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भवेयुः, न पुनः कालायसवलयादयः, कालायसमयाद्भावाच्च कालायसजातिमनतिवर्तमानाः कालायसवलयादय एव भवेयुः, न पुनर्जाम्बूनदकुण्डलादयः; तथा जीवस्य स्वयं परिणाम- स्वभावत्वे सत्यपि, कारणानुविधायित्वादेव कार्याणां, अज्ञानिनः स्वयमज्ञानमयाद्भावादज्ञान- जातिमनतिवर्तमाना विविधा अप्यज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनर्ज्ञानमयाः, ज्ञानिनश्च स्वयं ज्ञानमयाद्भावाज्ज्ञानजातिमनतिवर्तमानाः सर्वे ज्ञानमया एव भावा भवेयुः, न पुनरज्ञानमयाः । कि स्वयं अज्ञानमय भाव है उसके — अज्ञानमय भावमेंसे, अज्ञानजातिका उल्लंघन न करते हुए अनेक प्रकारके अज्ञानमय भाव ही होते हैं; किन्तु ज्ञानमय भाव नहीं होते, तथा ज्ञानीके — जो कि स्वयं ज्ञानमय भाव हैं उसके — ज्ञानमय भावमेंसे, ज्ञानकी जातिका उल्लंघन न करते हुए समस्त ज्ञानमय भाव ही होते हैं; किन्तु अज्ञानमय भाव नहीं होते ।
भावार्थ : — ‘जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है’ इस न्यायसे जैसे लोहेमेंसे लौहमय कड़ा इत्यादि वस्तुएँ होती हैं और सुवर्णमेंसे सुवर्णमय आभूषण होते हैं, इसी प्रकार अज्ञानी स्वयं अज्ञानमय भाव होनेसे उसके (अज्ञानमय भावमेंसे) अज्ञानमय भाव ही होते हैं और ज्ञानी स्वयं ज्ञानमय भाव होनेसे उसके (ज्ञानमय भावमेंसे) ज्ञानमय भाव ही होते हैं ।
हैं तथापि उसके उन भावोंमें आत्मबुद्धि नहीं हैं, वह उन्हें परके निमित्तसे उत्पन्न उपाधि मानता है । उसके क्रोधादिक कर्म उदयमें आकर खिर जाते हैं — वह भविष्यका ऐसा बन्ध नहीं करता कि जिससे संसारपरिभ्रमण बढ़े; क्योंकि (ज्ञानी) स्वयं उद्यमी होकर क्रोधादिभावरूप परिणमता नहीं है, और यद्यपि उदयकी १बलवत्तासे परिणमता है तथापि ज्ञातृत्वका उल्लंघन करके परिणमता नहीं है; ज्ञानीका स्वामित्व निरन्तर ज्ञानमें ही वर्तता है, इसलिये वह क्रोधादिभावोंका अन्य ज्ञेयोंकी भाँति ज्ञाता ही है, कर्ता नहीं । इसप्रकार ज्ञानीके समस्त भाव ज्ञानमय ही हैं ।।१३०-१३१।। १ सम्यग्दृष्टिकी रुचि सर्वदा शुद्धात्मद्रव्यके प्रति ही होती है; उनकी कभी रागद्वेषादि भावोंकी रुचि नहीं होती ।
ही होते हैं, फि र भी वे रुचिपूर्वक नहीं होते इस कारण उन भावोंको ‘कर्मकी बलवत्तासे होनेवाले भाव’
कहनेमें आते हैं । इससे ऐसा नहीं समझना कि ‘जड़ द्रव्यकर्म आत्माके ऊ पर लेशमात्र भी जोर कर सकता
भी कमी नहीं है, मात्र चारित्रादि सम्बन्धी निर्बलता है — ऐसा आशय बतलानेके लिये ऐसा कहा है ।’ जहाँ
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श्लोकार्थ : — [अज्ञानी ] अज्ञानी [अज्ञानमयभावानाम् भूमिकाम् ] (अपने) अज्ञानमय भावोंकी भूमिकामें [व्याप्य ] व्याप्त होकर [द्रव्यकर्मनिमित्तानां भावानाम् ] (आगामी) द्रव्यक र्मके निमित्त जो (अज्ञानादि) भाव उनके [हेतुताम् एति ] हेतुत्वको प्राप्त होता है (अर्थात् द्रव्यक र्मके निमित्तरूप भावोंका हेतु बनता है) ।६८।
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गाथार्थ : — [जीवानाम् ] जीवोंके [या ] जो [अतत्त्वोपलब्धिः ] तत्त्वका अज्ञान (-वस्तुस्वरूपका अयथार्थ – विपरीत ज्ञान) है [सः ] वह [अज्ञानस्य ] अज्ञानका [उदयः ] उदय है [तु ] और [जीवस्य ] जीवके [अश्रद्दधानत्वम् ] जो (तत्त्वका) अश्रद्धान है वह [मिथ्यात्वस्य ] मिथ्यात्वका [उदयः ] उदय है; [तु ] और [जीवानां ] जीवोंके [यद् ] जो [अविरमणम् ] अविरमण अर्थात् अत्यागभाव है वह [असंयमस्य ] असंयमका [उदयः ] उदय [भवेत् ] है [तु ] और [जीवानां ] जीवोंके [यः ] जो [कलुषोपयोगः ] मलिन (ज्ञातृत्वकी स्वच्छतासे रहित) उपयोग है [सः ] वह [कषायोदयः ] क षायका उदय है; [तु ] तथा [जीवानां ] जीवोंके [यः ] जो [शोभनः अशोभनः वा ] शुभ या अशुभ [कर्तव्यः विरतिभावः वा ] प्रवृत्ति या निवृत्तिरूप [चेष्टोत्साहः ] (मनवचनकाया-आश्रित) चेष्टाका उत्साह है [तं ] उसे [योगोदयं ] योगका उदय [जानीहि ] जानो
।
[एतेषु ] ये (उदय) [हेतुभूतेषु ] हेतुभूत होने पर [यत् तु ] जो [कार्मणवर्गणागतं ] कार्मणवर्गणागत (कार्मणवर्गणारूप) पुद्गलद्रव्य [ज्ञानावरणादिभावैः अष्टविधं ] ज्ञानावरणादि- भावरूपसे आठ प्रकार [परिणमते ] परिणमता है, [तत् कार्मणवर्गणागतं ] वह कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य [यदा ] जब [खलु ] वास्तवमें [जीवनिबद्धं ] जीवमें बँधता है [तदा तु ] तब [जीवः ]
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अतत्त्वोपलब्धिरूपेण ज्ञाने स्वदमानोऽज्ञानोदयः । मिथ्यात्वासंयमकषाययोगोदयाः कर्महेतवस्तन्मयाश्चत्वारो भावाः । तत्त्वाश्रद्धानरूपेण ज्ञाने स्वदमानो मिथ्यात्वोदयः, अविरमणरूपेण ज्ञाने स्वदमानोऽसंयमोदयः, कलुषोपयोगरूपेण ज्ञाने स्वदमानः कषायोदयः, शुभाशुभप्रवृत्ति- निवृत्तिव्यापाररूपेण ज्ञाने स्वदमानो योगोदयः । अथैतेषु पौद्गलिकेषु मिथ्यात्वाद्युदयेषु हेतुभूतेषु यत्पुद्गलद्रव्यं कर्मवर्गणागतं ज्ञानावरणादिभावैरष्टधा स्वयमेव परिणमते तत्खलु कर्मवर्गणागतं जीवनिबद्धं यदा स्यात्तदा जीवः स्वयमेवाज्ञानात्परात्मनोरेकत्वाध्यासेनाज्ञानमयानां तत्त्वाश्रद्धानादीनां स्वस्य परिणामभावानां हेतुर्भवति । जीव [परिणामभावानाम् ] (अपने अज्ञानमय) परिणामभावोंका [हेतुः ] हेतु [भवति ] होता है ।
टीका : — तत्त्वके अज्ञानरूपसे (वस्तुस्वरूपकी अन्यथा उपलब्धिरूपसे) ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ अज्ञानका उदय है । मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगके उदय — जो कि (नवीन) कर्मोंके हेतु हैं — वे अज्ञानमय चार भाव हैं । तत्त्वके अश्रद्धानरूपसे ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ मिथ्यात्वका उदय है; अविरमणरूपसे (अत्यागभावरूपसे) ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ असंयमका उदय है; कलुष (मलिन) उपयोगरूप ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ कषायका उदय है; शुभाशुभ प्रवृत्ति या निवृत्तिके व्यापाररूपसे ज्ञानमें स्वादरूप होता हुआ योगका उदय है । ये पौद्गलिक मिथ्यात्वादिके उदय हेतुभूत होने पर जो कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य ज्ञानावरणादिभावसे आठ प्रकार स्वयमेव परिणमता है, वह कार्मणवर्गणागत पुद्गलद्रव्य जब जीवमें निबद्ध होवे तब जीव स्वयमेव अज्ञानसे स्व-परके एकत्वके अध्यासके कारण तत्त्व-अश्रद्धान आदि अपने अज्ञानमय परिणामभावोंका हेतु होता है ।
भावार्थ : — अज्ञानभावके भेदरूप मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगके उदय पुद्गलके परिणाम हैं और उनका स्वाद अतत्त्वश्रद्धानादिरूपसे ज्ञानमें आता है । वे उदय निमित्तभूत होने पर, कार्मणवर्गणारूप नवीन पुद्गल स्वयमेव ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमते हैं और जीवके साथ बँधते हैं; और उस समय जीव भी स्वयमेव अपने अज्ञानभावसे अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप परिणमता है और इसप्रकार अपने अज्ञानमय भावोंका कारण स्वयं ही होता है ।
मिथ्यात्वादिका उदय होना, नवीन पुद्गलोंका कर्मरूप परिणमना तथा बँधना, और जीवका अपने अतत्त्वश्रद्धानादि भावरूप परिणमना — यह तीनों ही एक समयमें होते हैं; सब स्वतंत्रतया अपने आप ही परिणमते हैं, कोई किसीका परिणमन नहीं कराता ।।१३२ से १३६।।
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गाथार्थ : — [यदि ] यदि [पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यका [जीवेन सह चैव ] जीवके साथ ही [कर्मपरिणामः ] क र्मरूप परिणाम होता है (अर्थात् दोनों मिलकर ही क र्मरूप परिणमित होते हैं ) — ऐसा माना जाये तो [एवं ] इसप्रकार [पुद्गलजीवौ द्वौ अपि ] पुद्गल और जीव दोनों [खलु ] वास्तवमें [कर्मत्वम् आपन्नौ ] क र्मत्वको प्राप्त हो जायें । [तु ] परन्तु [कर्मभावेन ] क र्मभावसे [परिणामः ] परिणाम तो [पुद्गलद्रव्यस्य एकस्य ] पुद्गलद्रव्यके एक के ही होता है, [तत् ] इसलिये [जीवभावहेतुभिः विना ] जीवभावरूप निमित्तसे रहित ही अर्थात् भिन्न ही [कर्मणः ] क र्मका [परिणामः ] परिणाम है ।
टीका : — यदि पुद्गलद्रव्यके, कर्मपरिणामके निमित्तभूत ऐसे रागादि-अज्ञान-परिणामसे परिणत जीवके साथ ही (अर्थात् दोनों मिलकर ही), कर्मरूप परिणाम होता है — ऐसा वितर्क उपस्थित किया जाये तो, जैसे मिली हुई हल्दी और फि टकरीका – दोनोंका लाल रंगरूप परिणाम
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भवतीति वितर्कः, तदा पुद्गलद्रव्यजीवयोः सहभूतहरिद्रासुधयोरिव द्वयोरपि कर्मपरिणामापत्तिः । अथ चैकस्यैव पुद्गलद्रव्यस्य भवति कर्मत्वपरिणामः, ततो रागादिजीवाज्ञानपरिणामाद्धेतोः पृथग्भूत एव पुद्गलकर्मणः परिणामः ।
जो कि कर्मका निमित्त है उससे भिन्न ही पुद्गलकर्मका परिणाम है ।
भावार्थ : — यदि यह माना जाये कि पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य दोनों मिलकर कर्मरूप परिणमते हैं तो दोनोंके कर्मरूप परिणाम सिद्ध हो । परन्तु जीव तो कभी भी जड़ कर्मरूप नहीं परिणम सकता; इसलिये जीवका अज्ञानपरिणाम जो कि कर्मका निमित्त है उससे अलग ही पुद्गलद्रव्यका कर्मपरिणाम है ।।१३७-१३८।।
गाथार्थ : — [जीवस्य तु ] यदि जीवके [कर्मणा च सह ] क र्मके साथ ही [रागादयः परिणामाः ] रागादि परिणाम [खलु भवन्ति ] होते हैं (अर्थात् दोनों मिलकर रागादिरूप परिणमते हैं) ऐसा माना जाये [एवं ] तो इसप्रकार [जीवः कर्म च ] जीव और क र्म [द्वे अपि ] दोनों
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यदि जीवस्य तन्निमित्तभूतविपच्यमानपुद्गलकर्मणा सहैव रागाद्यज्ञानपरिणामो भवतीति वितर्कः, तदा जीवपुद्गलकर्मणोः सहभूतसुधाहरिद्रयोरिव द्वयोरपि रागाद्यज्ञानपरिणामापत्तिः । अथ चैकस्यैव जीवस्य भवति रागाद्यज्ञानपरिणामः, ततः पुद्गलकर्मविपाकाद्धेतोः पृथग्भूत एव जीवस्य परिणामः ।
[कर्मोदयहेतुभिः विना ] क र्मोदयरूप निमित्तसे रहित ही अर्थात् भिन्न ही [जीवस्य ] जीवका
[परिणामः ] परिणाम है ।
टीका : — यदि जीवके, रागादि-अज्ञानपरिणामके निमित्तभूत उदयागत पुद्गलकर्मके साथ ही (दोनों एकत्रित होकर ही), रागादि-अज्ञानपरिणाम होता है — ऐसा वितर्क उपस्थित किया जाये तो, जैसे मिली हुई फि टकरी और हल्दी – दोनोंका लाल रंगरूप परिणाम होता है उसीप्रकार, जीव और पुद्गलकर्म दोनोंके रागादि-अज्ञानपरिणामकी आपत्ति आ जावे । परन्तु एक जीवके ही रागादि-अज्ञानपरिणाम तो होता है; इसलिये पुद्गलकर्मका उदय जो कि जीवके रागादि- अज्ञानपरिणामका निमित्त है उससे भिन्न ही जीवका परिणाम है ।
भावार्थ : — यदि यह माना जाये कि जीव और पुद्गलकर्म मिलकर रागादिरूप परिणमते हैं तो दोनोंके रागादिरूप परिणाम सिद्ध हों । किन्तु पुद्गलकर्म तो रागादिरूप (जीवरागादिरूप) कभी नहीं परिणम सकता; इसलिये पुद्गलकर्मका उदय जो कि रागादिपरिणामका निमित्त है उससे भिन्न ही जीवका परिणाम है ।।१३९-१४०।।
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जीवपुद्गलकर्मणोरेकबन्धपर्यायत्वेन तदात्वे व्यतिरेकाभावाज्जीवे बद्धस्पृष्टं कर्मेति व्यवहार- नयपक्षः । जीवपुद्गलकर्मणोरनेकद्रव्यत्वेनात्यन्तव्यतिरेकाज्जीवेऽबद्धस्पृष्टं कर्मेति निश्चयनयपक्षः ।
गाथार्थ : — [जीवे ] जीवमें [कर्म ] कर्म [बद्धं ] (उसके प्रदेशोंके साथ) बँधा हुआ है [च ] तथा [स्पृष्टं ] स्पर्शित है [इति ] ऐसा [व्यवहारनयभणितम् ] व्यवहारनयका कथन है [तु ] और [जीवे ] जीवमें [कर्म ] कर्म [अबद्धस्पृष्टं ] अबद्ध और अस्पर्शित [भवति ] है ऐसा [शुद्धनयस्य ] शुद्धनयका कथन है ।
टीका : — जीवको और पुद्गलकर्मको एकबन्धपर्यायपनेसे देखने पर उनमें उस कालमें भिन्नताका अभाव है, इसलिये जीवमें कर्म बद्धस्पृष्ट है ऐसा व्यवहारनयका पक्ष है । जीवको तथा पुद्गलकर्मको अनेकद्रव्यपनेसे देखने पर उनमें अत्यन्त भिन्नता है, इसलिये जीवमें कर्म अबद्धस्पृष्ट है ऐसा निश्चयनयका पक्ष है ।।१४१।।
किन्तु इससे क्या ? जो आत्मा उन दोनों नयपक्षोंको पार कर चुका है वही समयसार है, — यह अब गाथा द्वारा कहते हैं : —
गाथार्थ : — [जीवे ] जीवमें [कर्म ] कर्म [बद्धम् ] बद्ध है अथवा [अबद्धं ] अबद्ध है — [एवं तु ] इसप्रकार तो [नयपक्षम् ] नयपक्ष [जानीहि ] जानो; [पुनः ] किन्तु [यः ] जो [पक्षातिक्रान्तः ] पक्षातिक्रान्त (पक्षको उल्लंघन करनेवाला) [भण्यते ] कहलाता है [सः ] वह [समयसारः ] समयसार (अर्थात् निर्विक ल्प शुद्ध आत्मतत्त्व) है ।
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यः किल जीवे बद्धं कर्मेति यश्च जीवेऽबद्धं कर्मेति विकल्पः स द्वितयोऽपि हि नयपक्षः । य एवैनमतिक्रामति स एव सकलविकल्पातिक्रान्तः स्वयं निर्विकल्पैकविज्ञानघनस्वभावो भूत्वा साक्षात्समयसारः सम्भवति । तत्र यस्तावज्जीवे बद्धं कर्मेति विकल्पयति स जीवेऽबद्धं कर्मेति एकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति; यस्तु जीवेऽबद्धं कर्मेति विकल्पयति सोऽपि जीवे बद्धं कर्मेत्येकं पक्षमतिक्रामन्नपि न विकल्पमतिक्रामति; यः पुनर्जीवे बद्धमबद्धं च कर्मेति विकल्पयति स तु तं द्वितयमपि पक्षमनतिक्रामन् न विकल्पमतिक्रामति । ततो य एव समस्तनयपक्षमतिक्रामति स एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति । य एव समस्तं विकल्पमतिक्रामति स एव समयसारं विन्दति ।
टीका : — ‘जीवमें कर्म बद्ध है’ ऐसा जो विकल्प तथा ‘जीवमें कर्म अबद्ध है’ ऐसा जो विकल्प वे दोनों नयपक्ष हैं । जो उस नयपक्षका अतिक्रम करता है ( – उसे उल्लंघन कर देता है, छोड़ देता है), वही समस्त विकल्पोंका अतिक्रम करके स्वयं निर्विकल्प, एक विज्ञानघनस्वभावरूप होकर साक्षात् समयसार होता है । यहाँ (विशेष समझाया जाता है कि) — जो ‘जीवमें कर्म बद्ध है’ ऐसा विकल्प करता है वह ‘जीवमें कर्म अबद्ध है’ ऐसे एक पक्षका अतिक्रम करता हुआ भी विकल्पका अतिक्रम नहीं करता, और जो ‘जीवमें कर्म अबद्ध है ऐसा विकल्प करता है वह भी ‘जीवमें कर्म बद्ध है’ ऐसे एक पक्षका अतिक्रम करता हुआ भी विकल्पका अतिक्रम नहीं करता; और जो यह विकल्प करता है कि ‘जीवमें कर्म बद्ध है और अबद्ध भी है’ वह उन दोनों पक्षका अतिक्रम न करता हुआ, विकल्पका अतिक्रम नहीं करता । इसलिये जो समस्त नय पक्षका अतिक्रम करता है वही समस्त विकल्पका अतिक्रम करता है; जो समस्त विकल्पका अतिक्रम करता है वही समयसारको प्राप्त करता है — उसका अनुभव करता है ।
भावार्थ : — जीव कर्मसे ‘बँधा हुआ है’ तथा ‘नहीं बँधा हुआ है’ — यह दोनों नयपक्ष हैं । उनमेंसे किसीने बन्धपक्ष ग्रहण किया, उसने विकल्प ही ग्रहण किया; किसीने अबन्धपक्ष लिया, तो उसने विकल्प ही ग्रहण किया; और किसीने दोनों पक्ष लिये, तो उसने भी पक्षरूप विकल्पका ही ग्रहण किया । परन्तु ऐसे विकल्पोंको छोड़कर जो किसी भी पक्षको ग्रहण नहीं करता वहीं शुद्ध पदार्थका स्वरूप जानकर उस-रूप समयसारको — शुद्धात्माको — प्राप्त करता है । नयपक्षको ग्रहण करना राग है, इसलिये समस्त नयपक्षको छोड़नेसे वीतराग समयसार हुआ जाता है ।।१४२।।
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(उपेन्द्रवज्रा) य एव मुक्त्वा नयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यम् । विकल्पजालच्युतशान्तचित्ता- स्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ।।६९।।
(उपजाति) एकस्य बद्धो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७०।।
कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [ये एव ] जो [नयपक्षपातं मुक्त्वा ] नयपक्षपातको छोड़कर [स्वरूपगुप्ताः ] (अपने) स्वरूपमें गुप्त होकर [नित्यम् ] सदा [निवसन्ति ] निवास करते हैं [ते एव ] वे ही, [विकल्पजालच्युतशान्तचित्ताः ] जिनका चित्त विकल्पजालसे रहित शान्त हो गया है ऐसे होते हुए, [साक्षात् अमृतं पिबन्ति ] साक्षात् अमृतको पीते हैं ।
भावार्थ : — जब तक कुछ भी पक्षपात रहता है तब तक चित्तका क्षोभ नहीं मिटता । जब नयोंका सब पक्षपात दूर हो जाता है तब वीतराग दशा होकर स्वरूपकी श्रद्धा निर्विकल्प होती है, स्वरूपमें प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुखका अनुभव होता है ।।६९।।
अब २० कलशों द्वारा नयपक्षका विशेष वर्णन करते हुए कहते हैं कि जो ऐसे समस्त नयपक्षोंको छोड़ देता है वह तत्त्ववेत्ता (तत्त्वज्ञानी) स्वरूपको प्राप्त करता है : —
श्लोकार्थ : — [बद्धः ] जीव कर्मोंसे बँधा हुआ है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव कर्मोंसे नहीं बँधा हुआ है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष है; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता (वस्तुस्वरूपका ज्ञाता) पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है (अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभवमें आता है) ।
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(उपजाति) एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७१।।
(उपजाति) एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७२।।
भावार्थ : — इस ग्रन्थमें पहलेसे ही व्यवहारनयको गौण करके और शुद्धनयको मुख्य करके कथन किया गया है । चैतन्यके परिणाम परनिमित्तसे अनेक होते हैं उन सबको आचार्यदेव पहलेसे ही गौण कहते आये हैं और उन्होंने जीवको मुख्य शुद्ध चैतन्यमात्र कहा है । इसप्रकार जीव-पदार्थको शुद्ध, नित्य, अभेद चैतन्यमात्र स्थापित करके अब कहते हैं कि — जो इस शुद्धनयका भी पक्षपात (विकल्प) करेगा वह भी उस शुद्ध स्वरूपके स्वादको प्राप्त नहीं करेगा । अशुद्धनयकी तो बात ही क्या है ? किन्तु यदि कोई शुद्धनयका भी पक्षपात करेगा तो पक्षका राग नहीं मिटेगा, इसलिये वीतरागता प्रगट नहीं होगी । पक्षपातको छोड़कर चिन्मात्र स्वरूपमें लीन होने पर ही समयसारको प्राप्त किया जाता है । इसलिये शुद्धनयको जानकर, उसका भी पक्षपात छोड़कर शुद्ध स्वरूपका अनुभव करके, स्वरूपमें प्रवृत्तिरूप चारित्र प्राप्त करके, वीतराग दशा प्राप्त करनी चाहिये ।७०।
श्लोकार्थ : — [मूढः ] जीव मूढ़ (मोही) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव मूढ़ (मोही) नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है (अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभवमें आता है) ।७१।
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७३।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७४।।
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७२।
श्लोकार्थ : — [दुष्टः ] जीव द्वेषी है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव द्वेषी नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७३।
श्लोकार्थ : — [कर्ता ] जीव कर्ता है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव कर्ता नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७४।
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७५।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७६।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७७।।
श्लोकार्थ : — [भोक्ता ] जीव भोक्ता है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव भोक्ता नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७५।
श्लोकार्थ : — [जीवः ] जीव जीव है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव जीव नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७६।
श्लोकार्थ : — [सूक्ष्मः ] जीव सूक्ष्म है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव सूक्ष्म नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप
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(उपजाति) एकस्य हेतुर्न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७८।।
(उपजाति) एकस्य कार्यं न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।७९।।
(उपजाति) एकस्य भावो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपात- स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८०।।
श्लोकार्थ : — [हेतुः ] जीव हेतु (कारण) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव हेतु (कारण) नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७८।
श्लोकार्थ : — [कार्यं ] जीव कार्य है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव कार्य नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।७९।
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८१।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८२।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
[चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः
चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८०।
श्लोकार्थ : — [एकः ] जीवएक है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव एक नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८१।
श्लोकार्थ : — [सान्तः ] जीव सान्त (-अन्त सहित) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव सान्त नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८२।
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स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८३।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८४।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८५।।
चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी
जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८३।
श्लोकार्थ : — [वाच्यः ] जीव वाच्य (अर्थात् वचनसे कहा जा सके ऐसा) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव वाच्य (-वचनगोचर) नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८४।
श्लोकार्थ : — [नाना ] जीव नानारूप है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव नानारूप नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८५।
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८६।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८७।।
चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८८।।
श्लोकार्थ : — [चेत्यः ] जीव चेत्य (-चेताजानेयोग्य) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव चेत्य नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८६।
श्लोकार्थ : — [दृश्यः ] जीव दृश्य ( – देखे जाने योग्य) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव दृश्य नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है ।८७।
श्लोकार्थ : — [वेद्यः ] जीव वेद्य ( – वेदनमें आने योग्य, ज्ञात होने योग्य) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव वेद्य नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ]
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चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ ।
स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ।।८९।।
मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् ।
स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ।।९०।।
श्लोकार्थ : — [भातः ] जीव ‘भात’ (प्रकाशमान अर्थात् वर्तमान प्रत्यक्ष) है [एकस्य ] ऐसा एक नयका पक्ष है और [न तथा ] जीव ‘भात’ नहीं है [परस्य ] ऐसा दूसरे नयका पक्ष हैे; [इति ] इसप्रकार [चिति ] चित्स्वरूप जीवके सम्बन्धमें [द्वयोः ] दो नयोंके [द्वौ पक्षपातौ ] दो पक्षपात हैं । [यः तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातः ] जो तत्त्ववेत्ता पक्षपातरहित है [तस्य ] उसे [नित्यं ] निरन्तर [चित् ] चित्स्वरूप जीव [खलु चित् एव अस्ति ] चित्स्वरूप ही है (अर्थात् उसे चित्स्वरूप जीव जैसा है वैसा निरन्तर अनुभूत होता है) ।
भावार्थ : — बद्ध अबद्ध, मूढ़ अमूढ़, रागी अरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता, जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कार्य अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, सान्त अनन्त, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, दृश्य अदृश्य, वेद्य अवेद्य, भात अभात इत्यादि नयोंके पक्षपात हैं । जो पुरुष नयोंके कथनानुसार यथायोग्य विवक्षापूर्वक तत्त्वका — वस्तुस्वरूपका निर्णय करके नयोंके पक्षपातको छोड़ता है उसे चित्स्वरूप जीवका चित्स्वरूपरूप अनुभव होता है ।
जीवमें अनेक साधारण धर्म हैं, परन्तु चित्स्वभाव उसका प्रगट अनुभवगोचर असाधारण धर्म है, इसलिये उसे मुख्य करके यहाँ जीवको चित्स्वरूप कहा है ।८९।
श्लोकार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [स्वेच्छा-समुच्छलद्-अनल्प-विकल्प-जालाम् ] जिसमें बहुतसे विकल्पोंका जाल अपने आप उठता है ऐसी [महतीं ] बड़ी [नयपक्षकक्षाम् ]
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(रथोद्धता) इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फु रणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ।।९१।।
भीतर और बाहर [समरसैकरसस्वभावं ] समता-रसरूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है ऐसे
[अनुभूतिमात्रम् एकम् स्वं भावम् ] अनुभूतिमात्र एक अपने भावको ( — स्वरूपको) [उपयाति ]
श्लोकार्थ : — [पुष्कल-उत्-चल-विकल्प-वीचिभिः उच्छलत् ] विपुल, महान, चञ्चल विकल्परूपी तरंगोंके द्वारा उठते हुए [इद्म् एवम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम् ] इस समस्त इन्द्रजालको [यस्य विस्फु रणम् एव ] जिसका स्फु रण मात्र ही [तत्क्षणं ] तत्क्षण [अस्यति ] उड़ा देता है [तत् चिन्महः अस्मि ] वह चिन्मात्र तेजःपुञ्ज मैं हूँ ।
भावार्थ : — चैतन्यका अनुभव होने पर समस्त नयोंके विकल्परूपी इन्द्रजाल उसी क्षण विलयको प्राप्त होता है; ऐसा चित्प्रकाश मैं हूँ ।९१।
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यथा खलु भगवान्केवली श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति, न तु सततमुल्लसितसहजविमलसकलकेवलज्ञानतया नित्यं स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानभूमिकातिक्रान्ततया समस्तनयपक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात् कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति, तथा किल यः श्रुतज्ञानावयवभूतयोर्व्यवहारनिश्चयनयपक्षयोः क्षयोपशम- विजृम्भितश्रुतज्ञानात्मकविकल्पप्रत्युद्गमनेऽपि परपरिग्रहप्रतिनिवृत्तौत्सुक्यतया स्वरूपमेव केवलं जानाति, न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुषनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानात्मकसमस्तान्तर्बहिर्जल्परूपविकल्पभूमिकातिक्रान्ततया समस्तनय- पक्षपरिग्रहदूरीभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति, स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोऽनुभूतिमात्रः समयसारः
होता हुआ (अर्थात् चित्स्वरूप आत्माका अनुभव करता हुआ), [द्वयोः अपि ] दोनों ही [नययोः ] नयोंके [भणितं ] कथनको [केवलं तु ] मात्र [जानाति ] जानता ही है, [तु ] परन्तु [नयपक्षं ] नयपक्षको [किञ्चित् अपि ] किंचित्मात्र भी [न गृह्णाति ] ग्रहण नहीं करता ।
टीका : — जैसे केवली भगवान, विश्वके साक्षीपनके कारण, श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोंके स्वरूपको ही केवल जानते हैं परन्तु, निरन्तर प्रकाशमान, सहज, विमल, सकल केवलज्ञानके द्वारा सदा स्वयं ही विज्ञानघन हुए होनेसे, श्रुतज्ञानकी भूमिकाकी अतिक्रान्तताके द्वारा (अर्थात् श्रुतज्ञानकी भूमिकाको पार कर चुकनेके कारण) समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर हुए होनेसे, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करते, इसीप्रकार जो (श्रुतज्ञानी आत्मा), क्षयोपशमसे जो उत्पन्न होते हैं ऐसे श्रुतज्ञानात्मक विकल्प उत्पन्न होने पर भी परका ग्रहण करनेके प्रति उत्साह निवृत्त हुआ होनेसे, श्रुतज्ञानके अवयवभूत व्यवहारनिश्चयनयपक्षोंके स्वरूपको ही केवल जानता है परन्तु, अति तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टिसे ग्रहण किये गये, निर्मल नित्य-उदित, चिन्मय समयसे प्रतिबद्धताके द्वारा (अर्थात् चैतन्यमय आत्माके अनुभवन द्वारा) अनुभवके समय स्वयं ही विज्ञानघन हुआ होनेसे, श्रुतज्ञानात्मक समस्त अन्तर्जल्परूप तथा बहिर्जल्परूप विकल्पोंकी भूमिकाकी अतिक्रान्तताके द्वारा समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूर होता हुआ होनेसे, किसी भी नयपक्षको ग्रहण नहीं करता, वह (आत्मा) वास्तवमें समस्त विकल्पोंसे अति पर, परमात्मा, ज्ञानात्मा, प्रत्यग्ज्योति, आत्मख्यातिरूप, अनुभूतिमात्र समयसार है
भावार्थ : — जैसे केवली भगवान सदा नयपक्षके स्वरूपके साक्षी (ज्ञाताद्रष्टा) हैं उसीप्रकार श्रुतज्ञानी भी जब समस्त नयपक्षोंसे रहित होकर शुद्ध चैतन्यमात्र भावका अनुभवन करता है तब वह नयपक्षके स्वरूपका ज्ञाता ही है । यदि एक नयका सर्वथा पक्ष ग्रहण किया जाये तो मिथ्यात्वके साथ मिला हुआ राग होता है; प्रयोजनवश एक नयको प्रधान करके उसका ग्रहण