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यथा कश्चित् प्रकरणे व्याप्रियमाणोऽपि प्रकरणस्वामित्वाभावात् न प्राकरणिकः, अपरस्तु तत्राव्याप्रियमाणोऽपि तत्स्वामित्वात् प्राकरणिकः, तथा सम्यग्दृष्टिः पूर्वसंचितकर्मोदय- सेवन करता हुआ भी [ज्ञानवैभव-विरागता-बलात् ] ज्ञानवैभवके और विरागताके बलसे [विषयसेवनस्य स्वं फलं ] विषयसेवनके निजफलको ( – रंजित परिणामको) [न अश्नुते ] नहीं भोगता — प्राप्त नहीं होता, [तत् ] इसलिये [असौ ] यह (पुरुष) [सेवकः अपि असेवकः ] सेवक होने पर भी असेवक है (अर्थात् विषयोंका सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता) ।
भावार्थ : — ज्ञान और विरागताका ऐसा कोई अचिंत्य सामर्थ्य है कि ज्ञानी इन्द्रियोंके विषयोंका सेवन करता हुआ भी उनका सेवन करनेवाला नहीं कहा जा सकता, क्योंकि विषयसेवनका फल तो रंजित परिणाम है उसे ज्ञानी नहीं भोगता — प्राप्त नहीं करता ।।१३५।।
गाथार्थ : — [कश्चित् ] कोई तो [सेवमानः अपि ] विषयोंको सेवन करता हुआ भी [न सेवते ] सेवन नहीं करता, और [असेवमानः अपि ] कोई सेवन नहीं करता हुआ भी [सेवकः ] सेवन करनेवाला हैै — [कस्य अपि ] जैसे किसी पुरुषके [प्रकरणचेष्टा ] १प्रक रणकी चेष्टा (कोई कार्य सम्बन्धी क्रिया) वर्तती है [न च सः प्राकरणः इति भवति ] तथापि वह २प्राक रणिक नहीं होता ।
टीका : — जैसे कोई पुरुष किसी प्रकरणकी क्रियामें प्रवर्तमान होने पर भी प्रकरणका स्वामित्व न होनेसे प्राकरणिक नहीं है और दूसरा पुरुष प्रकरणकी क्रियामें प्रवृत्त न होता हुआ भी प्रकरणका स्वामित्व होनेसे प्राकरणिक है, इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि पूर्वसंचित कर्मोदयसे प्राप्त हुए १प्रकरण=कार्य ।२ +प्राकरणिक=कार्य करनेवाला ।
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सम्पन्नान् विषयान् सेवमानोऽपि रागादिभावानामभावेन विषयसेवनफलस्वामित्वाभावाद- सेवक एव, मिथ्यादृष्टिस्तु विषयानसेवमानोऽपि रागादिभावानां सद्भावेन विषयसेवनफलस्वामि- त्वात्सेवक एव ।
स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या ।
स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ।।१३६।।
विषयोंका सेवन करता हुआ भी रागादिभावोंके अभावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व न होनेसे असेवक ही है (सेवन करनेवाला नहीं है) और मिथ्यादृष्टि विषयोंका सेवन न करता हुआ भी रागादिभावोंके सद्भावके कारण विषयसेवनके फलका स्वामित्व होनेसे सेवन करनेवाला ही है ।
भावार्थ : — जैसे किसी सेठने अपनी दुकान पर किसीको नौकर रखा । और वह नौकर ही दुकानका सारा व्यापार — खरीदना, बेचना इत्यादि सारा कामकाज — करता है तथापि वह व्यापारी (सेठ) नहीं हैं, क्योंकि वह उस व्यापारका और उस व्यापारके हानि-लाभका स्वामी नहीं है; वह तो मात्र नौकर है, सेठके द्वारा कराये गये सब कामकाजको करता है । और जो सेठ है वह व्यापारसम्बन्धी कोई कामकाज नहीं करता, घर ही बैठा रहता है तथापि उस व्यापार तथा उसके हानि-लाभका स्वामी होनेसे वही व्यापारी (सेठ) है । यह दृष्टान्त सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि पर घटित कर लेना चाहिए । जैसे नौकर व्यापार करनेवाला नहीं है इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि विषय सेवन करनेवाला नहीं है, और जैसे सेठ व्यापार करनेवाला है उसीप्रकार मिथ्यादृष्टि विषय सेवन करनेवाला है ।।१९७।।
श्लोकार्थ : — [सम्यग्दृष्टेः नियतं ज्ञान-वैराग्य-शक्तिः भवति ] सम्यग्दृष्टिके नियमसे ज्ञान और वैराग्यकी शक्ति होती है; [यस्मात् ] क्योंकि [अयं ] वह (सम्यग्दृष्टि जीव) [स्व-अन्य-रूप-आप्ति-मुक्त्या ] स्वरूपका ग्रहण और परका त्याग करनेकी विधिके द्वारा [स्वं वस्तुत्वं कलयितुम् ] अपने वस्तुत्वका (यथार्थ स्वरूपका) अभ्यास करनेके लिये, [इदं स्वं च परं ] ‘यह स्व है (अर्थात् आत्मस्वरूप है) और यह पर है’ [व्यतिकरम् ] इस
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ये कर्मोदयविपाकप्रभवा विविधा भावा न ते मम स्वभावाः । एष टंकोत्कीर्णैक- ज्ञायकभावोऽहम् ।
सम्यग्दृष्टिर्विशेषेण तु स्वपरावेवं जानाति — भेदको [तत्त्वतः ] परमार्थसे [ज्ञात्वा ] जानकर [स्वस्मिन् आस्ते ] स्वमें स्थिर होता है और [परात् रागयोगात् ] परसे — रागके योगसे — [सर्वतः ] सर्वतः [विरमति ] विरमता है । (यह रीति ज्ञानवैराग्यकी शक्तिके बिना नहीं हो सकती ।) ।१३६।
अब प्रथम, यह कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि सामान्यतया स्व और परको इसप्रकार जानता है : —
गाथार्थ : — [कर्मणां ] कर्मोंके [उदयविपाकः ] उदयका विपाक (फल) [जिनवरैः ] जिनेन्द्रदेवोंने [विविधः ] अनेक प्रकारका [वर्णितः ] कहा है [ते ] वे [मम स्वभावाः ] मेरे स्वभाव [न तु ] नहीं है; [अहम् तु ] मैं तोे [एकः ] एक [ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव हूँ ।
टीका : — जो कर्मोदयके विपाकसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके भाव हैं वे मेरे स्वभाव नहीं हैं; मैं तो यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूँ ।
भावार्थ : — इसप्रकार सामान्यतया समस्त कर्मजन्य भावोंको सम्यग्दृष्टि पर जानता है और अपनेको एक ज्ञायकस्वभाव ही जानता है ।।१९८।।
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अस्ति किल रागो नाम पुद्गलकर्म, तदुदयविपाकप्रभवोऽयं रागरूपो भावः, न पुनर्मम स्वभावः । एष टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावोऽहम् ।
एवमेव च रागपदपरिवर्तनेन द्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकाय- श्रोत्रचक्षुर्घ्राणरसनस्पर्शनसूत्राणि षोडश व्याख्येयानि, अनया दिशा अन्यान्यप्यूह्यानि ।
गाथार्थ : — [रागः ] राग [पुद्गलकर्म ] पुद्गलकर्म है, [तस्य ] उसका [विपाकोदयः ] विपाकरूप उदय [एषः भवति ] यह है, [एषः ] यह [मम भावः ] मेरा भाव [न तु ] नहीं है; [अहम् ] मैंं तो [खलु ] निश्चयसे [एकः ] एक [ज्ञायकभावः ] ज्ञायकभाव हूँ ।
टीका : — वास्तवमें राग नामक पुद्गलकर्म है उसके विपाकसे उत्पन्न हुआ यह रागरूप भाव है, यह मेरा स्वभाव नहीं है; मैं तो यह (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव हूँ । (इसप्रकार सम्यग्दृष्टि विशेषतया स्वको और परको जानता है ।)
और इसीप्रकार ‘राग’ पदको बदलकर उसके स्थान पर द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन और स्पर्शन — ये शब्द रखकर सोलह सूत्र व्याख्यानरूप करना, और इसी उपदेशसे दूसरे भी विचारना ।।१९९।।
इसप्रकार सम्यग्दृष्टि अपनेको जानता और रागको छोड़ता हुआ नियमसे ज्ञानवैराग्यसम्पन्न होता है — यह इस गाथा द्वारा कहते हैं : —
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एवं सम्मद्दिट्ठी अप्पाणं मुणदि जाणगसहावं । उदयं कम्मविवागं च मुयदि तच्चं वियाणंतो ।।२००।।
एवं सम्यग्दृष्टिः सामान्येन विशेषेण च परस्वभावेभ्यो भावेभ्यः सर्वेभ्योऽपि विविच्य टंकोत्कीर्णैकज्ञायकभावस्वभावमात्मनस्तत्त्वं विजानाति । तथा तत्त्वं विजानंश्च स्वपरभावो- पादानापोहननिष्पाद्यं स्वस्य वस्तुत्वं प्रथयन् कर्मोदयविपाकप्रभवान् भावान् सर्वानपि मुञ्चति । ततोऽयं नियमात् ज्ञानवैराग्यसम्पन्नो भवति ।
गाथार्थ : — [एवं ] इसप्रकार [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [आत्मानं ] आत्माको (अपनेको) [ज्ञायकस्वभावम् ] ज्ञायकस्वभाव [जानाति ] जानता है [च ] और [तत्त्वं ] तत्त्वको अर्थात् यथार्थ स्वरूपको [विजानन् ] जानता हुआ [कर्मविपाकं ] कर्मके विपाकरूप [उदयं ] उदयको [मुञ्चति ] छोड़ता है ।
टीका : — इसप्रकार सम्यग्दृष्टि सामान्यतया और विशेषतया परभावस्वरूप सर्व भावोंसे विवेक (भेदज्ञान, भिन्नता) करके, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभाव जिसका स्वभाव है ऐसा जो आत्माका तत्त्व उसको (भलीभाँति) जानता है; और इसप्रकार तत्त्वको जानता हुआ, स्वभावके ग्रहण और परभावके त्यागसे निष्पन्न होने योग्य अपने वस्तुत्वको विस्तरित ( – प्रसिद्ध) करता हुआ, कर्मोदयके विपाकसे उत्पन्न हुए समस्त भावोंको छोड़ता है । इसलिये वह (सम्यग्दृष्टि) नियमसे ज्ञानवैराग्यसंपन्न होता है (यह सिद्ध हुआ) ।
भावार्थ : — जब अपनेको तो ज्ञायकभावरूप सुखमय जाने और कर्मोदयसे उत्पन्न हुए भावोंको आकुलतारूप दुःखमय जाने तब ज्ञानरूप रहना तथा परभावोंसे विरागता — यह दोनों अवश्य ही होते हैं । यह बात प्रगट अनुभवगोचर है । यही (ज्ञानवैराग्य ही) सम्यग्दृष्टिका चिह्न है ।।२००।।
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दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु ।
‘‘जो जीव परद्रव्यमें आसक्त — रागी हैं और सम्यग्दृष्टित्वका अभिमान करते हैं वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, वे वृथा अभिमान करते हैं ’’ इस अर्थका कलशरूप काव्य अब कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — ‘‘[अयम् अहं स्वयम् सम्यग्दृष्टिः, मे जातुः बन्धः न स्यात् ] ‘‘यह मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे कभी बन्ध नहीं होता (क्योंकि शास्त्रमें सम्यग्दृष्टिको बन्ध नहीं कहा है)’’ [इति ] ऐसा मानकर [उत्तान-उत्पुलक-वदनाः ] जिसका मुख गर्वसे ऊँ चा और पुलकित हो रहा है ऐसे [रागिणः ] रागी जीव ( – परद्रव्यके प्रति रागद्वेषमोहभाववाले जीव – ) [अपि ] भले ही [आचरन्तु ] महाव्रताादिका आचरण करें तथा [समितिपरतां आलम्बन्तां ] समितियोंकी उत्कृष्टताका आलम्बन करें [अद्य अपि ] तथापि [ते पापाः ] वे पापी (मिथ्यादृष्टि) ही हैं, [यतः ] क्योंकि वे [आत्म-अनात्म-अवगम-विरहात् ] आत्मा और अनात्माके ज्ञानसे रहित होनेसे [सम्यक्त्व-रिक्ताः सन्ति ] सम्यक्त्वसे रहित है ।
भावार्थ : — परद्रव्यके प्रति राग होने पर भी जो जीव यह मानता है कि ‘मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मुझे बन्ध नहीं होता’ उसे सम्यक्त्व कैसा ? वह व्रत-समितिका पालन भले ही करे तथापि स्व-परका ज्ञान न होनेसे वह पापी ही है । जो ‘मुझे बन्ध नहीं होता’ यह मानकर स्वच्छन्द प्रवृत्ति करता है वह भला सम्यग्दृष्टि कैसा ? क्योंकि जब तक यथाख्यात चारित्र न हो तब तक चारित्रमोहके रागसे बन्ध तो होता ही है और जब तक राग रहता है तब तक सम्यग्दृष्टि तो अपनी निंदा-गर्हा करता ही रहता है । ज्ञानके होनेमात्रसे बन्धसे नहीं छूटा जा सकता, ज्ञान होनेके बाद उसीमें लीनतारूप – शुद्धोपयोगरूप – चारित्रसे बन्ध कट जाते हैं । इसलिये राग होने पर भी ‘बन्ध नहीं होता’ यह मानकर स्वच्छन्दतया प्रवृत्ति करनेवाला जीव मिथ्यादृष्टि ही है ।
यहाँ कोई पूछता है कि — ‘‘व्रत-समिति शुभ कार्य हैं, तब फि र उनका पालन करते हुए भी जीवको पापी क्यों कहा गया है ?’’ उसका समाधान यह है — सिद्धान्तमें मिथ्यात्वको ही पाप कहा है; जब तक मिथ्यात्व रहता है तब तक शुभाशुभ सर्व क्रियाओंको अध्यात्ममें परमार्थतः पाप ही कहा जाता है । और व्यवहारनयकी प्रधानतामें, व्यवहारी जीवोंको अशुभसे छुड़ाकर शुभमें लगानेकी शुभ क्रियाको कथंचित् पुण्य भी कहा जाता है । ऐसा कहनेसे स्याद्वादमतमें कोई विरोध नहीं है ।
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आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः ।।१३७।।
है सो यह बात हमारी समझमें नहीं आई । अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिके चारित्रमोहके उदयसे रागादिभाव तो होते हैं, तब फि र उनके सम्यक्त्व कैसे है ?’’ उसका समाधान यह है : — यहाँ मिथ्यात्व सहित अनन्तानुबंधी राग प्रधानतासे कहा है । जिसे ऐसा राग होता है अर्थात् जिसे परद्रव्यमें तथा परद्रव्यसे होनेवाले भावोंमें आत्मबुद्धिपूर्वक प्रीति-अप्रीति होती है, उसे स्व-परका ज्ञानश्रद्धान नहीं है — भेदज्ञान नहीं है ऐसा समझना चाहिए । जो जीव मुनिपद लेकर व्रत-समितिका पालन करे तथापि जब तक पर जीवोंकी रक्षा तथा शरीर सन्बन्धी यत्नपूर्वक प्रवृत्ति करना इत्यादि परद्रव्यकी क्रियासे और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने शुभ भावोंसे अपनी मुक्ति मानता है और पर जीवोंका घात होना तथा अयत्नाचाररूपसे प्रवृत्त करना इत्यादि परद्रव्यकी क्रियासे और परद्रव्यके निमित्तसे होनेवाले अपने अशुभ भावोंसे ही अपना बन्ध होना मानता है तब तक यह जानना चाहिए कि उसे स्व-परका ज्ञान नहीं हुआ; क्योंकि बन्ध-मोक्ष अपने अशुद्ध तथा शुद्ध भावोंसे ही होता था, शुभाशुभ भाव तो बन्धके कारण थे और परद्रव्य तो निमित्तमात्र ही था, उसमें उसने विपर्ययरूप मान लिया । इसप्रकार जब तक जीव परद्रव्यसे ही भलाबुरा मानकर रागद्वेष करता है तब तक वह सम्यग्दृष्टि नहीं है ।
जब तक अपनेमें चारित्रमोहसम्बन्धी रागादिक रहता है तब तक सम्यग्दृष्टि जीव रागादिमें तथा रागादिकी प्रेरणासे जो परद्रव्यसम्बन्धी शुभाशुभ क्रियामें प्रवृत्ति करता है उन प्रवृत्तियोंके सम्बन्धमें यह मानता है कि — यह कर्मका जोर है; उससे निवृत्त होनेमें ही मेरा भला है । वह उन्हें रोगवत् जानता है । पीड़ा सहन नहीं होती, इसलिये रोगका इलाज करनेमें प्रवृत्त होता है तथापि उसके प्रति उसका राग नहीं कहा जा सकता; क्योंकि जिसे वह रोग मानता है उसके प्रति राग कैसा ? वह उसे मिटानेका ही उपाय करता है और उसका मिटना भी अपने ही ज्ञानपरिणामरूप परिणमनसे मानता है । इस भाँति सम्यग्दृष्टिके राग नहीं है । इसप्रकार यहाँ परमार्थ अध्यात्मदृष्टिसे व्याख्यान जानना चाहिए । यहाँ मिथ्यात्व सहित रागको ही राग कहा है, मिथ्यात्व रहित चारित्रमोहसम्बन्धी उदयके परिणामको राग नहीं कहा है, इसलिये सम्यग्दृष्टिके ज्ञानवैराग्यशक्ति अवश्य होती ही है । सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्व सहित राग नहीं होता और जिसके मिथ्यात्व सहित राग हो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है । ऐसे (मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके भावोंके) अन्तरको सम्यग्दृष्टि ही जानता है । पहले तो मिथ्यादृष्टिका अध्यात्मशास्त्रमें प्रवेश ही नहीं है और यदि वह प्रवेश करता है तो विपरीत समझता है — व्यवहारको सर्वथा छोड़कर भ्रष्ट होता है अथवा निश्चयको भलीभाँति जाने बिना व्यवहारसे ही मोक्ष मानता है, परमार्थ तत्त्वमें मूढ़ रहता है । यदि कोई विरल जीव यथार्थ स्याद्वादन्यायसे सत्यार्थको समझ ले तो उसे अवश्य
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यस्य रागादीनामज्ञानमयानां भावानां लेशस्यापि सद्भावोऽस्ति स श्रुतकेवलिकल्पोऽपि सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है — वह अवश्य सम्यग्दृष्टि हो जाता है ।१३७।
गाथार्थ : — [खलु ] वास्तवमें [यस्य ] जिस जीवके [रागादीनां तु परमाणुमात्रम् अपि ] परमाणुमात्र – लेशमात्र – भी रागादिक [विद्यते ] वर्तता है [सः ] वह जीव [सर्वागमधरः अपि ] भले ही सर्वागमका धारी (समस्त आगमोंको पढ़ा हुआ) हो तथापि [आत्मानं तु ] आत्माको [न अपि जानाति ] नहीं जानता; [च ] और [आत्मानम् ] आत्माको [अजानन् ] न जानता हुआ [सः ] वह [अनात्मानं अपि ] अनात्माको (परको) भी [अजानन् ] नहीं जानता; [जीवाजीवौ ] इसप्रकार जो जीव और अजीवको [अजानन् ] नहीं जानता वह [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [कथं भवति ] कैसे हो सकता है ?
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ज्ञानमयस्य भावस्याभावादात्मानं न जानाति । यस्त्वात्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न जानाति, स्वरूपपररूपसत्तासत्ताभ्यामेकस्य वस्तुनो निश्चीयमानत्वात् । ततो य आत्मानात्मानौ न जानाति स जीवाजीवौ न जानाति । यस्तु जीवाजीवौ न जानाति स सम्यग्दृष्टिरेव न भवति । ततो रागी ज्ञानाभावान्न भवति सम्यग्दृष्टिः । श्रुतकेवली जैसा हो तथापि वह ज्ञानमय भावके अभावके कारण आत्माको नहीं जानता और जो आत्माको नहीं जानता वह अनात्माको भी नहीं जानता, क्योंकि स्वरूपसे सत्ता और पररूपसे असत्ता — इन दोनोंके द्वारा एक वस्तुका निश्चय होता है; (जिसे अनात्माका – रागका – निश्चय हुआ हो उसे अनात्मा और आत्मा — दोनोंका निश्चय होना चाहिये ।) इसप्रकार जो आत्मा और अनात्माको नहीं जानता वह जीव और अजीवको नहीं जानता; तथा जो जीव और अजीवको नहीं जानता वह सम्यग्दृष्टि ही नहीं है, इसलिये रागी (जीव) ज्ञानके अभावके कारण सम्यग्दृष्टि नहीं होता ।
भावार्थ : — यहाँ ‘राग’ शब्दसे अज्ञानमय रागद्वेषमोह कहे गये हैं । और ‘अज्ञानमय’ कहनेसे मिथ्यात्व-अनन्तानुबंधीसे हुए रागादिक समझना चाहिये, मिथ्यात्वके बिना चारित्रमोहके उदयका राग नहीं लेना चाहिये; क्योंकि अविरतसम्यग्दृष्टि इत्यादिको चारित्रमोहके उदय सम्बन्धी जो राग है सो ज्ञानसहित है; सम्यग्दृष्टि उस रागको कर्मोदयसे उत्पन्न हुआ रोग जानता है और उसे मिटाना ही चाहता है; उसे उस रागके प्रति राग नहीं है । और सम्यग्दृष्टिके रागका लेशमात्र सद्भाव नहीं है ऐसा कहा है सो इसका कारण इसप्रकार है : — सम्यग्दृष्टिके अशुभ राग तो अत्यन्त गौण है और जो शुभ राग होता है से वह उसे किंचित्मात्र भी भला (अच्छा) नहीं समझता — उसके प्रति लेशमात्र राग नहीं करता; और निश्चयसे तो उसके रागका स्वामित्व ही नहीं है । इसलिये उसके लेशमात्र राग नहीं है ।
यदि कोई जीव रागको भला जानकर उसके प्रति लेशमात्र राग करे तो — वह भले ही सर्व शास्त्रोंको पढ़ चुका हो, मुनि हो, व्यवहारचारित्रका पालन करता हो तथापि — यह समझना चाहिये कि उसने अपने आत्माके परमार्थस्वरूपको नहीं जाना, कर्मोदयजनित रागको ही अच्छा मान रक्खा है, तथा उसीसे अपना मोक्ष माना है । इसप्रकार अपने और परके परमार्थ स्वरूपको न जाननेसे जीव-अजीवके परमार्थ स्वरूपको नहीं जानता । और जहाँ जीव तथा अजीव — इन दो पदार्थोंको ही नहीं जानता वहाँ सम्यग्दृष्टि कैसा ? तात्पर्य यह है कि रागी जीव सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता ।।२०१-२०२।।
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सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः ।
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ।।१३८।।
अनादिकालसे रागादिको अपना पद जानकर सोये हुये रागी प्राणियोंको उपदेश देते हैं : —
श्लोकार्थ : — (श्री गुरु संसारी भव्य जीवोंको सम्बोधन करते हैं कि – ) [अन्धाः ] हे अन्ध प्राणियों ! [आसंसारात् ] अनादि संसारसे लेकर [प्रतिपदम् ] पर्याय-पर्यायमें [अमी रागिणः ] यह रागी जीव [नित्यमत्ताः ] सदा मत्त वर्तते हुए [यस्मिन् सुप्ताः ] जिस पदमें सो रहे हैं [तत् ] वह पद अर्थात् स्थान [अपदम् अपदं ] अपद है — अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है,) [विबुध्यध्वम् ] ऐसा तुम समझो । (अपद शब्दको दो बार कहनेसे अति करुणाभाव सूचित होता है ।) [इतः एत एत ] इस ओर आओ — इस ओर आओ, (यहाँ निवास करो,) [पदम् इदम् इदं ] तुम्हारा पद यह है — यह है, [यत्र ] जहाँ [शुद्धः शुद्धः चैतन्यधातुः ] शुद्ध-शुद्ध चैतन्यधातु [स्व-रस-भरतः ] निज रसकी अतिशयताके कारण [स्थायिभावत्वम् एति ] स्थायीभावत्वको प्राप्त है अर्थात् स्थिर है — अविनाशी है । (यहाँ ‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है जो कि द्रव्य और भाव दोनोंकी शुद्धताको सूचित करता है । समस्त अन्यद्रव्योंसे भिन्न होनेके कारण आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है और परके निमित्तसे होनेवाले अपने भावोंसे रहित होनेसे भावसे शुद्ध है ।)
भावार्थ : — जैसे कोई महान् पुरुष मद्य पी करके मलिन स्थान पर सो रहा हो उसे कोई आकर जगाये — सम्बोधित करे कि ‘‘यह तेरे सोनेका स्थान नहीं है; तेरा स्थान तो शुद्ध सुवर्णमय धातुसे निर्मित है, अन्य कुधातुओंके मिश्रणसे रहित शुद्ध है और अति सुदृढ़ है; इसलिये मैं तुझे जो बतलाता हूँ वहाँ आ और वहाँ शयनादि करके आनन्दित हो’’; इसीप्रकार ये प्राणी अनादि संसारसे लेकर रागादिको भला जानकर, उन्हींको अपना स्वभाव मानकर, उसीमें निश्चिन्त होकर सो रहे हैं — स्थित हैं, उन्हें श्री गुरु करुणापूर्वक सम्बोधित करते हैं — जगाते हैं — सावधान करते हैं कि ‘‘हे अन्ध प्राणियों ! तुम जिस पदमें सो रहे हो वह तुम्हारा पद नहीं है; तुम्हारा पद तो शुद्ध चैतन्यधातुमय है, बाह्यमें अन्य द्रव्योंकी मिलावटसे रहित तथा अन्तरंगमें विकार रहित शुद्ध और स्थाई है; उस पदको प्राप्त हो — शुद्ध चैतन्यरूप अपने भावका आश्रय करो’’ ।१३८।
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इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभावेनोपलभ्यमानाः, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षणिकाः, व्यभिचारिणो भावाः, ते सर्वेऽपि स्वयमस्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुमशक्यत्वात् अपदभूताः । यस्तु तत्स्वभावेनोपलभ्यमानः, नियतत्वावस्थः, एकः, नित्यः, अव्यभिचारी भावः, स एक एव स्वयं स्थायित्वेन स्थातुः स्थानं भवितुं शक्यत्वात् पदभूतः ।
गाथार्थ : — [आत्मनि ] आत्मामें [अपदानि ] अपदभूत [द्रव्यभावान् ] द्रव्यभावोंको [मुक्त्वा ] छोड़कर [नियतम् ] निश्चित, [स्थिरम् ] स्थिर, [एकम् ] एक [इमं ] इस (प्रत्यक्ष अनुभवगोचर) [भावम् ] भावको — [स्वभावेन उपलभ्यमानं ] जो कि (आत्माके) स्वभावरूपसे अनुभव किया जाता है उसे — [तथा ] (हे भव्य !) जैसा है वैसा [गृहाण ] ग्रहण कर । (वह तेरा पद है ।)
टीका : — वास्तवमें इस भगवान आत्मामें बहुतसे द्रव्य-भावोंके बीच ( – द्रव्यभावरूप बहुतसे भावोंके बीच), जो अतत्स्वभावसे अनुभवमें आते हुए (आत्माके स्वभावरूप नहीं, किन्तु परस्वभावरूप अनुभवमें आते हुए), अनियत अवस्थावाले, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं, वे सभी स्वयं अस्थाई होनेके कारण स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवालेका स्थान नहीं हो सकने योग्य होनेसे अपदभूत हैं; और जो तत्स्वभावसे (आत्मस्वभावरूपसे) अनुभवमें आता हुआ, नियत अवस्थावाला, एक, नित्य, अव्यभिचारी भाव (चैतन्यमात्र ज्ञानभाव) है, वह एक ही स्वयं स्थाई होनेसे स्थाताका स्थान अर्थात् रहनेवालेका स्थान हो सकने योग्य होनेसे पदभूत है । इसलिये समस्त अस्थाई भावोंको छोड़कर, जो स्थाईभावरूप है ऐसा परमार्थरूपसे स्वादमें आनेवाला यह ज्ञान एक ही आस्वादने योग्य है ।
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ततः सर्वानेवास्थायिभावान् मुक्त्वा स्थायिभावभूतं परमार्थरसतया स्वदमानं ज्ञानमेकमेवेदं स्वाद्यम् ।
स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ।
सामान्यं कलयन् किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम् ।।१४०।।
भावार्थ : — पहले वर्णादिक गुणस्थानपर्यन्त जो भाव कहे थे वे सभी, आत्मामें अनियत, अनेक, क्षणिक, व्यभिचारी भाव हैं । आत्मा स्थाई है ( – सदा विद्यमान है) और वे सब भाव अस्थाई हैं, इसलिये वे आत्माका स्थान नहीं हो सकते अर्थात् वे आत्माका पद नहीं है । जो यह स्वसंवेदनरूप ज्ञान है वह नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है । आत्मा स्थाई है और यह ज्ञान भी स्थाई भाव है, इसलिये वह आत्माका पद है । वह एक ही ज्ञानियोंके द्वारा आस्वाद लेने योग्य है ।।२०३।।
श्लोकार्थ : — [तत् एकम् एव हि पदम् स्वाद्यं ] वह एक ही पद आस्वादनके योग्य है [विपदाम् अपदं ] जो कि विपत्तियोंका अपद है (अर्थात् जिसके आपदायें स्थान नहीं पा सकतीं ) और [यत्पुरः ] जिसके आगे [अन्यानि पदानि ] अन्य (सर्व) पद [अपदानि एव भासन्ते ] अपद ही भासित होते हैं ।
भावार्थ : — एक ज्ञान ही आत्माका पद है । उसमें कोई भी आपदा प्रवेश नहीं कर सकती और उसके आगे सब पद अपदस्वरूप भासित होते हैं (क्योंकि वे आकुलतामय हैं — आपत्तिरूप हैं) ।१३९।
श्लोकार्थ : — [एक-ज्ञायकभाव-निर्भर-महास्वादं समासादयन् ] एक ज्ञायकभावसे भरे हुए महास्वादको लेता हुआ, (इसप्रकार ज्ञानमें ही एकाग्र होने पर दूसरा स्वाद नहीं आता, इसलिये) [द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः ] द्वन्दमय स्वादके लेनेमें असमर्थ (अर्थात् वर्णादिक ,
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विवशः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन् ] आत्मानुभवके – आत्मस्वादके — प्रभावसे आधीन होनेसे निज
भ्रश्यत् ] ज्ञानके विशेषोंके उदयको गौण क रता हुआ, [सामान्यं कलयन् किल ] सामान्यमात्र
ज्ञानका अभ्यास करता हुआ, [सकलं ज्ञानं ] सकल ज्ञानको [एकताम् नयति ]े एकत्वमें लाता
है — एकरूपमें प्राप्त करता है ।
भावार्थ : — इस एक स्वरूपज्ञानके रसीले स्वादके आगे अन्य रस फीके हैं । और स्वरूपज्ञानका अनुभव करने पर सर्व भेदभाव मिट जाते हैं । ज्ञानके विशेष ज्ञेयके निमित्तसे होते हैं । जब ज्ञान सामान्यका स्वाद लिया जाता है तब ज्ञानके समस्त भेद भी गौण हो जाते हैं, एक ज्ञान ही ज्ञेयरूप होता है ।
यहाँ प्रश्न होता है कि छद्मस्थको पूर्णरूप केवलज्ञानका स्वाद कैसे आवे ? इस प्रश्नका उत्तर पहले शुद्धनयका कथन करते हुए दिया जा चुका है कि शुद्धनय आत्माका शुद्ध पूर्ण स्वरूप बतलाता है, इसलिये शुद्धनयके द्वारा पूर्णरूप केवलज्ञानका परोक्ष स्वाद आता है ।१४०।
अब, ‘कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे ज्ञानमें भेद होने पर भी उसके (ज्ञानके) स्वरूपका विचार किया जाये तो ज्ञान एक ही है और वह ज्ञान ही मोक्षका उपाय है’ इस अर्थकी गाथा कहते हैं : —
गाथार्थ : — [आभिनिबोधिकश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलं च ] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान — [तत् ] तो [एकम् एव ] एक ही [पदम् भवति ]
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आत्मा किल परमार्थः, तत्तु ज्ञानम्; आत्मा च एक एव पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव पदं; यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थः साक्षान्मोक्षोपायः । न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिन्दन्ति, किन्तु तेऽपीदमेवैकं पदमभिनन्दन्ति । तथा हि — यथात्र सवितुर्घनपटलावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकटयमासादयतः प्रकाशनातिशयभेदा न तस्य प्रकाशस्वभावं भिन्दन्ति, तथा आत्मनः कर्मपटलोदयावगुण्ठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकटयमासादयतो ज्ञानातिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिन्द्युः, किन्तु प्रत्युत तमभिनन्देयुः । ततो निरस्तसमस्तभेदमात्मस्वभावभूतं ज्ञानमेवैकमालम्ब्यम् । तदालम्बनादेव भवति पदप्राप्तिः, नश्यति भ्रान्तिः, भवत्यात्मलाभः, सिध्यत्यनात्मपरिहारः, न कर्म मूर्छति, न रागद्वेषमोहा उत्प्लवन्ते, न पुनः कर्म आस्रवति, न पुनः कर्म बध्यते, प्राग्बद्धं कर्म उपभुक्तं निर्जीर्यते, पद है (क्योंकि ज्ञानके समस्त भेद ज्ञान ही हैै); [सः एषः परमार्थः ] वह यह परमार्थ है ( – शुद्धनयका विषयभूत ज्ञानसामान्य ही यह परमार्थ है – ) [यं लब्ध्वा ] जिसे प्राप्त करके [निर्वृतिं याति ] आत्मा निर्वाणको प्राप्त होता है ।
टीका : — आत्मा वास्तवमें परमार्थ (परम पदार्थ) है और वह (आत्मा) ज्ञान है; और आत्मा एक ही पदार्थ है; इसलिये ज्ञान भी एक ही पद है । यह जो ज्ञान नामक एक पद है सो यह परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्ष-उपाय है । यहाँ, मतिज्ञानादि (ज्ञानके) भेद इस एक पदको नहीं भेदते, किन्तु वे भी इसी एक पदका अभिनन्दन करते हैं ( – समर्थन करते हैं ) । इसी बातको दृष्टान्तपूर्वक समझाते हैं : — जैसे इस जगतमें बादलोंके पटलसे ढका हुआ सूर्य जो कि बादलोंके विघटन (बिखरने)के अनुसार प्रगटताको प्राप्त होता है, उसके (सूर्यके) प्रकाशनकी (प्रकाश करनेकी) हीनाधिकतारूप भेद उसके (सामान्य) प्रकाशस्वभावको नहीं भेदते, इसीप्रकार कर्मपटलके उदयसे ढका हुआ आत्मा जो कि कर्मके विघटन-(क्षयोपशम)के अनुसार प्रगटताको प्राप्त होता है, उसके ज्ञानकी हीनाधिकतारूप भेद उसके (सामान्य) ज्ञानस्वभावको नहीं भेदते, प्रत्युत (उलटे) उसका अभिनन्दन करते हैं । इसलिये जिसमें समस्त भेद दूर हुए हैं ऐसे आत्मस्वभावभूत एक ज्ञानका ही अवलम्बन करना चाहिए । उसके आलम्बनसे ही (निज) पदकी प्राप्ति होती है, भ्रान्तिका नाश होता है, आत्माका लाभ होता है, अनात्माका परिहार होता सिद्ध है, (ऐसा होनेसे) कर्म बलवान नहीं हो सकता, रागद्वेषमोह उत्पन्न नहीं होते, (रागद्वेषमोहके बिना) पुनः कर्मास्रव नहीं होता, (आस्रवके बिना) पुनः कर्म-बन्ध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्म भुक्त होकर निर्जराको प्राप्त हो जाता है, समस्त कर्मका अभाव होनेसे साक्षात् मोक्ष होता है । (ज्ञानके आलम्बनका ऐसा
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कृत्स्नकर्माभावात् साक्षान्मोक्षो भवति ।
निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव ।
वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ।।१४१।।
किंच — माहात्म्य है ।)
भावार्थ : — कर्मके क्षयोपशमके अनुसार ज्ञानमें जो भेद हुए हैं वे कहीं ज्ञानसामान्यको अज्ञानरूप नहीं करते, प्रत्युत ज्ञानको प्रगट करते हैं; इसलिये भेदोंको गौण करके, एक ज्ञानसामान्यका आलम्बन लेकर आत्माको ध्यावना; इसीसे सर्वसिद्धि होती है ।।२०४।।
श्लोकार्थ : — [निष्पीत-अखिल-भाव-मण्डल-रस-प्राग्भार-मत्ताः इव ] समस्त पदार्थोंके समूहरूप रसको पी लेनेकी अतिशयतासे मानों मत्त हो गई हो ऐसी [यस्य इमाः अच्छ- अच्छाः संवेदनव्यक्तयः ] जिसकी यह निर्मलसे भी निर्मल संवेदनव्यक्ति ( – ज्ञानपर्याय, अनुभवमें आनेवाले ज्ञानके भेद) [यद् स्वयम् उच्छलन्ति ] अपने आप उछलती हैं, [सः एषः भगवान् अद्भुतनिधिः चैतन्यरत्नाकरः ] वह यह भगवान अद्भुत निधिवाला चैतन्यरत्नाकर, [अभिन्नरसः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगोंके साथ जिसका रस अभिन्न है ऐसा, [एकः अपि अनेकीभवन् ] एक होने पर भी अनेक होता हुआ, [उत्कलिकाभिः ] ज्ञानपर्यायरूप तरंगोंके द्वारा [वल्गति ] दोलायमान होता है — उछलता है ।
भावार्थ : — जैसे अनेक रत्नोंवाला समुद्र एक जलसे ही भरा हुआ है और उसमें छोटी बड़ी अनेक तरंगें उठती रहती हैं जो कि एक जलरूप ही हैं, इसी प्रकार अनेक गुणोंका भण्डार यह ज्ञानसमुद्र आत्मा एक ज्ञानजलसे ही भरा हुआ है और कर्मके निमित्तसे ज्ञानके अनेक भेद (व्यक्तियें) अपने आप प्रगट होते हैं उन्हें एक ज्ञानरूप ही जानना चाहिये, खण्डखण्डरूपसे अनुभव नहीं करना चाहिये ।१४१।
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क्लिश्यन्तां च परे महाव्रततपोभारेण भग्नाश्चिरम् ।
ज्ञानं ज्ञानगुणं विना कथमपि प्राप्तुं क्षमन्ते न हि ।।१४२।।
श्लोकार्थ : — [दुष्करतरैः ] कोई जीव तो अति दुष्क र और [मोक्ष-उन्मुखैः ] मोक्षसे पराङ्मुख [कर्मभिः ] कर्मोंके द्वारा [स्वयमेव ] स्वयमेव (जिनाज्ञाके बिना) [क्लिश्यन्तां ] क्लेेश पाते हैं तो पाओ [च ] और [परे ] अन्य कोई जीव [महाव्रत-तपः-भारेण ] (मोक्षके सन्मुख अर्थात् क थंचित् जिनाज्ञामेंं कथित) महाव्रत और तपके भारसे [चिरम् ] बहुत समय तक [भग्नाः ] भग्न होते हुए [क्लिश्यन्तां ] क्लेश प्राप्त करें तो करोे; (किन्तु) [साक्षात् मोक्षः ] जो साक्षात् मोक्षस्वरूप है, [निरामयपदं ] निरामय (रोगादि समस्त क्लेशोंसे रहित) पद है और [स्वयं संवेद्यमानं ] स्वयं संवेद्यमान है ऐसे [इदं ज्ञानं ] इस ज्ञानको [ज्ञानगुणं विना ] ज्ञानगुणके बिना [कथम् अपि ] किसी भी प्रकारसे [प्राप्तुं न हि क्षमन्ते ] वे प्राप्त नहीं कर सकते
भावार्थ : — ज्ञान है वह साक्षात् मोक्ष है; वह ज्ञानसे ही प्राप्त होता है, अन्य किसी क्रियाकांडसे उसकी प्राप्ति नहीं होती ।१४२।
गाथार्थ : — [ज्ञानगुणेन विहीनाः ] ज्ञानगुणसे रहित [बहवः अपि ] बहुतसे लोग (अनेक प्रकारके कर्म करने पर भी) [एतत् पदं तु ] इस ज्ञानस्वरूप पदको [न लभन्ते ] प्राप्त नहीं करते; [तद् ] इसलिये हे भव्य! [यदि ] यदि तू [कर्मपरिमोक्षम् ] कर्मसे सर्वथा मुक्ति [इच्छसि ]
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यतो हि सकलेनापि कर्मणा कर्मणि ज्ञानस्याप्रकाशनात् ज्ञानस्यानुपलम्भः, केवलेन ज्ञानेनैव ज्ञान एव ज्ञानस्य प्रकाशनात् ज्ञानस्योपलम्भः, ततो बहवोऽपि बहुनापि कर्मणा ज्ञानशून्या नेदमुपलभन्ते, इदमनुपलभमानाश्च कर्मभिर्न मुच्यन्ते । ततः कर्ममोक्षार्थिना केवलज्ञानावष्टम्भेन नियतमेवेदमेकं पदमुपलम्भनीयम् ।
सहजबोधकलासुलभं किल ।
कलयितुं यततां सततं जगत् ।।१४३।।
चाहता हो तो [नियतम् एतत् ] नियत ऐसे इसको (ज्ञानको) [गृहाण ] ग्रहण कर ।
टीका : — कर्ममें (कर्मकाण्डमें) ज्ञानका प्रकाशित होना नहीं होता, इसलिये समस्त कर्मसे ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती; ज्ञानमें ही ज्ञानका प्रकाशन होता है, इसलिये केवल (एक) ज्ञानसे ही ज्ञानकी प्राप्ति होती है । इसलिये ज्ञानशून्य बहुतसे जीव, बहुतसे (अनेक प्रकारके) कर्म करने पर भी इस ज्ञानपदको प्राप्त नहीं कर पाते और इस पदको प्राप्त न करते हुए वे कर्मोंसे मुक्त नहीं होते; इसलिये कर्मसे मुक्त होनेके इच्छुकको मात्र (एक) ज्ञानके आलम्बनसे, नियत ऐसा यह एक पद प्राप्त करना चाहिये ।
भावार्थ : — ज्ञानसे ही मोक्ष होता है, कर्मसे नहीं; इसलिये मोक्षार्थीको ज्ञानका ही ध्यान करना ऐसा उपदेश है ।।२०५।।
श्लोकार्थ : — [इदं पदम् ] यह (ज्ञानस्वरूप) पद [ननु कर्मदुरासदं ] क र्मसे वास्तवमें १दुरासद है और [सहज-बोध-कला-सुलभं किल ] सहज ज्ञानकी कलाके द्वारा वास्तवमें सुलभ है; [ततः ] इसलिये [निज-बोध-कला-बलात् ] निजज्ञानकी कलाके बलसे [इदं कलयितुं ] इस पदका २अभ्यास करनेके लिये [जगत् सततं यततां ] जगत सतत प्रयत्न करो ।
भावार्थ : — समस्त कर्मको छुड़ाकर ज्ञानकलाके बल द्वारा ही ज्ञानका अभ्यास करनेका १दुरासद=दुष्प्राप्य; न जीता जा सके ऐसा । २यहाँ ‘अभ्यास करनेके लिये’ ऐसे अर्थके बदलेमें ‘अनुभव करनेके लिये’, ‘प्राप्त करनेके लिये’ ऐसा अर्थ भी होता है ।
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एतावानेव सत्य आत्मा यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्र एव नित्यमेव रतिमुपैहि । एतावत्येव सत्याशीः यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव सन्तोषमुपैहि । एतावदेव सत्यमनुभवनीयं यावदेतज्ज्ञानमिति निश्चित्य ज्ञानमात्रेणैव नित्यमेव तृप्तिमुपैहि । अथैवं तव नित्यमेवात्मरतस्य, आत्मसन्तुष्टस्य, आत्मतृप्तस्य च वाचामगोचरं सौख्यं भविष्यति । तत्तु तत्क्षण आचार्यदेवने उपदेश दिया है । ज्ञानकी ‘कला’ कहनेसे यह सूचित होता है कि — जब तक पूर्ण कला (केवलज्ञान) प्रगट न हो तब तक ज्ञान हीनकलास्वरूप — मतिज्ञानादिरूप है; ज्ञानकी उस कलाके आलम्बनसे ज्ञानका अभ्यास करनेसे केवलज्ञान अर्थात् पूर्ण कला प्रगट होती है ।१४३।
गाथार्थ : — (हे भव्य प्राणी !) तू [एतस्मिन् ] इसमेंं ( – ज्ञानमें) [नित्यं ] नित्य [रतः ] रत अर्थात् प्रीतिवाला हो, [एतस्मिन् ] इसमेंं [नित्यं ] नित्य [सन्तुष्टः भव ] संतुष्ट हो और [एतेन ] इससे [तृप्तः भव ] तृप्त हो; (ऐसा करनेसे) [तव ] तुझे [उत्तमं सौख्यम् ] उत्तम सुख [भविष्यति ] होगा ।
टीका : — (हे भव्य !) इतना ही सत्य ( – परमार्थस्वरूप) आत्मा है जितना यह ज्ञान है — ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रमें ही सदा ही रति ( – प्रीति, रुचि) प्राप्त कर; इतना ही सत्य कल्याण है जितना यह ज्ञान है — ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही सन्तोषको प्राप्त कर; इतना ही सत्य अनुभव करने योग्य है जितना यह ज्ञान है — ऐसा निश्चय करके ज्ञानमात्रसे ही सदा ही तृप्ति प्राप्त कर । इसप्रकार सदा ही आत्मामें रत, आत्मासे संतुष्ट और आत्मासे तृप्त ऐसे तुझको वचनसे अगोचर सुख होगा; और उस सुखको उसी क्षण तू ही
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एव त्वमेव स्वयमेव द्रक्ष्यसि, “मा अन्यान् प्राक्षीः ।
श्चिन्मात्रचिन्तामणिरेष यस्मात् ।
ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ।।१४४।।
कुतो ज्ञानी परं न परिगृह्णातीति चेत् — स्वयमेव देखेगा, १दूसरोंसे मत पूछ । (वह सुख अपनेको ही अनुभवगोचर है, दूसरोंसे क्यों पूछना पड़े ?)
भावार्थ : — ज्ञानमात्र आत्मामें लीन होना, उसीसे सन्तुष्ट होना और उसीसे तृप्त होना परम ध्यान है । उससे वर्तमान आनन्दका अनुभव होता है और थोड़े ही समयमें ज्ञानानन्दस्वरूप केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है । ऐसा करनेवाला पुरुष ही उस सुखको जानता है, दूसरेका इसमें प्रवेश नहीं है ।।२०६।।
श्लोकार्थ : — [यस्मात् ] क्योंकि [एषः ] यह (ज्ञानी) [स्वयम् एव ] स्वयं ही [अचिन्त्यशक्तिः देवः ] अचिंत्य शक्तिवाला देव है और [चिन्मात्र-चिन्तामणिः ] चिन्मात्र चिंतामणि है, इसलिये [सर्व-अर्थ-सिद्ध-आत्मतया ] जिसके सर्व अर्थ (प्रयोजन) सिद्ध हैं ऐसे स्वरूप होनेसे [ज्ञानी ] ज्ञानी [अन्यस्य परिग्रहेण ] दूसरेके परिग्रहसे [किम् विधत्ते ] क्या करेगा ? (कुछ भी करनेका नहीं है ।)
भावार्थ : — यह ज्ञानमूर्ति आत्मा स्वयं ही अनन्त शक्तिका धारक देव है और स्वयं ही चैतन्यरूप चिंतामणि होनेसे वांछित कार्यकी सिद्धि करनेवाला है; इसलिये ज्ञानीके सर्व प्रयोजन सिद्ध होनेसे उसे अन्य परिग्रहका सेवन करनेसे क्या साध्य है ? अर्थात् कुछ भी साध्य नहीं है । ऐसा निश्चयनयका उपदेश है ।१४४।
अब प्रश्न करता है कि ज्ञानी परको क्यों ग्रहण नहीं करता ? इसका उत्तर कहते हैं : — १मा अन्यान् प्राक्षीः (दूसरोंको मत पूछ)का पाठान्तर — माऽतिप्राक्षीः (अति प्रश्न न कर)
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को णाम भणिज्ज बुहो परदव्वं मम इमं हवदि दव्वं । अप्पाणमप्पणो परिगहं तु णियदं वियाणंतो ।।२०७।।
यतो हि ज्ञानी, यो हि यस्य स्वो भावः स तस्य स्वः स तस्य स्वामी इति खरतरतत्त्वद्रष्टयवष्टम्भात्, आत्मानमात्मनः परिग्रहं तु नियमेन विजानाति, ततो न ममेदं स्वं, नाहमस्य स्वामी इति परद्रव्यं न परिगृह्णाति ।
गाथार्थ : — [आत्मानम् तु ] अपने आत्माको ही [नियतं ] नियमसे [आत्मनः परिग्रहं ] अपना परिग्रह [विजानन् ] जानता हुआ [कः नाम बुधः ] कौनसा ज्ञानी [भणेत् ] यह कहेगा कि [इदं परद्रव्यं ] यह परद्रव्य [मम द्रव्यम् ] मेरा द्रव्य [भवति ] है ?
टीका : — जो जिसका स्वभाव है वह उसका ‘१स्व’ है और वह उसका (स्व भावका) स्वामी है — इसप्रकार सूक्ष्म तीक्ष्ण तत्त्वदृष्टिके आलम्बनसे ज्ञानी (अपने) आत्माको ही आत्माका परिग्रह नियमसे जानता है, इसलिये ‘‘यह मेरा ‘स्व’ नहीं है, मैं इसका स्वामी नहीं हूँ’’ ऐसा जानता हुआ परद्रव्यका परिग्रह नहीं करता (अर्थात् परद्रव्यको अपना परिग्रह नहीं करता) ।
भावार्थ : — यह लोकरीति है कि समझदार सयाना पुरुष दूसरेकी वस्तुको अपनी नहीं जानता, उसे ग्रहण नहीं करता । इसीप्रकार परमार्थज्ञानी अपने स्वभावको ही अपना धन जानता है, परके भावको अपना नहीं जानता, उसे ग्रहण नहीं करता । इसप्रकार ज्ञानी परका ग्रहण – सेवन नहीं करता ।।२०७।।
‘‘इसलिये मैं भी परद्रव्यका परिग्रहण नहीं करूँगा’’ इसप्रकार अब (मोक्षाभिलाषी जीव) कहता है : — १स्व=धन; मिल्कियत; अपनी स्वामित्वकी चीज ।