चे मोक्षमार्गके कारण वहाँ बने रहते हैं; इसलिये जो कुलादिसे भी जैनी हैं, वे
भी औरोंसे तो भले ही हैं।
[ सांसारिक प्रयोजनार्थ धर्मधारक व्यवहारभासी ]
तथा जो जीव कपटसे आजीविकाके अर्थ, व बड़ाईके अर्थ, व कुछ विषय-कषाय-
समबन्धी प्रयोजन विचारकर जैनी होते हैं; वे तो पापी ही हैं। अति तीव्र कषाय होने पर
ऐसी बुद्धि आती है। उनका सुलझना भी कठिन है। जैनधर्मका सेवन तो संसार नाशके

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सातवाँ अधिकार ][ २१९
लिये किया जाता है; उसके द्वारा सांसारिक प्रयोजन साधना चाहते हैं वे बड़ा अन्याय करते
हैं। इसलिये वे तो मिथ्यादृष्टि हैं ही।
यहाँ कोई कहेहिंसादि द्वारा जिन कार्योंको करते हैं; वही कार्य धर्म-साधन द्वारा
सिद्ध किये जायें तो बुरा क्या हुआ? दोनों प्रयोजन सिद्ध होते हैं?
उससे कहते हैंपापकार्य और धर्मकार्यका एक साधन करनेसे पाप ही होता है।
जैसे कोई धर्मका साधन चैत्यालय बनवाये और उसीको स्त्री-सेवनादि पापोंका भी साधन करे
तो पाप ही होगा। हिंसादि द्वारा भोगादिकके हेतु अलग मकान बनवाता है तो बनवाये,
परन्तु चैत्यालयमें भोगादि करना योग्य नहीं है। उसी प्रकार धर्मका साधन पूजा, शास्त्रादिक
कार्य हैं; उन्हींको आजीविकादि पापका भी साधन बनाये तो पापी ही होगा। हिंसादिसे
आजीविकादिके अर्थ व्यापारादि करता है तो करे, परन्तु पूजादि कार्योंमें तो आजीविकादिका
प्रयोजन विचारना योग्य नहीं है।
प्रश्नःयदि ऐसा है तो मुनि भी धर्मसाधन कर पर-घर भोजन करते हैं तथा साधर्मी
साधर्मीका उपकार करतेकराते हैं सो कैसे बनेगा?
उत्तरःवे आप तो कुछ आजीविकादिका प्रयोजन विचारकर धर्म-साधन नहीं करते।
उन्हें धर्मात्मा जानकर कितने ही स्वयमेव भोजन, उपकारादि करते हैं, तब तो कोई दोष
है नहीं। तथा यदि आप भोजनादिकका प्रयोजन विचारकर धर्म साधता है तो पापी है ही।
जो विरागी होकर मुनिपना अंगीकार करते हैं उनको भोजनादिकका प्रयोजन कहीं है। शरीरकी
स्थितिके अर्थ स्वयमेव भोजनादि कोई दे तो लेते हैं नहीं तो समता रखते हैं
संक्लेशरूप
नहीं होते। तथा अपने हितके अर्थ धर्म साधते हैं। उपकार करवानेका अभिप्राय नहीं है,
और आपके जिसका त्याग नहीं है वैसा उपकार कराते हैं। कोई साधर्मी स्वयमेव उपकार
करता है तो करे, और यदि न करे तो उन्हें कुछ संक्लेश होता नहीं।
सो ऐसा तो
योग्य है। परन्तु आपही आजीविकादिका प्रयोजन विचारकर बाह्यधर्मका साधन करे, जहाँ
भोजनादिक उपकार कोई न करे वहाँ संक्लेश करे, याचना करे, उपाय करे, अथवा धर्म-
साधनमें शिथिल हो जाये; तो उसे पापी ही जानना।
इस प्रकार सांसारिक प्रयोजनसहित जो धर्म साधते हैं वे पापी भी हैं और मिथ्यादृष्टि
तो हैं ही।
इस प्रकार जिनमतवाले भी मिथ्यादृष्टि जानना।

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२२० ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
[ उक्त व्यवहारभासी धर्मधारकोंकी सामान्य प्रवृत्ति ]
अब, इनके धर्मका साधन कैसे पाया जाता है सो विशेष बतलाते हैंः
वहाँ कितने ही जीव कुलप्रवृत्तिसे अथवा देखा-देखी लोभादिके अभिप्रायसे धर्म साधते
हैं, उनके तो धर्मदृष्टि नहीं है।
यदि भक्ति करते हैं तो चित्त तो कहीं है, दृष्टि घूमती रहती है और मुखसे पाठादि
करते हैं व नमस्कारादि करते हैं; परन्तु यह ठीक नहीं है। मैं कौन हूँ, किसकी स्तुति करता
हूँ, किस प्रयोजनके अर्थ स्तुति करता हूँ, पाठमें क्या अर्थ है, सो कुछ पता नहीं है।
तथा कदाचित् कुदेवादिककी भी सेवा करने लग जाता है; वहाँ सुदेव-गुरु-शास्त्रादि
व कुदेव-गुरु-शास्त्रादिकी विशेष पहिचान नहीं है।
तथा यदि दान देता है तो पात्र-अपात्रके विचार रहित जैसे अपनी प्रशंसा हो वैसे
दान देता है।
तथा तप करता है तो भूखा रहकर महंतपना हो वह कार्य करता है; परिणामोंकी
पहिचान नहीं है।
तथा व्रतादिक धारण करता है तो वहाँ बाह्यक्रिया पर दृष्टि है; सो भी कोई सच्ची
क्रिया करता है, कोई झूठी करता है; और जो अन्तरंग रागादिभाव पाये जाते हैं उनका
विचार ही नहीं है, तथा बाह्यमें भी रागादिके पोषणके साधन करता है।
तथा पूजा-प्रभावनादि कार्य करता है तो वहाँ जिस प्रकार लोकमें बड़ाई हो, व विषय-
कषायका पोषण हो उस प्रकार कार्य करता है। तथा बहुत हिंसादिक उत्पन्न करता है।
सो यह कार्य तो अपने तथा अन्य जीवोंके परिणाम सुधारनेके अर्थ कहे हैं। तथा वहाँ
किंचित् हिंसादिक भी उत्पन्न होते हैं, परन्तु जिसमें थोड़ा अपराध हो और गुण अधिक हो वह
कार्य करना कहा है। सो परिणामोंकी तो पहिचान नहीं है और यहाँ अपराध कितना लगता
है, गुण कितना होता है
ऐसे नफा-टोटेका ज्ञान नहीं है व विधि-अविधिका ज्ञान नहीं है।
तथा शास्त्राभ्यास करता है तो वहाँ पद्धतिरूप प्रवर्तता है। यदि बाँचता है तो औरोंको
सुना देता है, यदि पढ़ता है तो आप पढ़ जाता है, सुनता है तो जो कहते हैं वह सुन
लेता है; परन्तु शास्त्राभ्यासका प्रयोजन है उसे आप अन्तरंगमें नहीं अवधारण करता।
इत्यादि धर्मकार्योंके मर्मको नहीं पहिचानता।
कितने तो जिस प्रकार कुलमें बड़े प्रवर्तते हैं उसी प्रकार हमें भी करना, अथवा

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सातवाँ अधिकार ][ २२१
दूसरे करते हैं वैसा हमें भी करना, व ऐसा करनेसे हमारे लोभादिककी सिद्धि होगी इत्यादि
विचारसहित अभूतार्थधर्मको साधते हैं।
तथा कितने ही जीव ऐसे होते हैं जिनके कुछ तो कुलादिरूप बुद्धि है, कुछ धर्मबुद्धि
भी है; इसलिये पूर्वोक्त प्रकार भी धर्मका साधन करते हैं और कुछ आगे कहते हैं उस
प्रकारसे अपने परिणामोंको भी सुधारते हैं
मिश्रपना पाया जाता है।
[ धर्मबुद्धिसे धर्मधारक व्यवहाराभासी ]
तथा कितने ही धर्मबुद्धिसे धर्म साधते हैं, परन्तु निश्चयधर्मको नहीं जानते, इसलिये
अभूतार्थरूप धर्मको साधते हैं। वहाँ व्यवहारसम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रको मोक्षमार्ग जानकर उनका
साधन करते हैं।
सम्यग्दर्शनका अन्यथारूप
वहाँ शास्त्रमें देव-गुरु-धर्मकी प्रतीति करनेसे सम्यक्त्व होना कहा है। ऐसी आज्ञा
मानकर अरहन्तदेव, निर्ग्रन्थगुरु, जैनशास्त्रके अतिरिक्त औरोंको नमस्कारादि करनेका त्याग किया
है; परन्तु उनके गुण-अवगुणकी परीक्षा नहीं करते, अथवा परीक्षा भी करते हैं तो
तत्त्वज्ञानपूर्वक सच्ची परीक्षा नहीं करते, बाह्यलक्षणों द्वारा परीक्षा करते हैं। ऐसी प्रतीतिसे
सुदेव-गुरु-शास्त्रोंकी भक्तिमें प्रवर्तते हैं।
देवभक्तिका अन्यथारूप
वहाँ अरहन्तदेव हैं, इन्द्रादि द्वारा पूज्य हैं, अनेक अतिशयसहित हैं, क्षुधादि दोषरहित
हैं, शरीरकी सुन्दरताको धारण करते हैं, स्त्री-संगमादिरहित हैं, दिव्यध्वनि द्वारा उपदेश देते
हैं, केवलज्ञान द्वारा लोकालोकको जानते हैं, काम-क्रोधादिक नष्ट किये हैं
इत्यादि विशेषण
कहे हैं। वहाँ इनमेंसे कितने ही विशेषण पुद्गलाश्रित हैं और कितने ही जीवाश्रित हैं, उनको
भिन्न-भिन्न नहीं पहिचानते। जिस प्रकार कोई असमानजातीय मनुष्यादि पर्यायोंमें जीव-पुद्गलके
विशेषणोंको भिन्न न जानकर मिथ्यादृष्टि धारण करता है, उसी प्रकार यह भी असमानजातीय
अरहन्तपर्यायमें जीव-पुद्गलके विशेषणोंको भिन्न न जानकर मिथ्यादृष्टि धारण करता है।
तथा जो बाह्य विशेषण हैं उन्हें तो जानकर उनके द्वारा अरहन्तदेवको महंतपना विशेष
मानता है, और जो जीवके विशेषण हैं उन्हें यथावत् न जानकर उनके द्वारा अरहन्तदेवको
महन्तपना आज्ञानुसार मानता है अथवा अन्यथा मानता है। क्योंकि यथावत् जीवके विशेषण
जाने तो मिथ्यादृष्टि न रहे।
तथा उन अरहन्तोंको स्वर्ग-मोक्षदाता, दीनदयाल, अधमउधारक, पतितपावन मानता है;

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२२२ ] [ मोक्षमार्गप्रकाशक
सो जैसे अन्यमती कर्तृत्वबुद्धिसे ईश्वरको मानता है; उसी प्रकार यह अरहन्तको मानता है।
ऐसा नहीं जानता कि फल तो अपने परिणामोंका लगता है, अरहन्त उनको निमित्तमात्र हैं,
इसलिये उपचार द्वारा वे विशेषण सम्भव होते हैं।
अपने परिणाम शुद्ध हुए बिना अरहन्तही स्वर्ग-मोक्षादिके दाता नहीं हैं। तथा
अरहन्तादिकके नामादिकसे श्वानादिकने स्वर्ग प्राप्त किया, वहाँ नामादिकका ही अतिशय मानते
हैं; परन्तु बिना परिणामके नाम लेनेवालेको भी स्वर्गकी प्राप्ति नहीं होती, तब सुननेवालेको
कैसे होगी? श्वानादिकको नाम सुननेके निमित्तसे कोई मन्दकषायरूप भाव हुए हैं उनका फल
स्वर्ग हुआ है; उपचारसे नामकी ही मुख्यता की है।
तथा अरहन्तादिकके नामपूजनादिकसे अनिष्ट सामग्रीका नाश तथा इष्ट सामग्रीकी प्राप्ति
मानकर रोगादि मिटानेके अर्थ व धनादिककी प्राप्तिके अर्थ नाम लेता है व पूजनादि करता
है। सो इष्ट-अनिष्टका कारण तो पूर्वकर्मका उदय है, अरहन्त तो कर्ता हैं नहीं।
अरहन्तादिककी भक्तिरूप शुभोपयोग परिणामोंसे पूर्वपापके संक्रमणादि हो जाते हैं, इसलिये
उपचारसे अनिष्टके नाशका व इष्टकी प्राप्तिका कारण अरहन्तादिककी भक्ति कही जाती है।
परन्तु जो जीव प्रथमसे ही सांसारिक प्रयोजनसहित भक्ति करता है उसके तो पापका ही
अभिप्राय हुआ। कांक्षा, विचिकित्सारूप भाव हुए
उनसे पूर्वपापके संक्रमणादि कैसे होंगे?
इसलिये उसका कार्य सिद्ध नहीं हुआ।
तथा कितने ही जीव भक्तिको मुक्तिका कारण जानकर वहाँ अति अनुरागी होकर
प्रवर्तते हैं। वह तो अन्यमती जैसे भक्तिसे मुक्ति मानते हैं वैसा ही इनके भी श्रद्धान हुआ,
परन्तु भक्ति तो रागरूप है और रागसे बन्ध है, इसलिये मोक्षका कारण नहीं है। जब रागका
उदय आता है तब भक्ति न करे तो पापानुराग हो, इसलिये अशुभराग छोड़नेके लिये ज्ञानी
भक्तिमें प्रवर्तते हैं और मोक्षमार्गको बाह्य निमित्तमात्र भी जानते हैं; परन्तु यहाँ ही उपादेयपना
मानकर सन्तुष्ट नहीं होते, शुद्धोपयोगके उद्यमी रहते हैं।
वही पंचास्तिकाय व्याख्यामें कहा हैःइयं भक्तिः केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति।
तीव्ररागज्वरविनोदार्थमस्थानरागनिषेधार्थं क्वचित् ज्ञानिनोपि भवति।।
अर्थःयह भक्ति केवल भक्ति ही है प्रधान जिसके ऐसे अज्ञानी जीवके होती है।
तथा तीव्ररागज्वर मिटानेके अर्थ या कुस्थानके रागका निषेध करनेके अर्थ कदाचित् ज्ञानीके
भी होती है।
१. अयं हि स्थूललक्षतया केवलभक्तिप्रधान्यस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानराग
निषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति।(गाथा १३६ की टीका)