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(स्वागता) चित्स्वभावभरभावितभावा- भावभावपरमार्थतयैकम् । बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारम् ।।९२।।
वस्तुस्वरूपको केवल जानता ही है तब उस समय श्रुतज्ञानी भी केवलीकी भाँति वीतराग जैसा
ही होता है ऐसा जानना ।।१४३।।
श्लोकार्थ : — [चित्स्वभाव-भर-भावित-भाव-अभाव-भाव-परमार्थतया एकम् ] चित्- स्वभावके पुंज द्वारा ही अपने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य किये जाते हैं — ऐसा जिसका परमार्थ स्वरूप है, इसलिये जो एक है ऐसे [अपारम् समयसारम् ] अपार समयसारको मैं, [समस्तां बन्धपद्धतिम् ] समस्त बन्धपद्धतिको [अपास्य ] दूर करके अर्थात् कर्मोदयसे होनेवाले सर्व भावोंको छोड़कर, [चेतये ] अनुभव करता हूँ ।
भावार्थ : — निर्विकल्प अनुभव होने पर, जिसके केवलज्ञानादि गुणोंका पार नहीं है ऐसे समयसाररूपी परमात्माका अनुभव ही वर्तता है, ‘मैं अनुभव करता हूँ ’ ऐसा भी विकल्प नहीं होता — ऐसा जानना ।९२।
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अयमेक एव केवलं सम्यग्दर्शनज्ञानव्यपदेशं किल लभते । यः खल्वखिलनय-पक्षाक्षुण्णतया विश्रान्तसमस्तविकल्पव्यापारः स समयसारः । यतः प्रथमतः श्रुतज्ञानावष्टम्भेन ज्ञानस्वभावमात्मानं निश्चित्य, ततः खल्वात्मख्यातये, परख्यातिहेतूनखिला एवेन्द्रियानिन्द्रिय-बुद्धीरवधार्य आत्माभिमुखीकृतमतिज्ञानतत्त्वः, तथा नानाविधनयपक्षालम्बनेनानेक-विकल्पैराकुलयन्तीः श्रुतज्ञानबुद्धीरप्यवधार्य श्रुतज्ञानतत्त्वमप्यात्माभिमुखीकुर्वन्नत्यन्तमविकल्पो भूत्वा झगित्येव स्वरसत एव व्यक्तीभवन्तमादिमध्यान्तविमुक्तमनाकुलमेकं केवलमखिलस्यापि विश्वस्योपरि तरन्तमिवाखण्ड- प्रतिभासमयमनन्तं विज्ञानघनं परमात्मानं समयसारं विन्दन्नेवात्मा सम्यग्दृश्यते ज्ञायते च; ततः सम्यग्दर्शनं ज्ञानं च समयसार एव
है [सः ] वह [समयसारः ] समयसार है; [एषः ] इसीको ( – समयसारको ही) [केवलं ] केवल [सम्यग्दर्शनज्ञानम् ] सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान [इति ] ऐसी [व्यपदेशम् ] संज्ञा (नाम) [लभते ] मिलती है । (नामोंके भिन्न होने पर भी वस्तु एक ही है ।)
टीका : — जो वास्तवमें समस्त नयपक्षोंके द्वारा खंडित न होनेसे जिसका समस्त विकल्पोंका व्यापार रुक गया है ऐसा है, सो समयसार है; वास्तवमें इस एकको ही केवल सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानका नाम प्राप्त है । (सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान समयसारसे अलग नहीं है, एक ही है ।)
प्रथम, श्रुतज्ञानके अवलम्बनसे ज्ञानस्वभाव आत्माका निश्चय करके, और फि र आत्माकी प्रगट प्रसिद्धिके लिये, पर पदार्थकी प्रसिद्धिकी कारणभूत जो इन्द्रियों द्वारा और मनके द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियाँ उन सबको मर्यादामें लाकर जिसने मतिज्ञान – तत्त्वको ( – मतिज्ञानके स्वरूपको) आत्मसन्मुख किया है ऐसा, तथा जो नाना प्रकारके नयपक्षोंके आलम्बनसे होनेवाले अनेक विकल्पोंके द्वारा आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञानकी बुद्धियोंको भी मर्यादामें लाकर श्रुतज्ञान- तत्त्वको भी आत्मसन्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्परहित होकर, तत्काल निज रससे ही प्रगट होनेवाले, आदि-मध्य-अन्तसे रहित, अनाकुल, केवल एक, सम्पूर्ण ही विश्व पर मानों तैरता हो ऐसे अखण्ड प्रतिभासमय, अनन्त, विज्ञानघन, परमात्मारूप समयसारका जब आत्मा अनुभव करता है उसीसमय आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है (अर्थात् उसकी श्रद्धा की जाती है) और ज्ञात होता है, इसलिये समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है
भावार्थ : — आत्माको पहले आगमज्ञानसे ज्ञानस्वरूप निश्चय करके फि र इन्द्रियबुद्धिरूप मतिज्ञानको ज्ञानमात्रमें ही मिलाकर, तथा श्रुतज्ञानरूपी नयोंके विकल्पोंको मिटाकर श्रुतज्ञानको भी निर्विकल्प करके, एक अखण्ड प्रतिभासका अनुभव करना ही ‘सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान’के
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सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् ।
ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोऽप्ययम् ।।९३।।
दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् ।
आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ।।९४।।
नामको प्राप्त करता है; सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कहीं अनुभवसे भिन्न नहीं हैं ।।१४४।।
श्लोकार्थ : — [नयानां पक्षैः विना ] नयोंके पक्षोंके रहित, [अचलं अविकल्पभावम् ] अचल निर्विकल्पभावको [आक्रामन् ] प्राप्त होता हुआ [यः समयस्य सारः भाति ] जो समयका (आत्माका) सार प्रकाशित होता है [सः एषः ] वह यह समयसार (शुद्ध आत्मा) — [निभृतैः स्वयम् आस्वाद्यमानः ] जो कि निभृत (निश्चल, आत्मलीन) पुरुषोंके द्वारा स्वयं आस्वाद्यमान है ( – अनुभवमें आता है) वह — [विज्ञान-एक-रसः भगवान् ] विज्ञान ही जिसका एक रस है ऐसा भगवान् है, [पुण्यः पुराणः पुमान् ] पवित्र पुराण पुरुष है; चाहे [ज्ञानं दर्शनम् अपि अयं ] ज्ञान कहो या दर्शन वह यह (समयसार) ही है; [अथवा किम् ] अथवा अधिक क्या कहें ? [यत् किंचन अपि अयम् एकः ] जो कुछ है सो यह एक ही है ( – मात्र भिन्न-भिन्न नामसे कहा जाता है) ।९३।
श्लोकार्थ : — [तोयवत् ] जैसे पानी अपने समूहसे च्युत होता हुआ दूर गहन वनमें बह रहा हो उसे दूरसे ही ढालवाले मार्गके द्वारा अपने समूहकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया जाये; तो फि र वह पानी, पानीको पानीके समूहकी ओर खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर, अपने समूहमें आ मिलता है; इसीप्रकार [अयं ] यह आत्मा [निज-ओघात् च्युतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावसे च्युत होकर [भूरि-विकल्प-जाल-गहने दूरं भ्राम्यन् ] प्रचुर विकल्पजालोंके गहन वनमें दूर परिभ्रमण कर रहा था उसे [दूरात् एव ] दूरसे ही [विवेक-निम्न-गमनात् ] विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा [निज-ओघं बलात् नीतः ] अपने विज्ञानघनस्वभावकी ओर बलपूर्वक मोड़ दिया गया; इसलिए
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यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलम् ।
यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ।।९६।।
एक विज्ञानरसवाला ही अनुभवमें आता है ऐसा वह आत्मा, [आत्मानम् आत्मनि एव आहरन् ]
आत्माको आत्मामें ही खींचता हुआ (अर्थात् ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ प्रवाहरूप होकर), [सदा
गतानुगतताम् आयाति] सदा विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है ।
भावार्थ : — जैसे पानी, अपने (पानीके) निवासस्थलसे किसी मार्गसे बाहर निकलकर वनमें अनेक स्थानों पर बह निकले; और फि र किसी ढालवाले मार्ग द्वारा, ज्योंका त्यों अपने निवास-स्थानमें आ मिले; इसीप्रकार आत्मा भी मिथ्यात्वके मार्गसे स्वभावसे बाहर निकलकर विकल्पोंके वनमें भ्रमण करता हुआ किसी भेदज्ञानरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा स्वयं ही अपनेको खींचता हुआ अपने विज्ञानघनस्वभावमें आ मिलता है ।९४।
अब कर्ताकर्म अधिकारका उपसंहार करते हुए, कुछ कलशरूप काव्य कहते हैं; उनमेंसे प्रथम कलशमें कर्ता और कर्मका संक्षिप्त स्वरूप कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [विकल्पकः परं कर्ता ] विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है और [विकल्पः केवलम् कर्म ] विकल्प ही केवल कर्म है; (अन्य कोई कर्ता-कर्म नहीं है;) [सविकल्पस्य ] जो जीव विकल्पसहित है उसका [कर्तृकर्मत्वं ] कर्ताकर्मपना [जातु ] कभी [नश्यति न ] नष्ट नहीं होता ।
भावार्थ : — जब तक विकल्पभाव है तब तक कर्ताकर्मभाव है; जब विकल्पका अभाव हो जाता है तब कर्ताकर्मभावका भी अभाव हो जाता है ।९५।
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ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः ।
ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ।।९७।।
क्वचित् न हि वेत्ति ] जो करता है वह कभी जानता नहीं [तु ] और [यः वेत्ति सः क्वचित् न
करोति ] जो जानता है वह कभी करता नहीं ।
श्लोकार्थ : — [करोतौ अन्तः ज्ञप्तिः न हि भासते ] करनेरूप क्रियाके भीतर जाननेरूप क्रिया भासित नहीं होती [च ] और [ज्ञप्तौ अन्तः करोतिः न भासते ] जाननेरूप क्रियाके भीतर करनेरूप क्रिया भासित नहीं होती; [ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने ] इसलिये ज्ञप्तिक्रिया और ‘करोति’ क्रिया दोनों भिन्न है; [च ततः इति स्थितं ] और इससे यह सिद्ध हुआ कि [ज्ञाता कर्ता न ] जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है ।
भावार्थ : — जब आत्मा इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्यको करता हूँ’ तब तो वह कर्ताभावरूप परिणमनक्रियाके करनेसे अर्थात् ‘करोति’-क्रियाके करनेसे कर्ता ही है और जब वह इसप्रकार परिणमन करता है कि ‘मैं परद्रव्यको जानता हूँ’ तब ज्ञाताभावरूप परिणमन करनेसे अर्थात् ज्ञप्तिक्रियाके करनेसे ज्ञाता ही है ।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अविरत-सम्यग्दृष्टि आदिको जब तक चारित्रमोहका उदय रहता है तब तक वह कषायरूप परिणमन करता है, इसलिये उसका वह कर्ता कहलाता है या नहीं ? उसका समाधान : — अविरत-सम्यग्दृष्टि इत्यादिके श्रद्धा-ज्ञानमें परद्रव्यके स्वामित्वरूप कर्तृत्वका अभिप्राय नहीं है; जो कषायरूप परिणमन है वह उदयकी १बलवत्ताके कारण है; वह उसका ज्ञाता है; इसलिये उसके अज्ञान सम्बन्धी कर्तृत्व नहीं है । निमित्तकी बलवत्तासे होनेवाले परिणमनका फल किंचित् होता है वह संसारका कारण नहीं है । जैसे वृक्षकी जड़ काट देनेके बाद वह वृक्ष कुछ समय तक रहे अथवा न रहे — प्रतिक्षण उसका नाश ही होता जाता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझना ।९७। १ देखो गाथा १३१के भावार्थके नीचेका फू टनोट ।
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द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः ।
र्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किम् ।।९८।।
ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि ।
श्चिच्छक्तीनां निकरभरतोऽत्यन्तगम्भीरमेतत् ।।९९।।
श्लोकार्थ : — [कर्ता कर्मणि नास्ति, कर्म तत् अपि नियतं कर्तरि नास्ति ] निश्चयसे न तो कर्ता कर्ममें है, और न कर्म कर्तामें ही है — [यदि द्वन्द्वं विप्रतिषिध्यते ] यदि इसप्रकार परस्पर दोनोंका निषेध किया जाये [तदा कर्तृकर्मस्थितिः का ] तो कर्ता-कर्मकी क्या स्थिति होगी ? (अर्थात् जीव-पुद्गलके कर्ताकर्मपन कदापि नहीं हो सकेगा ।) [ज्ञाता ज्ञातरि, कर्म सदा कर्मणि ] इसप्रकार ज्ञाता सदा ज्ञातामें ही है और कर्म सदा कर्ममें ही है [ इति वस्तुस्थितिः व्यक्ता ] ऐसी वस्तुस्थिति प्रगट है [तथापि बत ] तथापि अरे ! [नेपथ्ये एषः मोहः किम् रभसा नानटीति ] नेपथ्यमें यह मोह क्यों अत्यन्त वेगपूर्वक नाच रहा है ? (इसप्रकार आचार्यको खेद और आश्चर्य होता है ।)
भावार्थ : — कर्म तो पुद्गल है, जीवको उसका कर्ता कहना असत्य है । उन दोनोंमें अत्यन्त भेद है, न तो जीव पुद्गलमें है और न पुद्गल जीवमें; तब फि र उनमें कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है ? इसलिये जीव तो ज्ञाता है सो ज्ञाता ही है, वह पुद्गलकर्मोंका कर्ता नहीं है; और पुद्गलकर्म हैं वे पुद्गल ही हैं, ज्ञाताका कर्म नहीं हैं । आचार्यदेवने खेदपूर्वक कहा है कि — इसप्रकार प्रगट भिन्न द्रव्य हैं तथापि ‘मैं कर्ता हूँ और यह पुद्गल मेरा कर्म है’ इसप्रकार अज्ञानीका यह मोह ( – अज्ञान) क्यों नाच रहा है ? ९८।
अब यह कहते हैं कि, अथवा यदि मोह नाचता है तो भले नाचे, तथापि वस्तुस्वरूप तो जैसा है वैसा ही है : —
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श्लोकार्थ : — [अचलं ] अचल, [व्यक्तं ] व्यक्त और [चित्-शक्तीनां निकर-भरतः अत्यन्त-गम्भीरम् ] चित्शक्तियोंके ( – ज्ञानके अविभागप्रतिच्छेदोंके) समूहके भारसे अत्यन्त गम्भीर [एतत् ज्ञानज्योतिः ] यह ज्ञानज्योति [अन्तः ] अन्तरङ्गमें [उच्चैः ] उग्रतासे [तथा ज्वलितम् ] ऐसी जाज्वल्यमान हुई कि — [यथा कर्ता कर्ता न भवति ] आत्मा अज्ञानमें कर्ता होता था सो अब वह कर्ता नहीं होता और [कर्म कर्म अपि न एव ] अज्ञानके निमित्तसे पुद्गल कर्मरूप होता था सो वह कर्मरूप नहीं होता; [यथा ज्ञानं ज्ञानं भवति च ] और ज्ञान ज्ञानरूप ही रहता है तथा [पुद्गलः पुद्गलः अपि ] पुद्गल पुद्गलरूप ही रहता है ।
भावार्थ : — जब आत्मा ज्ञानी होता है तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणमित होता है, पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं होता; और पुद्गल पुद्गल ही रहता है, कर्मरूप परिणमित नहीं होता । इसप्रकार यथार्थ ज्ञान होने पर दोनों द्रव्योंके परिणमनमें निमित्तनैमित्तिकभाव नहीं होता । ऐसा ज्ञान सम्यग्दृष्टिके होता है ।९९।
प्रविष्ट हुए थे । जब सम्यग्दृष्टिने अपने यथार्थ-दर्शक ज्ञानसे उन्हें भिन्न-भिन्न लक्षणसे यह जान लिया कि वे एक नहीं, किन्तु दो अलग-अलग हैं तब वे वेषका त्याग करके रंगभूमिसे बाहर निकल गये । बहुरूपियाकी ऐसी प्रवृत्ति होती है कि जब तक देखनेवाले उसे पहिचान नहीं लेते तब तक वह अपनी चेष्टाएँ किया करता है, किन्तु जब कोई यथार्थरूपसे पहिचान लेता है तब वह निज रूपको प्रगट करके चेष्टा करना छोड़ देता है । इसी प्रकार यहाँ भी समझना ।
ताकरि बन्धन आन तणूं फल ले सुखदु:ख भवाश्रमवासो;
ज्ञान भये करता न बनै तब बन्ध न होय खुलै परपासो,
आतममांहि सदा सुविलास करै सिव पाय रहै निति थासो ।
इसप्रकार श्री समयसार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री समयसार परमागमकी) श्रीमद्अमृतचन्द्राचार्यदेवविरचित आत्मख्याति नामक टीकामें कर्ताकर्मका प्ररूपक दूसरा अंक समाप्त हुआ ।
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द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् ।
स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ।।१००।।
प्रथम टीकाकार कहते हैं कि ‘अब एक ही कर्म दो पात्ररूप होकर पुण्य-पापरूपसे प्रवेश करते हैं ।’
जैसे नृत्यमञ्च पर एक ही पुरुष अपने दो रूप दिखाकर नाच रहा हो तो उसे यथार्थ ज्ञाता पहिचान लेता है और उसे एक ही जान लेता है, इसीप्रकार यद्यपि कर्म एक ही है तथापि वह पुण्य-पापके भेदसे दो प्रकारके रूप धारण करके नाचता है उसे, सम्यग्दृष्टिका यथार्थज्ञान एकरूप जान लेता है । उस ज्ञानकी महिमाका काव्य इस अधिकारके प्रारम्भमें टीकाकार आचार्य कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [अथ ] अब (क र्ताक र्म अधिकारके पश्चात्), [शुभ-अशुभ-भेदतः ] शुभ और अशुभके भेदसे [द्वितयतां गतम् तत् कर्म ] द्वित्वको प्राप्त उस क र्मको [ऐक्यम् उपानयन् ] एक रूप क रता हुआ, [ग्लपित-निर्भर-मोहरजा ] जिसने अत्यंत मोहरजको दूर क र दिया है ऐसा [अयं अवबोध-सुधाप्लवः ] यह (प्रत्यक्ष – अनुभवगोचर) ज्ञानसुधांशु (सम्यग्ज्ञानरूपी चन्द्रमा) [स्वयम् ] स्वयं [उदेति ] उदयको प्राप्त होता है ।
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दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव ।
शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण ।।१०१।।
भावार्थ : — अज्ञानसे एक ही कर्म दो प्रकार दिखाई देता था उसे सम्यक्ज्ञानने एक प्रकारका बताया है । ज्ञान पर जो मोहरूप रज चढ़ी हुई थी उसे दूर कर देनसे यथार्थ ज्ञान प्रगट हुआ है; जैसे बादल या कुहरेके पटलसे चन्द्रमाका यथार्थ प्रकाशन नहीं होता, किन्तु आवरणके दूर होने पर वह यथार्थ प्रकाशमान होता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए ।१००।
श्लोकार्थ : — (शूद्राके पेटसे एक ही साथ जन्मको प्राप्त दो पुत्रोंमेंसे एक ब्राह्मणके यहाँ और दूसरा शूद्राके घर पला । उनमेंसे) [एक : ] एक तो [ब्राह्मणत्व-अभिमानात् ] ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ इसप्रकार ब्राह्मणत्वके अभिमानसे [दूरात् ] दूरसे ही [मदिरां ] मदिराका [त्यजति ] त्याग करता है, उसे स्पर्श तक नहीं करता; तब [अन्यः ] दूसरा [अहम् स्वयम् शूद्रः इति ] ‘मैं स्वयं शूद्र हूँ’ यह मानकर [नित्यं ] नित्य [तया एव ] मदिरासे ही [स्नाति ] स्नान क रता है अर्थात् उसे पवित्र मानता है । [एतौ द्वौ अपि ] यद्यपि वे दोनों [शूद्रिकायाः उदरात् युगपत् निर्गतौ ] शूड्डद्राके पेटसे एक ही साथ उत्पन्न हुए हैं वे [साक्षात् शूद्रौ ] (परमार्थतः) दोनों साक्षात् शूद्र हैं, [अपि च ] तथापि [जातिभेदभ्रमेण ] जातिभेदके भ्रम सहित [चरतः ] प्रवृत्ति (आचरण) क रते हैं । इसीप्रकार पुण्य और पापके सम्बन्धमें समझना चाहिए ।
भावार्थ : — पुण्य – पाप दोनों विभावपरिणतिसे उत्पन्न हुए हैं, इसलिये दोनों बन्धनरूप ही हैं । व्यवहारदृष्टिसे भ्रमवश उनकी प्रवृत्ति भिन्न-भिन्न भासित होनेसे, वे अच्छे और बूरे रूपसे दो प्रकार दिखाई देते हैं । परमार्थदृष्टि तो उन्हें एकरूप ही, बन्धरूप ही, बुरा ही जानती है ।१०१।
किस रीत होय सुशील जो संसारमें दाखिल करे ? १४५।।
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शुभाशुभजीवपरिणामनिमित्तत्वे सति कारणभेदात्, शुभाशुभपुद्गलपरिणाममयत्वे सति स्वभावभेदात्, शुभाशुभफलपाकत्वे सत्यनुभवभेदात्, शुभाशुभमोक्षबन्धमार्गाश्रितत्वे सत्याश्रय- भेदात् चैकमपि कर्म किंचिच्छुभं किंचिदशुभमिति केषांचित्किल पक्षः । स तु सप्रतिपक्षः । तथा हि — शुभोऽशुभो वा जीवपरिणामः केवलाज्ञानमयत्वादेकः, तदेकत्वे सति कारणाभेदादेकं कर्म । शुभोऽशुभो वा पुद्गलपरिणामः केवलपुद्गलमयत्वादेकः, तदेकत्वे सति स्वभावाभेदादेकं कर्म । शुभोऽशुभो वा फलपाकः केवलपुद्गलमयत्वादेकः, तदेकत्वे सत्यनुभावाभेदादेकं कर्म । शुभाशुभौ
गाथार्थ : — [अशुभं क र्म ] अशुभ क र्म [कु शीलं ] कुशील है ( – बुरा है) [अपि च ] और [शुभक र्म ] शुभ क र्म [सुशीलम् ] सुशील है ( – अच्छा है) ऐसा [जानीथ ] तुम जानते हो! [तत् ] (कि न्तु) वह [सुशीलं ] सुशील [क थं ] कैसे [भवति ] हो सकता है [यत् ] जो [संसारं ] (जीवको) संसारमें [प्रवेशयति ] प्रवेश क राता है ?
टीका : — किसी कर्ममें शुभ जीवपरिणाम निमित्त होनेसे किसीमें अशुभ जीवपरिणाम निमित्त होनेसे कर्मके कारणोंमें भेद होता है; कोई कर्म शुभ पुद्गलपरिणाममय और कोई अशुभ पुद्गलपरिणाममय होनेसे कर्मके स्वभावमें भेद होता है; किसी कर्मका शुभ फलरूप और किसीका अशुभ फलरूप विपाक होनेसे कर्मके अनुभवमें ( – स्वादमें) भेद होता है; कोई कर्म शुभ ( – अच्छे) ऐसे मोक्षमार्गके आश्रित होनेसे और कोई कर्म अशुभ ( – बुरे) ऐसे बन्धमार्गके आश्रित होनेसे कर्मके आश्रयमें भेद होता है । (इसलिये) यद्यपि (वास्तवमें) कर्म एक ही है तथापि कई लोगोंका ऐसा पक्ष है कि कोई कर्म शुभ है और कोई अशुभ है । परन्तु वह (पक्ष) प्रतिपक्ष सहित है । वह प्रतिपक्ष (अर्थात् व्यवहारपक्षका निषेध करनेवाला निश्चयपक्ष) इसप्रकार है : —
शुभ या अशुभ जीवपरिणाम केवल अज्ञानमय होनेसे एक है; और उसके एक होनेसे कर्मके कारणमें भेद नहीं होता; इसिलये कर्म एक ही है । शुभ या अशुभ पुद्गलपरिणाम केवल पुद्गलमय होनेसे एक है; उसके एक होनेसे कर्मके स्वभावमें भेद नहीं होता; इसिलये कर्म एक ही है । शुभ या अशुभ फलरूप होनेवाला विपाक केवल पुद्गलमय होनेसे एक ही है; उसके एक होनेसे कर्मके अनुभवमें ( – स्वादमें) भेद नहीं होता; इसलिये कर्म एक ही है । शुभ ( – अच्छा) ऐसा मोक्षमार्ग तो केवल जीवमय है और अशुभ ( – बुरा) ऐसा बन्धमार्ग तो केवल पुद्गलमय है, इसलिये वे अनेक ( – भिन्न भिन्न, दो) है; और उनके अनेक होने पर भी कर्म तो
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मोक्षबन्धमार्गौ तु प्रत्येकं केवलजीवपुद्गलमयत्वादनेकौ, तदनेकत्वे सत्यपि केवल- पुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म । केवल पुद्गलमय ऐसे बन्धमार्गके ही आश्रित होनेसे कर्मके आश्रयमें भेद नहीं हैं; इसिलये कर्म एक ही है ।
भावार्थ : — कोई कर्म तो अरहन्तादिमें भक्ति – अनुराग, जीवोंके प्रति अनुकम्पाके परिणाम और मन्द कषायके चित्तकी उज्ज्वलता इत्यादि शुभ परिणामोंके निमित्तसे होते हैं और कोई तीव्र क्रोधादिक अशुभ लेश्या, निर्दयता, विषयासक्ति और देव – गुरु आदि पूज्य पुरुषोंके प्रति विनयभावसे नहीं प्रवर्तना इत्यादि अशुभ परिणामोंके निमित्तसे होते हैं; इसप्रकार हेतुभेद होनेसे कर्मके शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद हैं । सातावेदनीय, शुभ-आयु, शुभनाम और शुभगोत्र — इन कर्मोंके परिणामों ( – प्रकृति इत्यादि – )में तथा चार घातीकर्म, असातावेदनीय, अशुभ-आयु, अशुभनाम और अशुभगोत्र — इन कर्मोंके परिणामों ( – प्रकृति इत्यादि – )में भेद है; इसप्रकार स्वभावभेद होनेसे कर्मोंके शुभ और अशुभ दो भेद हैं । किसी कर्मके फलका अनुभव सुखरूप और किसीका दुःखरूप है; इसप्रकार अनुभवका भेद होनेसे कर्मके शुभ और अशुभ ऐसे दो भेद हैं । कोई कर्म मोक्षमार्गके आश्रित है (अर्थात् मोक्षमार्गमें बन्धता है) और कोई कर्म बन्धमार्गके आश्रित है; इसप्रकार आश्रयका भेद होनेसे कर्मके शुभ और अशुभ दो भेद हैं । इसप्रकार हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय — ऐसे चार प्रकारसे कर्ममें भेद होनेसे कोई कर्म शुभ और कोई अशुभ है; ऐसा कुछ लोगोंका पक्ष है ।
अब इस भेदाभेदका निषेध किया जाता है : — जीवके शुभ और अशुभ परिणाम दोनों अज्ञानमय हैं, इसलिये कर्मका हेतु एक अज्ञान ही है; अतः कर्म एक ही है । शुभ और अशुभ पुद्गलपरिणाम दोनों पुद्गलमय ही हैं, इसलिये कर्मका स्वभाव एक पुद्गलपरिणामरूप ही है; अतः कर्म एक ही है । सुख-दुःखरूप दोनों अनुभव पुद्गलमय ही हैं, इसलिये कर्मका अनुभव एक पुद्गलमय ही है; अतः कर्म एक ही है । मोक्षमार्ग और बन्धमार्गमें, मोक्षमार्ग तो केवल जीवके परिणाममय ही है और बन्धमार्ग केवल पुद्गलके परिणाममय ही है, इसलिये कर्मका आश्रय मात्र बन्धमार्ग ही है (अर्थात् कर्म एक बन्धमार्गके आश्रयसे ही होता है — मोक्षमार्गमें नहीं होता) अतः कर्म एक ही है । इसप्रकार कर्मके शुभाशुभ भेदके पक्षको गौण करके उसका निषेध किया है; क्योंकि यहाँ अभेदपक्ष प्रधान है, और यदि अभेदपक्षसे देखा जाय तो कर्म एक ही है — दो नहीं ।।१४५।।
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(उपजाति) हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः । तद्बन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः ।।१०२।।
श्लोकार्थ : — [हेतु-स्वभाव-अनुभव-आश्रयाणां ] हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय — इन चारोंका [सदा अपि ] सदा ही [अभेदात् ] अभेद होनेसे [न हि क र्मभेदः ] क र्ममें निश्चयसे भेद नहीं है; [तद् समस्तं स्वयं ] इसलिये, समस्त क र्म स्वयं [खलु ] निश्चयसे [बन्धमार्ग-आश्रितम् ] बंधमार्गके आश्रित है और [बन्धहेतुः ] बंधका कारण है, अतः [एक म् इष्टं ] क र्म एक ही माना गया है — उसे एक ही मानना योग्य है ।१०२।
अब यह सिद्ध करते हैं कि — (शुभाशुभ) दोनों कर्म अविशेषतया (बिना किसी अन्तरके) बन्धके कारण हैं : —
गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [सौवर्णिक म् ] सोनेकी [निगलं ] बेड़ी [अपि ] भी [पुरुषम् ] पुरुषको [बध्नाति ] बांँधती है और [कालायसम् ] लोहेकी [अपि ] भी बाँधती है, [एवं ] इसीप्रकार [शुभम् वा अशुभम् ] शुभ तथा अशुभ [कृतं क र्म ] किया हुआ क र्म [जीवं ] जीवको [बध्नाति ] (अविशेषतया) बाँधता है ।
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कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ, बन्धहेतुत्वात्, कुशीलमनोरमा- मनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत् ।
अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टान्तेन समर्थयते — क्योंकि बन्धनभावकी अपेक्षासे उनमें कोई अन्तर नहीं है, इसीप्रकार शुभ और अशुभ कर्म बिना किसी भी अन्तरके पुरुषको ( – जीवको) बाँधते हैं, क्योंकि बन्धभावकी अपेक्षासे उनमें कोई अन्तर नहीं है ।।१४६।।
गाथार्थ : — [तस्मात् तु ] इसलिये [कुशीलाभ्यां ] इन दोनों कुशीलोंके साथ [रागं ] राग [मा कुरुत ] मत क रो [वा ] अथवा [संसर्गम् च ] संसर्ग भी [मा ] मत क रो, [हि ] क्योंकि [कुशीलसंसर्गरागेण ] कु शीलके साथ संसर्ग और राग क रनेसे [स्वाधीनः विनाशः ] स्वाधीनताका नाश होता है (अथवा तो अपने द्वारा ही अपना घात होता है) ।
टीका : — जैसे कुशील (बुरी) ऐसी मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुट्टनीके साथ राग और संसर्ग (हाथीको) बन्ध (बन्धन) के कारण होते हैं, उसीप्रकार कुशील ऐसे शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्ग बन्धके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्गका निषेध किया गया है ।।१४७।।
अब, भगवान कुन्दकुन्दाचार्य स्वयं ही दृष्टान्तपूर्वक यह समर्थन करते हैं कि दोनों कर्म निषेध्य हैं : —
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यथा खलु कुशलः कश्चिद्वनहस्ती स्वस्य बन्धाय उपसर्प्पन्तीं चटुलमुखीं मनोरमाममनोरमां वा करेणुकुट्टनीं तत्त्वतः कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसर्गौ प्रतिषेधयति, तथा किलात्माऽरागो ज्ञानी स्वस्य बन्धाय उपसर्प्पन्तीं मनोरमाममनोरमां वा सर्वामपि कर्मप्रकृतिं
संसर्ग उसके साथ त्योंही, राग करना परितजे; ।।१४८।।
निज भावमें रत राग अरु संसर्ग उसका परिहरे ।।१४९।।
गाथार्थ : — [यथा नाम ] जैसे [कोऽपि पुरुषः ] कोई पुरुष [कुत्सितशीलं ] कु शील अर्थात् खराब स्वभाववाले [जनं ] पुरुषको [विज्ञाय ] जानकर [तेन समकं ] उसके साथ [संसर्गं च रागक रणं ] संसर्ग और राग क रना [वर्जयति ] छोड़ देता है, [एवम् एव च ] इसीप्रकार [स्वभावरताः ] स्वभावमें रत पुरुष [क र्मप्रकृतिशीलस्वभावं ] क र्मप्रकृ तिके शील-स्वभावको [कुत्सितं ] कु त्सित अर्थात् खराब [ज्ञात्वा ] जानकर [तत्संसर्गं ] उसके साथे संसर्ग [वर्जयन्ति ] छोड़ देते हैं [परिहरन्ति च ] और राग छोड़ देते हैं
टीका : — जैसे कोई जंगलका कुशल हाथी अपने बन्धनके लिये निकट आती हुई सुन्दर मुखवाली मनोरम अथवा अमनोरम हथिनीरूप कुट्टनीको परमार्थतः बुरी जानकर उसके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता, इसीप्रकार आत्मा अरागी ज्ञानी होता हुआ अपने बन्धके लिए समीप आती हुई (उदयमें आती हुई) मनोरम या अमनोरम (शुभ या अशुभ) — सभी कर्मप्रकृतियोंको परमार्थतः
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तत्त्वतः कुत्सितशीलां विज्ञाय तया सह रागसंसर्गौ प्रतिषेधयति ।
यः खलु रक्तोऽवश्यमेव कर्म बध्नीयात् विरक्त एव मुच्येतेत्ययमागमः स सामान्येन रक्तत्वनिमित्तत्वाच्छुभमशुभमुभयं कर्माविशेषेण बन्धहेतुं साधयति, तदुभयमपि कर्म प्रतिषेधयति च । बुरी जानकर उनके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता ।
भावार्थ : — हाथीको पकड़नेके लिये हथिनी रखी जाती है; हाथी कामान्ध होता हुआ उस हथिनीरूप कुट्टनीके साथ राग तथा संसर्ग करता है, इसलिये वह पकड़ा जाता है और पराधीन होकर दुःख भोगता है, जो हाथी चतुर होता है वह उस हथिनीके साथ राग तथा संसर्ग नहीं करता; इसीप्रकार अज्ञानी जीव कर्मप्रकृतिको अच्छा समझकर उसके साथ राग तथा संसर्ग करते हैं, इसलिये वे बन्धमें पड़कर पराधीन बनकर संसारके दुःख भोगते हैं, और जो ज्ञानी होता है वह उसके साथ कभी भी राग तथा संसर्ग नहीं करता ।।१४८-१४९।।
गाथार्थ : — [रक्तः जीवः ] रागी जीव [क र्म ] क र्म [बध्नाति ] बाँधता है और [विरागसम्प्राप्तः ] वैराग्यको प्राप्त जीव [मुच्यते ] क र्मसे छूटता है — [एषः ] यह [जिनोपदेशः ] जिनेन्द्रभगवानका उपदेश है; [तस्मात् ] इसलिये (हे भव्य जीव !) तू [क र्मसु ] क र्मोंमें [मा रज्यस्व ] प्रीति – राग मत क र ।
टीका : — ‘‘रक्त अर्थात् रागी अवश्य कर्म बाँधता है, और विरक्त अर्थात् विरागी ही कर्मसे छूटता है’’ ऐसा जो यह आगमवचन है सो, सामान्यतया रागीपनकी निमित्तताके कारण शुभाशुभ दोनों कर्मोंको अविशेषतया बन्धके कारणरूप सिद्ध करता है और इसलिये दोनों कर्मोंका
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(स्वागता) कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद् बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात् । तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ।।१०३।।
प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः ।
स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ।।१०४।।
श्लोकार्थ : — [यद् ] क्योंकि [सर्वविदः ] सर्वज्ञदेव [सर्वम् अपि क र्म ] समस्त (शुभाशुभ) क र्मको [अविशेषात् ] अविशेषतया [बन्धसाधनम् ] बंधका साधन (कारण) [उशन्ति ] क हते हैं, [तेन ] इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने) [सर्वम् अपि तत् प्रतिषिद्धं ] समस्त क र्मका निषेध किया है और [ज्ञानम् एव शिवहेतुः विहितं ] ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है ।१०३।
जब कि समस्त कर्मोंका निषेध कर दिया गया है तब फि र मुनियोंको किसकी शरण रही सो अब कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [सुकृतदुरिते सर्वस्मिन् क र्मणि कि ल निषिद्धे ] शुभ आचरणरूप क र्म और अशुभ आचरणरूप क र्म — ऐसे समस्त क र्मका निषेध क र देने पर और [नैष्क र्म्ये प्रवृत्ते ] इसप्रकार निष्क र्म (निवृत्ति) अवस्था प्रवर्तमान होने पर [मुनयः खलु अशरणाः न सन्ति ] मुनिजन क हीं अशरण नहीं हैं; [तदा ] (क्योंकि) जब निष्क र्म अवस्था प्रवर्तमान होती है तब [ज्ञाने प्रतिचरितम् ज्ञानं हि ] ज्ञानमें आचरण क रता हुआ — रमण क रता हुआ — परिणमन करता हुआ ज्ञान ही [एषां ] उन मुनियोंको [शरणं ] शरण है; [एते ] वे [तत्र निरताः ] उस ज्ञानमें लीन होते हुए [परमम् अमृतं ] परम अमृतका [स्वयं ] स्वयं [विन्दन्ति ] अनुभव करते हैं — स्वाद लेते हैं ।
भावार्थ : — किसीको यह शंका हो सकती है कि — जब सुकृत और दुष्कृत — दोनोंका निषेध कर दिया गया है तब फि र मुनियोंको कुछ भी करना शेष नहीं रहता, इसलिये वे किसके
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ज्ञानं हि मोक्षहेतुः, ज्ञानस्य शुभाशुभकर्मणोरबन्धहेतुत्वे सति मोक्षहेतुत्वस्य तथोपपत्तेः । तत्तु सकलकर्मादिजात्यन्तरविविक्तचिज्जातिमात्रः परमार्थ आत्मेति यावत् । स तु युगपदेकीभाव- प्रवृत्तज्ञानगमनमयतया समयः, सकलनयपक्षासंकीर्णैकज्ञानतया शुद्धः, केवलचिन्मात्रवस्तुतया केवली, मननमात्रभावतया मुनिः, स्वयमेव ज्ञानतया ज्ञानी, स्वस्य भवनमात्रतया स्वभावः आश्रयसे या किस आलम्बनके द्वारा मुनित्वका पालन कर सकेंगे ? आचार्यदेवने उसके समाधानार्थ कहा है कि : — समस्त कर्मका त्याग हो जाने पर ज्ञानका महा शरण है । उस ज्ञानमें लीन होने पर सर्व आकुलतासे रहित परमानन्दका भोग होता है — जिसके स्वादको ज्ञानी ही जानता है । अज्ञानी कषायी जीव कर्मको ही सर्वस्व जानकर उसमें लीन हो रहा है, ज्ञानानन्दके स्वादको नहीं जानता ।१०४।
गाथार्थ : — [खलु ] निश्चयसे [यः ] जो [परमार्थः ] परमार्थ (परम पदार्थ) है, [समयः ] समय है, [शुद्धः ] शुद्ध है, [केवली ] के वली है, [मुनिः ] मुनि है, [ज्ञानी ] ज्ञानी है, [तस्मिन् स्वभावे ] उस स्वभावमें [स्थिताः ] स्थित [मुनयः ] मुनि [निर्वाणं ] निर्वाणको [प्राप्नुवन्ति ] प्राप्त होते हैं ।
टीका : — ज्ञान मोक्षका कारण है, क्योंकि वह शुभाशुभ कर्मोंके बन्धका कारण नहीं होनेसे उसके इसप्रकार मोक्षका कारणपना बनता है । वह ज्ञान, समस्त कर्म आदि अन्य जातियोंसे भिन्न चैतन्य-जातिमात्र परमार्थ ( – परम पदार्थ) है – आत्मा है । वह (आत्मा) एक ही साथ (युगपद्) एक ही रूपसे (एकत्वपूर्वक) प्रवर्तमान ज्ञान और गमन (परिणमन) स्वरूप होनेसे समय है, समस्त नयपक्षोंसे अमिश्रित एक ज्ञानस्वरूप होनेसे शुद्ध है, केवल चिन्मात्र वस्तुस्वरूप
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स्वतश्चितो भवनमात्रतया सद्भावो वेति शब्दभेदेऽपि न च वस्तुभेदः ।
ज्ञानमेव मोक्षस्य कारणं विहितं, परमार्थभूतज्ञानशून्यस्याज्ञानकृतयोर्व्रततपःकर्मणोः बन्धहेतुत्वाद्बालव्यपदेशेन प्रतिषिद्धत्वे सति तस्यैव मोक्षहेतुत्वात् । होनेसे केवली है, केवल मननमात्र (ज्ञानमात्र) भावस्वरूप होनेसे मुनि है, स्वयं ही ज्ञानस्वरूप होनेसे ज्ञानी है, ‘स्व’का भवनमात्रस्वरूप होनेसे स्वभाव है अथवा स्वतः चैतन्यका ❃
इसप्रकार शब्दभेद होने पर भी वस्तुभेद नहीं है (यद्यपि नाम भिन्न-भिन्न हैं तथापि वस्तु एक ही है) ।
भावार्थ : — मोक्षका उपादान तो आत्मा ही है । और परमार्थसे आत्माका ज्ञानस्वभाव है; जो ज्ञान है सो आत्मा है और आत्मा है सो ज्ञान है । इसलिये ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहना योग्य है ।।१५१।।
गाथार्थ : — [परमार्थे तु ] परमार्थमें [अस्थितः ] अस्थित [यः ] जो जीव [तपः क रोति ] तप क रता है [च ] और [व्रतं धारयति ] व्रत धारण क रता है, [तत्सर्वं ] उसके उन सब तप और व्रतको [सर्वज्ञाः ] सर्वज्ञदेव [बालतपः ] बालतप और [बालव्रतं ] बालव्रत [ब्रुवन्ति ] क हते हैं ।
टीका : — आगममें भी ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है (ऐसा सिद्ध होता है); क्योंकि जो जीव परमार्थभूत ज्ञानसे रहित है उसके, अज्ञानपूर्वक किये गये व्रत, तप आदि कर्म बन्धके ❃ भवन = होना
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ज्ञानमेव मोक्षहेतुः, तदभावे स्वयमज्ञानभूतानामज्ञानिनामन्तर्व्रतनियमशीलतपःप्रभृति- शुभकर्मसद्भावेऽपि मोक्षाभावात् । अज्ञानमेव बन्धहेतुः, तदभावे स्वयं ज्ञानभूतानां ज्ञानिनां बहिर्व्रतनियमशीलतपःप्रभृतिशुभकर्मासद्भावेऽपि मोक्षसद्भावात् । कारण हैं, इसलिये उन कर्मोंको ‘बाल’ संज्ञा देकर उनका निषेध किया जानेसे ज्ञान ही मोक्षका कारण सिद्ध होता है ।
भावार्थ : — ज्ञानके बिना किये गये तप तथा व्रतको सर्वज्ञदेवने बालतप तथा बालव्रत (अज्ञानतप तथा अज्ञानव्रत) कहा है, इसलिये मोक्षका कारण ज्ञान ही है ।।१५२।।
अब यह कहते हैं कि ज्ञान ही मोक्षका हेतु है और अज्ञान ही बन्धका हेतु है यह नियम है : —
गाथार्थ : — [व्रतनियमान् ] व्रत और नियमोंको [धारयन्तः ] धारण क रते हुए भी [तथा ] तथा [शीलानि च तपः ] शील और तप [कुर्वन्तः ] क रते हुए भी [ये ] जो [परमार्थबाह्याः ] परमार्थसे बाह्य हैं (अर्थात् परम पदार्थरूप ज्ञानका — ज्ञानस्वरूप आत्माका जिसको श्रद्धान नहीं है) [ते ] वे [निर्वाणं ] निर्वाणको [न विन्दन्ति ] प्राप्त नहीं होते ।
टीका : — ज्ञान ही मोक्षका हेतु है; क्योंकि ज्ञानके अभावमें, स्वयं ही अज्ञानरूप होनेवाले अज्ञानियोंके अन्तरंगमें व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्मोंका सद्भाव होने पर भी मोक्षका अभाव है । अज्ञान ही बन्धका हेतु है; क्योंकि उसके अभावमें, स्वयं ही ज्ञानरूप होनेवाले ज्ञानियोंके बाह्य व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ कर्मोंका असद्भाव होने पर भी मोक्षका सद्भाव है ।
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शिवस्यायं हेतुः स्वयमपि यतस्तच्छिव इति ।
ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिर्हि विहितम् ।।१०५।।
भावार्थ : — ज्ञानरूप परिणमन ही मोक्षका कारण है और अज्ञानरूप परिणमन ही बन्धका कारण है; व्रत, नियम, शील, तप इत्यादि शुभ भावरूप शुभकर्म कहीं मोक्षके कारण नहीं हैं, ज्ञानरूप परिणमित ज्ञानीके वे शुभ कर्म न होने पर भी वह मोक्षको प्राप्त करता है; तथा अज्ञानरूप परिणमित अज्ञानीके वे शुभ कर्म होने पर भी वह बन्धको प्राप्त करता है ।।१५३।।
श्लोकार्थ : — [यद् एतद् ध्रुवम् अचलम् ज्ञानात्मा भवनम् आभाति ] जो यह ज्ञानस्वरूप आत्मा ध्रुवरूपसे और अचलरूपसे ज्ञानस्वरूप होता हुआ — परिणमता हुआ भासित होता है [अयं शिवस्य हेतुः ] वही मोक्षका हेतु है, [यतः ] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि शिवः इति ] वह स्वयमेव मोक्षस्वरूप है; [अतः अन्यत् ] उसके अतिरिक्त जो अन्य कुछ है [बन्धस्य ] वह बन्धका हेतु है, [यतः ] क्योंकि [तत् स्वयम् अपि बन्धः इति ] वह स्वयमेव बन्धस्वरूप है । [ततः ] इसलिये [ज्ञानात्मत्वं भवनम् ] ज्ञानस्वरूप होनेका ( – ज्ञानस्वरूप परिणमित होनेका) अर्थात् [अनुभूतिः हि ] अनुभूति क रनेका ही [विहितम् ] आगममें विधान है ।१०५।