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कथंचिद्भेदेऽप्येकास्तित्वनियतत्वादन्योन्याजहद्वृत्तीनां वस्तुत्वेनाभेद इति।। १३।।
सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं।
दव्वं खु सतभंगं
द्रव्यं खलु सप्तभङ्गमादेशवशेन सम्भवति।। १४।।
स्यादस्ति द्रव्यं, स्यान्नास्ति द्रव्यं, स्यादस्ति च नास्ति च द्रव्यं, स्यादवक्तव्यं द्रव्यं, स्यादस्ति
सर्वथात्वनिषेधको
नहीं होता। इसलिये, द्रव्य और गुणोंका आदेशवशात् कथंचित भेद है तथापि, वे एक अस्तित्वमें
नियत होनेके कारण अन्योन्यवृत्ति नहीं छोड़ते इसलिए वस्तुरूपसे उनका भी अभेद है [अर्थात् द्रव्य
और पर्यायोंकी भाँति द्रव्य और गुणोंका भी वस्तुरूपसे अभेद है]।। १३।।
[अवक्तव्यम्] स्यात् अवक्तव्य [पुनः च] और फिर [तत्त्रितयम्] अवक्तव्यतायुक्त तीन भंगवाला [–
स्यात् अस्ति–अवक्तव्य, स्यात् नास्ति–अवक्तव्य और स्यात् अस्ति–नास्ति–अवक्तव्य] [–सप्तधङ्गम्]
इसप्रकार सात भंगवाला [सम्भवति] है।
‘स्यात् नास्ति और अवक्तव्य’ है; [७] द्रव्य ‘स्यात् अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य’ है।
आदेशवश ते सात भंगे युक्त सर्वे द्रव्य छे। १४।
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परद्रव्यक्षेत्रकालभावैरादिष्टं नास्ति द्रव्यं, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च क्रमेणा–
दिष्टमस्ति च नास्ति च दव्यं, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च युगपदादिष्टमवक्तव्यं द्रव्यं,
स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टमस्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, चरद्रव्य–
क्षेत्रकालभावैर्युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टं नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यं, स्वद्रव्यक्षेत्र–कालभावैः
परद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्चादिष्टमस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च द्रव्यमिति। न
चैतदनुपपन्नम्, सर्वस्य वस्तुनः स्वरूपादिना अशून्यत्वात्, पररूपादिना शून्यत्वात्,
पर ‘अस्ति’ है; [२] द्रव्य परद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे कथन किया जाने पर ‘नास्ति’ हैे; [३] द्रव्य
स्वद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे और परद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे क्रमशः कथन किया जाने पर ‘अस्ति
और नास्ति’ है; [४] द्रव्य स्वद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे और परद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे युगपद्
कथन किया जाने पर ‘
काल–भावसे और युगपद् स्वपरद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे कथन किया जाने पर ‘नास्ति और
अवक्तव्य’ है; [७] द्रव्य स्वद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे, परद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे और युगपद्
स्वपरद्रव्य–क्षेत्र–काल–भावसे कथन किया जाने पर ‘अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य’ है। – यह
[उपर्युक्त बात] अयोग्य नहीं है, क्योंकि सर्व वस्तु [१] स्वरूपादिसे ‘
२। अवक्तव्य=जो कहा न जा सके; अवाच्य। [एकही साथ स्वचतुष्टय तथा परचतुष्टयकी अपेक्षासे द्रव्य कथनमें
३। अशून्य=जो शून्य नहीं है ऐसा; अस्तित्व वाला; सत्।
४। शून्य=जिसका अस्तित्व नहीं है ऐसा; असत्।
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गुणपञ्जयेसु भावा उप्पादवए पकुव्वंति।। १५।।
गुणपर्यायेषु भावा उत्पादव्ययान् प्रकुर्वन्ति।। १५।।
पररूपादिसे] एकही साथ ‘अवाच्य’ है, भंगोंके संयोगसे कथन करने पर [५] ‘अशून्य और
अवाच्य’ है, [६] ‘शून्य और अवाच्य’ है, [७] ‘अशून्य, शून्य और अवाच्य’ है।
स्वचतुष्टयकी और परचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘अवक्तव्य है’। [५] द्रव्य स्वचतुष्टयकी और युगपद्
स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है और अवक्तव्य हैे’। [६] द्रव्य परचतुष्टयकी, और युगपद्
स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘नहीं और अवक्तव्य है’। [७] द्रव्य स्वचतुष्टयकी, परचतुष्टयकी और
युगपद् स्वपरचतुष्टयकी अपेक्षासे ‘है, नहीं है और अवक्तव्य है’। – इसप्रकार यहाँ सप्तभंगी कही गई
है।। १४।।
द्रव्यों] [गुणपर्यायषु] गुणपर्यायोंमें [उत्पादव्ययान्] उत्पादव्यय [प्रकृर्वन्ति] करते हैं।
अपनी वर्तमान पर्याय; स्वभाव अर्थात् निजगुण– स्वशक्ति।
‘भावो’ करे छे नाश ने उत्पाद गुणपर्यायमां। १५।
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हि घृतोत्पतौ गोरसस्य सतो न विनाशः न चापि गोरसव्यतिरिक्तस्यार्थान्तरस्यासतः उत्पादः किन्तु
गोरसस्यैव सदुच्छेदमसदुत्पादं चानुपलभ–मानस्य स्पर्शरसगन्धवर्णादिषु परिणामिषु गुणेषु
पूर्वावस्थया विनश्यत्सूत्तरावस्थया प्रादर्भवत्सु नश्यति च नवनीतपर्यायो घतृपर्याय उत्पद्यते, तथा
सर्वभावानामपीति।। १५।।
टीकाः– यहाँ उत्पादमें असत्के प्रादुर्भावका और व्ययमें सत्के विनाशका निषेध किया है
होता ––ऐसा इस गाथामें कहा है]।
विनाश और उत्पाद करते हैं। जिसप्रकार घीकी उत्पत्तिमें गोरसका–सत्का–विनाश नहीं है तथा
गोरससे भिन्न पदार्थान्तरका–असत्का–उत्पाद नहीं है, किन्तु गोरसको ही, सत्का विनाश और
असत्का उत्पाद किये बिना ही, पूर्व अवस्थासे विनाश प्राप्त होने वाले और उत्तर अवस्थासे उत्पन्न
होने वाले स्पर्श–रस–गंध–वर्णादिक परिणामी गुणोंमें मक्खनपर्याय विनाशको प्राप्त होती है तथा
घीपर्याय उत्पन्न होती है; उसीप्रकार सर्व भावोंका भी वैसा ही है [अर्थात् समस्त द्रव्योंको नवीन
पर्यायकी उत्पत्तिमें सत्का विनाश नहीं है तथा असत्का उत्पाद नहीं है, किन्तु सत्का विनाश और
असत्का उत्पाद किये बिना ही, पहलेकी [पुरानी] अवस्थासे विनाशको प्राप्त होनेवाले और बादकी
[नवीन] अवस्थासे उत्पन्न होनेवाले
परिणामी=परिणमित होनेवाले; परिणामवाले। [पर्यायार्थिक नयसे गुण परिणामी हैं अर्थात् परिणमित होते हैं।]
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सुरणरणारयतिरिया जीवस्स य पज्जया बहुगा।। १६।।
सुरनरनारकतिर्यञ्चो जीवस्य च पर्यायाः बहवः।। १६।।
कार्यानुभूतिलक्षणा कर्मफलानुभूतिलक्षणा चाशुद्धचेतना, चैतन्यानुविधायिपरिणामलक्षणः स–
विकल्पनिर्विकल्परूपः शुद्धाशुद्धतया सकलविकलतां
अन्वयार्थः– [जीवाद्याः] जीवादि [द्रव्य] वे [भावाः] ‘भाव’ हैं। [जीवगुणाः] जीवके गुण
[सुरनरनारकतिर्यञ्चः] देव–मनुष्य–नारक–तिर्यंचरूप [बहवः] अनेक हैं।
हैः–
३। चैतन्य–अनुविधायी परिणाम अर्थात् चैतन्यका अनुसरण करनेवाला परिणाम वह उपयोग है। सविकल्प
होनेसे सकल [अखण्ड, परिपूर्ण] है और अन्य सब अशुद्ध होनेसे विकल [खण्डित, अपूर्ण] हैं;
दर्शनोपयोगके भेदोंमेसे मात्र केवलदर्शन ही शुद्ध होनेसे सकल है और अन्य सब अशुद्ध होनेसे विकल हैं।
जीवादि सौ छे ‘भाव,’ जीवगुण चेतना उपयोग छे;
जीवपर्ययो तिर्यंच–नारक–देव–मनुज अनेक छे। १६।
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तिर्यङ्मनुष्लक्षणाः परद्रव्यसम्बन्धनिर्वृत्तत्वादशुद्धाश्चेति।। १६।।
उभयत्थ जीवभावो ण णस्सदि ण जायदे अण्णो।। १७।।
उभयत्र जीवभावो न नश्यति न जायतेऽन्यः।। १७।।
होती है इसलिये अशुद्ध पर्यायें हैं।। १६।।
[न नश्यति] नष्ट नहीं होता और [अन्यः] दूसरा जीवभाव [न जायते] उत्पन्न नहीं होता।
मनुजत्वथी व्यय पामीने देवादि देही थाय छे;
त्यां जीवभाव न नाश पामे, अन्य नहि उद्भव लहे। १७।
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पर्यायेणोत्पद्यते। न च मनुष्यत्वेन नाशे जीवत्वेनापि नश्यति, देवत्वादिनोत्पादे जीवत्वेनाप्युत्पद्यतेः
किं तु सदुच्छेदमसदुत्पादमन्तरेणैव तथा विवर्तत इति।।१७।।
उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसु त्ति पज्जाओ।। १८।।
उत्पन्नश्च विनष्टो देवो मनुष्य इति पर्यायः।। १८।।
तथाविध [–स्वभावपर्यायोंके प्रवाहको न तोड़नेवाली सोपाधिक] देवत्वस्वरूप, नारकत्वस्वरूप या
तिर्यंचत्वस्वरूप अन्य पर्यायसे उत्पन्न होता है। वहाँ ऐसा नहीं है कि मनुष्यपत्वसे विनष्ट होनेपर
जीवत्वसे भी नष्ट होता है और देवत्वसे आदिसे उत्पाद होनेपर जीवत्व भी उत्पन्न होता है, किन्तु
सत्के उच्छेद और असत्के उत्पाद बिना ही तदनुसार विवर्तन [–परिवर्तन, परिणमन] करता है।।
१७।।
मनुष्यः] देव, मुनष्य [इति पर्यायः] ऐसी पर्याय [उत्पन्नः] उत्पन्न होती है [च] और [विनष्टः]
विनष्ट होती है।
जन्मे मरे छे ते ज, तोपण नाश–उद्भव नव लहे;
सुर–मानवादिक पर्ययो उत्पन्न ने लय थाय छे। १८।
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स्वभावेनाविनष्टमनुत्पन्नं वा वेद्यते। पर्यायास्तु तस्य पूर्वपूर्वपरिणामो–पमर्दोत्तरोत्तरपरिणामोत्पादरूपाः
प्रणाशसंभवधर्माणोऽभिधीयन्ते। ते च वस्तुत्वेन द्रव्यादपृथग्भूता एवोक्ताः। ततः पर्यायैः
सहैकवस्तुत्वाज्जायमानं म्रियमाणमति जीवद्रव्यं सर्वदानुत्पन्ना विनष्टं द्रष्टव्यम्। देवमनुष्यादिपर्यायास्तु
क्रमवर्तित्वादुपस्थितातिवाहितस्वसमया उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति चेति।। १८।।
तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो त्ति गदिणामो।। १९।।
तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति गतिनाम।। १९।।
जो द्रव्य
अवस्थामें व्याप्त होनेवाला जो प्रतिनियत एकवस्तुत्वके कारणभूत स्वभाव उसके द्वारा [–उस
स्वभावकी अपेक्षासे] अविनष्ट एवं अनुत्पन्न ज्ञात होता है; उसकी पर्यायें पूर्व–पूर्व परिणामके नाशरूप
और उत्तर–उत्तर परिणामके उत्पादरूप होनेसे विनाश–उत्पादधर्मवाली [–विनाश एवं उत्पादरूप
धर्मवाली] कही जाती है, और वे [पर्यायें] वस्तुरूपसे द्रव्यसे अपृथग्भूत ही कही गई है। इसलिये,
पर्यायोंके साथ एकवस्तुपनेके कारण जन्मता और मरता होने पर भी जीवद्रव्य सर्वदा अनुत्पन्न एवं
अविनष्ट ही देखना [–श्रद्धा करना]; देव मनुष्यादि पर्यायें उपजती है और विनष्ट होती हैं क्योंकि
वे क्रमवर्ती होनेसे उनका स्वसमय उपस्थित होता है और बीत जाता है।। १८।।
ऐसा कहा जाता है उसका यह कारण है कि] [जीवानाम्] जीवोंकी [देवः मनुष्यः] देव, मनुष्य
[इति गतिनाम] ऐसा गतिनामकर्म [तावत्] उतने ही कालका होता है।
सुरनरप्रमुख गतिनामनो हदयुक्त काळ ज होय छे। १९।
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तदवधृतकालदेवमनुष्यत्वपर्यायनिर्वर्तकस्य देवमनुष्यगतिनाम्नस्तन्मात्रत्वादविरुद्धम्। यथा हि महतो
वेणुदण्डस्यैकस्य क्रमवृत्तीन्यने कानि पर्वाण्यात्मीयात्मीयप्रमाणावच्छिन्नत्वात् पर्वान्तरमगच्छन्ति
स्वस्थानेषु भावभाज्जि परस्थानेष्वभावभाज्जि भवन्ति, वेणुदण्डस्तु सर्वेष्वपि पर्वस्थानेषु भावभागपि
पर्वान्तरसंबन्धेन पर्वान्तरसंबन्धाभावादभावभाग्भवति; तथा निरवधित्रि–कालावस्थायिनो
जीवद्रव्यस्यैकस्य क्रमवृत्तयोऽनेकेः मनुष्यत्वादिपर्याया आत्मीयात्मीयप्रमाणा–वच्छिन्नत्वात्
पर्यायान्तरमगच्छन्तः स्वस्थानेषु भावभाजः परस्थानेष्वभावभाजो भवन्ति, जीवद्रव्यं तु
सर्वपर्यायस्थानेषु भावभागपि पर्यायान्तरसंबन्धेन पर्यायान्तरसंबन्धाभावादभावभाग्भवति।।१९।।
यदि वास्तवमें जो जीव मरता है वही जन्मता है, जो जीव जन्मता है वही मरता है, तो
और मनुष्य मरता है’ ऐसा जो कहा जाता है वह [भी] अविरुद्ध है क्योंकि मर्यादित कालकी
देवत्वपर्याय और मनुष्यत्वपर्यायको रचने वाले देवगतिनामकर्म और मनुष्यगतिनामकर्म मात्र उतने
काल जितने ही होते हैं। जिसप्रकार एक बडे़ बाँसके क्र्रमवर्ती अनेक
स्थानोंमें अभाववाले [–अविद्यमान] हैं तथा बाँस तो समस्त पर्वस्थानोंमें भाववाला होनेपर भी अन्य
पर्वके सम्बन्ध द्वारा अन्य पर्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे अभाववाला [भी] है; उसीप्रकार निरवधि
त्रिकाल स्थित रहनेवाले एक जीवद्रव्यकी क्रमवर्ती अनेक मनुष्यत्वादिपर्याय अपने–अपने मापमें
मर्यादित होनेसे अन्य पर्यायमें न जाती हुई अपने–अपने स्थानोंमें भाववाली हैं और पर स्थानोंमें
अभाववाली हैं तथा जीवद्रव्य तो सर्वपर्यायस्थानोमें भाववाला होने पर भी अन्य पर्यायके सम्बन्ध द्वारा
अन्य पर्यायके सम्बन्धका अभाव होनेसे अभाववाला [भी] है।
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तेसिमभावं किच्चा
तेषामभावं कुत्वाऽभूतपूर्वो भवति सिद्धः।। २०।।
प्राप्त नहीं होती। जिसप्रकार एक बडे़ बाँसकी अनेक पोरें अपने–अपने स्थानोंमें विद्यमान हैं और
दूसरी पोरोंके स्थानोंमें अविद्यमान हैं तथा बाँस तो सर्व पोरोंके स्थानोंमें अन्वयरूपसे विद्यमान होने
पर भी प्रथमादि पोरके रूपमें द्वितीयादि पोरमें न होनेसे अविद्यमान भी कहा जाता है; उसीप्रकार
त्रिकाल–अवस्थायी एक जीवकी नरनारकादि अनेक पर्यायें अपने–अपने कालमें विद्यमान हैं और
दूसरी पर्यायोंके कालमें अविद्यमान हैं तथा जीव तो सर्व पर्यायोंमें अन्वयरूपसे विद्यमान होने पर भी
मनुष्यादिपर्यायरूपसे देवादिपर्यायमें न होनेसे अविद्यमान भी कहा जाता है।। १९।।
अभूतपूर्व सिद्ध [भवति] होता है।
तेनो करीने नाश, पामे जीव सिद्धि अपूर्वने। २०।
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यथा स्तोककालान्वयिषु नामकर्मविशेषोदयनिर्वृत्तेषु जीवस्य देवादिपर्यायेष्वेकस्मिन्
ज्ञानावरणादिकर्मसामान्योदयनिर्वृत्तिसंसारित्वपर्याये भव्यस्य स्वकारणनिवृत्तौ निवृत्ते सुमुत्पन्ने
चाभूतपूर्वे सिद्धत्वपर्याये नासदुत्पत्तिरिति। किं च–यथा द्राघीयसि वेणुदण्डे व्यवहिता–
व्यवहितविचित्रचित्रकिर्मीरताखचिताधस्तनार्धभागे एकान्तव्यवहितसुविशुद्धोर्ध्वार्धभागेऽवतारिता
द्रष्टिः समन्ततो विचित्रचित्रकिर्मीरताव्याप्तिं पश्यन्ती समुनमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वं, तथा
क्वचिदपि जीवद्रव्ये व्यवहिताव्यवहितज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरताखचितबहुतराधस्तनभागे एकान्त–
व्यवहितसुविशुद्धबहुतरोर्ध्वभागेऽवतारिता बुद्धिः समन्ततो ज्ञानावरणादिकर्मकिर्मीरताव्याप्ति
व्यवस्यन्ती समनुमिनोति तस्य सर्वत्राविशुद्धत्वम्। यथा च तत्र वेणुदण्डे व्याप्तिज्ञानाभासनि–
बन्धनविचित्रचित्र किर्मीरतान्वयः तथा च क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानावर–
उत्पन्न होनेवाली जो देवादिपर्यायें उनमेंसे जीवको एक पर्याय स्वकारणकी निवृत्ति होनेपर निवृत्त हो
तथा अन्य कोई अभूतपूर्व पर्यायही उत्पन्नहो, वहाँ असत्की उत्पत्ति नहीं है; उसीप्रकार दीर्ध काल
तक अन्वयरूपसे रहनेवाली, ज्ञानवरणादिकर्मसामान्यके उदयसे उत्पन्न होनेवाली संसारित्वपर्याय
भव्यको स्वकारणकी निवृत्ति होने पर निवृत्त हो और अभूतपूर्व [–पूर्वकालमें नहीं हुई ऐसी]
सिद्धत्वपर्याय उत्पन्न हो, वहाँ असत्की उत्पत्ति नहीं है।
बाँस पर द्रष्टि डालनेसे वह द्रष्टि सर्वत्र विचित्र चत्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेकी व्याप्तिका निर्णय करती
हुई ‘वह बाँस सर्वत्र अविशुद्ध है [अर्थात् सम्पूर्ण रंगबिरंगा है]’ ऐसा अनुमान करती है;
उसीप्रकार जिसका ज्ञानावरणादि कर्मोंसे हुआ चित्रविचित्रतायुक्त [–विविध विभावपर्यायवाला]
बहुत बड़ा नीचेका भाग कुछ ढँका हुआ और कुछ बिन ढँका है तथा सुविशुद्ध [सिद्धपर्यायवाला],
बहुत बड़ा ऊपरका भाग मात्र ढँका हुआ ही है ऐसे किसी जीवद्रव्यमें बुद्धि लगानेसे वह बुद्धि सर्वत्र
ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए चित्रविचित्रपनेकी व्याप्तिका निर्णय करती हुई ‘वह जीव सर्वत्र अविशुद्ध है
[अर्थात् सम्पूर्ण संसारपर्यायवाला है]’ ऐसा अनुमान करती है। पुनश्च जिस प्रकार उस बाँसमें
व्याप्तिज्ञानाभासका कारण [नीचेके खुले भागमें] विचित्र चित्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेका अन्वय [–
संतति, प्रवाह] है, उसीप्रकार उस जीवद्रव्यमें व्याप्तिज्ञानाभासका कारण [निचेके खुले भागमें]
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च क्वचिज्जीवद्रव्ये ज्ञानवरणादिकर्म किर्मीरतान्वयाभावादाप्तागमसम्यगनुमानातीन्द्रिय–
ज्ञानपरिच्छिन्नात्सिद्धत्वमिति।। २०।।
सुविशुद्धपना है क्योंकि [वहाँ] विचित्र चित्रोंसे हुए चित्रविचित्रपनेके अन्वयका अभाव है, उसीप्रकार
उस जीवद्रव्यमें [उपरके भागमें] सिद्धपना है क्योंकि [वहाँ] ज्ञानावरणादि कर्मसे हुए
चित्रविचित्रपनेके अन्वयका अभाव है– कि जो अभाव आप्त– आगमके ज्ञानसे सम्यक् अनुमानज्ञानसे
और अतीन्द्रिय ज्ञानसे ज्ञात होता है।
उत्पादका प्रसंग उपस्थित हो।’ किन्तु अज्ञानीकी यह बात योग्य नहीं है।
संसारपर्यायके कारणभूत मोहरागद्वेषादिका नाश होने पर संसारपर्यायका नाश होकर सिद्धपर्याय
उत्पन्न होती है, जीवद्रव्य तो जो है वही रहता है। संसारपर्याय और सिद्धपर्याय दोनों एक ही
जीवद्रव्यकी पर्यायें हैं।
शुद्ध] है। उस बाँसके रंगबिरंगे भागमेंसे कुछ भाग खुला रखा गया है और शेष सारा रंगबिरंगा
भाग और पूरा अरंगी भाग ढक दिया गया है। उस बाँसका खुला भाग रंगबिेरंगा देखकर अविचारी
जीव ‘जहाँ–जहाँ बाँस हो वहाँ–वहाँ रंगबिरंगीपना होता है’ ऐसी व्याप्ति [–नियम,
अविनाभावसम्बन्ध] की कल्पना कर लेता है और ऐसे मिथ्या व्याप्तिज्ञान द्वारा ऐसा अनुमान खींच
लेता है कि ‘नीचेसे उपर तक सारा
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गुणपर्ययैः सहितः संसरन् करोति जीवः।। २१।।
रंगबिरंगेपनेके अभाववाला है, अरंगी है। बाँसके द्रष्टांतकी भाँति–कोई एक भव्य जीव है; उसका
नीचेका कुछ भाग [अर्थात् अनादि कालसे वर्तमान काल तकका और अमुक भविष्य काल तकका
भाग] संसारी है और ऊपरका अनन्त भाग सिद्धरूप [–स्वाभाविक शुद्ध] है। उस जीवके
संसारी भागमें से कुछ भाग खुला [प्रगट] है और शेष सारा संसारी भाग और पूरा सिद्धरूप भाग
ढँका हुआ [अप्रगट] हैे। उस जीवका खुला [प्रगट] भाग संसारी देखकर अज्ञानी जीव ‘जहाँ–
जहाँ जीव हो वहाँ–वहाँ संसारीपना है’ ऐसी व्याप्तिकी कल्पना कर लेता है और ऐसे मिथ्या
व्याप्तिज्ञान द्वारा ऐसा अनुमान करता है कि ‘अनादि–अनन्त सारा जीव संसारी है।’ यह अनुमान
मिथ्या हैे; क्योंकि उस जीवका उपरका भाग [–अमुक भविष्य कालके बादका अनन्त भाग]
संसारीपनेके अभाववाला है, सिद्धरूप है– ऐसा सर्वज्ञप्रणीत आगमके ज्ञानसे, सम्यक् अनुमानज्ञानसे
तथा अतीन्द्रिय ज्ञानसे स्पष्ट ज्ञात होता है।
उद्भव, विलय, वली भाव–विलय, अभाव–उद्भवने करे। २१।
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द्रव्यं हि सर्वदाऽविनष्टानुत्पन्नमाम्नतम् ततो जीवद्रव्यस्य द्रव्यरूपेण नित्यत्वमुपन्यस्तम् तस्यैव
व्ययतोऽभावकर्तृत्वमाख्यातं; तस्यैव च सतो देवादिपर्यायस्योच्छेदमारभमाणस्य भावाभाव–
कर्तृत्वमुदितं; तस्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभावकर्तृत्वमभिहितम्
सर्वमिदमनवद्यं द्रव्यपर्यायाणामन्यतरगुणमुख्यत्वेन व्याख्यानात् तथा हि–यदा जीवः पर्याय–गुणत्वेन
द्रव्यमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा नोत्पद्यते, न विनश्यति, न च क्रमवृत्त्यावर्तमानत्वात्
[अभावभावम्] अभावभावको [करोति] करता है।
भावका [–उत्पादका] कर्तृत्व कहा गया है; [२] मनुष्यादिपर्यायरूपसे नाशको प्राप्त होता है
इसलिये उसीको अभावका [–व्ययका] कर्तृत्व कहा गया है; [३] सत् [विद्यमान] देवादिपर्यायका
नाश करता है इसलिये उसीको भावाभावका [–सत्के विनाशका] कर्तृत्व कहा गया है; और [४]
फिरसे असत् [–अविद्यमान] मनुष्यादिपर्यायका उत्पाद करता है इसलिये उसीको अभावभावका [–
असत्के उत्पादका] कर्तृत्व कहा गया है।
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प्रादुर्भवति, विनश्यति, सत्पर्यायजातमतिवाहितस्वकालमुच्छिनत्ति, असदुपस्थित–स्वकालमुत्पाद
यति चेति। स खल्वयं प्रसादोऽनेकान्तवादस्य यदीद्रशोऽपि विरोधो न विरोधः।।२१।।
अमया अत्थित्तमया कारणभुदा
अमया अस्तित्वमयाः कारणभूता हि लोकस्य।। २२।।
पर्यायसमूकोे विनष्ट नहीं करता और [४] असत्को [–अविद्यमान पर्यायसमूहको] उत्पन्न नहीं
करता; और जब जीव द्रव्यकी गौणतासे और पर्यायकी मुख्यतासे विवक्षित होता है तब वह [१]
उपजता है, [२] विनष्ट होता है, [३] जिसका स्वकाल बीत गया है ऐसे सत् [–विद्यमान]
पर्यायसमूहको विनष्ट करता है और [४] जिसका स्वकाल उपस्थित हुआ है [–आ पहुँचा है] ऐसे
असत्को [–अविद्यमान पर्यायसमूहको] उत्पन्न करता है।
अन्वयार्थः– [जीवाः] जीव, [पुद्गलकायाः] पुद्गलकाय, [आकाशम्] आकाश और [शेषौ
वास्तवमें [लोकस्य कारणभूताः] लोकके कारणभूत हैं।
अणुकृतक छे, अस्तित्वमय छे, लोककारणभूत छे। २२।
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अकृतत्वात् अस्तित्वमयत्वात् विचित्रात्मपरिणतिरूपस्य लोकस्य कारणत्वाच्चाभ्युपगम्यमानेषु
कालस्तदभावादस्तिकाय इति सामर्थ्यादवसीयत इति।। २२।।
परियट्टणसंभूदो कालो णियमेण पण्णत्तो।। २३।।
परिवर्तनसम्भूतः कालो नियमेन प्रज्ञप्त।। २३।।
अधर्म प्रदेशप्रचयात्मक [–प्रदेशोंके समूहमय] होनेसे वे पाँच अस्तिकाय हैं। कालको
प्रदेशप्रचयात्मकपनेका अभाव होनेसे वास्तवमें अस्तिकाय नहीं हैं ऐसा [बिना–कथन किये भी]
सामर्थ्यसे निश्चित होता है।। २२।।
प्रज्ञप्तः] [सर्वज्ञों द्वारा] नियमसे [निश्चयसे] उपदेश दिया गया है।
कारण हैं।
छे सिद्धि जेनी, काल ते भाख्यो जिणंदे नियमथी । २३।
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तत्परिणामान्यथानुपपतिगम्यमानत्वादनुक्तोऽपि निश्चयकालोऽ–स्तीति निश्चीयते। यस्तु
निश्चयकालपर्यायरूपो व्यवहारकालः स जीवपद्गलपरिणामेनाभि–व्यज्यमानत्वात्तदायत्त एवाभिगम्यत
एवेति।। २३।।
सद्भावमें दिखाई देता है, गति–स्थित–अवगाहपरिणामकी भाँति। [जिसप्रकार गति, स्थिति और
अवगाहरूप परिणाम धर्म, अधर्म और आकाशरूप सहकारी कारणोंके सद्भावमें होते हैं, उसी प्रकार
उत्पादव्ययध्रौव्यकी एकतारूप परिणाम सहकारी कारणके सद्भावमें होते हैं।] यह जो सहकारी
कारण सो काल है।
और जो निश्चयकालकी पर्यायरूप व्यवहारकाल वह, जीव–पुद्गलोंके परिणामसे व्यक्त [–गम्य]
होता है इसलिये अवश्य तदाश्रित ही [–जीव तथा पुद्गलके परिणामके आश्रित ही] गिना जाता है
।।२३।।
परिणामकी ही बात ली गई है।
परिणाम अर्थात् उनकी समयविशिष्ट वृत्ति। वह समयविशिष्ट वृत्ति समयको उत्पन्न करनेवाले किसी पदार्थके
बिना [–निश्चयकालके बिना] नहीं हो सकती। जिसप्रकार आकाश बिना द्रव्य अवगाहन प्राप्त नहीं कर
सकते अर्थात् उनका विस्तार [तिर्यकपना] नहीं हो सकता उसी प्रकार निश्चयकाल बिना द्रव्य परिणामको
प्राप्त नहीं हो सकते अर्थात् उनको प्रवाह [ऊर्ध्वपना] नहीं हो सकता। इस प्रकार निश्चयकालके अस्तित्व
बिना [अर्थात् निमित्तभूत कालद्रव्यके सद्भाव बिना] अन्य किसी प्रकार जीव–पुद्गलके परिणाम बन नहीं
सकते इसलिये ‘निश्चयकाल विद्यमान है’ ऐसा ज्ञात होता है– निश्चित होता है।]
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अगुरुलहुगो अमुत्तो वट्टणलक्खो य कालो त्ति।। २४।।
अगुरुलघुको अमूर्तो वर्तनलक्षणश्च काल इति।। २४।।
[अमूर्तः] अमूर्त [च] और [वर्तनलक्षणः] वर्तनालक्षणवाला है।
है। कालका लक्षण वर्तनाहेतुत्व है; अर्थात् जिस प्रकार शीतऋतुमें स्वयं अध्ययनक्रिया करते हुए
पुरुषको अग्नि सहकारी [–बहिरंग निमित्त] है और जिस प्रकार स्वयं घुमने की क्रिया करते हुए
कुम्भारके चाकको नीचेकी कीली सहकारी है उसी प्रकार निश्चयसे स्वयमेव परिणामको प्राप्त जीव–
पुद्गलादि द्रव्योंको [व्यवहारसे] कालाणुरूप निश्चयकाल बहिरंग निमित्त है।
रसवर्णपंचक स्पर्श–अष्टक, गंधयुगल विहीन छे,
छे मूर्तिहीन, अगुरुलघुक छे, काळ वर्तनलिंग छे। २४।
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मासोदुअयणसंवच्छरो त्ति
मासर्त्वयनसंवत्सरमिति कालः परायत्त।। २५।।
परमाणुप्रचलनायत्तः समयः। नयनपुटघटनायत्तो निमिषः। तत्संख्याविशेषतः काष्ठा कला नाली
रसनेन्द्रियविषयका शरीरके एक ही भागमें स्पर्श होने पर भी सम्पूर्ण आत्मामें सुखानुभव होता है
और जिस प्रकार सर्पदंश या व्रण [घाव] आदि शरीरके एक ही भागमें होने पर भी सम्पूर्ण आत्मामें
दुःखवेदना होती है, उसी प्रकार कालद्रव्य लोकाकाशमें ही होने पर भी सम्पूर्ण आकाशमें परिणति
होती है क्योंकि आकाश अखण्ड एक द्रव्य है।
यहाँ यह बात मुख्यतः ध्यानमें रखना चाहिये कि काल किसी द्रव्यको परिणमित नहीं करता,
इस प्रकार निश्चयकालका स्वरूप दर्शाया गया।। २४।।
– [इति कालः] ऐसा जो काल [अर्थात् व्यवहारकाल] [परायत्तः] वह पराश्रित है।
उसकी [–अहोरात्रकी] अमुक संख्यासे मास, ऋतु, अयन और वर्ष होते हैं। –ऐसा व्यवहारकाल
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इति।। २५।।
पोग्गलदव्वेण
पुद्गलद्रव्येण विना तस्मात्काल प्रतीत्यभवः।। २६।।
आंख, सूर्य आदि पर पदार्थोकी अपेक्षा बिना–व्यवहारकालका माप निश्चित करना अशकय होनेसे]
उसे ‘पराश्रित’ ऐसी उपमा दी जाती है।
जो समय लगे उसे समय कहा जाता है]। ‘निमेष’ आँखके मिचनेसे प्रगट होता है [अर्थात् खुली
आँखके मिचनेमें जो समय लगे उसे निमेष कहा जाता है और वह एक निमेष असंख्यात समयका
होता है]। पन्द्रह निमेषका एक ‘काष्ठा’, तीस काष्ठाकी एक ‘कला’, बीससे कुछ अधिक कलाकी
एक ‘घड़ी’ और दो घड़ीका एक ‘महूर्त बनता है]। ‘अहोरात्र’ सूर्यके गमनसे प्रगट होता है [और
वह एक अहोरात्र तीस मुहूर्तका होता है] तीस अहोरात्रका एक ‘मास’, दो मासकी एक ‘ऋतु’
तीन ऋतुका एक ‘अयन’ और दो अयनका एक ‘वर्ष’ बनता है। – यह सब व्यवहारकाल हैे।
‘पल्योपम’, ‘सागरोपम’ आदि भी व्यवहारकालके भेद हैं।
इसलिये] उन्हें उपचारसे पराश्रित कहा जाता है।। २५।।
‘चिर’ ‘शीध्र’ नहि मात्रा बिना, मात्रा नहीं पुद्गल बिना,
ते कारणे पर–आश्रये उत्पन्न भाख्यो काल आ। २६।