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मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज । णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।।२०८।।
यदि परद्रव्यमजीवमहं परिगृह्णीयां तदावश्यमेवाजीवो ममासौ स्वः स्यात्, अहमप्य- वश्यमेवाजीवस्यामुष्य स्वामी स्याम् । अजीवस्य तु यः स्वामी, स किलाजीव एव । एवमवशेनापि ममाजीवत्वमापद्येत । मम तु एको ज्ञायक एव भावः यः स्वः, अस्यैवाहं स्वामी; ततो मा भून्ममाजीवत्वं, ज्ञातैवाहं भविष्यामि, न परद्रव्यं परिगृह्णामि ।
गाथार्थ : — [यदि ] यदिे [परिग्रहः ] परद्रव्य-परिग्रह [मम ] मेरा हो [ततः ] तो [अहम् ] मैं [अजीवतां तु ] अजीवत्वकोे [गच्छेयम् ] प्राप्त हो जाऊँ । [यस्मात् ] क्योंकि [अहं ] मैं तो [ज्ञाता एव ] ज्ञाता ही हूँ, [तस्मात् ] इसलिये [परिग्रहः ] (परद्रव्यरूप) परिग्रह [मम न ] मेरा नहीं है ।
टीका : — यदि मैं अजीव परद्रव्यका परिग्रह करूँ तो अवश्यमेव वह अजीव मेरा ‘स्व’ हो और मैं भी अवश्य ही उस अजीवका स्वामी होऊँ ; और जो अजीवका स्वामी होगा वह वास्तवमें अजीव ही होगा । इसप्रकार अवशतः (लाचारीसे) मुझमें अजीवत्व आ पड़े । मेरा तो एक ज्ञायक भाव ही जो ‘स्व’ है, उसीका मैं स्वामी हूँ; इसलिये मुझको अजीवत्व न हो, मैं तो ज्ञाता ही रहूँगा, मैं परद्रव्यका परिग्रह नहीं करूँगा ।
भावार्थ : — निश्चयनयसे यह सिद्धांत हैं कि जीवका भाव जीव ही है, उसके साथ जीवका स्व-स्वामी सम्बन्ध है; और अजीवका भाव अजीव ही है, उसके साथ अजीवका स्व-स्वामी सम्बन्ध है । यदि जीवके अजीवका परिग्रह माना जाय तो जीव अजीवत्वको प्राप्त हो जाय; इसलिये परमार्थतः जीवके अजीवका परिग्रह मानना मिथ्याबुद्धि है । ज्ञानीके ऐसी मिथ्याबुद्धि नहीं होती । ज्ञानी तो यह मानता है कि परद्रव्य मेरा परिग्रह नहीं है, मैं तो ज्ञाता हूँ ।।२०८।।
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छिद्यतां वा, भिद्यतां वा, नीयतां वा, विप्रलयं यातु वा, यतस्ततो गच्छतु वा, तथापि न परद्रव्यं परिगृह्णामि; यतो न परद्रव्यं मम स्वं, नाहं परद्रव्यस्य स्वामी, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वं, परद्रव्यमेव परद्रव्यस्य स्वामी, अहमेव मम स्वं, अहमेव मम स्वामी इति जानामि ।
सामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुम् ।
भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः ।।१४५।।
गाथार्थ : — [छिद्यतां वा ] छिद जाये, [भिद्यतां वा ] अथवा भिद जाये, [नीयतां वा ] अथवा कोई ले जाये, [अथवा विप्रलयम् यातु ] अथवा नष्ट हो जायेे, [यस्मात् तस्मात् गच्छतु ] अथवा चाहेे जिस प्रकारसे चला जाये, [तथापि ] फि र भी [खलु ] वास्तवमें [परिग्रहः ] परिग्रह [मम न ] मेरा नहीं है ।
टीका : — परद्रव्य छिदे, अथवा भिदे, अथवा कोई उसे ले जाये, अथवा वह नष्ट हो जाये, अथवा चाहे जिसप्रकारसे जाये, तथापि मैं परद्रव्यको नहीं परिगृहित करूँगा; क्योंकि ‘परद्रव्य मेरा स्व नहीं है, – मैं परद्रव्यका स्वामी नहीं हूँ, परद्रव्य ही परद्रव्यका स्व है, – परद्रव्य ही परद्रव्यका स्वामी है, मैं ही अपना स्व हूँ, – मैं ही अपना स्वामी हूँ — ऐसा मैं जानता हूँ ।
श्लोकार्थ : — [इत्थं ] इसप्रकार [समस्तम् एव परिग्रहम् ] समस्त परिग्रहको ★इस कलशका अर्थ इसप्रकार भी होता है : — [इत्थं ] इसप्रकार [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् समस्तम् एव
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इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य [सामान्यतः ] सामान्यतः [अपास्य ] छोड़कर [अधुना ] अब [स्वपरयोः अविवेकहेतुम् अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं ] स्व-परके अविवेकके कारणरूप अज्ञानको छोड़नेका जिसका मन है ऐसा यह [भूयः ] पुनः [तम् एव ] उसीको ( – परिग्रहको – ) [विशेषात् ] विशेषतः [परिहर्तुम् ] छोड़नेकोे [प्रवृत्तः ] प्रवृत्त हुआ है ।
भावार्थ : — स्व-परको एकरूप जाननेका कारण अज्ञान है । उस अज्ञानको सम्पूर्णतया छोड़नेके इच्छुक जीवने पहले तो परिग्रहका सामान्यतः त्याग किया और अब (आगामी गाथाओंमें) उस परिग्रहको विशेषतः (भिन्न-भिन्न नाम लेकर) छोड़ता है ।१४५।
गाथार्थ : — [अनिच्छः ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः ] कहा है [च ] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [धर्मम् ] धर्मको (पुण्यको) [न इच्छति ] नहीं चाहता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [धर्मस्य ] धर्मका [अपरिग्रहः तु ] परिग्रही नहीं है, (किन्तु) [ज्ञायकः ] (धर्मका) ज्ञायक ही [भवति ] है ।
टीका : — इच्छा परिग्रह है । उसको परिग्रह नहीं है — जिसको इच्छा नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमयभाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये
छोड़कर [अधुना ] अब, [अज्ञानम् उज्झितुमनाः अयं ] अज्ञानको छोड़नेका जिसका मन है ऐसा यह,
[भूयः ] फि र भी [तम् एव ] उसे ही [विशेषात् ] विशेषतः [परिहर्तुम् ] छोड़नेके लिये [प्रवृत्तः ] प्रवृत्त
हुआ है ।
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भावस्य इच्छाया अभावाद्धर्मं नेच्छति । तेन ज्ञानिनो धर्मपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावाद्धर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् ।
इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादधर्मं नेच्छति । तेन ज्ञानिनोऽधर्मपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावादधर्मस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् । अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी धर्मको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके धर्मका परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) धर्मका केवल ज्ञायक ही है ।।२१०।।
गाथार्थ : — [अनिच्छः ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः ] कहा है [च ] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [अधर्मम् ] अधर्मको (पापको) [न इच्छति ] नहीं चाहता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [अधर्मस्य ] अधर्मका [अपरिग्रहः ] परिग्रही नहीं है, (कि न्तु) [ज्ञायकः ] (अधर्मका) ज्ञायक ही [भवति ] है ।
टीका : — इच्छा परिग्रह है । उसको परिग्रह नहीं है — जिसको इच्छा नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी अधर्मको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके अधर्मका परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) अधर्मका केवल ज्ञायक ही है ।
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एवमेव चाधर्मपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायश्रोत्रचक्षु- र्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि । अनया दिशाऽन्यान्यप्यूह्यानि ।
इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावादशनं नेच्छति । तेन ज्ञानिनोऽशनपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावादशनस्य केवलं ज्ञायक एवायं स्यात् ।
इसीप्रकार गाथामें ‘अधर्म’ शब्द बदलकर उसके स्थान पर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन — यह सोलह शब्द रखकर, सोलह गाथासूत्र व्याख्यानरूप करना और इस उपदेशसे दूसरे भी विचार करना चाहिए ।।२११।।
गाथार्थ : — [अनिच्छः ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः ] कहा है [च ] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [अशनम् ] भोजनको [न इच्छति ] नहीं चाहता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [अशनस्य ] भोजनका [अपरिग्रहः तु ] परिग्रही नहीं है, (किन्तु) [ज्ञायकः ] (भोजनका) ज्ञायक ही [भवति ] है ।
टीका : — इच्छा परिग्रह है । उसको परिग्रह नहीं है — जिसको इच्छा नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी भोजनको नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके भोजनका परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) भोजनका केवल ज्ञायक ही है ।
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इच्छा परिग्रहः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति । इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावात् पानं नेच्छति । तेन ज्ञानिनः पानपरिग्रहो नास्ति । ज्ञानमयस्यैकस्य
भावार्थ : — ज्ञानीके आहारकी भी इच्छा नहीं होती, इसलिये ज्ञानीका आहार करना वह भी परिग्रह नहीं है । यहाँ प्रश्न होता है कि — आहार तो मुनि भी करते हैं, उनके इच्छा है या नहीं ? इच्छाके बिना आहार कैसे किया जा सकता है ? समाधान : असातावेदनीय कर्मके उदयसे जठराग्निरूप क्षुधा उत्पन्न होती है, वीर्यांतरायके उदयसे उसकी वेदना सहन नहीं की जा सकती और चारित्रमोहके उदयसे आहारग्रहणकी इच्छा उत्पन्न होती है । उस इच्छाको ज्ञानी कर्मोंदयका कार्य जानते हैं, और उसे रोग समान जानकर मिटाना चाहते हैं । ज्ञानीके इच्छाके प्रति अनुरागरूप इच्छा नहीं होती अर्थात् उसके ऐसी इच्छा नहीं होती कि मेरी यह इच्छा सदा रहे । इसलिये उसके अज्ञानमय इच्छाका अभाव है । परजन्य इच्छाका स्वामित्व ज्ञानीके नहीं होता, इसलिये ज्ञानी इच्छाका भी ज्ञायक ही है । इसप्रकार शुद्धनयकी प्रधानतासे कथन जानना चाहिए ।।२१२।।
गाथार्थ : — [अनिच्छः ] अनिच्छकको [अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः ] कहा है [च ] और [ज्ञानी ] ज्ञानी [पानम् ] पानको (पेयको) [न इच्छति ] नहीं चाहता, [तेन ] इसलिये [सः ] वह [पानस्य ] पानका [अपरिग्रहः तु ] परिग्रही नहीं है, कि न्तु [ज्ञायकः ] (पानका) ज्ञायक ही [भवति ] है ।
टीका : — इच्छा परिग्रह है । उसको परिग्रह नहीं है — जिसको इच्छा नहीं है । इच्छा तो अज्ञानमयभाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमयभाव ही होता है; इसलिये अज्ञानमयभाव जो इच्छा उसके अभावके कारण ज्ञानी पानको (पानी इत्यादि पेयको) नहीं चाहता;
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ज्ञायकभावस्य भावात् केवलं पानकस्य ज्ञायक एवायं स्यात् ।
एवमादयोऽन्येऽपि बहुप्रकाराः परद्रव्यस्य ये स्वभावास्तान् सर्वानेव नेच्छति ज्ञानी, तेन ज्ञानिनः सर्वेषामपि परद्रव्यभावानां परिग्रहो नास्ति । इति सिद्धं ज्ञानिनोऽत्यन्तनिष्परिग्रहत्वम् । अथैवमयमशेषभावान्तरपरिग्रहशून्यत्वादुद्वान्तसमस्ताज्ञानः सर्वत्राप्यत्यन्तनिरालम्बो भूत्वा प्रति- इसलिये ज्ञानीके पानका परिग्रह नहीं है । ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) पानका केवल ज्ञायक ही है ।
गाथार्थ : — [एवमादिकान् तु ] इत्यादिक [विविधान् ] अनेक प्रकारके [सर्वान् भावान् च ] सर्व भावोंको [ज्ञानी ] ज्ञानी [न इच्छति ] नहीं चाहता; [सर्वत्र निरालम्बः तु ] सर्वत्र (सभीमेंं) निरालम्ब वह [नियतः ज्ञायकभावः ] निश्चित ज्ञायकभाव ही है ।
टीका : — इत्यादिक अन्य भी अनेक प्रकारके जो परद्रव्यके स्वभाव हैं उन सभीको ज्ञानी नहीं चाहता, इसलिये ज्ञानीके समस्त परद्रव्यके भावोंका परिग्रह नहीं है । इसप्रकार ज्ञानीके अत्यन्त निष्परिग्रहत्व सिद्ध हुआ ।
अब इसप्रकार, समस्त अन्य भावोंके परिग्रहसे शून्यत्वके कारण जिसने समस्त अज्ञानका वमन कर डाला है ऐसा यह (ज्ञानी), सर्वत्र अत्यन्त निरालम्ब होकर, नियत टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव रहता हुआ, साक्षात् विज्ञानघन आत्माका अनुभव करता है ।
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नियतटंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावः सन् साक्षाद्विज्ञानघनमात्मानमनुभवति ।
(स्वागता) पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः । तद्भवत्वथ च रागवियोगा- न्नूनमेति न परिग्रहभावम् ।।१४६।।
भावार्थ : — पुण्य, पाप, अशन, पान इत्यादि समस्त अन्यभावोंका ज्ञानीको परिग्रह नहीं है, क्योंकि समस्त परभावोंको हेय जाने तब उसकी प्राप्तिकी इच्छा नहीं होती ।★।।२१४।।
श्लोकार्थ : — [पूर्वबद्ध-निज-कर्म-विपाकाद् ] पूर्वबद्ध अपने कर्मके विपाकके कारण [ज्ञानिनः यदि उपभोगः भवति तत् भवतु ] ज्ञानीके यदि उपभोग हो तो हो, [अथ च ] परंतु [रागवियोगात् ] रागके वियोग ( – अभाव)के कारण [नूनम् ] वास्तवमें [परिग्रहभावम् न एति ] वह उपभोग परिग्रहभावको प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ : — पूर्वबद्ध कर्मका उदय आने पर जो उपभोगसामग्री प्राप्त होती है उसे यदि अज्ञानमय रागभावसे भोगा जाये तो वह उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त हो । परन्तु ज्ञानीके अज्ञानमय रागभाव नहीं होता । वह जानता है कि जो पहले बाँधा था वह उदयमें आ गया और छूट गया; अब मैं उसे भविष्यमें नहीं चाहता । इसप्रकार ज्ञानीके रागरूप इच्छा नहीं है, इसलिये उसका उपभोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।१४६।
भावको छोड़ दिया, और इसप्रकार समस्त अज्ञानको दूर कर दिया तथा ज्ञानस्वरूप आत्माका अनुभव किया ।
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कर्मोदयोपभोगस्तावत् अतीतः प्रत्युत्पन्नोऽनागतो वा स्यात् । तत्रातीतस्तावत् अतीतत्वादेव स न परिग्रहभावं बिभर्ति । अनागतस्तु आकांक्ष्यमाण एव परिग्रहभावं बिभृयात् । प्रत्युत्पन्नस्तु स किल रागबुद्धया प्रवर्तमान एव तथा स्यात् । न च प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनो रागबुद्धया प्रवर्तमानो दृष्टः, ज्ञानिनोऽज्ञानमयभावस्य रागबुद्धेरभावात् । वियोगबुद्धयैव केवलं प्रवर्तमानस्तु स किल न परिग्रहः स्यात् । ततः प्रत्युत्पन्नः कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् । अनागतस्तु स किल ज्ञानिनो नाकांक्षित एव, ज्ञानिनोऽज्ञानमय- भावस्याकांक्षाया अभावात् । ततोऽनागतोऽपि कर्मोदयोपभोगो ज्ञानिनः परिग्रहो न भवेत् ।
गाथार्थ : — [उत्पन्नोदयभोगः ] जो उत्पन्न (अर्थात् वर्तमान कालके) उदयका भोग है [सः ] वह, [तस्य ] ज्ञानीके [नित्यम् ] सदा [वियोगबुद्धया ] वियोगबुद्धिसे होता है [च ] और [अनागतस्य उदयस्य ] आगामी उदयकी [ज्ञानी ] ज्ञानी [कांक्षाम् ] वाँछा [न करोति ] नहीं करता ।
टीका : — कर्मके उदयका उपभोग तीन प्रकारका होता है — अतीत, वर्तमान और भविष्य कालका । इनमेंसे पहला, जो अतीत उपभोग है वह अतीतता- (व्यतीत हो चुका होने)के कारण ही परिग्रहभावको धारण नहीं करता । भविष्यका उपभोग यदि वाँछामें आता हो तो ही वह परिग्रहभावको धारण करता है; और जो वर्तमान उपभोग है वह यदि रागबुद्धिसे हो रहा हो तो ही परिग्रहभावको धारण करता है ।
वर्तमान कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीके रागबुद्धिसे प्रवर्तमान दिखाई नहीं देता, क्योंकि ज्ञानीके अज्ञानमयभाव जो रागबुद्धि उसका अभाव है; और केवल वियोगबुद्धि(हेयबुद्धि)से ही प्रवर्तमान वह वास्तवमें परिग्रह नहीं है । इसलिये वर्तमान कर्मोदय-उपभोग ज्ञानीके परिग्रह नहीं है ( – परिग्रहरूप नहीं है) ।
अनागत उपभोग तो वास्तवमें ज्ञानीके वाँछित ही नहीं है, (अर्थात् ज्ञानीको उसकी वाँछा ही नहीं होती) क्योंकि ज्ञानीके अज्ञानमय भाव – वाँछाका अभाव है । इसलिये अनागत कर्मोदय- उपभोग ज्ञानीके परिग्रह नहीं है ( – परिग्रहरूप नहीं है) ।
भावार्थ : — अतीत कर्मोदय-उपभोग तो व्यतीत ही हो चुका है । अनागत उपभोगकी वाँछा नहीं है; क्योंकि ज्ञानी जिस कर्मको अहितरूप जानता है उसके आगामी उदयके भोगकी वाँछा क्यों करेगा ? वर्तमान उपभोगके प्रति राग नहीं है, क्योंकि वह जिसे हेय जानता है उसके प्रति राग कैसे
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ज्ञानी हि तावद् ध्रुवत्वात् स्वभावभावस्य टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावो नित्यो भवति, यौ तु वेद्यवेदकभावौ तौ तूत्पन्नप्रध्वंसित्वाद्विभावभावानां क्षणिकौ भवतः । तत्र यो भावः कांक्षमाणं वेद्यभावं वेदयते स यावद्भवति तावत्कांक्षमाणो वेद्यो भावो विनश्यति; तस्मिन् विनष्टे वेदको भावः हो सकता है ? इसप्रकार ज्ञानीके जो त्रिकाल सम्बन्धी कर्मोदयका उपभोग है वह परिग्रह नहीं है । ज्ञानी वर्तमानमें जो उपभोगके साधन एकत्रित करता है वह तो जो पीड़ा नहीं सही जा सकती उसका उपचार करता है — जैसे रोगी रोगका उपचार करता है । यह अशक्तिका दोष है ।।२१५।।
अब प्रश्न होता है कि ज्ञानी अनागत कर्मोदय-उपभोगकी वाँछा क्यों नहीं करता ? उसका उत्तर यह है : —
गाथार्थ : — [यः वेदयते ] जो भाव वेदन करता है (अर्थात् वेदक भाव) और [वेद्यते ] जो भाव वेदन किया जाता है (अर्थात् वेद्यभाव) [उभयम् ] वे दोनों भाव [समये समये ] समय समय पर [विनश्यति ] नष्ट हो जाते हैं — [तद्ज्ञायकः तु ] ऐसा जाननेवाला [ज्ञानी ] ज्ञानी [उभयम् अपि ] उन दोनों भावोंकी [कदापि ] क भी भी [न कांक्षति ] वाँछा नहीं करता ।
टीका : — ज्ञानी तो, स्वभावभावका ध्रुवत्व होनेसे, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप नित्य है; और जो १वेद्य-वेदक (दो) भाव हैं वे, विभावभावोंका उत्पन्न-विनाशत्व होनेसे, क्षणिक है । वहाँ जो भाव कांक्षमाण (अर्थात् वाँछा करनेवाला) ऐसे वेद्यभावका वेदन करता है अर्थात् वेद्यभावका अनुभव करनेवाला है वह (वेदकभाव) जब तक उत्पन्न होता है तब तक कांक्षमाण (अर्थात् वाँछा करनेवाला) वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है; उसके विनष्ट हो जाने पर, वेदकभाव किसका वेदन करेगा ? यदि यह कहा जाये कि कांक्षमाण वेद्यभावके बाद उत्पन्न होनेवाले अन्य १ वेद्य = वेदनमें आने योग्य । वेदक = वेदनेवाला; अनुभव करनेवाला ।
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किं वेदयते ? यदि कांक्षमाणवेद्यभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्वं स विनश्यति; कस्तं वेदयते ? यदि वेदकभावपृष्ठभावी भावोऽन्यस्तं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्वं स विनश्यति; किं स वेदयते ? इति कांक्षमाणभाववेदनानवस्था । तां च विजानन् ज्ञानी न किंचिदेव कांक्षति ।
(स्वागता) वेद्यवेदकविभावचलत्वाद् वेद्यते न खलु कांक्षितमेव । तेन कांक्षति न किंचन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्ति मुपैति ।।१४७।।
वह वेदकभाव नष्ट हो जाता है; तब फि र उस दूसरे वेद्यभावका कौन वेदन करेगा ? यदि यह कहा
जाये कि वेदनभावके बाद उत्पन्न होनेवाला दूसरा वेदकभाव उसका वेदन करता है, तो (वहाँ ऐसा
है कि) इस दूसरे वेदकभावके उत्पन्न होनेसे पूर्व ही वह वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है; तब फि र
वह दूसरा वेदकभाव किसका वेदन करेगा ? इसप्रकार कांक्षमाण भावके वेदनकी अनवस्था है ।
भावार्थ : — वेदकभाव और वेद्यभावमें काल भेद है । जब वेदकभाव होता है तब वेद्यभाव नहीं होता और जब वेद्यभाव होता है तब वेदकभाव नहीं होता । जब वेदकभाव आता है तब वेद्यभाव विनष्ट हो चुकता है; तब फि र वेदकभाव किसका वेदन करेगा ? और जब वेद्यभाव आता है तब वेदकभाव विनष्ट हो चुकता है; तब फि र वेदकभावके बिना वेद्यका कौन वेदन करेगा ? ऐसी अव्यवस्थाको जानकर ज्ञानी स्वयं ज्ञाता ही रहता है, वाँछा नहीं करता ।
यहाँ प्रश्न होता है कि — आत्मा तो नित्य है, इसलिये वह दोनों भावोंका वेदन कर सकता है; तब फि र ज्ञानी वाँछा क्यों न करे ? समाधान — वेद्य-वेदकभाव विभावभाव है, स्वभावभाव नहीं, इसलिये वे विनश्वर हैं । अतः वाँछा करनेवाला वेद्यभाव जब तक आता है तब तक वेदकभाव (भोगनेवाला भाव) नष्ट हो जाता है, और दूसरा वेदकभाव आये तब तक वेद्यभाव नष्ट हो जाता है; इसप्रकार वाँछित भोग तो नहीं होता । इसलिये ज्ञानी निष्फल वाँछा क्यों करे ? जहाँ मनोवाँछितका वेदन नहीं होता वहाँ वाँछा करना अज्ञान है ।।२१६।।
श्लोकार्थ : — [वेद्य-वेदक-विभाव-चलत्वात् ] वेद्य-वेदक रूप विभावभावोंकी चलता (अस्थिरता) होनेसे [खलु ] वास्तवमें [कांक्षितम् एव वेद्यते न ] वाँछितका वेदन नहीं होता;
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इह खल्वध्यवसानोदयाः कतरेऽपि संसारविषयाः, कतेरऽपि शरीरविषयाः । तत्र यतरे संसारविषयाः ततरे बन्धनिमित्ताः, यतरे शरीरविषयास्ततरे तूपभोगनिमित्ताः । यतरे बन्ध- निमित्तास्ततरे रागद्वेषमोहाद्याः, यतरे तूपभोगनिमित्तास्ततरे सुखदुःखाद्याः । अथामीषु सर्वेष्वपि ज्ञानिनो नास्ति रागः, नानाद्रव्यस्वभावत्वेन टंकोत्कीर्णैक ज्ञायकभावस्वभावस्य तस्य तत्प्रतिषेधात् । [तेन ] इसलिये [विद्वान् किञ्चन कांक्षति न ] ज्ञानी कुछ भी वाँछा नहीं करता; [सर्वतः अपि अतिविरक्तिम् उपैति ] सबके प्रति अत्यन्त विरक्तताको (वैराग्यभावको) प्राप्त होता है ।
भावार्थ : — अनुभवगोचर वेद्य-वेदक विभावोंमें काल भेद है, उनका मिलाप नहीं होता, (क्योंकि वे कर्मके निमित्तसे होते हैं, इसलिये अस्थिर हैं); इसलिये ज्ञानी आगामी काल सम्बन्धी वाँछा क्यों करे ? ।१४७।
गाथार्थ : — [बन्धोपभोगनिमित्तेषु ] बंध और उपभोगके निमित्तभूत [संसारदेहविषयेषु ] संसारसम्बन्धी और देहसम्बन्धी [अध्यवसानोदयेषु ] अध्यवसानके उदयोंमें [ज्ञानिनः ] ज्ञानीके [रागः ] राग [न एव उत्पद्यते ] उत्पन्न ही नहीं होता ।
टीका : — इस लोकमें जो अध्यवसानके उदय हैं वे कितने ही तो संसारसम्बन्धी हैं और कितने ही शरीरसम्बन्धी हैं । उनमेंसे जितने संसारसम्बन्धी हैं उतने बन्धके निमित्त हैं और जितने शरीरसम्बन्धी हैं उतने उपभोगके निमित्त हैं । जितने बन्धके निमित्त हैं उतने तो रागद्वेषमोहादिक हैं और जितने उपभोगके निमित्त हैं उतने सुखदुःखादिक हैं । इन सभीमें ज्ञानीके राग नहीं है; क्योंकि वे सभी नाना द्रव्योंके स्वभाव हैं इसलिये, टंकोत्कीर्ण एक
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(स्वागता) ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्म रागरसरिक्त तयैति । रंगयुक्ति रकषायितवस्त्रे- ऽस्वीकृतैव हि बहिर्लुठतीह ।।१४८।।
सर्वरागरसवर्जनशीलः ।
कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न ।।१४९।।
भावार्थ : — जो अध्यवसानके उदय संसार सम्बन्धी हैं और बन्धनके निमित्त हैं वे तो राग, द्वेष, मोह इत्यादि हैं तथा जो अध्यवसानके उदय देह सम्बन्धी हैं और उपभोगके निमित्त हैं वे सुख, दुःख इत्यादि हैं । वे सभी (अध्यवसानके उदय), नाना द्रव्योंके (अर्थात् पुद्गलद्रव्य और जीवद्रव्य जो कि संयोगरूप हैं, उनके) स्वभाव हैं; ज्ञानीका तो एक ज्ञायकस्वभाव है । इसलिये ज्ञानीके उनका निषेध है; अतः ज्ञानीको उनके प्रति राग – प्रीति नहीं है । परद्रव्य, परभाव संसारमें भ्रमणके कारण हैं; यदि उनके प्रति प्रीति करे तो ज्ञानी कैसा ?।।२१७।।
श्लोकार्थ : — [इह अकषायितवस्त्रे ] जैसे लोध और फि टकरी इत्यादिसे जोे कसायला नहीं किया गया हो ऐसे वस्त्रमें [रंगयुक्तिः ] रंगका संयोग, [अस्वीकृता ] वस्त्रके द्वारा अंगीकार न किया जानेसे, [बहिः एव हि लुठति ] ऊ पर ही लौटता है (रह जाता है) — वस्त्रके भीतर प्रवेश नहीं करता, [ज्ञानिनः रागरसरिक्ततया कर्म परिग्रहभावं न हि एति ] इसीप्रकार ज्ञानी रागरूप रससे रहित है, इसलिये कर्मोदयका भोग उसे परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ : — जैसे लोध और फि टकरी इत्यादिके लगाये बिना वस्त्रमें रंग नहीं चढ़ता उसीप्रकार रागभावके बिना ज्ञानीके कर्मोदयका भोग परिग्रहत्वको प्राप्त नहीं होता ।१४८।
श्लोकार्थ : — [यतः ] क्योंकि [ज्ञानवान् ] ज्ञानी [स्वरसतः अपि ] निज रससे ही [सर्वरागरसवर्जनशीलः ] सर्व रागरसके त्यागरूप स्वभाववाला [स्यात् ] है, [ततः ] इसलिये
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यथा खलु कनकं कर्दममध्यगतमपि कर्दमेन न लिप्यते, तदलेपस्वभावत्वात्, तथा किल [एषः ] वह [कर्ममध्यपतितः अपि ] कर्मके बीच पड़ा हुआ भी [सकलकर्मभिः ] सर्व कर्मोंसे [न लिप्यते ] लिप्त नहीं होता ।१४९।
गाथार्थ : — [ज्ञानी ] ज्ञानी [सर्वद्रव्येषु ] जो कि सर्व द्रव्योंके प्रति [रागप्रहायकः ] रागको छोड़नेवाला है वह [कर्ममध्यगतः ] क र्मके मध्यमें रहा हुआ हो [तु ] तो भी [रजसा ] क र्मरूप रजसे [नो लिप्यते ] लिप्त नहीं होता — [यथा ] जैसे [कनकम् ] सोना [कर्दममध्ये ] कीचड़के बीच पड़ा हुआ हो तो भी लिप्त नहीं होता । [पुनः ] और [अज्ञानी ] अज्ञानी [सर्वद्रव्येषु ] जो कि सर्व द्रव्योंके प्रति [रक्तः ] रागी है वह [कर्ममध्यगतः ] क र्मके मध्य रहा हुआ [कर्मरजसा ] क र्मरजसे [लिप्यते तु ] लिप्त होता है — [यथा ] जैसे [लोहम् ] लोहा [कर्दममध्ये ] कीचड़के बीच रहा हुआ लिप्त हो जाता हैै (अर्थात् उसे जंग लग जाती है) ।
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ज्ञानी कर्ममध्यगतोऽपि कर्मणा न लिप्यते, सर्वपरद्रव्यकृतरागत्यागशीलत्वे सति तदलेप- स्वभावत्वात् । यथा लोहं कर्दममध्यगतं सत्कर्दमेन लिप्यते, तल्लेपस्वभावत्वात्, तथा किलाज्ञानी कर्ममध्यगतः सन् कर्मणा लिप्यते, सर्वपरद्रव्यकृतरागोपादानशीलत्वे सति तल्लेपस्वभावत्वात् ।
ज्ञानिन् भुंक्ष्व परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव ।।१५०।।
वास्तवमें ज्ञानी कर्मके मध्य रहा हुआ हो तथापि वह कर्मसे लिप्त नहीं होता, क्योंकि सर्व परद्रव्यके
प्रति किये जानेवाला राग उसका त्यागरूप स्वभावपना होनेसे ज्ञानी कर्मसे अलिप्त रहनेके
स्वभाववाला है । जैसे कीचड़के बीच पड़ा हुआ लोहा कीचड़से लिप्त हो जाता है, (अर्थात् उसमें
कर्मके मध्य रहा हुआ कर्मसे लिप्त हो जाता है, क्योंकि सर्व परद्रव्यके प्रति किये जानेवाला राग
उसका ग्रहणरूप स्वभावपना होनेसे अज्ञानी कर्मसे लिप्त होनेके स्वभाववाला है ।
भावार्थ : — जैसे कीचड़में पड़े हुए सोनेको जंग नहीं लगती और लोहेको लग जाती है, उसीप्रकार कर्मके मध्य रहा हुआ ज्ञानी कर्मसे नहीं बँधता तथा अज्ञानी बँध जाता है । यह ज्ञान -अज्ञानकी महिमा है ।।२१८-२१९।।
श्लोकार्थ : — [इह ] इस लोक में [यस्य याद्रक् यः हि स्वभावः ताद्रक् तस्य वशतः अस्ति ] जिस वस्तुका जैसा स्वभाव होता है उसका वैसा स्वभाव उस वस्तुके अपने वशसे ही (अपने आधीन ही) होता है । [एषः ] ऐसा वस्तुका जो स्वभाव वह, [परैः ] परवस्तुओंके द्वारा [कथंचन अपि हि ] किसी भी प्रकारसे [अन्याद्रशः ] अन्य जैसा [कर्तुं न शक्यते ] नहीं किया जा सकता । [हि ] इसलिये [सन्ततं ज्ञानं भवत् ] जो निरन्तर ज्ञानरूप परिणमित होता है वह [कदाचन अपि अज्ञानं न भवेत् ] क भी भी अज्ञान नहीं होता; [ज्ञानिन् ] इसलिये हे ज्ञानी ! [भुंक्ष्व ] तू (क र्मोदयजनित) उपभोगको भोग, [इह ] इस जगतमें [पर-अपराध-जनितः बन्धः तव नास्ति ] परके अपराधसे उत्पन्न होनेवाला बन्ध तुझे नहीं है (अर्थात् परके अपराधसे तुझे बन्ध नहीं होता) ।
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ज्ञानरूप परिणमित होता है उसे परद्रव्य अज्ञानरूप कभी भी परिणमित नहीं करा सकता । ऐसा होनेसे यहाँ ज्ञानीसे कहा है कि — तुझे परके अपराधसे बन्ध नहीं होता, इसलिये तू उपभोगको भोग । तू ऐसी शंका मत कर कि उपभोगके भोगनेसे मुझे बन्ध होगा । यदि ऐसी शंका करेगा तो ‘परद्रव्यसे आत्माका बुरा होता है’ ऐसी मान्यताका प्रसंग आ जायेगा । इसप्रकार यहाँ परद्रव्यसे अपना बुरा होना माननेकी जीवकी शंका मिटाई है; यह नहीं समझना चाहिये कि भोग भोगनेकी प्रेरणा करके स्वच्छंद कर दिया है । स्वेच्छाचारी होना तो अज्ञानभाव है यह आगे कहेंगे ।१५०।
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यथा खलु शंखस्य परद्रव्यमुपभुंजानस्यापि न परेण श्वेतभावः कृष्णः कर्तुं शक्येत, परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः, तथा किल ज्ञानिनः परद्रव्यमुपभुंजानस्यापि न परेण ज्ञानमज्ञानं कर्तुं शक्येत, परस्य परभावत्वनिमित्तत्वानुपपत्तेः । ततो ज्ञानिनः परापराधनिमित्तो नास्ति बन्धः ।
गाथार्थ : — [शंखस्य ] जैसे शंख [विविधानि ] अनेक प्रकारके [सचित्ताचित्तमिश्रितानि ] सचित्त, अचित्त और मिश्र [द्रव्याणि ] द्रव्योंको [भुञ्जानस्य अपि ] भोगता है — खाता है तथापि [श्वेतभावः ] उसका श्वेतभाव [कृष्णकः कर्तुं न अपि शक्यते ] (किसीके द्वारा) काला नहीं किया जा सकता, [तथा ] इसीप्रकार [ज्ञानिनः अपि ] ज्ञानी भी [विविधानि ] अनेक प्रकारके [सचित्ताचित्तमिश्रितानि ] सचित्त, अचित्त और मिश्र [द्रव्याणि ] द्रव्योंको [भुञ्जानस्य अपि ] भोगे तथापि उसके [ज्ञानं ] ज्ञानको [अज्ञानतां नेतुम् न शक्यम् ] (किसीके द्वारा) अज्ञानरूप नहीं किया जा सकता ।
[यदा ] जब [सः एव शंखः ] वही शंख (स्वयं) [तकं श्वेतस्वभावं ] उस श्वेत स्वभावको [प्रहाय ] छोड़कर [कृष्णभावं गच्छेत् ] कृ ष्णभावको प्राप्त होता है (कृ ष्णरूप परिणमित होता है) [तदा ] तब [शुक्लत्वं प्रजह्यात् ] शुक्लत्वको छोड़ देता है (अर्थात् काला हो जाता है), [तथा ] इसीप्रकार [खलु ] वास्तवमें [ज्ञानी अपि ] ज्ञानी भी (स्वयं) [यदा ] जब [तकं ज्ञानस्वभावं ] उस ज्ञानस्वभावको [प्रहाय ] छोड़कर [अज्ञानेन ] अज्ञानरूप [परिणतः ] परिणमित होता है [तदा ] तब [अज्ञानतां ] अज्ञानताको [गच्छेत् ] प्राप्त होता है ।
टीका : — जैसे यदि शंख परद्रव्यको भोगे – खाये तथापि उसका श्वेतपन परके द्वारा काला नहीं किया जा सकता, क्योंकि पर अर्थात् परद्रव्य किसी द्रव्यको परभावस्वरूप करनेका निमित्त (अर्थात् कारण) नहीं हो सकता, इसीप्रकार यदि ज्ञानी परद्रव्यको भोगे तो भी उसका ज्ञान परके
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यथा च यदा स एव शंखः परद्रव्यमुपभुंजानोऽनुपभुंजानो वा श्वेतभावं प्रहाय स्वयमेव कृष्णभावेन परिणमते तदास्य श्वेतभावः स्वयंकृतः कृष्णभावः स्यात्, तथा यदा स एव ज्ञानी परद्रव्यमुपभुंजानोऽनुपभुंजानो वा ज्ञानं प्रहाय स्वयमेवाज्ञानेन परिणमते तदास्य ज्ञानं स्वयंकृतमज्ञानं स्यात् । ततो ज्ञानिनो यदि (बंधः) स्वापराधनिमित्तो बन्धः ।
भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः ।
ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद् ध्रुवम् ।।१५१।।
करनेका निमित्त नहीं हो सकता । इसलिये ज्ञानीको परके अपराधके निमित्तसे बन्ध नहीं होता ।
और जब वही शंख, परद्रव्यको भोगता हुआ अथवा न भोगता हुआ, श्वेतभावको छोड़कर स्वयमेव कृष्णरूप परिणमित होता है तब उसका श्वेतभाव स्वयंकृत कृष्णभाव होता है (अर्थात् स्वयमेव किये गये कृष्णभावरूप होता है), इसीप्रकार जब वह ज्ञानी, परद्रव्यको भोगता हुआ अथवा न भोगता हुआ, ज्ञानको छोड़कर स्वयमेव अज्ञानरूप परिणमित होता है तब उसका ज्ञान स्वयंकृत अज्ञान होता है । इसलिये ज्ञानीके यदि (बन्ध) हो तो वह अपने ही अपराधके निमित्तसे (अर्थात् स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित हो तब) बन्ध होता है ।
भावार्थ : — जैसे श्वेत शंख परके भक्षणसे काला नहीं होता, किन्तु जब वह स्वयं ही कालिमारूप परिणमित होता है तब काला हो जाता है, इसीप्रकार ज्ञानी परके उपभोगसे अज्ञानी नहीं होता, किन्तु जब स्वयं ही अज्ञानरूप परिणमित होता है तब अज्ञानी होता है और तब बन्ध करता है ।।२२० से २२३।।
श्लोकार्थ : — [ज्ञानिन् ] हे ज्ञानी, [जातु किचिंत् कर्म कर्तुम् उचितं न ] तुझेे क भी कोई भी कर्म क रना उचित नहीं है [तथापि ] तथापि [यदि उच्यते ] यदि तू यह कहे कि ‘‘[परं मे जातु न, भुंक्षे ] परद्रव्य मेरा क भी भी नहीं है और मैं उसे भोगता हूँं’’, [भोः दुर्भुक्तः एव असि ] तो तुझसे क हा जाता है कि हे भाई, तू खराब प्रकारसे भोगनेवाला है; [हन्त ] जो तेरा नहीं है उसे तू भोगता है यह महा खेदकी बात है ! [यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात् ] यदि तू क हे कि ‘सिद्धान्तमें यह कहा है कि परद्रव्यके उपभोगसे बन्ध नहीं होता, इसलिये भोगता हूँ ’, [तत् किं
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कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः ।
कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः ।।१५२।।
ते कामचारः अस्ति ] तो क्या तुझे भोगनेकी इच्छा है ? [ज्ञानं सन् वस ] तू ज्ञानरूप होकर ( – शुद्ध स्वरूपमें) निवास क र, [अपरथा ] अन्यथा (अर्थात् यदि भोगनेकी इच्छा क रेगा — अज्ञानरूप परिणमित होगा तो) [ध्रुवम् स्वस्य अपराधात् बन्धम् एषि ] तू निश्चयतः अपने अपराधसे बन्धको प्राप्त होगा ।
भावार्थ : — ज्ञानीको कर्म तो करना ही उचित नहीं है । यदि परद्रव्य जानकर भी उसे भोगे तो यह योग्य नहीं है । परद्रव्यके भोक्ताको तो जगतमें चोर कहा जाता है, अन्यायी कहा जाता है । और जो उपभोगसे बन्ध नहीं कहा सो तो, ज्ञानी इच्छाके बिना ही परकी जबरदस्तीसे उदयमें आये हुएको भोगता है वहाँ उसे बन्ध नहीं कहा । यदि वह स्वयं इच्छासे भोगे तब तो स्वयं अपराधी हुआ और तब उसे बन्ध क्यों न हो ? ।१५१।
श्लोकार्थ : — [यत् किल कर्म एव कर्तारं स्वफलेन बलात् नो योजयेत् ] क र्म ही उसके क र्ताको अपने फलके साथ बलात् नहीं जोड़ता (कि तू मेरे फलको भोग), [फललिप्सुः एव हि कुर्वाणः कर्मणः यत् फलं प्राप्नोति ]़ ❃
फलको पाता है; [ज्ञानं सन् ] इसलिए ज्ञानरूप रहता हुआ और [तद्-अपास्त-रागरचनः ] जिसने क र्मके प्रति रागकी रचना दूर की है ऐसा [मुनिः ] मुनि, [तत्-फल-परित्याग-एक-शीलः ] क र्मफलके परित्यागरूप ही एक स्वभाववाला होनेसे, [कर्म कुर्वाणः अपि हि ] क र्म क रता हुआ भी [कर्मणा नो बध्यते ] क र्मसे नहीं बन्धता ।
भावार्थ : — कर्म तो कर्ताको बलात् अपने फलके साथ नहीं जोड़ता, किन्तु जो कर्मको करता हुआ उसके फलकी इच्छा करता है वही उसका फल पाता है । इसलिये जो ज्ञानरूप वर्तता है और बिना ही रागके कर्म करता है वह मुनि कर्मसे नहीं बँधता, क्योंकि उसे कर्मफलकी इच्छा नहीं है ।१५२। ❃कर्मका फल अर्थात् (१) रंजित परिणाम, अथवा (२) सुख ( – रंजित परिणाम) को उत्पन्न करनेवाला
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गाथार्थ : — [यथा ] जैसे [इह ] इस जगतमें [कः अपि पुरुषः ] कोई भी पुरुष [वृत्तिनिमित्तं तु ] आजीविकाके लिए [राजानम् ] राजाकी [सेवते ] सेवा करता है [तद् ] तो [सः