अन्वयार्थः–[चिरं वा क्षिप्रं] ‘चिर’ अथवा ‘क्षिप्र’ ऐसा ज्ञान [–अधिक काल अथवा अल्प
काल ऐसा ज्ञान] [मात्रारहितं तु] परिमाण बिना [–कालके माप बिना] [न अस्ति] नहीं होता; [सा मात्रा अपि] और वह परिमाण [खलु] वास्तवमें [पुद्गलद्रव्येण विना] पुद्गलद्रव्यके नहीं होता; [तस्मात्] इसलिये [कालः प्रतीत्यभवः] काल आश्रितरूपसे उपजनेवाला है [अर्थात् व्यवहारकाल परका आश्रय करके उत्पन्न होता है ऐसा उपचारसे कहा जाता है]।
टीकाः–यहाँ व्यवहारकालके कथंचित पराश्रितपनेके विषयमें सत्य युक्ति कही गई है।
प्रथम तो, निमेष–समयादि व्यवहारकालमें ‘चिर’ और ‘क्षिप्र’ ऐसा ज्ञान [–अधिक काल और
अल्प काल ऐसा ज्ञान होता है]। वह ज्ञान वास्तवमें अधिक और अल्प काल साथ सम्बन्ध रखनेवाले प्रमाण [–कालपरिमाण] बिना संभवित नहीं होता; और वह प्रमाण पुद्गलद्रव्यके परिणाम बिना निश्चित नहीं होता। इसलिये, व्यवहारकाल परके परिणाम द्वारा ज्ञात होनेके कारण – यद्यपि निश्चयसे वह अन्यके आश्रित नहीं है तथापि – आश्रितरूपसे उत्पन्न होनेवाला [–परके अवलम्बनसे उपजनेवाला] कहा जाता है।
इसलिये यद्यपि कालको अस्तिकायपनेके अभावके कारण यहाँ अस्तिकायकी सामान्य प्ररूपणामें
उसका साक्षात् कथन नहींं है तथापि, जीव–पुद्गलके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा सिद्ध
होनेवाला निश्चयरूप काल और उनके परिणामके आश्रित निश्चित होनेवाला व्यवहाररूप काल पंचास्तिकायकी भाँति लोकरूपसे परिणत है– ऐसा, अत्यन्त तीक्ष्ण दष्टिसे जाना जा सकता है।
भावार्थः–‘समय’ अल्प है, ‘निमेष’ अधिक है और ‘मुहुर्त’ उससे भी अधिक है ऐसा जो
ज्ञान होता है वह ‘समय’, ‘निमेष’ आदिका परिमाण जाननेसे होता है; और वह कालपरिमाण पुद्गलों द्वारा निश्चित होता है। इसलिये व्यवहारकालकी उत्पत्ति पुद्गलों द्वारा होती [उपचारसे] कही जाती है।
इस प्रकार यद्यपि व्यवहारकालका माप पुद्गल द्वारा होता है इसलिये उसे उपचारसे
पुद्गलाश्रित कहा जाता है तथापि निश्चयसे वह केवल कालद्रव्यकी ही पर्यायरूप है, पुद्गलसे सर्वथा भिन्न है–ऐसा समझना। जिस प्रकार दस सेर पानीके मिट्टीमय घड़ेका माप पानी द्वारा होता है तथापि घड़ा मिट्टीकी ही पर्यायरूप है, पानीकी पर्यायरूप नहीं है, उसी प्रकार समय–निमेषादि व्यवहारकालका माप पुद्गल द्वारा होता है तथापि व्यवहारकाल कालद्रव्यकी ही पर्यायरूप है, पुद्गलकी पर्यायरूप नहीं है।
कालसम्बन्धी गाथासूत्रोंंके कथनका संक्षेप इस प्रकार हैः– जीवपुद्गलोंके परिणाममें
[समयविशिष्ट वृत्तिमें] व्यवहारसे समयकी अपेक्षा आती है; इसलिये समयको उत्पन्न करनेवाला कोई पदार्थ अवश्य होना चाहिये। वह पदार्थ सो कालद्रव्य है। कालद्रव्य परिणमित होनेसे व्यवहारकाल होता है और वह व्यवहारकाल पुद्गल द्वारा मापा जानेसे उसे उपचारसे पराश्रित कहा जाता है। पंचास्तिकायकी भाँति निश्चयव्यवहाररूप काल भी लोकरूपसे परिणत है ऐसा सर्वज्ञोंने देखा है और अति तीक्ष्ण द्रष्टि द्वारा स्पष्ट सम्यक् अनुमान भी हो सकता है।
कालसम्बन्धी कथनका तात्पर्यार्थ निम्नोक्तानुसार ग्रहण करने योग्य हैेः– अतीत अनन्त कालमें
जीवको एक चिदानन्दरूप काल ही [स्वकाल ही] जिसका स्वभाव है ऐसे जीवास्तिकायकी उपलब्धि नहीं हुई है; उस जीवास्तिकायका ही सम्यक् श्रद्धान, उसीका रागादिसे भिन्नरूप भेदज्ञान और उसीमें रागादिविभावरूप समस्त संकल्प–विकल्पजालके त्याग द्वारा स्थिर परिणति कर्तव्य है ।। २६।।
इस प्रकार [श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रकी श्री
अमृतचंद्राचार्यदेवविरचित] समयव्याख्या नामकी टीकामें षड्द्रव्य–पंचास्तिकायके सामान्य व्याख्यानरूप पीठिका समाप्त हुई।
अब उन्हींका [–षड्द्रव्य और पंचास्तिकायका ही] विशेष व्याख्यान किया जाता है। उसमें
प्रथम, जीवद्रव्यास्तिकायके व्याख्यान हैं।
गाथा २७
अन्वयार्थः– [जीवः इति भवति] [संसारस्थित] आत्मा जीव है, [चेतयिता] चेतयिता
[चेतनेवाला] है, [उपयोगविशेषितः] उपयोगलक्षित है, [प्रभुः] प्रभु है, [कर्ता] कर्ता हैे, [भोक्ता] भोक्ता है, [देहमात्रः] देहप्रमाण है, [न हि मूर्तः] अमूर्त है [च] और [कर्मसंयुक्तः] कर्मसंयुक्त है।
टीकाः– यहाँ [इस गाथामें] संसार–दशावाले आत्माका सोपाधि और निरुपाधि स्वरूप कहा
है।
आत्मा निश्चयसे भावप्राणको धारण करता है इसलिये ‘जीव’ है, व्यवहारसे [असद्भूत
व्यवहारनयसे] द्रव्यप्राणको धारण करता है इसलिये ‘जीव’ है; २निश्चयसे चित्स्वरूप होनेके कारण
‘चेतयिता’ [चेतनेवाला] है, व्यवहारसे [सद्भूत व्यवहारनयसे] चित्शक्तियुक्त होनेसे ‘चेतयिता’
है; निश्चयसे १अपृथग्भूत ऐसे चैतन्यपरिणामस्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होनेसे ‘उपयोगलक्षित’ है,
व्यवहारसे [सद्भूत व्यवहारनयसे] पृथग्भूत ऐसे चैतन्यपरिणामस्वरूप उपयोग द्वारा लक्षित होनेसे ‘उपयोगलक्षित’ है; निश्चयसे भावकर्मोंके आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करनेमें स्वयं ईश [समर्थ] होनेसे ‘प्रभु’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] द्रव्यकर्मोंके आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष करनेमें स्वयं ईश होनेसे ‘प्रभु’ है; निश्चयसे पौद्गलिक कर्म जिनका निमित्त है ऐसे आत्मपरिणामोंका कर्तृत्व होनेसे ‘कर्ता’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] आत्मपरिणाम जिनका निमित्त है ऐसे पौद्गलिक कर्मोंका कर्तृत्व होनेसे ‘कर्ता’ है; निश्चयसे शुभाशुभ कर्म जिनका निमित्त है ऐसे सुखदुःखपरिणामोंका भोक्तृत्व होनेसे ‘भोक्ता’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] शुभाशुभ कर्मोंसे संपादित [प्राप्त] इष्टानिष्ट विषयोंका भोक्तृत्व होनेसे ‘भोक्ता’ है; निश्चयसे लोकप्रमाण होने पर भी, विशिष्ट अवगाहपरिणामकी शक्तिवाला होनेसे नामकर्मसे रचित छोटे–बड़े शरीरमें रहता हुआ व्यवहारसे [सद्भूत व्यवहारनयसे] ‘देहप्रमाण’ है; व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] कर्मोंके साथ एकत्वपरिणामके कारण मूर्त होने पर भी, निश्चयसे अरूपी– स्वभाववाला होनेके कारण ‘अमूर्त’ है; २निश्चयसे पुद्गलपरिणामको अनुरूप चैतन्यपरिणामात्मक
१। अपृथग्भूत = अपृथक्; अभिन्न। [निश्चयसे उपयोग आत्मासे अपृथक् है और व्यवहारसे पृथक् है।] २। संसारी आत्मा निश्चयसे निमित्तभूत पुद्गलकर्मोंको अनुरूप ऐसे नैमित्तिक आत्म परिणामोंके साथ [अर्थात्
भावकर्मोंके साथ] संयुक्त होनेसे कर्मसंयुक्त है और व्यवहारसे निमित्तभूत आत्मपरिणामोंको अनुरूप ऐसें नैमित्तिक पुद्गलकर्मोंके साथ [अर्थात् द्रव्यकर्मोंके साथ] संयुक्त होनेसे कर्मसंयुक्त है।
कर्मोंके साथ संयुक्त होनेसे ‘कर्मसंयुक्त’ है, व्यवहारसे [असद्भूत व्यवहारनयसे] चैतन्यपरिणामको अनुरूप पुद्गलपरिणामात्मक कर्मोंके साथ संयुक्त होनेसे ‘कर्मसंयुक्त’ है।
भावार्थः–पहली २६ गाथाओंमें षड्द्रव्य और पंचास्तिकायका सामान्य निरूपण करके, अब इस
२७वीं गाथासे उनका विशेष निरूपण प्रारम्भ किया गया है। उसमें प्रथम, जीवका [आत्माका] निरूपण प्रारम्भ करते हुए इस गाथामें संसारस्थित आत्माको जीव [अर्थात् जीवत्ववाला], चेतयिता, उपयोगलक्षणवाला, प्रभु, कर्ता इत्यादि कहा है। जीवत्व, चेतयितृत्व, उपयोग, प्रभुत्व, कर्तृत्व, इत्यादिका विवरण अगली गाथाओंमें आयेगा।। २७।।
गाथा २८
अन्वयार्थः– [कर्ममलविप्रमुक्तः] कर्ममलसे मुक्त आत्मा [ऊर्ध्वं] ऊपर [लोकस्य अन्तम्]
लोकके अन्तको [अधिगम्य] प्राप्त करके [सः सर्वज्ञानदर्शी] वह सर्वज्ञ–सर्वदर्शी [अनंतम्] अनन्त [अनिन्द्रियम्] अनिन्द्रिय [सुखम्] सुखका [लभते] अनुभव करता है।
टीकाः– यहाँ मुक्तावस्थावाले आत्माका निरुपाधि स्वरूप कहा है।
आत्मा [कर्मरजके] परद्रव्यपनेके कारण कर्मरजसे सम्पूर्णरूपसे जिस क्षण छूटता है [–मुक्त
होता है], उसी क्षण [अपने] ऊर्ध्वगमनस्वभावके कारण लोकके अन्तको पाकर आगे गतिहेतुका अभाव होनेसे [वहाँ] स्थिर रहता हुआ, केवलज्ञान और केवलदर्शन [निज] स्वरूपभूत होनेके कारण उनसे न छूटता हुआ अनन्त अतीन्द्रिय सुखका अनुभव करता है। उस मुक्त आत्माको, भावप्राणधारण जिसका लक्षण[–स्वरूप] है ऐसा ‘जीवत्व’ होता है; चिद्रूप जिसका लक्षण [–
स्वरूप] है ऐसा ‘चेतयितृत्व’ होता है ; चित्परिणाम जिसका लक्षण [–स्वरूप] है ऐसा ‘उपयोग’ होता है; प्राप्त किये हुए समस्त [आत्मिक] अधिकारोंकी १शक्तिमात्ररूप ‘प्रभुत्व’ होता है; समस्त
वस्तुओंसे असाधारण ऐसे स्वरूपकी निष्पत्तिमात्ररूप [–निज स्वरूपको रचनेरूप] ‘कर्तृत्व’ होता है; स्वरूपभूत स्वातंक्र्य जिसका लक्षण [–स्वरूप] है ऐसे सुखकी उपलब्धिरूप ‘भोक्तृत्व’ होता है; अतीत अनन्तर [–अन्तिम] शरीर प्रमाण अवगाहपरिणामरूप ‘२देहप्रमाणपना’ होता है; और
उपाधिके सम्बन्धसे ३विविक्त ऐसा आत्यंतिक [सर्वथा] ‘अमूर्तपना’ होता है। [मुक्त आत्माको]
‘१कर्मसंयुक्तपना’ तो होता ही नहीं , क्योंकि द्रव्यकर्मो और भावकर्मोसे विमुक्ति हुई है। द्रव्यकर्म वे
पुद्गलस्कंध है और भावकर्म वे २चिद्विवर्त हैं। चित्शक्ति अनादि ज्ञानावरणादिकर्मोंके सम्पर्कसे
[सम्बन्धसे] संकुचित व्यापारवाली होनेके कारण ज्ञेयभूत विश्वके [–समस्त पदार्थोंके] एक–एक देशमें क्रमशः व्यापार करती हुई विवर्तनको प्राप्त होती है। किन्तु जब ज्ञानावरणादिकर्मोंका सम्पर्क विनष्ट होता है, तबवह ज्ञेयभूत विश्वके सर्व देशोंमें युगपद् व्यापार करती हुई कथंचित् ३कूटस्थ
होकर, अन्य विषयको प्राप्त न होती हुई विवर्तन नहीं करती। वह यह [चित्शक्तिके विवर्तनका अभाव], वास्तवमें निश्चित [–नियत, अचल] सर्वज्ञपनेकी और सर्वदर्शीपनेकी उपलब्धि है। यही, द्रव्यकर्मोंके निमित्तभूत भावकर्मोंके कर्तृत्वका विनाश है; यही, विकारपूर्वक अनुभवके अभावके कारण
१। पूर्व सूत्रमें कहे हुए ‘जीवत्व’ आदि नव विशेषोमेंसे प्रथम आठ विशेष मुक्तात्माको भी यथासंभव होते हैं, मात्र
एक ‘कर्मसंयुक्तपना’ नहीं होता।
२। चिद्विवर्त = चैतन्यका परिवर्तन अर्थात् चैतन्यका एक विषयको छोड़़कर अन्य विषयको जाननेरूप बदलना;
चित्शक्तिका अन्य अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित होना।
३। कूटस्थ = सर्वकाल एक रूप रहनेवाली; अचल। [ज्ञानावरणादिकर्मोका सम्बन्ध नष्ट होने पर कहीं चित्शक्ति
सर्वथा अपरिणामी नहीं हो जाती; किन्तु वह अन्य–अन्य ज्ञेयोंको जाननेरूप परिवर्तित नहीं होती–सर्वदा तीनों कालके समस्त ज्ञेयोंको जानती रहती है, इसलिये उसे कथंचित् कूटस्थ कहा है।]
४। औपाधिक = द्रव्यकर्मरूप उपाधिके साथ सम्बन्धवाले; जिनमें द्रव्यकर्मरूपी उपाधि निमित्त होती है ऐसे;
जिसका अनन्त चैतन्य सुस्थित हुआ है ऐसे आत्माको स्वतंत्रस्वरूपानुभूतिलक्षण सुखका [–स्वतंत्र स्वरूपकी अनुभूति जिसका लक्षण है ऐसे सुखका] भोक्तृत्व है।। २८।।
गाथा २९
अन्वयार्थः–[सः चेतयिता] वह चेतयिता [चेतनेवाला आत्मा] [सर्वज्ञः] सर्वज्ञ [च] और
[सर्वलोकदर्शी] सर्वलोकदर्शी [स्वयं जातः] स्वयं होता हुआ, [स्वकम्] स्वकीय [अमूर्तम्] अमूर्त [अव्याबाधम्] अव्याबाध [अनंतम्] अनन्त [सुखम्] सुखको [प्राप्नोति] उपलब्ध करता है।
टीकाः– यह, सिद्धके निरुपाधि ज्ञान, दर्शन और सुखका समर्थन है।
वास्तवमें ज्ञान, दर्शन और सुख जिसका स्वभाव है ऐसा आत्मा संसारदशामें, अनादि
कर्मक्लेश द्वारा आत्मशक्ति संकुचित की गई होनेसे, परद्रव्यके सम्पर्क द्वारा [–इंद्रियादिके सम्बन्ध द्वारा] क्रमशः कुछ–कुछ जानता है और देखता है तथा पराश्रित, मूर्त [इन्द्रियादि] के साथ सम्बन्धवाला, सव्याबाध [–बाधा सहित] और सान्त सुखका अनुभव करता है; किन्तु जब उसके कर्मक्लेश समस्तरूपसे विनाशको प्राप्त होते हैं तब, आत्मशक्ति अनर्गल [–निरंकुश] और असंकुचित होनेसे, वह असहायरूपसे [–किसीकी सहायताके बिना] स्वयमेव युगपद् सब [– सर्व द्रव्यक्षेत्रकालभाव] जानता है और देखता है तथा स्वाश्रित, मूर्त [इन्द्रियादि] के साथ सम्बन्ध रहित, अव्याबाध और अनन्त सुखका अनुभव करता है। इसलिये सब स्वयमेव जानने और देखनेवाले तथा स्वकीय सुखका अनुभवन करनेवाले सिद्धको परसे [कुछभी] प्रयोजन नहीं है।
भावार्थः–सिद्धभगवान [तथा केवलीभगवान] स्वयमेव सर्वज्ञत्वादिरूपसे परिणमित होते हैं;
उनके उस परिणमनमें लेशमात्र भी [इन्द्रियादि] परका आलम्बन नहीं है।
यहाँ कोई सर्वज्ञका निषेध करनेवाला जीव कहे कि– ‘सर्वज्ञ है ही नहीं, क्योंकि देखनेमें
नहीं आते,’ तो उसे निम्नोक्तानुसार समझाते हैंः–
हे भाई! यदि तुम कहते हो कि ‘सर्वज्ञ नहीं है,’ तो हम पूछते हैं कि सर्वज्ञ कहाँ नहीं है?
इस क्षेत्रमें और इस कालमें अथवा तीनों लोकमें और तीनों कालमें? यदि ‘इस क्षेत्रमें और इस कालमें सर्वज्ञ नहीं है’ ऐसा कहो, तो वह संमत ही है। किन्तु यदि ‘ तीनों लोकमें और तीनों कालमें सर्वज्ञ नहीं है ’ ऐसा कहो तो हम पूछते हैं कि वह तुमने कैसे जाना? य्दि तीनों लोकको और तीनों कालको सर्वज्ञ रहित तुमने देख–जान लिया तो तुम्हीं सर्वज्ञ हो गये, क्योंकि जो तीन लोक और तीन कालको जाने वही सर्वज्ञ है। और यदि सर्वज्ञ रहित तीनों लोक और तीनों कालको तुमने नहीं देखा–जाना है तो फिर ‘ तीन लोक और तीन कालमें सर्वज्ञ नहीं है ’ ऐसा तुम कैसे कह सकते हो? इस प्रकार सिद्ध होता है कि तुम्हारा किया हुआ सर्वज्ञका निषेध योग्य नहीं है।
हे भाई! आत्मा एक पदार्थ हैे और ज्ञान उसका स्वभाव है; इसलिये उस ज्ञानका सम्पूर्ण
विकास होने पर ऐसा कुछ नहीं रहता कि जो उस ज्ञानमें अज्ञात रहे। जिस प्रकार परिपूर्ण उष्णतारूप परिणमित अग्नि समस्त दाह्यको जलाती है, उसी प्रकार परिपूर्ण ज्ञानरूप परिणमित
आत्मा समस्त ज्ञेयको जानता है। ऐसी सर्वज्ञदशा इस क्षेत्रमें इस कालमें [अर्थात् इस क्षेत्रमें इस कालमें जन्म लेने वाले जीवोंको ] प्राप्त नहीं होती तथापि सर्वज्ञत्वशक्तिवाले निज आत्माका स्पष्ट अनुभव इस क्षेत्रमें इस कालमें भी हो सकता है।
यह शास्त्र अध्यात्म शास्त्र होनेसे यहाँ सर्वज्ञसिद्धिका विस्तार नहीं किया गया है; जिज्ञासुको
वह अन्य शास्त्रोमें देख लेना चाहिये।। २९।।
गाथा ३०
अन्वयार्थः–[यः खलु] जो [चतुर्भिः प्राणैः] चार प्राणोंसे [जीवति] जीता है, [जीविष्यति]
जियेगा और [जीवितः पूर्वम्] पूर्वकालमें जीता था, [सः जीवः] वह जीव है; [पुनः प्राणाः] और प्राण [इन्द्रियम्] इन्द्रिय, [बलम्] बल, [आयुः] आयु तथा [उच्छवासः] उच्छ्वास है।
टीकाः– यह, जीवत्वगुणकी व्याख्या है।
प्राण इन्द्रिय, बल, आयु और उच्छ्वासस्वरूप है। उनमें [–प्राणोंमें], चित्सामान्यरूप
अन्वयवाले वे भावप्राण है और पुद्गलसामान्यरूप अन्वयवाले वे द्रव्यप्राण हैं। उन दोनों प्राणोंको त्रिकाल अच्छिन्न–संतानरूपसे [अटूट धारासे] धारण करता है इसलिये संसारीको जीवत्व है। मुक्तको [सिद्धको] तो केवल भावप्राण ही धारण होनेसे जीवत्व है ऐसा समझना।। ३०।।
जिन प्राणोंमें चित्सामान्यरूप अन्वय होता है वे भावप्राण हैं अर्थात् जिन प्राणोंमें सदैव ‘चित्सामान्य,
चित्सामान्य, चित्सामान्य’ ऐसी एकरूपता–सद्रशता होती है वेे भावप्राण हैं। [जिन प्राणोंमें सदैव ‘पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य, पुद्गलसामान्य ’ ऐसी एकरूपता–सद्रशता होती है वे द्रव्यप्राण हैं।]
जे चार प्राणे जीवतो पूर्वे, जीवे छे, जीवशे, ते जीव छे; ने प्राण इन्द्रिय–आयु–बल–उच्छ्वास छे। ३०।
अन्वयार्थः– [अनंताः अगुरुलघुकाः] अनन्त ऐसे जो अगुरुलघु [गुण, अंश] [तैः अनंतैः] उन
अनन्त अगुरुलघु [गुण] रूपसे [सर्वे] सर्व जीव [परिणताः] परिणत हैं; [देशैः असंख्याताः] वे असंख्यात प्रदेशवाले हैं। [स्यात् सर्वम् लोकम् आपन्नाः] कतिपय कथंचित् समस्त लोकको प्राप्त होते हैं [केचित् तु] और कतिपय [अनापन्नाः] अप्राप्त होते हैं। [बहवः जीवाः] अनेक [–अनन्त] जीव [मिथ्यादर्शनकषाययोगयुताः] मिथ्यादर्शन–कषाय–योगसहित [संसारिणः] संसारी हैं [च] और अनेक [–अनन्त जीव] [तैः वियुताः] मिथ्यादर्शन–कषाय–योगरहित [सिद्धाः] सिद्ध हैं।
जे अगुरुलघुक अनन्त ते–रूप सर्व जीवो परिणमे; सौना प्रदेश असंख्य; कतिपय लोकव्यापी होय छे; ३१। अव्यापी छे कतिपय; वली निर्दोष सिद्ध जीवो घणा; मिथ्यात्व–योग–कषाययुत संसारी जीव बहु जाणवा। ३२।
टीकाः–यहाँ जीवोंका स्वाभाविक १प्रमाण तथा उनका मुक्त और अमुक्त ऐसा विभाग कहा है।
जीव वास्तवमें अविभागी–एकद्रव्यपनेके कारण लोकप्रमाण–एकप्रदेशवाले हैं। उनके [–
जीवोंके] २अगुरुलघुगुण–अगुरुलघुत्व नामका जो स्वरूपप्रतिष्ठत्वके कारणभूत स्वभाव उसका
३अविभाग परिच्छेद–प्रतिसमय होने वाली ४षट्स्थानपतित वृद्धिहानिवाले अनन्त हैं; और [उनके
अर्थात् जीवोंके] प्रदेश– जो कि अविभाग परमाणु जितने मापवाले सूक्ष्म अंशरूप हैं वे–असंख्य हैं। ऐसे उन जीवोंमें कतिपय कथंचित् [केवलसमुद्घातके कारण] लोकपूरण–अवस्थाके प्रकार द्वारा समस्त लोकमें व्याप्त होते हैं और कतिपय समस्त लोकमें अव्याप्त होते हैं। और उन जीवोंमें जो अनादि
१। प्रमाण = माप; परिमाण। [जीवके अगुरुलघुत्वस्वभावके छोटेसे छोटे अंश [अविभाग परिच्छेद] करने पर
स्वभावसे ही सदैव अनन्त अंश होते हैं, इसलिये जीव सदैव ऐसे [षट्गुणवृद्धिहानियुक्त] अनन्त अंशों जितना हैं। और जीवके स्वक्षेत्रके छोटेसे छोटे अंश करने पर स्वभावसे ही सदैव असंख्य अंश होते हैं, इसलिये जीव सदैव ऐसे असंख्य अंशों जितना है।]
२। गुण = अंश; अविभाग परिच्छेद। [जीवमें अगुरुलघुत्व नामका स्वभाव है। वह स्वभाव जीवको
स्वरूपप्रतिष्ठत्वके [अर्थात् स्वरूपमें रहनेके] कारणभूत है। उसके अविभाग परिच्छेदोंको यहाँ अगुरुलघु गुण [–अंश] कहे हैं।]
३। किसी गुणमें [अर्थात् गुणकी पर्यायमें] अंशकल्पना की जानेपर, उसका जो छोटेसे छोटा [जघन्य मात्रारूप,
निरंश] अंश होता हैे उसे उस गुणका [अर्थात् गुणकी पर्यायका] अविभाग परिच्छेद कहा जाता है।
प्रवाहरूपसे प्रवर्तमान मिथ्यादर्शन–कषाय–योग सहित हैं वे संसारी हैं, जो उनसे विमुक्त हैं [अर्थात् मिथ्यादर्शन–कषाय–योगसे रहित हैं] वे सिद्ध हैं; और वे हर प्रकारके जीव बहुत हैं [अर्थात् संसारी तथा सिद्ध जीवोंमेंसे हरएक प्रकारके जीव अनन्त हैं]।। ३१–३२।।
गाथा ३३
अन्वयार्थः–[यथा] जिस प्रकार [पद्मरागरत्नं] पद्मरागरत्न [क्षीरे क्षिप्तं] दूधमें डाला जाने
पर [क्षीरम् प्रभासयति] दूधको प्रकाशित करता है, [तथा] उसी प्रकार [देही] देही [जीव] [देहस्थः] देहमें रहता हुआ [स्वदेहमात्रं प्रभासयति] स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है।
टीकाः–यह देहप्रमाणपनेके द्रष्टान्तका कथन है [अर्थात् यहाँ जीवका देहप्रमाणपना समझानेके
जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूधमें डाला जाने पर अपनेसे अव्यतिरिक्त प्रभासमूह द्वारा उस दूधमें
व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अनादि कालसे कषाय द्वारा मलिनता होनेके कारण शरीरमें रहता हुआ स्वप्रदेशों द्वारा उस शरीरमें व्याप्त होता है। और जिस प्रकार अग्निके संयोगसे उस दूधमें उफान आने पर उस पद्मरागरत्नके प्रभासमूहमें उफान आता है [अर्थात् वह विस्तारको व्याप्त होता है] और दूध फिर बैठ जाने पर प्रभासमूह भी बैठ जाता है, उसी प्रकार विशिष्ट आहारादिके वश उस शरीरमें वृद्धि होने पर उस जीवके प्रदेश विस्तृत होते हैं और शरीर फिर सूख जाने पर प्रदेश भी संकुचित हो जाते हैं। पुनश्च, जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे अधिक दूधमें डाला जाने पर स्वप्रभासमूहके विस्तार द्वारा उस अधिक दूधमें व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव दूसरे बड़े शरीरमें स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके विस्तार द्वारा उस बड़े शरीरमें व्याप्त होता है। और जिस प्रकार वह पद्मरागरत्न दूसरे कम दूधमें डालने पर स्वप्रभासमूहके संकोच द्वारा उस थोड़े दूधमें
अव्यतिरिक्त = अभिन्न [जिस प्रकार ‘मिश्री एक द्रव्य है और मिठास उसका गुण है’ ऐसा कहीं द्रष्टांतमें कहा
हो तो उसे सिद्धांतरूप नहीं समझना चाहिये; उसी प्रकार यहाँ भी जीवके संकोचविस्ताररूप दार्ष्टांतको समझनेके लिये रत्न और (दूधमें फैली हुई) उसकी प्रभाको जो अव्यतिरिक्तपना कहा है यह सिद्धांतरूप नहीं
समझना चाहिये। पुद्गलात्मक रत्नको द्रष्टांत बनाकर असंख्यप्रदेशी जीवद्रव्यके संकोचविस्तारको किसी प्रकार समझानेके हेतु यहाँ रत्नकी प्रभाको रत्नसे अभिन्न कहा है। (अर्थात् रत्नकी प्रभा संकोचविस्तारको प्राप्त होने
पर मानों रत्नके अंश ही–रत्न ही–संकोचविस्तारको प्राप्त हुए ऐसा समझनेको कहा है)।]
व्याप्त होता है, उसी प्रकार जीव अन्य छोटे शरीरमें स्थितिको प्राप्त होने पर स्वप्रदेशोंके संकोच द्वारा उस छोटे शरीरमें व्याप्त होता है।
भावार्थः–तीन लोक और तीन कालके समस्त द्रव्य–गुण–पर्यायोंको एक समयमें प्रकाशित
करनेमें समर्थ ऐसे विशुद्ध–दर्शनज्ञानस्वभाववाले चैतन्यचमत्कारमात्र शुद्धक्ववास्तिकायसे विलक्षण मिथ्यात्वरागादि विकल्पों द्वारा उपार्जित जो शरीरनामकर्म उससे जनित [अर्थात् उस शरीरनामकर्मका उदय जिसमें निमित्त है ऐसे] संकोचविस्तारके आधीनरूपसे जीव सर्वोत्कृष्ट अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ सहस्रयोजनप्रमाण महामत्स्यके शरीरमें व्याप्त होता है, जघन्य अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भाग जितने लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्मनिगोदके शरीरमें व्याप्त होता है और मध्यम अवगाहरूपसे परिणमित होता हुआ मध्यम शरीरमें व्याप्त होता है।। ३३।।
गाथा ३४
अन्वयार्थः–[जीवः] जीव [सर्वत्र] सर्वत्र [क्रमवर्ती सर्व शरीरोमें] [अस्ति] है [च] और
[एककाये] किसी एक शरीरमें [ऐक्यस्थः] [क्षीरनीरवत्] एकरूपसे रहता है तथापि [न एकः] उसके साथ एक नहीं है; [अध्यवसानविशिष्टः] अध्यवसायविशिष्ट वर्तता हुआ [रजोमलैः मलिनः] रजमल [कर्ममल] द्वारा मलिन होनेसे [चेष्टते] वह भमण करता है।
आत्मा संसार–अवस्थामें क्रमवर्ती अच्छिन्न [–अटूट] शरीरप्रवाहमें जिस प्रकार एक शरीरमें
वर्तता है उसी प्रकार क्रमसे अन्य शरीरोंमें भी वर्तता है; इस प्रकार उसे सर्वत्र [–सर्व शरीरोंमें] अस्तित्व है। और किसी एक शरीरमें, पानीमें दूधकी भाँति एकरूपसे रहने पर भी, भिन्न स्वभावके कारण उसके साथ एक [तद्रूप] नहीं है; इस प्रकार उसे देहसे पृथक्पना है। अनादि बंधनरूप उपाधिसे विवर्तन [परिवर्तन] पानेवाले विविध अध्यवसायोंसे विशिष्ट होनेके कारण [–अनेक प्रकारके अध्यवसायवाला होनेके कारण] तथा वे अध्यवसाय जिसका निमित्त हैं ऐसे कर्मसमूहसे मलिन होनेके कारण भ्रमण करते हुए आत्माको तथाविध अध्यवसायों तथा कर्मोंसे रचे जाने वाले [–उस प्रकारके मिथ्यात्वरागादिरूप भावकर्मों तथा द्रव्यकर्मोंसे रचे जाने वाले] अन्य शरीरमें प्रवेश होता है; इस प्रकार उसे देहान्तरमें गमन होनेका कारण कहा गया।। ३४।।
अस्ति] नहीं है और [सर्वथा] सर्वथा [तस्य अभावः च] उसका अभाव भी नहीं है, [ते] वे [भिन्नदेहाः] देहरहित [वाग्गोचरम् अतीताः] वचनगोचरातीत [सिद्धाः भवन्ति] सिद्ध [सिद्धभगवन्त] हैं।
टीकाः– यह सिद्धोंके [सिद्धभगवन्तोंके] जीवत्व और देहप्रमाणत्वकी व्यवस्था है।
सिद्धोंको वास्तवमें द्रव्यप्राणके धारणस्वरूप जीवस्वभाव मुख्यरूपसे नहीं है; [उन्हें]
जीवस्वभावका सर्वथा अभाव भी नहीं है, क्योंकि भावप्राणके धारणस्वरूप जीवस्वभावका मुख्यरूपसे सद्भाव है। और उन्हें शरीरके साथ, नीरक्षीरकी भाँति, एकरूप १वृत्ति नहीं है; क्योंकि
शरीरसंयोगसे हेतुभूत कषाय और योगका वियोग हुआ है इसलिये वे २अतीत अनन्तर शरीरप्रमाण
अवगाहरूप परिणत होने पर भी अत्यंत देहरहित हैं। और ३वचनगोचरातीत उनकी महिमा है; क्योंकि
लौकिक प्राणके धारण बिना और शरीरके सम्बन्ध बिना, संपूर्णरूपसे प्राप्त किये हुए निरुपाधि स्वरूप द्वारा वे सतत प्रतपते हैं [–प्रतापवन्त वर्तते हैं]।। ३५।।
अन्वयार्थः–[यस्मात् सः सिद्धः] वे सिद्ध [कुतश्चित् अपि] किसी [अन्य] कारणसे [न
उत्पन्नः] उत्पन्न नहीं होते [तेन] इसलिये [कार्यं न] कार्य नहीं हैं, और [किंचित् अपि] कुछ भी [अन्य कार्यको] [न उत्पादयति] उत्पन्न नहीं करते [तेन] इसलिये [सः] वे [कारणम् अपि] कारण भी [न भवति] नहीं हैं।
टीकाः–यह, सिद्धको कार्यकारणभाव होनेका निरास है [अर्थात् सिद्धभगवानको कार्यपना और
कारणपना होनेका निराकरण–खण्डन है]।
जिस प्रकार संसारी जीव कारणभूत ऐसी भावकर्मरूप आत्मपरिणामसंतति और द्रव्यकर्मरूप
पुद्गलपरिणामसंतति द्वारा उन–उन देव–मनुष्य–तिर्यंच–नारकके रूपमें कार्यभूतरूपसे उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सिद्धरूपसे भी उत्पन्न होता है–– ऐेसा नहीं है; [और] सिद्ध [–सिद्धभगवान] वास्तवमें, दोनों कर्मों का क्षय होने पर, स्वयं [सिद्धरूपसे] उत्पन्न होते हुए अन्य किसी कारणसे [–भावकर्मसे या द्रव्यकर्मसे] उत्पन्न नहीं होते।
पुनश्च, जिस प्रकार वही संसारी [जीव] कारणभूत होकर कार्यभूत ऐसी भावकर्मरूप
आत्मपरिणामसंतति और द्रव्यकर्मरूप पुद्गलपरिणामसंतति रचता हुआ कार्यभूत ऐसे वे–वे देव– मनुष्य–तिर्यंच–नारकके रूप अपनेमें उत्पन्न करता है, उसी प्रकार सिद्धका रूप भी [अपनेमें] उत्पन्न करता है–– ऐेसा नहीं है; [और] सिद्ध वास्तवमें, दोनों कर्मोंका क्षय होने पर, स्वयं अपनेको [सिद्धरूपसे] उत्पन्न करते हुए अन्य कुछ भी [भावद्रव्यकर्मस्वरूप अथवा देवादिस्वरूप कार्य] उत्पन्न नहीं करते।। ३६।।
अन्वयार्थः–[सद्भावे असति] यदि [मोक्षमें जीवका] सद्भाव न हो तो [शाश्वतम्] शाश्वत,
[अथ उच्छेदः] नाशवंत, [भव्यम्] भव्य [–होनेयोग्य], [अभव्यम् च] अभव्य [–न होनेयोग्य], [शून्यम्] शून्य, [इतरत् च] अशून्य, [विज्ञानम्] विज्ञान और [अविज्ञानम्] अविज्ञान [न अपि युज्यते] [जीवद्रव्यमें] घटित नहीं हो सकते। [इसलिये मोक्षमें जीवका सद्भाव है ही।]
टीकाः–यहाँ, ‘जीवका अभाव सो मुक्ति है’ इस बातका खण्डन किया है।
[१] द्रव्य द्रव्यरूपसे शाश्वत है, [२] नित्य द्रव्यमें पर्यायोंका प्रति समय नाश होता है, [३]
द्रव्य सर्वदा अभूत पर्यायरूसपे भाव्य [–होनेयोग्य, परिणमित होनेयोग्य] है, [४] द्रव्य सर्वदा भूत पर्यायरूपसे अभाव्य [–न होनेयोग्य] है, [५] द्रव्य अन्य द्रव्यों से सदा शून्य है, [६] द्रव्य स्वद्रव्यसे सदा अशून्य है, [७] १िकसी जीवद्रव्यमें अनन्त ज्ञान और किसीमें सान्त ज्ञान है, [८] २
१। अन्यथा = अन्य प्रकारसे; दूसरी रीतिसे। [मोक्षमें जीवका अस्तित्व ही न रहता हो तो उपरोक्त आठ
भाव घटित हो ही नहीं सकते। यदि मोक्षमें जीवका अभाव ही हो जाता हो तो, [१] प्रत्येक द्रव्य द्रव्यरूपसे शाश्वत है–यह बात कैसे घटित होगी? [२] प्रत्येक द्रव्य नित्य रहकर उसमें पर्यायका नाश होता रहता है– यह बात कैसे घटित होगी? [३–६] प्रत्येक द्रव्य सर्वदा अनागत पर्यायसे भाव्य, सर्वदा अतीत पर्यायसे अभाव्य, सर्वदा परसे शून्य और सर्वदा स्वसे अशून्य है– यह बातें कैसे घटित होंगी? [७] किसी जीवद्रव्यमें अनन्त ज्ञान हैे– यह बात कैसे घटित होगी? और [८] किसी जीवद्रव्यमें सान्त अज्ञान है [अर्थात् जीवद्रव्य नित्य रहकर उसमें अज्ञानपरिणामका अन्त आता है]– यह बात कैसे घटित होगी? इसलिये इन आठ भावों द्वारा मोक्षमें जीवका अस्तित्व सिद्ध होता है।]
त्रणविध चेतकभावथी को जीवराशि ‘कार्य’ने, को जीवराशि ‘कर्मफळ’ने, कोई चेते ‘ज्ञान’ने। ३८।