कोई चेतयिता अर्थात् आत्मा तो, जो अति प्रकृष्ट मोहसे मलिन है और जिसका प्रभाव
[शक्ति] अति प्रकृष्ट ज्ञानावरणसे मुँद गया है ऐसे चेतक–स्वभाव द्वारा सुखदुःखरूप ‘कर्मफल’ को ही प्रधानतः चेतते हैं, क्योंकि उनका अति प्रकृष्ट वीर्यान्तरायसे कार्य करनेका [–कर्मचेतनारूप परिणमित होनेका] सामर्थ्य नष्ट गया है।
दूसरे चेतयिता अर्थात् आत्मा, जो अति प्रकृष्ट मोहसे मलिन छे और जिसका प्रभाव २प्रकृष्ट
ज्ञानावरणसे मुँद गया है ऐसे चेतकस्वभाव द्वारा – भले ही सुखदुःखरूप कर्मफलके अनुभवसे मिश्रितरूपसेे भी – ‘कार्य’ को ही प्रधानतः चेतते हैं, क्योंकि उन्होंने अल्प वीर्यांतरायके क्षयोपशमसे
३कार्य करनेका सामर्थ्य प्राप्त किया है।
और दूसरे चेतयिता अर्थात् आत्मा, जिसमेंसे सकल मोहकलंक धुल गया है तथा समस्त
ज्ञानावरणके विनाशके कारण जिसका समस्त प्रभाव अत्यन्त विकसित हो गया है ऐसे चेतकस्वभाव
२। कर्मचेतनावाले जीवको ज्ञानावरण ‘प्रकृष्ट’ होता है और कर्मफलचेतनावालेको ‘अति प्रकृष्ट’ होता है।
३। कार्य = [जीव द्वारा] किया जाता हो वह; इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कर्म। [जिन जीवोंको वीर्यका
किन्चत् विकास हुआ है उनको कर्मचेतनारूपसे परिणमित सामर्थ्य प्रगट हुआ है इसलिये वे मुख्यतः कर्मचेतनारूपसे परिणमित होते हैं। वह कर्मचेतना कर्मफलचेतनासे मिश्रित होती है।]
द्वारा ‘ज्ञान’ को ही – कि जो ज्ञान अपनेसे १अव्यतिरिक्त स्वाभाविक सुखवाला है उसीको –चेतते
हैं, क्योंकि उन्होंने समस्त वीर्यांतरायके क्षयसे अनन्त वीर्यको प्राप्त किया है इसलिये उनको [विकारी सुखदुःखरूप] कर्मफल निर्जरित हो गया है और अत्यन्त २कृतकृत्यपना हुआ है [अर्थात् कुछ भी
करना लेशमात्र भी नहीं रहा है]।। ३८।।
गाथा ३९
अन्वयार्थः–[सर्वे स्थावरकायाः] सर्व स्थावर जीवसमूह [खलु] वास्तवमें [कर्मफलं]
कर्मफलको वेदते हैं, [त्रसाः] त्रस [हि] वास्तवमें [कार्ययुतम्] कार्यसहित कर्मफलको वेदते हैं और [प्राणित्वम् अतिक्रांताः] जो प्राणित्वका [–प्राणोंका] अतिक्रम कर गये हैं [ते जीवाः] वे जीव [ज्ञानं] ज्ञानको [विंदन्ति] वेदते हैं।
टीकाः–यहाँ, कौन क्या चेतता है [अर्थात् किस जीवको कौनसी चेतना होती है] वह कहा
है।
चेतता है, अनुभव करता है, उपलब्ध करता है और वेदता है –ये एकार्थ हैं [अर्थात् यह सब
शब्द एक अर्थवाले हैं], क्योंकि चेतना, अनुभूति, उपलब्धि और वेदनाका एक अर्थ है। वहाँ, स्थावर
२। कृतकृत्य = कृतकार्य। [परिपूर्ण ज्ञानवाले आत्मा अत्यन्त कृतकार्य हैं इसलिये, यद्यपि उन्हें अनंत वीर्य प्रगट हुआ है तथापि, उनका वीर्य कार्यचेतनाको [कर्मचेतनाको] नहीं रचता, [और विकारी सुखदुःख विनष्ट हो गये हैं इसलिये उनका वीर्य कर्मफल चेतनेाको भी नहीं रचता,] ज्ञानचेतनाको ही रचता है।]
वेदे करमफल स्थावरो, त्रस कार्ययुत फल अनुभवे, प्राणित्वथी अतिक्रान्त जे ते जीव वेदे ज्ञानने। ३९।
१। यहा परिपूर्ण ज्ञानचेतनाकी विवक्षा होनेसे, केवलीभगवन्तों और सिद्धभगवन्तोंको ही ज्ञानचेतना कही गई
है। आंशिक ज्ञानचेतनाकी विवक्षासे तो मुनि, श्रावक तथा अविरत सम्यग्द्रष्टिको भी ज्ञानचेतना कही जा सकती हैे; उनका यहाँ निषेध नहीं समझना, मात्र विवक्षाभेद है ऐसा समझना चाहिये।
छे ज्ञान ने दर्शन सहित उपयोग युगल प्रकारनो; जीवद्रव्यने ते सर्व काळ अनन्यरूपे जाणवो। ४०.
अन्वयार्थः–[ज्ञानेन च दर्शनेन संयुक्तः] ज्ञान और दर्शनसे संयुक्त ऐसा [खलु द्विविधः]
वास्तवमें दो प्रकारका [उपयोगः] उपयोग [जीवस्य] जीवको [सर्वकालम्] सर्व काल [अनन्यभूतं] अनन्यरूपसे [विजानीहि] जानो।
टीकाः– आत्मका चैतन्य–अनुविधायी [अर्थात् चैतन्यका अनुसरण करनेवाला] परिणाम सो
उपयोग है। वह भी दोे प्रकारका है–ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। वहाँ, विशेषको ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्यको ग्रहण करनेवाला दर्शन है [अर्थात् विशेष जिसमें प्रतिभासित हो वह ज्ञान है और सामान्य जिसमें प्रतिभासित हो वह दर्शन है]। और उपयोग सर्वदा जीवसे अपृथग्भूत ही
मनःपर्यय और केवल–[ज्ञानानि पञ्चभेदानि] इस प्रकार ज्ञानके पाँच भेद हैं; [कुमतिश्रुतविभङ्गानि च] और कुमति, कुश्रुत और विभंग–[त्रीणि अपि] यह तीन [अज्ञान] भी [ज्ञानैः] [पाँच] ज्ञानके साथ [संयुक्तानि] संयुक्त किये गये हैं। [इस प्रकार ज्ञानोपयोगके आठ भेद हैं।]
केवलज्ञान, [६] कुमतिज्ञान, [७] कुश्रुतज्ञान और [८] विभंगज्ञान–इस प्रकार [ज्ञानोपयोगके भेदोंके] नामका कथन है।
[अब उनके स्वरूपका कथन किया जाता हैः–] आत्मा वास्तवमें अनन्त, सर्व आत्मप्रदेशोंमें
व्यापक, विशुद्ध ज्ञानसामान्यस्वरूप है। वह [आत्मा] वास्तवमें अनादि ज्ञानावरणकर्मसे आच्छादित प्रदेशवाला वर्तता हुआ, [१] उस प्रकारके [अर्थात् मतिज्ञानके] आवरणके क्षयोपशमसे और इन्द्रिय–मनके अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यका १विकलरूपसे २विशेषतः अवबोधन करता है वह
आभिनिबोधिकज्ञान है, [२] उस प्रकारके [अर्थात् श्रुतज्ञानके] आवरणके क्षयोपशमसे और मनके अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह श्रुतज्ञान है, [३] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही मूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह अवधिज्ञान है, [४] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही परमनोगत [–दूसरोंके मनके साथ सम्बन्धवाले] मूर्त द्रव्यका विकलरूपसे विशेषतः अवबोधन करता है वह मनःपर्ययज्ञान है, [५] समस्त आवरणके अत्यन्त क्षयसे, केवल ही [–आत्मा अकेला ही], मूर्त–अमूर्त द्रव्यका सकलरूपसे
विशेषतः अवबोधन करता है वह स्वाभाविक केवलज्ञान है, [६] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका आभिनिबोधिकज्ञान ही कुमतिज्ञान है, [७] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका श्रुतज्ञान ही कुश्रुतज्ञान है, [८] मिथ्यादर्शनके उदयके साथका अवधिज्ञान ही विभंगज्ञान है। – इस प्रकार [ज्ञानोपयोगके भेदोंके] स्वरूपका कथन है।
इस प्रकार मतिज्ञानादि आठ ज्ञानोपयोगोंका व्याख्यान किया गया।
भावार्थः– प्रथम तो, निम्नानुसार पाँच ज्ञानोंका स्वरूप हैः–
निश्चयनयसे अखण्ड–एक–विशुद्धज्ञानमय ऐसा यह आत्मा व्यवहारनयसे संसारावस्थामें कर्मावृत्त
वर्तता हुआ, मतिज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, पाँच इन्द्रियों और मनसे मूर्त–अमूर्त वस्तुको विकल्परूपसे जो जानता है वह मतिज्ञान है। वह तीन प्रकारका हैः उपलब्धिरूप, भावनारूप और उपयोगरूप। मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जनित अर्थग्रहणशक्ति [–पदार्थको जाननेकी शक्ति] वह उपलब्धि है, जाने हुए पदार्थका पुनः पुनः चिंतन वह भावना है और ‘यह काला है,’ ‘यह पीला है ’ इत्यादिरूपसे अर्थग्रहणव्यापार [–पदार्थको जाननेका व्यापार] वह उपयोग है। उसी प्रकार वह [मतिज्ञान] अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणारूप भेदों द्वारा अथवा कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारीबुद्धि तथा संभिन्नश्रोतृताबुद्धि ऐसे भेदों द्वारा चार प्रकारका है। [यहाँ, ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिये कि निर्विकार शुद्ध अनुभूतिके प्रति अभिमुख जो मतिज्ञान वही उपादेयभूत अनन्त सुखका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है, उसके साधनभूत बहिरंग मतिज्ञान तो व्यवहारसे उपादेय है।]
वही पूर्वोक्त आत्मा, श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, मूर्त–अमूर्त वस्तुको परोक्षरूपसे जो
जानता है उसे ज्ञानी श्रुतज्ञान कहते हैं। वह लब्धिरूप और भावनारूप हैे तथा उपयोगरूप और नयरूप है। ‘उपयोग’ शब्दसे यहाँ वस्तुको ग्रहण करनेवाला प्रमाण समझना चाहिये अर्थात् सम्पूर्ण वस्तुको जाननेवाला ज्ञान समझना चाहिये और ‘नय’ शब्दसे वस्तुके [गुणपर्यायरूप] एक देशको ग्रहण करनेवाला ऐसा ज्ञाताका अभिप्राय समझना चाहिये। [यहाँ ऐसा तात्पर्य ग्रहण करना चाहिये कि विशुद्धज्ञानदर्शन जिसका स्वभाव है ऐसे शुद्ध आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान–ज्ञान–अनुचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक जो भावश्रुत वही उपादेयभूत परमात्मतत्त्वका साधक होनेसे निश्चयसे उपादेय है किन्तु उसके साधनभूत बहिरंग श्रुतज्ञान तो व्यवहारसे उपादेय है।]
यह आत्मा, अवधिज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, मूर्त वस्तुको जो प्रत्यक्षरूपसे जानता है
वह अवधिज्ञान है। वह अवधिज्ञान लब्धिरूप तथा उपयोगरूप ऐसा दो प्रकारका जानना। अथवा अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि और सर्वावधि ऐसे भेदों द्वारा तीन प्रकारसे है। उसमें, परमावधि और सर्वावधि चैतन्यके उछलनेसे भरपूर आनन्दरूप परमसुखामृतके रसास्वादरूप समरसीभावसे परिणत चरमदेही तपोधनोंको होता है। तीनों प्रकारके अवधिज्ञान निश्चयसे विशिष्ट सम्यक्त्वादि गुणसे होते हैं। देवों और नारकोंके होनेवाले भवप्रत्ययी जो अवधिज्ञान वह नियमसे देशावधि ही होता है।
यह आत्मा, मनःपर्ययज्ञानावरणका क्षयोपशम होने पर, परमनोगत मूर्त वस्तुको जो
प्रत्यक्षरूपसे जानता है वह मनःपर्ययज्ञान है। ऋजुमति और विपुलमति ऐसे भेदों द्वारा मनःपर्ययज्ञान दो प्रकारका है। वहाँ, विपुलमति मनःपर्ययज्ञान परके मनवचनकाय सम्बन्धी पदार्थोंको, वक्र तथा अवक्र दोनोंको, जानता है और ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान तो ऋजुको [अवक्रको] ही जानता है। निर्विकार आत्माकी उपलब्धि और भावना सहित चरमदेही मुनियोंको विपुलमति मनःपर्ययज्ञान होता है। यह दोनों मनःपर्ययज्ञान वीतराग आत्मतत्त्वके सम्यक् श्रद्धान–ज्ञान–अनुष्ठानकी भावना सहित, पन्द्रह प्रमाद रहित अप्रमत्त मुनिको उपयोगमें–विशुद्ध परिणाममें–उत्पन्न होते हैं। यहाँ मनःपर्ययज्ञानके उत्पादकालमें ही अप्रमत्तपनेका नियम है, फिर प्रमत्तपनेमें भी वह संभवित होता है।
जो ज्ञान घटपटादि ज्ञेय पदार्थोंका अवलम्बन लेकर उत्पन्न नहीं होता वह केवलज्ञान है। वह
श्रुतज्ञानस्वरूप भी नहीं है। यद्यपि दिव्यध्वनिकालमें उसके आधारसे गणधरदेव आदिको श्रुतज्ञान परिणमित होता है तथापि वह श्रुतज्ञान गणधरदेव आदिको ही होता है, केवलीभगवन्तोंको तो केवलज्ञान ही होता है। पुनश्च, केवलीभगवन्तोंको श्रुतज्ञान नहीं है इतना ही नहीं, किन्तु उन्हें ज्ञान–अज्ञान भी नहीं है अर्थात् उन्हें किसी विषयका ज्ञान तथा किसी विषयका अज्ञान हो ऐसा भी नहीं है – सर्व विषयोंका ज्ञान ही होता है; अथवा, उन्हें मति–ज्ञानादि अनेक भेदवाला ज्ञान नहीं है – एक केवलज्ञान ही है।
यहाँ जो पाँच ज्ञानोंका वर्णन किया गया है वह व्यवहारसे किया गया है। निश्चयसे तो बादल
रहित सूर्यकी भाँति आत्मा अखण्ड–एक–ज्ञान–प्रतिभासमय ही है।
अब अज्ञानत्रयके सम्बन्धमें कहते हैंः–
मिथ्यात्व द्वारा अर्थात् भाव–आवरण द्वारा अज्ञान [–कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान तथा विभंगज्ञान]
और अविरतिभाव होता है तथा ज्ञेयका अवलम्बन लेनेसे [–ज्ञेय सम्बन्धी विचार अथवा ज्ञान करनेसे] उस–उस काल दुःनय और दुःप्रमाण होते हैं। [मिथ्यादर्शनके सद्भावमें वर्तता हुआ मतिज्ञान वह कुमतिज्ञान है, श्रुतज्ञान वह कुश्रुतज्ञान है, अवधिज्ञान वह विभंगज्ञान है; उसके सद्भावमें वर्तते हुए नय वे दुःनय हैं और प्रमाण वह दुःप्रमाण है।] इसलिये ऐसा भावार्थ समझना चाहिये कि निर्विकार शुद्ध आत्माकी अनुभूतिस्वरूप निश्चय सम्यक्त्व उपादेयहै।
अन्वयार्थः–[दर्शनम् अपि] दर्शन भी [चक्षुर्युतम्] चक्षुदर्शन, [अचक्षुर्युतम् अपि च]
अचक्षुदर्शन, [अवधिना सहितम्] अवधिदर्शन [च अपि] और [अनंतविषयम्] अनन्त जिसका विषय है ऐसा [अनिधनम्] अविनाशी [कैवल्यं] केवलदर्शन [प्रज्ञप्तम्] – ऐसे चार भेदवाला कहा है।
टीकाः–यह, दर्शनोपयोगके भेदोंके नाम और स्वरूपका कथन है।
[१] चक्षुदर्शन, [२] अचक्षुदर्शन, [३] अवधिदर्शन और [४] केवलदर्शन – इस प्रकार
[दर्शनोपयोगके भेदोंके] नामका कथन है।
[अब उसके स्वरूपका कथन किया जाता हैः–] आत्मा वास्तवमें अनन्त, सर्व आत्मप्रदेशोंमें
व्यापक, विशुद्ध दर्शनसामान्यस्वरूप है। वह [आत्मा] वास्तवमें अनादि दर्शनावरणकर्मसे आच्छादित प्रदेशोंवाला वर्तता हुआ, [१] उस प्रकारके [अर्थात् चक्षुदर्शनके] आवरणके क्षयोपशमसे और चक्षु– इन्द्रियके अवलम्बनसे मूर्त द्रव्यको विकलरूपसे १सामान्यतः अवबोधन करता है
वह चक्षुदर्शन है, [२] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे तथा चक्षुके अतिरिक्त शेष चार इन्द्रयोंंं और मनके अवलम्बनसे मूर्त–अमूर्त द्रव्यको विकरूपसे सामान्यतः अवबोधन करता है वह अचक्षुदर्शन हैे, [३] उस प्रकारके आवरणके क्षयोपशमसे ही मूर्त द्रव्यको विकरूपसे सामान्यतः अवबोधन करता है वह अवधिदर्शन है, [४] समस्त आवरणके अत्यन्त क्षयसे, केवल ही [–आत्मा अकेला ही], मूर्त–अमूर्त द्रव्यको सकलरूपसेे सामान्यतः अवबोधन करता है वह स्वाभाविक केवलदर्शन है। –इस प्रकार [दर्शनोपयोगके भेदोंके] स्वरूपका कथन है।। ४२।।
गाथा ४३
अन्वयार्थः–[ज्ञानात्] ज्ञानसे [ज्ञानी न विकल्प्यते] ज्ञानीका [–आत्माका] भेद नहीं किया
जाता; [ज्ञानानि अनेकानि भवंति] तथापि ज्ञान अनेक है। [तस्मात् तु] इसलिये तो [ज्ञानिभिः] ज्ञानियोंने [द्रव्यं] द्रव्यको [विश्वरूपम् इति भणितम्] विश्वरूप [–अनेकरूप] कहा है।
टीकाः–एक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक होनेका यह समर्थन है।
प्रथम तो ज्ञानी [–आत्मा] ज्ञानसे पृथक् नहीं है; क्योंकि दोनोें एक अस्तित्वसे रचित होनेसे
दोनोंको एकद्रव्यपना है, दोनोंके अभिन्न प्रदेश होनेसे दोनोंको एकक्षेत्रपना है, दोनों एक समयमेें रचे जाते होनेसे दोनोंको एककालपना है, दोनोंका एक स्वभाव होनेसे दोनोंको एकभावपना है। किन्तु ऐसा कहा जाने पर भी, एक आत्मामें आभिनिबोधिक [–मति] आदि अनेक ज्ञान विरोध नहीं पाते, क्योंकि द्रव्य विश्वरूप है। द्रव्य वास्तवमें सहवर्ती और क्रमवर्ती ऐसे अनन्त गुणों तथा पर्यायोंका आधार होनेके कारण अनन्तरूपवाला होनेसे, एक होने पर भी, १विश्वरूप कहा जाता है ।। ४३।।
गाथा ४४
अन्वयार्थः–[यदि] यदि [द्रव्यं] द्रव्य [गुणतः] गुणोंसे [अन्यत् च भवति] अन्य [–भिन्न]
हो [गुणाः च] और गुण [द्रव्यतः अन्ये] द्रव्यसे अन्य हो तो [द्रव्यानंत्यम्] द्रव्यकी अनन्तता हो [अथवा] अथवा [द्रव्याभावं] द्रव्यका अभाव [प्रकुर्वन्ति] हो।
टीकाः– द्रव्यका गुणोंसे भिन्नत्व हो और गुणोंका द्रव्यसे भिन्नत्व हो तो दोष आता है उसका
गुण वास्तवमें किसीके आश्रयसे होते हैं; [वे] जिसके आश्रित हों वह द्रव्य होता है। वह
[–द्रव्य] यदि गुणोंसे अन्य [–भिन्न] हो तो–फिर भी, गुण किसीके आश्रित होंगे; [वे] जिसके आश्रित हों वह द्रव्य होता है। वह यदि गुणोंसे अन्य हो तो– फिर भी गुण किसीके आश्रित होंगे; [वे] जिसके आश्रित हों वह द्रव्य होता है। वह भी गुणोसे अन्य ही हो।–– इस प्रकार, यदि द्रव्यका गुणोंसे भिन्नत्व हो तो, द्रव्यकी अनन्तता हो।
वास्तवमें द्रव्य अर्थात् गुणोंका समुदाय। गुण यदि समुदायसे अन्य हो तो समुदाय कैसा?
[अर्थात् यदि गुणोंको समुदायसे भिन्न माना जाये तो समुदाय कहाँसे घटित होगा? अर्थात् द्रव्य ही कहाँसे घटित होगा?] इस प्रकार, यदि गुणोंका द्रव्यसे भिन्नत्व हो तो, द्रव्यका अभाव हो।। ४४।।
गाथा ४५
अन्वयार्थः–[द्रव्यगुणानाम्] द्रव्य और गुणोंको [अविभक्तम् अनन्यत्वम्] अविभक्तपनेरूप
अनन्यपना है; [निश्चयज्ञाः हि] निश्चयके ज्ञाता [तेषाम्] उन्हें [विभक्तम् अन्यत्वम्] विभक्तपनेरूप अन्यपना [वा] या [तद्विपरीतं] [विभक्तपनेरूप] अनन्यपना [न इच्छन्ति] नहीं मानते।
टीकाः–यह, द्रव्य और गुणोंके स्वोचित अनन्यपनेका कथन है [अर्थात् द्रव्य और गुणोंको
कैसा अनन्यपना घटित होता है वह यहाँ कहा है]।
द्रव्य और गुणोंको १अविभक्तप्रदेशत्वस्वरूप अनन्यपना स्वीकार किया जाता है; परन्तु
विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप अन्यपना तथा [विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप] अनन्यपना स्वीकार नहीं किया जाता। वह स्पष्ट समझाया जाता हैः– जिस प्रकार एक परमाणुको एक स्वप्रदेशके साथ अविभक्तपना होनेसे अनन्यपना है, उसी प्रकार एक परमाणुको तथा उसमें रहनेवाले स्पर्श–रस–गंध–वर्ण आदि गुणोंको अविभक्त प्रदेश होनेसे [अविभक्त–प्रदेशत्वस्वरूप] अनन्यपना है; परन्तु जिस प्रकार अत्यन्त दूर ऐसे
२सह्य और विंध्यको विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप अन्यपना है तथा अत्यन्त निकट ऐसे मिश्रित ३क्षीर–नीरको
विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप अनन्यपना है, उसी प्रकार द्रव्य और गुणोंको विभक्त प्रदेश न होनेसे [विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप] अन्यपना तथा [विभक्तप्रदेशत्वस्वरूप] अनन्यपना नहीं है।। ४५।।
अन्वयार्थः–[व्यपदेशाः] व्यपदेश, [संस्थानानि] संस्थान, [संख्याः] संख्याएँ [च] और
[विषयाः] विषय [ते बहुकाः भवन्ति] अनेक होते हैं। [ते] वे [व्यपदेश आदि], [तेषाम्] द्रव्य– गुणोंके [अन्यत्वे] अन्यपनेमें [अनन्यत्वे च अपि] तथा अनन्यपनेमें भी [विद्यंते] हो सकते हैं।
टीकाः–यहाँ व्यपदेश आदि एकान्तसे द्रव्य–गुणोंके अन्यपनेका कारण होनेका खण्डन किया
है।
जिस प्रकार ‘देवदत्तकी गाय’ इस प्रकार अन्यपनेमें षष्ठीव्यपदेश [–छठवीं विभक्तिका कथन]
होता हैे, उसी प्रकार ‘वृक्षकी शाखा,’ ‘द्रव्यके गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [षष्ठीव्यपदेश] होता हैे। जिस प्रकार‘देवदत्त फलको अंकुश द्वारा धनदत्तके लियेे वृक्ष परसे बगीचेमें तोड़ता है’ ऐसे अन्यपनेमें कारकव्यपदेश होता हैे, उसी प्रकार ‘मिट्टी स्वयं घटभावको [–घड़ारूप परिणामको] अपने द्वारा
अपने लिये अपनेमेंसे अपनेमें करती है’, ‘आत्मा आत्मको आत्मा द्वारा आत्माके लिये आत्मामेंसे आत्मामें जानता है’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [कारकव्यपदेश] होता हैे। जिस प्रकार ‘ऊँचे देवदत्तकी ऊँची गाय’ ऐसा अन्यपनेमें संस्थान होता हैे, उसी प्रकार ‘विशाल वृक्षका विशाल शाखासमुदाय’, मूर्त द्रव्यके मूर्त गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [संस्थान] होता हैे। जिस प्रकार ‘एक देवदत्तकी दस
व्यपदेश = कथन; अभिधान। [इस गाथामें ऐसा समझाया है कि–जहाँ भेद हो वहीं व्यपदेश आदि घटित हों ऐसा कुछ नहीं है; जहाँ अभेद हो वहाँ भी वे घटित होते हैं। इसलिये द्रव्य–गुणोंमें जो व्यपदेश आदि होते हैं वे कहीं एकान्तसे द्रव्य–गुणोंके भेदको सिद्ध नहीं करते।]
व्यपदेश ने संस्थान, संख्या, विषय बहु ये होय छे; ते तेमना अन्यत्व तेम अनन्यतामां पण घटे। ४६।
गायें, ऐसे अन्यपनेमें संख्या होती है, उसी प्रकार ‘एक वृक्षकी दस शाखायें’, ‘एक द्रव्यके अनन्त गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [संख्या] होती है। जिस प्रकार ‘बाड़ेे में गायें’ ऐसे अन्यपनेमें विषय [– आधार] होता है, उसी प्रकार ‘वृक्षमें शाखायें’, ‘द्रव्यमें गुण’ ऐसे अनन्यपनेमें भी [विषय] होता है। इसलिये [ऐसा समझना चाहिये कि] व्यपदेश आदि, द्रव्य–गुणोंमें वस्तुरूपसे भेद सिद्ध नहीं करते।। ४६।।
गाथा ४७
अन्वयार्थः– [यथा] जिस प्रकार [धनं] धन [च] और [ज्ञानं] ज्ञान [धनिनं] [पुरुषको]
‘धनी’ [च] और [ज्ञानिनं] ‘ज्ञानी’ [करोति] करते हैं– [द्विविधाभ्याम् भणंति] ऐसे दो प्रकारसे कहा जाता है, [तथा] उसी प्रकार [तत्त्वज्ञाः] तत्त्वज्ञ [पृथक्त्वम्] पृथक्त्व [च अपि] तथा [एकत्वम्] एकत्वको कहते हैं।
टीकाः–यह, वस्तुरूपसे भेद और [वस्तुरूपसे] अभेदका उदाहरण है।
जिस प्रकार[१] भिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] भिन्न संस्थानवाला, [३] भिन्न संख्यावाला और
[४] भिन्न विषयमें स्थित ऐसा धन [१] भिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] भिन्न संस्थानवाले, [३] भिन्न संख्यावाले और [४] भिन्न विषयमें स्थित ऐसे पुरुषको ‘धनी’ ऐसा व्यपदेश पृथक्त्वप्रकारसे करता हैं, तथा जिस प्रकार [१] अभिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] अभिन्न संस्थानवाला, [३] अभिन्न संख्यावाला और [४] अभिन्न विषयमें स्थित ऐसा ज्ञान [१] अभिन्न अस्तित्वसे रचित, [२] अभिन्न संस्थानवाले, [३] अभिन्न संख्यावाले और [४] अभिन्न विषयमें स्थित ऐसे पुरुषको ‘ज्ञानी’ ऐसा व्यपदेश एकत्वप्रकारसे करता है, उसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये। जहाँ द्रव्यके भेदसे व्यपदेश आदि हों वहाँ पृथक्त्व है, जहाँ [द्रव्यके] अभेदसे [व्यपदेश आदि] हों वहाँ एकत्व है।। ४७।।
गाथा ४८
अन्वयार्थः–[ज्ञानी] यदि ज्ञानी [–आत्मा] [च] और [ज्ञानं] ज्ञान [सदा] सदा
[अन्योऽन्यस्य] परस्पर [अर्थांतरिते तु] अर्थांतरभूत [भिन्नपदार्थभूत] हों तो [द्वयोः] दोनोंको [अचेतनत्वं प्रसजति] अचेतनपनेका प्रसंग आये– [सम्यग् जिनावमतम्] जो कि जिनोंको सम्यक् प्रकारसे असंमत है।
टीकाः– द्रव्य और गुणोंको अर्थान्तरपना हो तो यह [निम्नानुसार] दोष आयेगा।
यदि ज्ञानी [–आत्मा] ज्ञानसे अर्थान्तरभूत हो तो [आत्मा] अपने करण–अंश बिना, कुल्हाड़ी
रहित देवदत्तकी भाँति, १करणका व्यापार करनेमें असमर्थ होनेसे नहीं चेतता [–जानता] हुआ
अचेतन ही होगा। और यदि ज्ञान ज्ञानीसे [–आत्मासे] अर्थान्तरभूत हो तो ज्ञान अपने कर्तृ–अंशके बिना, देवदत्त रहित कुल्हाड़ीकी भाँति, अपने २कर्ताका व्यापार करनेमें असमर्थ होनेसे नहीं चेतता
[–जानता] हुआ अचेतन ही होगा। पुनश्च, ३युतसिद्ध ऐसे ज्ञान और ज्ञानीको [–ज्ञान और
आत्माको] संयोगसे चेतनपना हो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि निर्विशेष द्रव्य और निराश्रय गुण शून्य होते हैं।। ४८।।
१। करणका व्यापार = साधनका कार्य। [आत्मा कर्ता है और ज्ञान करण है। यदि आत्मा ज्ञानसे भिन्न ही हो तो
आत्मा साधनका व्यापार अर्थात् ज्ञानका कार्य करनेमें असमर्थ होनेसे जान नहीं सकेगा इसलिये आत्माको अचेतनत्व आ जायेगा।]
२। कर्ताका व्यापार = कर्ताका कार्य। [ज्ञान करण हैे और आत्मा कर्ता है। यदि ज्ञान आत्मासे भिन्न ही हो तो
ज्ञान कर्ताका व्यापार अर्थात् आत्माका कार्य करनेमें असमर्थ होनेसे जान नहीं सकेगा इसलिये ज्ञानको अचेतनपना आ जावेगा।]
३। युतसिद्ध = जुड़कर सिद्ध हुए; समवायसे–संयोगसे सिद्ध हुए। [जिस प्रकार लकड़ी और मनुष्य पृथक् होने
पर भी लकड़ीके योगसे मनुष्य ‘लकड़ीवाला’ होता है उसी प्रकार ज्ञान और आत्मा पृथक् होने पर भी ज्ञानके साथ युक्त होकर आत्मा ‘ज्ञानवाला [–ज्ञानी]’ होता है ऐसा भी नहीं है। लकड़ी और मनुष्यकी भाँति ज्ञान और आत्मा कभी पृथक् होंगे ही कैसे? विशेषरहित द्रव्य हो ही नहीं सकता, इसलिये ज्ञान रहित आत्मा कैसा? और आश्रय बिना गुण हो ही नहीं सकता, इसलिये आत्माके बिना ज्ञान कैसा? इसलिये ‘लकड़ी’ और ‘लकड़ीवाले’की भाँति ‘ज्ञान’ और ‘ज्ञानी’का युतसिद्धपना घटित नहीं होता।]
अन्वयार्थः–[ज्ञानतः अर्थांतरितः तु] ज्ञानसे अर्थान्तरभूत [सः] ऐसा वह [–आत्मा]
[समवायात्] समवायसे [ज्ञानी] ज्ञानी होता है [न हि] ऐसा वास्तवमें नहीं है। [अज्ञानी] ‘अज्ञानी’ [इति च वचनम्] ऐसा वचन [एकत्वप्रसाधकं भवति] [गुण–गुणीके] एकत्वको सिद्ध करता है।
टीकाः–यह, ज्ञान और ज्ञानीको समवायसम्बन्ध होनेका निराकरण [खण्डन] है।
ज्ञानसे अर्थान्तरभूत आत्मा ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होता है ऐसा मानना वास्तवमें योग्य नहीं है। [आत्माको ज्ञानके समवायसे ज्ञानी होना माना जाये तो हम पूछते हैं कि] वह [–आत्मा] ज्ञानका समवाय होनेसे पहले वास्तवमें ज्ञानी है कि अज्ञानी? यदि ज्ञानी है [ऐसा कहा जाये] तो ज्ञानका समवाय निष्फल है। अब यदि अज्ञानी है [ऐसा कहा जाये] तो [पूछते हैं कि] अज्ञानके समवायसे अज्ञानी है कि अज्ञानके साथ एकत्वसे अज्ञानी है? प्रथम, अज्ञानके समवायसे अज्ञानी हो नहीं सकता; क्योंकि अज्ञानीको अज्ञानका समवाय निष्फल है और ज्ञानीपना तो ज्ञानके समवायका अभाव होनेसे है ही नहींं। इसलिये ‘अज्ञानी’ ऐसा वचन अज्ञानके साथ एकत्वको अवश्य सिद्ध करता ही है। और इस प्रकार अज्ञानके साथ एकत्व सिद्ध होनेसे ज्ञानके साथ भी एकत्व अवश्य सिद्ध होता है।
भावार्थः–आत्माको और ज्ञानको एकत्व है ऐसा यहाँ युक्तिसे समझाया है।
प्रश्नः– छद्मस्थदशामें जीवको मात्र अल्पज्ञान ही होता है और केवलीदशामें तो परिपूर्ण ज्ञान–
केवलज्ञान होता है; इसलिये वहाँ तो केवलीभगवानको ज्ञानका समवाय [–केवलज्ञानका संयोग] हुआ न?
उत्तरः– नहीं, ऐसा नहीं है। जीवको और ज्ञानगुणको सदैव एकत्व है, अभिन्नता है।
छद्मस्थदशामें भी उस अभिन्न ज्ञानगुणमें शक्तिरूपसे केवलज्ञान होता है। केवलीदशामें, उस अभिन्न ज्ञानगुणमें शक्तिरूपसे स्थित केवलज्ञान व्यक्त होता है; केवलज्ञान कहीं बाहरसे आकर केवलीभगवानके आत्माके साथ समवायको प्राप्त होता हो ऐसा नहीं है। छद्मस्थदशामें और केवलीदशामें जो ज्ञानका अन्तर दिखाई देता है वह मात्र शक्ति–व्यक्तिरूप अन्तर समझना चाहिये।। ४९।।
गाथा ५०
अन्वयार्थः–[समवर्तित्वं समवायः] समवर्तीपना वह समवाय है; [अपृथग्भूतत्वम्] वही,
अपृथक्पना [च] और [अयुतसिद्धत्वम्] अयुतसिद्धपना है। [तस्मात्] इसलिये [द्रव्यगुणानाम्] द्रव्य और गुणोंकी [अयुता सिद्धिः इति] अयुतसिद्धि [निर्दिष्टा] [जिनोंने] कही है।
टीकाः–यह, समवायमें पदार्थान्तरपना होनेका निराकरण [खण्डन] है।
द्रव्य और गुण एक अस्तित्वसे रचित हैं उनकी जो अनादि–अनन्त सहवृत्ति [–एक साथ
रहना] वह वास्तवमें समवर्तीपना है; वही, जैनोंके मतमें समवाय है; वही, संज्ञादि भेद होने पर भी [–द्रव्य और गुणोंको संज्ञा– लक्षण–प्रयोजन आदिकी अपेक्षासे भेद होने पर भी] वस्तुरूपसे अभेद होनेसे अपृथक्पना है; वही, युतसिद्धिके कारणभूत १अस्तित्वान्तरका अभाव होनेसे अयुतसिद्धपना है।
इसलिये २समवर्तित्वस्वरूप समवायवाले द्रव्य और गुणोंको अयुतसिद्धि ही है, पृथक्पना नहीं है।।