Panchastikay Sangrah (Hindi). Gatha: 14-26.

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३२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
गन्धवर्णपृग्थभूतपुद्गलवद्गुणैर्विना द्रव्यं न संभवति। ततो द्रव्यगुणानामप्यादेशवशात्
कथंचिद्भेदेऽप्येकास्तित्वनियतत्वादन्योन्याजहद्वृत्तीनां वस्तुत्वेनाभेद इति।। १३।।

सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं।
दव्वं खु सतभंगं
आदेसवसेण संभवदि।। १४।।
स्यादस्ति नास्त्युभयमवक्तव्यं पुनश्च तत्त्रितयम्।
द्रव्यं खलु सप्तभङ्गमादेशवशेन सम्भवति।। १४।।
अत्र द्रव्यस्यादेशवशेनोक्ता सप्तभङ्गी।
स्यादस्ति द्रव्यं, स्यान्नास्ति द्रव्यं, स्यादस्ति च नास्ति च द्रव्यं, स्यादवक्तव्यं द्रव्यं, स्यादस्ति
चावक्तव्यं च द्रव्यं, स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यमिति। अत्र
सर्वथात्वनिषेधको
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नहीं होता। इसलिये, द्रव्य और गुणोंका आदेशवशात् कथंचित भेद है तथापि, वे एक अस्तित्वमें
नियत होनेके कारण अन्योन्यवृत्ति नहीं छोड़ते इसलिए वस्तुरूपसे उनका भी अभेद है [अर्थात् द्रव्य
और पर्यायोंकी भाँति द्रव्य और गुणोंका भी वस्तुरूपसे अभेद है]।। १३।।
गाथा १४
अन्वयार्थः– [द्रव्यं] द्रव्य [आदेशवशेन] आदेशवशात् [–कथनके वश] [खुल] वास्तवमें
[स्यात् अस्ति] स्यात् अस्ति, [नास्ति] स्यात् नास्ति, [उभयम्] स्यात् अस्ति–नास्ति,
[अवक्तव्यम्] स्यात् अवक्तव्य [पुनः च] और फिर [तत्त्रितयम्] अवक्तव्यतायुक्त तीन भंगवाला [–
स्यात् अस्ति–अवक्तव्य, स्यात् नास्ति–अवक्तव्य और स्यात् अस्ति–नास्ति–अवक्तव्य] [–सप्तधङ्गम्]
इसप्रकार सात भंगवाला [सम्भवति] है।
टीकाः– यहाँ द्रव्यके आदेशके वश सप्तभंगी कही है।
[१] द्रव्य ‘स्यात् अस्ति’ है; [२] द्रव्य ‘स्यात् नास्ति’ है; [३] द्रव्य ‘स्यात् अस्ति और
नास्ति’ है; [४] द्रव्य ‘स्यात् अवक्तव्य’ हैे; [५] द्रव्य ‘स्यात् अस्ति और अवक्तव्य’ है; [६] द्रव्य
‘स्यात् नास्ति और अवक्तव्य’ है; [७] द्रव्य ‘स्यात् अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य’ है।
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छे अस्ति नास्ति, उभय तेम अवाच्य आदिक भंग जे,
आदेशवश ते सात भंगे युक्त सर्वे द्रव्य छे। १४।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
३३
ऽनेकान्तद्योतकः कथंचिदर्थे स्याच्छब्दो निपातः। तत्र स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैराद्ष्टिमस्ति द्रव्यं,
परद्रव्यक्षेत्रकालभावैरादिष्टं नास्ति द्रव्यं, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च क्रमेणा–
दिष्टमस्ति च नास्ति च दव्यं, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च युगपदादिष्टमवक्तव्यं द्रव्यं,
स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टमस्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, चरद्रव्य–
क्षेत्रकालभावैर्युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टं नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, स्वद्रव्यक्षेत्र–कालभावैः
परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टमस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यमिति। न
चैतदनुपपन्नम्, सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपादिना अशून्यत्वात्, पररूपादिना शून्यत्वात्,
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यहाँ [सप्तभंगीमें] सर्वथापनेका निषेधक, अनेकान्तका द्योतक ‘स्यात्’ शब्द ‘कथंचित्’ ऐसे
अर्थमें अव्ययरूपसे प्रयुक्त हुआ है। वहाँ –[१] द्रव्य स्वद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे कथन किया जाने
पर ‘अस्ति’ है; [२] द्रव्य परद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे कथन किया जाने पर ‘नास्ति’ हैे; [३] द्रव्य
स्वद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे और परद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे क्रमशः कथन किया जाने पर ‘अस्ति
और नास्ति’ है; [४] द्रव्य स्वद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे और परद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे युगपद्
कथन किया जाने पर ‘
अवक्तव्य’ है; [५] द्रव्य स्वद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे और युगपद् स्वपर–
द्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे कथन किया जाने पर ‘अस्ति और अवक्तव्य’ है; [६] द्रव्य परद्रव्य–क्षेत्र–
काल–भावसे और युगपद् स्वपरद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे कथन किया जाने पर ‘नास्ति और
अवक्तव्य’ है; [७] द्रव्य स्वद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे, परद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे और युगपद्
स्वपरद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे कथन किया जाने पर ‘अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य’ है। – यह
[उपर्युक्त बात] अयोग्य नहीं है, क्योंकि सर्व वस्तु [१] स्वरूपादिसे ‘
अशून्य’ है, [२]
पररूपादिसे ‘शून्य’ है, [३] दोनोंसे [स्वरूपादिसे और पररूपादिसे] ‘अशून्य और शून्य’ है
[४] दोनोंसे [स्वरूपादिसे और
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१ स्यात्=कथंचित्; किसी प्रकार; किसी अपेक्षासे। [‘स्यात्’ शब्द सर्वथापनेका निषेध करता है और अनेकान्तको
प्रकाशित करता है – दर्शाता है।]

२। अवक्तव्य=जो कहा न जा सके; अवाच्य। [एकही साथ स्वचतुष्टय तथा परचतुष्टयकी अपेक्षासे द्रव्य कथनमें
नहीं आ सकता इसलिये ‘अवक्तव्य’ है।]

३। अशून्य=जो शून्य नहीं है ऐसा; अस्तित्व वाला; सत्।

४। शून्य=जिसका अस्तित्व नहीं है ऐसा; असत्।

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३४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
उभाभ्यामशून्यशून्यत्वात्, सहावाच्यत्वात्, भङ्गसंयोगार्पणायामशून्यावाच्यत्वात्, शून्यावाच्य–त्वात्,
अशून्यशून्यावाच्यत्वाच्चेति।। १४।।
भावस्स णत्थि णासो णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो।
गुणपञ्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति।। १५।।
भावस्य नास्ति नाशो नास्ति अभावस्य चैव उत्पादः।
गुणपर्यायेषु भावा उत्पादव्ययान् प्रकुर्वन्ति।। १५।।
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पररूपादिसे] एकही साथ ‘अवाच्य’ है, भंगोंके संयोगसे कथन करने पर [५] ‘अशून्य और
अवाच्य’ है, [६] ‘शून्य और अवाच्य’ है, [७] ‘अशून्य, शून्य और अवाच्य’ है।
भावार्थः– [१] द्रव्य स्वचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है’। [२] द्रव्य परचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘नहीं है’।
[३] द्रव्य क्रमशः स्वचतुष्टयकी और परचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है और नहीं है’। [४] द्रव्य युगपद्
स्वचतुष्टयकी और परचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘अवक्तव्य है’। [५] द्रव्य स्वचतुष्टयकी और युगपद्
स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है और अवक्तव्य हैे’। [६] द्रव्य परचतुष्टयकी, और युगपद्
स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘नहीं और अवक्तव्य है’। [७] द्रव्य स्वचतुष्टयकी, परचतुष्टयकी और
युगपद् स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है, नहीं है और अवक्तव्य है’। – इसप्रकार यहाँ सप्तभंगी कही गई
है।। १४।।
गाथा १५
अन्वयार्थः– [भावस्य] भावका [सत्का] [नाशः] नाश [न अस्ति] नहीं है [च एव] तथा
[अभावस्य] अभावका [असत्का] [उत्पादः] उत्पाद [न अस्ति] नहीं है; [भावाः] भाव [सत्
द्रव्यों] [गुणपर्यायषु] गुणपर्यायोंमें [उत्पादव्ययान्] उत्पादव्यय [प्रकृर्वन्ति] करते हैं।
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स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावको स्वचतुष्टय कहा जाता है । स्वद्रव्य अर्थात् निज गुणपर्यायोंके
आधारभूत वस्तु स्वयं; स्वक्षेत्र अर्थात वस्तुका निज विस्तार अर्थात् स्वप्रदेशसमूह; स्वकाल अर्थात् वस्तुकी
अपनी वर्तमान पर्याय; स्वभाव अर्थात् निजगुण– स्वशक्ति।
नहि ‘भाव’ केरो नाश होय, ‘अभाव’नो उत्पाद ना;
‘भावो’ करे छे नाश ने उत्पाद गुणपर्यायमां। १५।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
३५
अत्रासत्प्रादुर्भावत्वमुत्पादस्य सदुच्छेदत्वं विगमस्य निषिद्धम्।
भावस्य सतो हि द्रव्यस्य न द्रव्यत्वेन विनाशः, अभावस्यासतोऽन्यद्रव्यस्य न द्रव्यत्वेनोत्पादः।
किन्तु भावाः सन्ति द्रव्याणि सदुच्छेदमसदुत्पादं चान्तरेणैव गुणपर्यायेषु विनाशमुत्पादं चारभन्ते। यथा
हि घृतोत्पतौ गोरसस्य सतो न विनाशः न चापि गोरसव्यतिरिक्तस्यार्थान्तरस्यासतः उत्पादः किन्तु
गोरसस्यैव सदुच्छेदमसदुत्पादं चानुपलभ–मानस्य स्पर्शरसगन्धवर्णादिषु परिणामिषु गुणेषु
पूर्वावस्थया विनश्यत्सूत्तरावस्थया प्रादर्भवत्सु नश्यति च नवनीतपर्यायो घतृपर्याय उत्पद्यते, तथा
सर्वभावानामपीति।। १५।।
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टीकाः–
यहाँ उत्पादमें असत्के प्रादुर्भावका और व्ययमें सत्के विनाशका निषेध किया है
[अर्थात् उत्पाद होनेसे कहीं असत्की उत्पत्ति नहीं होती और व्यय होनेसे कहीं सत्का विनाश नहीं
होता ––ऐसा इस गाथामें कहा है]।
भावका–सत् द्रव्यका–द्रव्यरूपसे विनाश नहीं है, अभावका –असत् अन्यद्रव्यका –द्रव्यरूपसे
उत्पाद नहीं है; परन्तु भाव–सत् द्रव्यों, सत्के विनाश और असत्के उत्पाद बिना ही, गुणपर्यायोंमें
विनाश और उत्पाद करते हैं। जिसप्रकार घीकी उत्पत्तिमें गोरसका–सत्का–विनाश नहीं है तथा
गोरससे भिन्न पदार्थान्तरका–असत्का–उत्पाद नहीं है, किन्तु गोरसको ही, सत्का विनाश और
असत्का उत्पाद किये बिना ही, पूर्व अवस्थासे विनाश प्राप्त होने वाले और उत्तर अवस्थासे उत्पन्न
होने वाले स्पर्श–रस–गंध–वर्णादिक परिणामी गुणोंमें मक्खनपर्याय विनाशको प्राप्त होती है तथा
घीपर्याय उत्पन्न होती है; उसीप्रकार सर्व भावोंका भी वैसा ही है [अर्थात् समस्त द्रव्योंको नवीन
पर्यायकी उत्पत्तिमें सत्का विनाश नहीं है तथा असत्का उत्पाद नहीं है, किन्तु सत्का विनाश और
असत्का उत्पाद किये बिना ही, पहलेकी [पुरानी] अवस्थासे विनाशको प्राप्त होनेवाले और बादकी
[नवीन] अवस्थासे उत्पन्न होनेवाले
परिणामी गुणोंमें पहलेकी पर्याय विनाश और बादकी पर्यायकी
उत्पत्ति होती है]।। १५।।
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परिणामी=परिणमित होनेवाले; परिणामवाले। [पर्यायार्थिक नयसे गुण परिणामी हैं अर्थात् परिणमित होते हैं।]

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३६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
भावा जीवादीया जीवगुणा चेदणा य उवओगो।
सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा।। १६।।
भावा जीवाद्या जीवगुणाश्चेतना चोपयोगः।
सुरनरनारकतिर्यञ्चो जीवस्य च पर्यायाः बहवः।। १६।।
अत्र भावगुणपर्यायाः प्रज्ञापिताः।
भावा हि जीवादयः षट् पदार्थाः। तेषां गुणाः पर्यायाश्च प्रसिद्धाः। तथापि जीवस्य
वक्ष्यमाणोदाहरणप्रसिद्धयथर्मभिधीयन्ते। गुणा हि जीवस्य ज्ञानानुभूतिलक्षणा शुद्धचेतना,
कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना, चैतन्यानुविधायिपरिणामलक्षणः स–
विकल्पनिर्विकल्परूपः शुद्धाशुद्धतया सकलविकलतां
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा १६

अन्वयार्थः–
[जीवाद्याः] जीवादि [द्रव्य] वे [भावाः] ‘भाव’ हैं। [जीवगुणाः] जीवके गुण
[चेतना च उपयोगः] चेतना तथा उपयोग हैं [च] और [जीवस्य पर्यायाः] जीवकी पर्यायें
[सुरनरनारकतिर्यञ्चः] देव–मनुष्य–नारक–तिर्यंचरूप [बहवः] अनेक हैं।
टीकाः– यहा भावों [द्रव्यों], गुणोंं और पर्यायें बतलाये हैं।
जीवादि छह पदार्थ वे ‘भाव’ हैं। उनके गुण और पर्यायें प्रसिद्ध हैं, तथापिआगे [अगली
गाथामें] जो उदाहरण देना है उसकी प्रसिद्धिके हेतु जीवके गुणों और पर्यायों कथन किया जाता
हैः–
जीवके गुणों ज्ञानानुभूतिस्वरूप शुद्धचेतना तथा कार्यानुभूतिस्वरूप और कर्मफलानुभूति–
स्वरूप अशुद्धचेतना है और चैतन्यानुविधायी–परिणामस्वरूप, सविकल्पनिर्विकल्परूप, शुद्धता–
--------------------------------------------------------------------------
१। अगली गाथामें जीवकी बात उदाहरणके रूपमें लेना है, इसलिये उस उदाहरणको प्रसिद्ध करनेके लिये यहाँ
जीवके गुणों और पर्यायोंका कथन किया गया है।
२। शुद्धचेतना ज्ञानकी अनुभूतिस्वरूप है और अशुद्धचेतना कर्मकी तथा कर्मफलकी अनुभूतिस्वरूप है।
३। चैतन्य–अनुविधायी परिणाम अर्थात् चैतन्यका अनुसरण करनेवाला परिणाम वह उपयोग है। सविकल्प
उपयोगको ज्ञान और निर्विकल्प उपयोगको दर्शन कहा जाता है। ज्ञानोपयोगके भेदोंमेंसे मात्र केवज्ञान ही शुद्ध
होनेसे सकल [अखण्ड, परिपूर्ण] है और अन्य सब अशुद्ध होनेसे विकल [खण्डित, अपूर्ण] हैं;
दर्शनोपयोगके भेदोंमेसे मात्र केवलदर्शन ही शुद्ध होनेसे सकल है और अन्य सब अशुद्ध होनेसे विकल हैं।

जीवादि सौ छे ‘भाव,’ जीवगुण चेतना उपयोग छे;
जीवपर्ययो तिर्यंच–नारक–देव–मनुज अनेक छे। १६।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
३७
दधानो द्वेधोपयोगश्च। पर्यायास्त्वगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्ताः शुद्धाः, सूत्रोपात्तास्तु सुरनारक–
तिर्यङ्मनुष्लक्षणाः परद्रव्यसम्बन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाश्चेति।। १६।।
मणुसत्तणेण णठ्ठो देही देवो हवेदि इदरो वा।
उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो।। १७।।
मनुष्यत्वेन नष्टो देही देवो भवतीतरो वा।
उभयत्र जीवभावो न नश्यति न जायतेऽन्यः।। १७।।
इदं भावनाशाभावोत्पादनिषेधोदाहरणम्।
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अशुद्धताके कारण सकलता–विकलता धारण करनेवाला, दो प्रकारका उपयोग है [अर्थात् जीवके
गुणों शुद्ध–अशुद्ध चेतना तथा दो प्रकारके उपयोग हैं]।
जीवकी पर्यायें इसप्रकार हैंः–– अगुरुलघुगुणकी हानिवृद्धिसे उत्पन्न पर्यायें शुद्ध पर्यायें हैं और
सुत्रमें [–इस गाथामें] कही हुई, देव–नारक–तिर्यंच–मनुष्यस्वरूप पर्यायें परद्रव्यके सम्बन्धसे उत्पन्न
होती है इसलिये अशुद्ध पर्यायें हैं।। १६।।
गाथा १७
अन्वयार्थः– [मनुष्यत्वेन] मनुष्यपत्वसे [नष्टः] नष्ट हुआ [देही] देही [जीव]
[देवः वा इतरः] देव अथवा अन्य [भवति] होता है; [उभयत्र] उन दोनोंमें [जीवभावः] जीवभाव
[न नश्यति] नष्ट नहीं होता और [अन्यः] दूसरा जीवभाव [न जायते] उत्पन्न नहीं होता।
टीकाः– ‘भावका नाश नहीं होता और अभावका उत्पाद नहीं होता’ उसका यह उदाहरण है।
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पर्यायार्थिकनयसे गुण भी परिणामी हैं। [दखिये, १५ वीं गाथाकी टीका।]

मनुजत्वथी व्यय पामीने देवादि देही थाय छे;
त्यां जीवभाव न नाश पामे, अन्य नहि उद्भव लहे। १७।

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३८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
प्रतिसमयसंभवदगुरुलघुगुणहानिवृद्धिनिर्वृत्तस्वभावपर्यायसंतत्यविच्छेदकेनैकेन सोपाधिना
मनुष्यत्वलक्षणेन पर्यायेण विनश्यति जीवः, तथाविधेन देवत्वलक्षणेन नारकतिर्यक्त्वलक्षणेन वान्येन
पर्यायेणोत्पद्यते। न च मनुष्यत्वेन नाशे जीवत्वेनापि नश्यति, देवत्वादिनोत्पादे जीवत्वेनाप्युत्पद्यतेः
किं तु सदुच्छेदमसदुत्पादमन्तरेणैव तथा विवर्तत इति।।१७।।
सो चेव जादि मरणं जादि ण णठ्ठो ण चेव उप्पण्णो।
उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसु त्ति पज्जाओ।। १८।।
स च एव याति मरणं याति न नष्टो न चैवोत्पन्नः।
उत्पन्नश्च विनष्टो देवो मनुष्य इति पर्यायः।। १८।।
अत्र कथंचिद्वययोत्पादवत्त्वेऽपि द्रव्यस्य सदाविनष्टानुत्पन्नत्वं ख्यापितम्।
यदेव पूर्वोत्तरपर्यायविवेकसंपर्कापादितामुभयीमवस्थामात्मसात्कुर्वाणमुच्छिद्यमानमुत्पद्य–मानं च
-----------------------------------------------------------------------------
प्रतिसमय होनेवाली अगुरुलधुगुणकी हानिवृद्धिसे उत्पन्न होनेवाली स्वभावपर्यायोंकी संततिका
विच्छेद न करनेवाली एक सोपाधिक मनुष्यत्वस्वरूप पर्यायसे जीव विनाशको प्राप्त होता है और
तथाविध [–स्वभावपर्यायोंके प्रवाहको न तोड़नेवाली सोपाधिक] देवत्वस्वरूप, नारकत्वस्वरूप या
तिर्यंचत्वस्वरूप अन्य पर्यायसे उत्पन्न होता है। वहाँ ऐसा नहीं है कि मनुष्यपत्वसे विनष्ट होनेपर
जीवत्वसे भी नष्ट होता है और देवत्वसे आदिसे उत्पाद होनेपर जीवत्व भी उत्पन्न होता है, किन्तु
सत्के उच्छेद और असत्के उत्पाद बिना ही तदनुसार विवर्तन [–परिवर्तन, परिणमन] करता है।।
१७।।
गाथा १८
अन्वयार्थः– [सः च एव] वही [याति] जन्म लेता है और [मरणंयाति] मृत्यु प्राप्त करता है
तथापि [न एव उत्पन्नः] वह उत्पन्न नहीं होता [च] और [न नष्टः] नष्ट नहीं होता; [देवः
मनुष्यः] देव, मुनष्य [इति पर्यायः] ऐसी पर्याय [उत्पन्नः] उत्पन्न होती है [च] और [विनष्टः]
विनष्ट होती है।
टीकाः– यहाँ, द्रव्य कथंचित् व्यय और उत्पादवाला होनेपर भी उसका सदा अविनष्टपना और
अनुत्पन्नपना कहा है।
--------------------------------------------------------------------------

जन्मे मरे छे ते ज, तोपण नाश–उद्भव नव लहे;
सुर–मानवादिक पर्ययो उत्पन्न ने लय थाय छे। १८।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
३९
द्रव्यमालक्ष्यते, तदेव तथाविधोभयावस्थाव्यापिना प्रतिनियतैक– वस्तुत्वनिबन्धनभूतेन
स्वभावेनाविनष्टमनुत्पन्नं वा वेद्यते। पर्यायास्तु तस्य पूर्वपूर्वपरिणामो–पमर्दोत्तरोत्तरपरिणामोत्पादरूपाः
प्रणाशसंभवधर्माणोऽभिधीयन्ते। ते च वस्तुत्वेन द्रव्यादपृथग्भूता एवोक्ताः। ततः पर्यायैः
सहैकवस्तुत्वाज्जायमानं म्रियमाणमति जीवद्रव्यं सर्वदानुत्पन्ना विनष्टं द्रष्टव्यम्। देवमनुष्यादिपर्यायास्तु
क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति।। १८।।
एवं सदो विणासो असदो जीवस्स णत्थि उप्पादो।
तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो त्ति गदिणामो।। १९।।
एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य नास्त्युत्पादः।
तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति गतिनाम।। १९।।
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जो द्रव्य
पूर्व पर्यायके वियोगसे और उत्तर पर्यायके संयोगसे होनेवाली उभय अवस्थाको आत्मसात्
[अपनेरूप] करता हुआ विनष्ट होता और उपजता दिखाई देता है, वही [द्रव्य] वैसी उभय
अवस्थामें व्याप्त होनेवाला जो प्रतिनियत एकवस्तुत्वके कारणभूत स्वभाव उसके द्वारा [–उस
स्वभावकी अपेक्षासे] अविनष्ट एवं अनुत्पन्न ज्ञात होता है; उसकी पर्यायें पूर्व–पूर्व परिणामके नाशरूप
और उत्तर–उत्तर परिणामके उत्पादरूप होनेसे विनाश–उत्पादधर्मवाली [–विनाश एवं उत्पादरूप
धर्मवाली] कही जाती है, और वे [पर्यायें] वस्तुरूपसे द्रव्यसे अपृथग्भूत ही कही गई है। इसलिये,
पर्यायोंके साथ एकवस्तुपनेके कारण जन्मता और मरता होने पर भी जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पन्न एवं
अविनष्ट ही देखना [–श्रद्धा करना]; देव मनुष्यादि पर्यायें उपजती है और विनष्ट होती हैं क्योंकि
वे क्रमवर्ती होनेसे उनका स्वसमय उपस्थित होता है और बीत जाता है।। १८।।
गाथा १९
अन्वयार्थः– [एवं] इसप्रकार [जीवस्य] जीवको [सतः विनाशः] सत्का विनाश और
[असतः उत्पादः] असत्का उत्पाद [न अस्ति] नहीं है; [‘देव जन्मता हैे और मनुष्य मरता है’ –
ऐसा कहा जाता है उसका यह कारण है कि] [जीवानाम्] जीवोंकी [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य
[इति गतिनाम] ऐसा गतिनामकर्म [तावत्] उतने ही कालका होता है।
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१। पूर्व = पहलेकी। २। उत्तर = बादकी
ए रीते सत्–व्यय ने असत्–उत्पाद होय न जीवने;
सुरनरप्रमुख गतिनामनो हदयुक्त काळ ज होय छे। १९।

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४०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अत्र सदसतोरविनाशानुत्पादौ स्थितिपक्षत्वेनोपन्यस्तौ।
यदि हि जीवो य एव म्रियते स एव जायते, य एव जायते स एव म्रियते, तदैवं सतो
विनाशोऽसत् उत्पादश्च नास्तीति व्यवतिष्ठते। यत्तु देवो जायते मनुष्यो म्रियते इति व्यपदिश्यते
तदवधृतकालदेवमनुष्यत्वपर्यायनिर्वर्तकस्य देवमनुष्यगतिनाम्नस्तन्मात्रत्वादविरुद्धम्। यथा हि महतो
वेणुदण्डस्यैकस्य क्रमवृत्तीन्यने कानि पर्वाण्यात्मीयात्मीयप्रमाणावच्छिन्नत्वात् पर्वान्तरमगच्छन्ति
स्वस्थानेषु भावभाज्जि परस्थानेष्वभावभाज्जि भवन्ति, वेणुदण्डस्तु सर्वेष्वपि पर्वस्थानेषु भावभागपि
पर्वान्तरसंबन्धेन पर्वान्तरसंबन्धाभावादभावभाग्भवति; तथा निरवधित्रि–कालावस्थायिनो
जीवद्रव्यस्यैकस्य क्रमवृत्तयोऽनेकेः मनुष्यत्वादिपर्याया आत्मीयात्मीयप्रमाणा–वच्छिन्नत्वात्
पर्यायान्तरमगच्छन्तः स्वस्थानेषु भावभाजः परस्थानेष्वभावभाजो भवन्ति, जीवद्रव्यं तु
सर्वपर्यायस्थानेषु भावभागपि पर्यायान्तरसंबन्धेन पर्यायान्तरसंबन्धाभावादभावभाग्भवति।।१९।।
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टीकाः– यहाँ सत्का अविनाश और असत्का अनुत्पाद ध्रुवताके पक्षसे कहा है [अर्थात्
ध्रुवताकी अपेक्षासे सत्का विनाश या असत्का उत्पाद नहीं होता–– ऐसा इस गाथामें कहा है]।

यदि वास्तवमें जो जीव मरता है वही जन्मता है, जो जीव जन्मता है वही मरता है, तो
इसप्रकार सत्का विनाश और असत्का उत्पाद नहीं है ऐसा निश्चित होता है। और ‘देव जन्मता हैे
और मनुष्य मरता है’ ऐसा जो कहा जाता है वह [भी] अविरुद्ध है क्योंकि मर्यादित कालकी
देवत्वपर्याय और मनुष्यत्वपर्यायको रचने वाले देवगतिनामकर्म और मनुष्यगतिनामकर्म मात्र उतने
काल जितने ही होते हैं। जिसप्रकार एक बडे़ बाँसके क्र्रमवर्ती अनेक
पर्व अपने–अपने मापमें
मर्यादित होनेसे अन्य पर्वमें न जाते हुए अपने–अपने स्थानोंमें भाववाले [–विद्यमान] हैं और पर
स्थानोंमें अभाववाले [–अविद्यमान] हैं तथा बाँस तो समस्त पर्वस्थानोंमें भाववाला होनेपर भी अन्य
पर्वके सम्बन्ध द्वारा अन्य पर्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे अभाववाला [भी] है; उसीप्रकार निरवधि
त्रिकाल स्थित रहनेवाले एक जीवद्रव्यकी क्रमवर्ती अनेक मनुष्यत्वादिपर्याय अपने–अपने मापमें
मर्यादित होनेसे अन्य पर्यायमें न जाती हुई अपने–अपने स्थानोंमें भाववाली हैं और पर स्थानोंमें
अभाववाली हैं तथा जीवद्रव्य तो सर्वपर्यायस्थानोमें भाववाला होने पर भी अन्य पर्यायके सम्बन्ध द्वारा
अन्य पर्यायके सम्बन्धका अभाव होनेसे अभाववाला [भी] है।
--------------------------------------------------------------------------
१। पर्व=एक गांठसे दूसरी गांठ तकका भाग; पोर।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
४१
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ठ अणुबद्धा।
तेसिमभावं किच्चा
अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो।। २०।।
ज्ञानावरणाद्या भावा जीवेन सुष्ठु अनुबद्धा।
तेषामभावं कुत्वाऽभूतपूर्वो भवति सिद्धः।। २०।।
-----------------------------------------------------------------------------
भावार्थः– जीवको ध्रौव्य अपेक्षासे सत्का विनाश और असत्का उत्पाद नहीं है। ‘मनुष्य मरता
है और देव जन्मता है’ –ऐसा जो कहा जाता है वह बात भी उपर्युक्त विवरणके साथ विरोधको
प्राप्त नहीं होती। जिसप्रकार एक बडे़ बाँसकी अनेक पोरें अपने–अपने स्थानोंमें विद्यमान हैं और
दूसरी पोरोंके स्थानोंमें अविद्यमान हैं तथा बाँस तो सर्व पोरोंके स्थानोंमें अन्वयरूपसे विद्यमान होने
पर भी प्रथमादि पोरके रूपमें द्वितीयादि पोरमें न होनेसे अविद्यमान भी कहा जाता है; उसीप्रकार
त्रिकाल–अवस्थायी एक जीवकी नरनारकादि अनेक पर्यायें अपने–अपने कालमें विद्यमान हैं और
दूसरी पर्यायोंके कालमें अविद्यमान हैं तथा जीव तो सर्व पर्यायोंमें अन्वयरूपसे विद्यमान होने पर भी
मनुष्यादिपर्यायरूपसे देवादिपर्यायमें न होनेसे अविद्यमान भी कहा जाता है।। १९।।
गाथा २०
अन्वयार्थः– [ज्ञानावरणाद्याः भावाः] ज्ञानावरणादि भाव [जीवेन] जीवके साथ [सुष्ठु] भली
भाँति [अनुबद्धाः] अनुबद्ध है; [तेषाम् अभावं कृत्वा] उनका अभाव करके वह [अभूतपूर्वः सिद्धः]
अभूतपूर्व सिद्ध [भवति] होता है।
टीकाः– यहाँ सिद्धको अत्यन्त असत्–उत्पादका निषेध किया है। [अर्थात् सिद्धत्व होनेसे
सर्वथा असत्का उत्पाद नहीं होता ऐसा कहा है]।
--------------------------------------------------------------------------
ज्ञानावरण इत्यादि भावो जीव सह अनुबद्ध छे;
तेनो करीने नाश, पामे जीव सिद्धि अपूर्वने। २०।

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४२
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
अत्रात्यन्तासदुत्पादत्वं सिद्धस्य निषिद्धम्।
यथा स्तोककालान्वयिषु नामकर्मविशेषोदयनिर्वृत्तेषु जीवस्य देवादिपर्यायेष्वेकस्मिन्
स्वकारणनिवृतौ निवृत्तेऽभूतपूर्व एव चान्यस्मिन्नुत्पन्ने नासदुत्पत्तिः, तथा दीर्धकाला– न्वयिनि
ज्ञानावरणादिकर्मसामान्योदयनिर्वृत्तिसंसारित्वपर्याये भव्यस्य स्वकारणनिवृत्तौ निवृत्ते सुमुत्पन्ने
चाभूतपूर्वे सिद्धत्वपर्याये नासदुत्पत्तिरिति। किं च–यथा द्राघीयसि वेणुदण्डे व्यवहिता–
व्यवहितविचित्रचित्रकिर्मीरताखचिताधस्तनार्धभागे एकान्तव्यवहितसुविशुद्धोर्ध्वार्धभागेऽवतारिता
द्रष्टिः समन्ततो विचित्रचित्रकिर्मीरताव्याप्तिं पश्यन्ती समुनमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वं, तथा
क्वचिदपि जीवद्रव्ये व्यवहिताव्यवहितज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरताखचितबहुतराधस्तनभागे एकान्त–
व्यवहितसुविशुद्धबहुतरोर्ध्वभागेऽवतारिता बुद्धिः समन्ततो ज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरताव्याप्ति
व्यवस्यन्ती समनुमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वम्। यथा च तत्र वेणुदण्डे व्याप्तिज्ञानाभासनि–
बन्धनविचित्रचित्र किर्मीरतान्वयः तथा च क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानावर–
-----------------------------------------------------------------------------
जिसप्रकार कुछ समय तक अन्वयरूपसे [–साथ–साथ] रहने वाली, नामकर्मविशेषके उदयसे
उत्पन्न होनेवाली जो देवादिपर्यायें उनमेंसे जीवको एक पर्याय स्वकारणकी निवृत्ति होनेपर निवृत्त हो
तथा अन्य कोई अभूतपूर्व पर्यायही उत्पन्नहो, वहाँ असत्की उत्पत्ति नहीं है; उसीप्रकार दीर्ध काल
तक अन्वयरूपसे रहनेवाली, ज्ञानवरणादिकर्मसामान्यके उदयसे उत्पन्न होनेवाली संसारित्वपर्याय
भव्यको स्वकारणकी निवृत्ति होने पर निवृत्त हो और अभूतपूर्व [–पूर्वकालमें नहीं हुई ऐसी]
सिद्धत्वपर्याय उत्पन्न हो, वहाँ असत्की उत्पत्ति नहीं है।
पुनश्च [विशेष समझाया जाता है।]ः–
जिस प्रकार जिसका विचित्र चित्रोंसे चित्रविचित्र नीचेका अर्ध भाग कुछ ढँकाहुआ और कुछ
बिन ढँका हो तथा सुविशुद्ध [–अचित्रित] ऊपरका अर्ध भाग मात्र ढँका हुआ ही हो ऐसे बहुत लंबे
बाँस पर द्रष्टि डालनेसे वह द्रष्टि सर्वत्र विचित्र चत्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेकी व्याप्तिका निर्णय करती
हुई ‘वह बाँस सर्वत्र अविशुद्ध है [अर्थात् सम्पूर्ण रंगबिरंगा है]’ ऐसा अनुमान करती है;
उसीप्रकार जिसका ज्ञानावरणादि कर्मोंसे हुआ चित्रविचित्रतायुक्त [–विविध विभावपर्यायवाला]
बहुत बड़ा नीचेका भाग कुछ ढँका हुआ और कुछ बिन ढँका है तथा सुविशुद्ध [सिद्धपर्यायवाला],
बहुत बड़ा ऊपरका भाग मात्र ढँका हुआ ही है ऐसे किसी जीवद्रव्यमें बुद्धि लगानेसे वह बुद्धि सर्वत्र
ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए चित्रविचित्रपनेकी व्याप्तिका निर्णय करती हुई ‘वह जीव सर्वत्र अविशुद्ध है
[अर्थात् सम्पूर्ण संसारपर्यायवाला है]’ ऐसा अनुमान करती है। पुनश्च जिस प्रकार उस बाँसमें
व्याप्तिज्ञानाभासका कारण [नीचेके खुले भागमें] विचित्र चित्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेका अन्वय [–
संतति, प्रवाह] है, उसीप्रकार उस जीवद्रव्यमें व्याप्तिज्ञानाभासका कारण [निचेके खुले भागमें]

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
४३
णादिकर्मकिर्मीरतान्वयः। यथैव च तत्र वेणुदण्डे विचित्रचित्रकिर्मीरतान्वयाभावात्सुविशुद्धत्वं, तथैव
च क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानवरणादिकर्म किर्मीरतान्वयाभावादाप्तागमसम्यगनुमानातीन्द्रिय–
ज्ञानपरिच्छिन्नात्सिद्धत्वमिति।। २०।।
-----------------------------------------------------------------------------
ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए चित्रविचित्रपनेका अन्वय है। और जिस प्रकार बांँसमें [उपरके भागमें]
सुविशुद्धपना है क्योंकि [वहाँ] विचित्र चित्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेके अन्वयका अभाव है, उसीप्रकार
उस जीवद्रव्यमें [उपरके भागमें] सिद्धपना है क्योंकि [वहाँ] ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए
चित्रविचित्रपनेके अन्वयका अभाव है– कि जो अभाव आप्त– आगमके ज्ञानसे सम्यक् अनुमानज्ञानसे
और अतीन्द्रिय ज्ञानसे ज्ञात होता है।
भावार्थः– संसारी जीवकी प्रगट संसारी दशा देखकर अज्ञानी जीवको भ्रम उत्पन्न होता है कि
– ‘जीव सदा संसारी ही रहता है, सिद्ध हो ही नहीं सकता; यदि सिद्ध हो तो सर्वथा असत्–
उत्पादका प्रसंग उपस्थित हो।’ किन्तु अज्ञानीकी यह बात योग्य नहीं है।
जिस प्रकार जीवको देवादिरूप एक पर्यायके कारणका नाश होने पर उस पर्यायका नाश
होकर अन्य पर्यायकी उत्पन्न होती है, जीवद्रव्य तो जो है वही रहता है; उसी प्रकार जीवको
संसारपर्यायके कारणभूत मोहरागद्वेषादिका नाश होने पर संसारपर्यायका नाश होकर सिद्धपर्याय
उत्पन्न होती है, जीवद्रव्य तो जो है वही रहता है। संसारपर्याय और सिद्धपर्याय दोनों एक ही
जीवद्रव्यकी पर्यायें हैं।
पुनश्च, अन्य प्रकारसे समझाते हैंः– मान लो कि एक लंबा बाँस खड़ा रखा गया है;
उसका नीचेका कुछ भाग रंगबिरंगा किया गया है और शेष उपरका भाग अरंगी [–स्वाभाविक
शुद्ध] है। उस बाँसके रंगबिरंगे भागमेंसे कुछ भाग खुला रखा गया है और शेष सारा रंगबिरंगा
भाग और पूरा अरंगी भाग ढक दिया गया है। उस बाँसका खुला भाग रंगबिेरंगा देखकर अविचारी
जीव ‘जहाँ–जहाँ बाँस हो वहाँ–वहाँ रंगबिरंगीपना होता है’ ऐसी व्याप्ति [–नियम,
अविनाभावसम्बन्ध] की कल्पना कर लेता है और ऐसे मिथ्या व्याप्तिज्ञान द्वारा ऐसा अनुमान खींच
लेता है कि ‘नीचेसे उपर तक सारा

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४४
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च।
गुणपज्जयेहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो।। २१।।
एवं भावमभावं भावाभावमभावभावं च।
गुणपर्ययैः सहितः संसरन् करोति जीवः।। २१।।
-----------------------------------------------------------------------------
बाँस रंगबिरंगा है।’ यह अनुमान मिथ्या है; क्योंकि वास्तवमें तो उस बाँसके ऊपरका भाग
रंगबिरंगेपनेके अभाववाला है, अरंगी है। बाँसके द्रष्टांतकी भाँति–कोई एक भव्य जीव है; उसका
नीचेका कुछ भाग [अर्थात् अनादि कालसे वर्तमान काल तकका और अमुक भविष्य काल तकका
भाग] संसारी है और ऊपरका अनन्त भाग सिद्धरूप [–स्वाभाविक शुद्ध] है। उस जीवके
संसारी भागमें से कुछ भाग खुला [प्रगट] है और शेष सारा संसारी भाग और पूरा सिद्धरूप भाग
ढँका हुआ [अप्रगट] हैे। उस जीवका खुला [प्रगट] भाग संसारी देखकर अज्ञानी जीव ‘जहाँ–
जहाँ जीव हो वहाँ–वहाँ संसारीपना है’ ऐसी व्याप्तिकी कल्पना कर लेता है और ऐसे मिथ्या
व्याप्तिज्ञान द्वारा ऐसा अनुमान करता है कि ‘अनादि–अनन्त सारा जीव संसारी है।’ यह अनुमान
मिथ्या हैे; क्योंकि उस जीवका उपरका भाग [–अमुक भविष्य कालके बादका अनन्त भाग]
संसारीपनेके अभाववाला है, सिद्धरूप है– ऐसा सर्वज्ञप्रणीत आगमके ज्ञानसे, सम्यक् अनुमानज्ञानसे
तथा अतीन्द्रिय ज्ञानसे स्पष्ट ज्ञात होता है।
इस तरह अनेक प्रकारसे निश्चित होता है कि जीव संसारपर्याय नष्ट करके सिद्धरूपपर्यायरूप
परिणमित हो वहाँ सर्वथा असत्का उत्पाद नहीं होता।। २०।।
--------------------------------------------------------------------------
गुणपर्यये संयुक्त जीव संसरण करतो ए रीते
उद्भव, विलय, वली भाव–विलय, अभाव–उद्भवने करे। २१।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
४५
जीवस्योत्पादव्ययसदुच्छेदासदुत्पादकर्तृत्वोपपत्त्युपसंहारोऽयम्।
द्रव्यं हि सर्वदाऽविनष्टानुत्पन्नमाम्नतम् ततो जीवद्रव्यस्य द्रव्यरूपेण नित्यत्वमुपन्यस्तम् तस्यैव
देवादिपर्यायरूपेण प्रादुर्भवतो भावकर्तृत्वमुक्तं; तस्यैव च मनुष्यादिपर्यायरूपेण
व्ययतोऽभावकर्तृत्वमाख्यातं; तस्यैव च सतो देवादिपर्यायस्योच्छेदमारभमाणस्य भावाभाव–
कर्तृत्वमुदितं; तस्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभावकर्तृत्वमभिहितम्
सर्वमिदमनवद्यं द्रव्यपर्यायाणामन्यतरगुणमुख्यत्वेन व्याख्यानात् तथा हि–यदा जीवः पर्याय–गुणत्वेन
द्रव्यमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा नोत्पद्यते, न विनश्यति, न च क्रमवृत्त्यावर्तमानत्वात्
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा २१
अन्वयार्थः– [एवम्] इसप्रकार [गुणपर्ययैः सहित] गुणपर्याय सहित [जीवः] जीव [संसरन्]
संसरण करता हुआ [भावम्] भाव, [अभावम्] अभाव, [भावाभावम्] भावाभाव [च] और
[अभावभावम्] अभावभावको [करोति] करता है।
टीकाः– यह, जीव उत्पाद, व्यय, सत्–विनाश और असत्–उत्पादका कर्तृत्व होनेकी
सिद्धिरूप उपसंहार है।
द्रव्य वास्तवमें सर्वदा अविनष्ट और अनुत्पन्न आगममें कहा है; इसलिये जीवद्रव्यको द्रव्यरूपसे
नित्यपना कहा गया। [१] देवादिपर्यायरूपसे उत्पन्न होता है इसलिये उसीको [–जीवद्रव्यको ही]
भावका [–उत्पादका] कर्तृत्व कहा गया है; [२] मनुष्यादिपर्यायरूपसे नाशको प्राप्त होता है
इसलिये उसीको अभावका [–व्ययका] कर्तृत्व कहा गया है; [३] सत् [विद्यमान] देवादिपर्यायका
नाश करता है इसलिये उसीको भावाभावका [–सत्के विनाशका] कर्तृत्व कहा गया है; और [४]
फिरसे असत् [–अविद्यमान] मनुष्यादिपर्यायका उत्पाद करता है इसलिये उसीको अभावभावका [–
असत्के उत्पादका] कर्तृत्व कहा गया है।
–यह सब निरवद्य [निर्दोष, निर्बाध, अविरुद्ध] है, क्योंकि द्रव्य और पर्यायोमेंसे एककी
गौणतासे और अन्यकी मुख्यतासे कथन किया जाता है। वह इस प्रकार हैः––

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४६
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
सत्यपर्यायजातमुच्छिनत्ति, नासदुत्पादयति यदा तु द्रव्यगुणत्वेन पर्यायमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा
प्रादुर्भवति, विनश्यति, सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति, असदुपस्थित–स्वकालमुत्पाद
यति चेति। स खल्वयं प्रसादोऽनेकान्तवादस्य यदीद्रशोऽपि विरोधो न विरोधः।।२१।।
इति षड्द्रव्यसामान्यप्ररूपणा।
जीवा पुग्गलकाया आयासं अत्थिकाइया सेसा।
अमया अत्थित्तमया कारणभुदा
हि लोगस्स।। २२।।
जीवाः पुद्गलकाया आकाशमस्तिकायौ शेषौ।
अमया अस्तित्वमयाः कारणभूता हि लोकस्य।। २२।।
-----------------------------------------------------------------------------
जब जीव, पर्यायकी गौणतासे और द्रव्यकी मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह [१] उत्पन्न
नहीं होता, [२] विनष्ट नहीं होता, [३] क्रमवृत्तिसे वर्तन नहीं करता इसलिये सत् [–विद्यमान]
पर्यायसमूकोे विनष्ट नहीं करता और [४] असत्को [–अविद्यमान पर्यायसमूहको] उत्पन्न नहीं
करता; और जब जीव द्रव्यकी गौणतासे और पर्यायकी मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह [१]
उपजता है, [२] विनष्ट होता है, [३] जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् [–विद्यमान]
पर्यायसमूहको विनष्ट करता है और [४] जिसका स्वकाल उपस्थित हुआ है [–आ पहुँचा है] ऐसे
असत्को [–अविद्यमान पर्यायसमूहको] उत्पन्न करता है।
वह प्रसाद वास्तवमें अनेकान्तवादका है कि ऐसा विरोध भी [वास्तवमें] विरोध नहीं है।। २१।।
इसप्रकार षड्द्रव्यकी सामान्य प्ररूपणा समाप्त हुई।
गाथा २२

अन्वयार्थः–
[जीवाः] जीव, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकाय, [आकाशम्] आकाश और [शेषौ
अस्तिकायौ] शेष दो अस्तिकाय [अमयाः] अकृत हैं, [अस्तित्वमयाः] अस्तित्वमय हैं और [हि]
वास्तवमें [लोकस्य कारणभूताः] लोकके कारणभूत हैं।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें], सामान्यतः जिनका स्वरूप [पहले] कहा गया है ऐसे छह
द्रव्योंमेंसे पाँचको अस्तिकायपना स्थापित किया गया है।
--------------------------------------------------------------------------
जीवद्रव्य, पुद्दगलकाय, नभ ने अस्तिकायो शेष बे
अणुकृतक छे, अस्तित्वमय छे, लोककारणभूत छे। २२।

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
४७
अत्र सामान्येनोक्तलक्षणानां षण्णां द्रव्याणां मध्यात्पश्चानामस्तिकायत्वं व्यवस्थापितम्।
अकृतत्वात् अस्तित्वमयत्वात् विचित्रात्मपरिणतिरूपस्य लोकस्य कारणत्वाच्चाभ्युपगम्यमानेषु
षट्सु दव्येषु जीवपुद्गलाकाशधर्माधर्माः प्रदेशप्रचयात्मकत्वात् पञ्चास्तिकायाः। न खलु
कालस्तदभावादस्तिकाय इति सामर्थ्यादवसीयत इति।। २२।।
सब्भावसभावाणं जीवाणं तह य पोग्गलाणं च।
परियट्टणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो।। २३।।
सद्भावस्वभावानां जीवानां तथैव पुद्गलानां च।
परिवर्तनसम्भूतः कालो नियमेन प्रज्ञप्त।। २३।।
अत्रासितकायत्वेनानुक्तस्यापि कालस्यार्थापन्नत्वं द्योतितम्।
-----------------------------------------------------------------------------
अकृत होनेसे, अस्तित्वमय होनेसे और अनेक प्रकारकी अपनी परिणतिरूप लोकके कारण
होनेसे जो स्वीकार [–सम्मत] किये गये हैं ऐसे छह द्रव्योंमें जीव, पुद्गल, आकाश, धर्म और
अधर्म प्रदेशप्रचयात्मक [–प्रदेशोंके समूहमय] होनेसे वे पाँच अस्तिकाय हैं। कालको
प्रदेशप्रचयात्मकपनेका अभाव होनेसे वास्तवमें अस्तिकाय नहीं हैं ऐसा [बिना–कथन किये भी]
सामर्थ्यसे निश्चित होता है।। २२।।
गाथा २३
अन्वयार्थः– [सद्भावस्वभावानाम्] सत्तास्वभाववाले [जीवानाम् तथा एव पुद्गलानाम् च] जीव
और पुद्गलोंके [परिवर्तनसम्भूतः] परिवर्तनसे सिद्ध होने वाले [कालः] ऐसा काल [नियमेन
प्रज्ञप्तः] [सर्वज्ञों द्वारा] नियमसे [निश्चयसे] उपदेश दिया गया है।
टीकाः– काल अस्तिकायरूपसे अनुक्त [–नहीं कहा गया] होने पर भी उसे अर्थपना
[पदार्थपना] सिद्ध होता है ऐसा यहाँ दर्शाया है।
--------------------------------------------------------------------------
१। लोक छह द्रव्योंके अनेकविध परिणामरूप [–उत्पादव्ययध्रौव्यरूप] हैे; इसलिये छह द्रव्य सचमुच लोकके
कारण हैं।
सत्तास्वभावी जीव ने पुद्गल तणा परिणमनथी
छे सिद्धि जेनी, काल ते भाख्यो जिणंदे नियमथी । २३।

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४८
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इह हि जीवानां पुद्गलानां च सत्तास्वभावत्वादस्ति प्रतिक्षणमुत्पादव्ययध्रौव्यैकवृत्तिरूपः परिणामः। स
खलु सहकारिकारणसद्भावे द्रष्टः, गतिस्थित्यवगाहपरिणामवत्। यस्तु सहकारिकारणं स कालः।
तत्परिणामान्यथानुपपतिगम्यमानत्वादनुक्तोऽपि निश्चयकालोऽ–स्तीति निश्चीयते। यस्तु
निश्चयकालपर्यायरूपो व्यवहारकालः स जीवपद्गलपरिणामेनाभि–व्यज्यमानत्वात्तदायत्त एवाभिगम्यत
एवेति।। २३।।
-----------------------------------------------------------------------------
इस जगतमें वास्तवमें जीवोंको और पुद्गलोंको सत्तास्वभावके कारण प्रतिक्षण
उत्पादव्ययध्रौव्यकी एकवृत्तिरूप परिणाम वर्तता है। वह [–परिणाम] वास्तवमें सहकारी कारणके
सद्भावमें दिखाई देता है, गति–स्थित–अवगाहपरिणामकी भाँति। [जिसप्रकार गति, स्थिति और
अवगाहरूप परिणाम धर्म, अधर्म और आकाशरूप सहकारी कारणोंके सद्भावमें होते हैं, उसी प्रकार
उत्पादव्ययध्रौव्यकी एकतारूप परिणाम सहकारी कारणके सद्भावमें होते हैं।] यह जो सहकारी
कारण सो काल है।
जीव–पुद्गलके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा ज्ञात होता है इसलिए,
निश्चयकाल–[अस्तिकायरूपसे] अनुक्त होने पर भी–[द्रव्यरूपसे] विद्यमान है ऐसा निश्चित होता है।
और जो निश्चयकालकी पर्यायरूप व्यवहारकाल वह, जीव–पुद्गलोंके परिणामसे व्यक्त [–गम्य]
होता है इसलिये अवश्य तदाश्रित ही [–जीव तथा पुद्गलके परिणामके आश्रित ही] गिना जाता है
।।२३।।
--------------------------------------------------------------------------
१। यद्यपि कालद्रव्य जीव–पुद्गलोंके परिणमाके अतिरिक्त धर्मास्तिकायादिके परिणामको भी निमित्तभूत है
तथापि जीव–पुद्गलोंके परिणाम स्पष्ट ख्यालमें आते हैं इसलिये कालद्रव्यको सिद्ध करनेमें मात्र उन दोके
परिणामकी ही बात ली गई है।
२। अन्यथा अनुपपत्ति = अन्य किसी प्रकारसे नहीं हो सकता। [जीव– पुद्गलोंके उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक
परिणाम अर्थात् उनकी समयविशिष्ट वृत्ति। वह समयविशिष्ट वृत्ति समयको उत्पन्न करनेवाले किसी पदार्थके
बिना [–निश्चयकालके बिना] नहीं हो सकती। जिसप्रकार आकाश बिना द्रव्य अवगाहन प्राप्त नहीं कर
सकते अर्थात् उनका विस्तार [तिर्यकपना] नहीं हो सकता उसी प्रकार निश्चयकाल बिना द्रव्य परिणामको
प्राप्त नहीं हो सकते अर्थात् उनको प्रवाह [ऊर्ध्वपना] नहीं हो सकता। इस प्रकार निश्चयकालके अस्तित्व
बिना [अर्थात् निमित्तभूत कालद्रव्यके सद्भाव बिना] अन्य किसी प्रकार जीव–पुद्गलके परिणाम बन नहीं
सकते इसलिये ‘निश्चयकाल विद्यमान है’ ऐसा ज्ञात होता है– निश्चित होता है।]

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
४९
ववगदपणवण्णरसो ववगददोगंधअट्ठफासो य।
अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।। २४।।
व्यपगतपश्चवर्णरसो व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शश्च।
अगुरुलघुको अमूर्तो वर्तनलक्षणश्च काल इति।। २४।।
-----------------------------------------------------------------------------
गाथा २४
अन्वयार्थः– [कालः इति] काल [निश्चयकाल] [व्यपगतपञ्चवर्णरसः] पाँच वर्ण और पाँच रस
रहित, [व्यपगतद्विगन्धाष्टस्पर्शः च] दो गंध और आठ स्पर्श रहित, [अगुरुलघुकः ] अगुरुलघु,
[अमूर्तः] अमूर्त [च] और [वर्तनलक्षणः] वर्तनालक्षणवाला है।
भावार्थः– यहाँ निश्चयकालका स्वरूप कहा है।
लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशमें एक–एक कालाणु [कालद्रव्य] स्थित है। वह कालाणु
[कालद्रव्य] सो निश्चयकाल है। अलोकाकाशमें कालाणु [कालद्रव्य] नहीं है।
वह काल [निश्चयकाल] वर्ण–गंध–रस–स्पर्श रहित है, वर्णादि रहित होनेसे अमूर्त है और
अमूर्त होनेसे सूक्ष्म, अतन्द्रियज्ञानग्राह्य है। और वह षट्गुणहानिवृद्धिसहित अगुरुलघुत्वस्वभाववाला
है। कालका लक्षण वर्तनाहेतुत्व है; अर्थात् जिस प्रकार शीतऋतुमें स्वयं अध्ययनक्रिया करते हुए
पुरुषको अग्नि सहकारी [–बहिरंग निमित्त] है और जिस प्रकार स्वयं घुमने की क्रिया करते हुए
कुम्भारके चाकको नीचेकी कीली सहकारी है उसी प्रकार निश्चयसे स्वयमेव परिणामको प्राप्त जीव–
पुद्गलादि द्रव्योंको [व्यवहारसे] कालाणुरूप निश्चयकाल बहिरंग निमित्त है।
प्रश्नः– अलोकमें कालद्रव्य नहीं है वहाँ आकाशकी परिणति किस प्रकार हो सकती है?
--------------------------------------------------------------------------
श्री अमृतचद्राचार्यदेवने इस २४वीं गाथाकी टीका लिखी नहीं है इसलिए अनुवादमें अन्वयार्थके बाद तुरन्त
भावार्थ लिखा गया है।

रसवर्णपंचक स्पर्श–अष्टक, गंधयुगल विहीन छे,
छे मूर्तिहीन, अगुरुलघुक छे, काळ वर्तनलिंग छे। २४।

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५०
] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
समओ णिमिसो कट्ठा कला य णाली तदो दिवारत्ती।
मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति
कालो परायत्तो।। २५।।
समयो निमिषः काष्ठा कला च नाली ततो दिवारात्र।
मासर्त्वयनसंवत्सरमिति कालः परायत्त।। २५।।
अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित्परायत्तत्वं द्योतितम्।
परमाणुप्रचलनायत्तः समयः। नयनपुटघटनायत्तो निमिषः। तत्संख्याविशेषतः काष्ठा कला नाली
-----------------------------------------------------------------------------
उत्तरः– जिस प्रकार लटकती हुई लम्बी डोरीको, लम्बे बाँसको या कुम्हारके चाकको एक ही
स्थान पर स्पर्श करने पर सर्वत्र चलन होता है, जिस प्रकार मनोज्ञ स्पर्शनेन्द्रियविषयका अथवा
रसनेन्द्रियविषयका शरीरके एक ही भागमें स्पर्श होने पर भी सम्पूर्ण आत्मामें सुखानुभव होता है
और जिस प्रकार सर्पदंश या व्रण [घाव] आदि शरीरके एक ही भागमें होने पर भी सम्पूर्ण आत्मामें
दुःखवेदना होती है, उसी प्रकार कालद्रव्य लोकाकाशमें ही होने पर भी सम्पूर्ण आकाशमें परिणति
होती है क्योंकि आकाश अखण्ड एक द्रव्य है।

यहाँ यह बात मुख्यतः ध्यानमें रखना चाहिये कि काल किसी द्रव्यको परिणमित नहीं करता,
सम्पूर्ण स्वतंत्रतासे स्वयमेव परिणमित होनेवाले द्रव्योंको वह बाह्यनिमित्तमात्र है ।

इस प्रकार निश्चयकालका स्वरूप दर्शाया गया।। २४।।
गाथा २५
अन्वयार्थः– [समयः] समय, [निमिषः] निमेष, [काष्ठा] काष्ठा, [कला च] कला, [नाली]
घड़ी, [ततः दिवारात्रः] अहोरात्र, [–दिवस], [मासर्त्वयनसंवत्सरम्] मास, ऋतु, अयन और वर्ष
– [इति कालः] ऐसा जो काल [अर्थात् व्यवहारकाल] [परायत्तः] वह पराश्रित है।
टीकाः– यहाँ व्यवहारकालका कथंचित् पराश्रितपना दर्शाया है।
परमाणुके गमनके आश्रित समय है; आंखके मिचनेके आश्रित निमेष है; उसकी [–निमेषकी]
अमुक संख्यासे काष्ठा, कला और घड़ी होती है; सूर्यके गमनके आश्रित अहोरात्र होता है; और
उसकी [–अहोरात्रकी] अमुक संख्यासे मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं। –ऐसा व्यवहारकाल

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कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य–पंचास्तिकायवर्णन
[
५१
च। गगनमणिगमनायत्तो दिवारात्रः। तत्संख्याविशेषतः मासः, ऋतुः अयनं, संवत्सरमिति।
एवंविधो हि व्यवहारकालः केवलकालपर्यायमात्रत्वेनावधारयितुमशक्यत्वात् परायत्त इत्युपमीयत
इति।। २५।।
णत्थि चिरं वा खिप्पं मत्तारहिदं तु सा वि खलु मत्ता।
पोग्गलदव्वेण
विणा तम्हा कालो पड्डच्चभवो।। २६।।
नास्ति चिरं वा क्षिप्रं मात्रारहितं तु सापि खलु मात्रा।
पुद्गलद्रव्येण विना तस्मात्काल प्रतीत्यभवः।। २६।।
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केवल कालकी पर्यायमात्ररूपसे अवधारना अशकय होनसे [अर्थात् परकी अपेक्षा बिना– परमाणु,
आंख, सूर्य आदि पर पदार्थोकी अपेक्षा बिना–व्यवहारकालका माप निश्चित करना अशकय होनेसे]
उसे ‘पराश्रित’ ऐसी उपमा दी जाती है।
भावार्थः– ‘समय’ निमित्तभूत ऐसे मंद गतिसे परिणत पुद्गल–परमाणु द्वारा प्रगट होता है–
मापा जाता है [अर्थात् परमाणुको एक आकाशप्रदेशसे दूसरे अनन्तर आकाशप्रदेशमें मंदगतिसे जानेमें
जो समय लगे उसे समय कहा जाता है]। ‘निमेष’ आँखके मिचनेसे प्रगट होता है [अर्थात् खुली
आँखके मिचनेमें जो समय लगे उसे निमेष कहा जाता है और वह एक निमेष असंख्यात समयका
होता है]। पन्द्रह निमेषका एक ‘काष्ठा’, तीस काष्ठाकी एक ‘कला’, बीससे कुछ अधिक कलाकी
एक ‘घड़ी’ और दो घड़ीका एक ‘महूर्त बनता है]। ‘अहोरात्र’ सूर्यके गमनसे प्रगट होता है [और
वह एक अहोरात्र तीस मुहूर्तका होता है] तीस अहोरात्रका एक ‘मास’, दो मासकी एक ‘ऋतु’
तीन ऋतुका एक ‘अयन’ और दो अयनका एक ‘वर्ष’ बनता है। – यह सब व्यवहारकाल हैे।
‘पल्योपम’, ‘सागरोपम’ आदि भी व्यवहारकालके भेद हैं।
उपरोक्त समय–निमेषादि सब वास्तवमें मात्र निश्चयकालकी ही [–कालद्रव्यकी ही] पर्यायें हैं
परन्तु वे परमाणु आदि द्वारा प्रगट होती हैं इसलिये [अर्थात् पर पदार्थों द्वारा मापी सकती हैं
इसलिये] उन्हें उपचारसे पराश्रित कहा जाता है।। २५।।
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‘चिर’ ‘शीध्र’ नहि मात्रा बिना, मात्रा नहीं पुद्गल बिना,
ते कारणे पर–आश्रये उत्पन्न भाख्यो काल आ। २६।