Niyamsar (Hindi). Gatha: 82-91.

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मेकेन्द्रियादिजीवस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये
नाहं शरीरगतबालाद्यवस्थानभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये
नाहं रागादिभेदभावकर्मभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये
नाहं भावकर्मात्मकषायचतुष्कं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये
इति पंचरत्नांचितोपन्यासप्रपंचनसकलविभावपर्यायसंन्यासविधानमुक्तं भवतीति
(वसंततिलका)
भव्यः समस्तविषयाग्रहमुक्त चिन्तः
स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्तः
मुक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
प्राप्नोति मुक्ति मचिरादिति पंचरत्नात
।।१०9।।
आत्माको ही भाता हूँ मैं एकेन्द्रियादि जीवस्थानभेदोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके
विलासस्वरूप आत्माको ही भाता हूँ
मैं शरीरसम्बन्धी बालादि अवस्थाभेदोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप
आत्माको ही भाता हूँ
मैं रागादिभेदरूप भावकर्मके भेदोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप
आत्माको ही भाता हूँ
मैं भावकर्मात्मक चार कषायोंको नहीं करता, सहज चैतन्यके विलासस्वरूप
आत्माको ही भाता हूँ
(यहाँ टीकामें जिसप्रकार कर्ताके सम्बन्धमें वर्णन किया, उसीप्रकार कारयिता और
अनुमन्ताके अनुमोदककेसम्बन्धमें भी समझ लेना )
इसप्रकार पाँच रत्नोंके शोभित कथनविस्तार द्वारा सकल विभावपर्यायोंके सन्न्यासका
(त्यागका) विधान कहा है
[अब इन पाँच गाथाओंकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ :] इसप्रकार पंचरत्नों द्वारा जिसने समस्त विषयोंके ग्रहणकी चिन्ताको
छोड़ा है और निज द्रव्यगुणपर्यायके स्वरूपमें चित्त एकाग्र किया है, वह भव्य जीव निज
भावसे भिन्न ऐसे सकल विभावको छोड़कर अल्प कालमें मुक्तिको प्राप्त करता है
१०९

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एरिसभेदब्भासे मज्झत्थो होदि तेण चारित्तं
तं दिढकरणणिमित्तं पडिक्कमणादी पवक्खामि ।।८२।।
द्रग्भेदाभ्यासे मध्यस्थो भवति तेन चारित्रम्
तद्दृढीकरणनिमित्तं प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि ।।८२।।
अत्र भेदविज्ञानात् क्रमेण निश्चयचारित्रं भवतीत्युक्त म्
पूर्वोक्त पंचरत्नांचितार्थपरिज्ञानेन पंचमगतिप्राप्तिहेतुभूते जीवकर्मपुद्गलयोर्भेदाभ्यासे
सति, तस्मिन्नेव च ये मुमुक्षवः सर्वदा संस्थितास्ते ह्यत एव मध्यस्थाः, तेन कारणेन तेषां
परमसंयमिनां वास्तवं चारित्रं भवति
तस्य चारित्राविचलस्थितिहेतोः प्रतिक्रमणादि-
निश्चयक्रिया निगद्यते अतीतदोषपरिहारार्थं यत्प्रायश्चित्तं क्रियते तत्प्रतिक्रमणम्
आदिशब्देन प्रत्याख्यानादीनां संभवश्चोच्यत इति
गाथा : ८२ अन्वयार्थ :[इद्रग्भेदाभ्यासे ] ऐसा भेद - अभ्यास होने पर
[मध्यस्थः ] जीव मध्यस्थ होता है, [तेन चारित्रम् भवति ] उससे चारित्र होता है
[तद्द्रढीकरणनिमित्तं ] उसे (चारित्रको) दृढ़ करनेके लिये [प्रतिक्रमणादिं प्रवक्ष्यामि ] मैं
प्रतिक्रमणादि कहूँगा
टीका :यहाँ, भेदविज्ञान द्वारा क्रमसे निश्चय - चारित्र होता है ऐसा कहा है
पूर्वोक्त पंचरत्नोंसे शोभित अर्थपरिज्ञान (पदार्थोंके ज्ञान) द्वारा पंचम गतिकी प्राप्तिके
हेतुभूत ऐसा जीवका और कर्मपुद्गलका भेद - अभ्यास होने पर, उसीमें जो मुमुक्षु सर्वदा
संस्थित रहते हैं, वे उस (सतत भेदाभ्यास) द्वारा मध्यस्थ होते हैं और उस कारणसे उन
परम संयमियोंको वास्तविक चारित्र होता है
उस चारित्रकी अविचल स्थितिके हेतुसे
प्रतिक्रमणादि निश्चयक्रिया कही जाती है अतीत (भूत कालके) दोषोंके परिहार हेतु जो
प्रायश्चित किया जाता है वह प्रतिक्रमण है ‘आदि’ शब्दसे प्रत्याख्यानादिका संभव कहा
जाता है (अर्थात् प्रतिक्रमणादिमें जो ‘आदि’ शब्द है वह प्रत्याख्यान आदिका भी समावेश
करनेके लिये है )
इस भेदके अभ्याससे माध्यस्थ हो चारित लहे
चारित्रदृढ़ता हेतु हम प्रतिक्रमण आदिक अब कहें ।।८२।।

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तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः
(अनुष्टुभ्)
‘‘भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।।’’
तथा हि
(मालिनी)
इति सति मुनिनाथस्योच्चकैर्भेदभावे
स्वयमयमुपयोगाद्राजते मुक्त मोहः
शमजलनिधिपूरक्षालितांहःकलंकः
स खलु समयसारस्यास्य भेदः क एषः
।।११०।।
मोत्तूण वयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा
अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदि त्ति पडिकमणं ।।८३।।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें १३१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] जो कोई सिद्ध हुए हैं वे भेदविज्ञानसे सिद्ध हुए हैं; जो कोई
बँधे हैं वे उसीके (भेदविज्ञानके ही) अभावसे बँधे हैं ’’
और (इस ८२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] इसप्रकार जब मुनिनाथको अत्यन्त भेदभाव (भेदविज्ञान-
परिणाम) होता है, तब यह (समयसार) स्वयं उपयोग होनेसे, मुक्तमोह (मोह रहित) होता
हुआ, शमजलनिधिके पूरसे (उपशमसमुद्रके ज्वारसे) पापकलङ्कको धोकर, विराजता
(
शोभता) है; वह सचमुच, इस समयसारका कैसा भेद है ! ११०
रे वचन रचना छोड़ रागद्वेषका परित्याग कर
ध्याता निजात्मा जीव तो होता उसीको प्रतिक्रमण ।।८३।।

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मुक्त्वा वचनरचनां रागादिभाववारणं कृत्वा
आत्मानं यो ध्यायति तस्य तु भवतीति प्रतिक्रमणम् ।।८३।।
दैनं दैनं मुमुक्षुजनसंस्तूयमानवाङ्मयप्रतिक्रमणनामधेयसमस्तपापक्षयहेतुभूतसूत्र-
समुदयनिरासोऽयम्
यो हि परमतपश्चरणकारणसहजवैराग्यसुधासिन्धुनाथस्य राकानिशीथिनीनाथः अप्रशस्त-
वचनरचनापरिमुक्तोऽपि प्रतिक्रमणसूत्रविषमवचनरचनां मुक्त्वा संसारलतामूलकंदानां निखिल-
मोहरागद्वेषभावानां निवारणं कृत्वाऽखंडानंदमयं निजकारणपरमात्मानं ध्यायति, तस्य खलु पर-
मतत्त्वश्रद्धानावबोधानुष्ठानाभिमुखस्य सकलवाग्विषयव्यापारविरहितनिश्चयप्रतिक्रमणं भवतीति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः
गाथा : ८३ अन्वयार्थ :[वचनरचनां ] वचनरचनाको [मुक्त्वा ] छोड़कर, [रागादि-
भाववारणं ] रागादिभावोंका निवारण [कृत्वा ] करके, [यः ] जो [आत्मानं ] आत्माको
[ध्यायति ] ध्याता है, [तस्य तु ] उसे [प्रतिक्रमणं ] प्रतिक्रमण [भवति इति ] होता है
टीका :प्रतिदिन मुमुक्षु जनों द्वारा उच्चारण किया जानेवाला जो वचनमय
प्रतिक्रमण नामक समस्त पापक्षयके हेतुभूत सूत्रसमुदाय उसका यह निरास है (अर्थात्
उसका इसमें निराकरण
खण्डन किया है )
परम तपश्चरणके कारणभूत सहजवैराग्यसुधासागरके लिये पूर्णिमाका चन्द्र ऐसा जो
जीव (परम तपका कारण ऐसा जो सहज वैराग्यरूपी अमृतका सागर उसे उछालनेके लिये
अर्थात् उसमें ज्वार लानेके लिये जो पूर्ण चन्द्र समान है ऐसा जो जीव) अप्रशस्त
वचनरचनासे परिमुक्त (
सर्व ओरसे मुक्त) होने पर भी प्रतिक्रमणसूत्रकी विषम (विविध)
वचनरचनाको (भी) छोड़कर संसारलताके मूल - कंदभूत समस्त मोहरागद्वेषभावोंका निवारण
करके अखण्ड - आनन्दमय निज कारणपरमात्माको ध्याता है, उस जीवकोकि जो
वास्तवमें परमतत्त्वके श्रद्धान, ज्ञान और अनुष्ठानके सन्मुख है उसेवचनसम्बन्धी सर्व
व्यापार रहित निश्चयप्रतिक्रमण होता है
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति
नामक टीकामें २४४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :

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(मालिनी)
‘‘अलमलमतिजल्पैर्दुर्विकल्पैरनल्पै-
रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः
स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फू र्तिमात्रा-
न्न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति
।।’’
तथा हि
(आर्या)
अतितीव्रमोहसंभवपूर्वार्जितं तत्प्रतिक्रम्य
आत्मनि सद्बोधात्मनि नित्यं वर्तेऽहमात्मना तस्मिन् ।।१११।।
आराहणाइ वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८४।।
आराधनायां वर्तते मुक्त्वा विराधनं विशेषेण
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात।।८४।।
‘‘[श्लोकार्थ : ] अधिक कहनेसे तथा अधिक दुर्विकल्पोंसे बस होओ, बस
होओ; यहाँ इतना ही कहना है कि इस परम अर्थका एकका ही निरन्तर अनुभवन करो;
क्योंकि निज रसके विस्तारसे पूर्ण जो ज्ञान उसके स्फु रायमान होनेमात्र जो समयसार
(
परमात्मा) उससे ऊँ चा वास्तवमें अन्य कुछ भी नहीं है (समयसारके अतिरिक्त अन्य
कुछ भी सारभूत नहीं है ) ’’
और (इस ८३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] अति तीव्र मोहकी उत्पत्तिसे जो पूर्वमें उपार्जित (कर्म) उसका
प्रतिक्रमण करके, मैं सद्बोधात्मक (सम्यग्ज्ञानस्वरूप) ऐसे उस आत्मामें आत्मासे नित्य
वर्तता हूँ
१११
गाथा : ८४ अन्वयार्थ :[विराधनं ] जो (जीव) विराधनको [विशेषेण ]
छोड़े समस्त विराधना आराधनारत जो रहे
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण उसको ही कहें ।।८४।।

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अत्रात्माराधनायां वर्तमानस्य जन्तोरेव प्रतिक्रमणस्वरूपमुक्त म्
यस्तु परमतत्त्वज्ञानी जीवः निरन्तराभिमुखतया ह्यत्रुटयत्परिणामसंतत्या साक्षात
स्वभावस्थितावात्माराधनायां वर्तते अयं निरपराधः विगतात्माराधनः सापराधः, अत एव
निरवशेषेण विराधनं मुक्त्वा विगतो राधो यस्य परिणामस्य स विराधनः
यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणमयः स जीवस्तत एव प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते
तथा चोक्तं समयसारे
‘‘संसिद्धिराधसिद्धं साधियमाराधियं च एयट्ठं
अवगदराधो जो खलु चेदा सो होदि अवराधो ।।’’
विशेषतः [मुक्त्वा ] छोड़कर [आराधनायां ] आराधनामें [वर्तते ] वर्तता है, [सः ] वह
(जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह
[प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
टीका :यहाँ आत्माकी आराधनामें वर्तते हुए जीवको ही प्रतिक्रमणस्वरूप
कहा है
जो परमतत्त्वज्ञानी जीव निरंतर अभिमुखरूपसे (आत्मसम्मुखरूपसे) अटूट
(धारावाही) परिणामसन्तति द्वारा साक्षात् स्वभावस्थितिमेंआत्माकी आराधनामेंवर्तता
है वह निरपराध है जो आत्माके आराधन रहित है वह सापराध है; इसीलिये, निरवशेषरूपसे
विराधन छोड़करऐसा कहा है जो परिणाम ‘विगतराध’ अर्थात् राध रहित है वह
विराधन है वह (विराधन रहितनिरपराध) जीव निश्चयप्रतिक्रमणमय है, इसीलिये उसे
प्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है
इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत) श्री समयसारमें (३०४वीं गाथा
द्वारा) कहा है कि :
‘‘[गाथार्थ : ] संसिद्धि, राध, सिद्ध, साधित और आराधितयह शब्द एकार्थ
हैं; जो आत्मा ‘अपगतराध’ अर्थात् राधसे रहित है वह आत्मा अपराध है ’’
राध = आराधना; प्रसन्नता; कृपा; सिद्धि; पूर्णता; सिद्ध करना वह; पूर्ण करना वह

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उक्तं हि समयसारव्याख्यायां च
(मालिनी)
‘‘अनवरतमनंतैर्बध्यते सापराधः
स्पृशति निरपराधो बंधनं नैव जातु
नियतमयमशुद्धं स्वं भजन्सापराधो
भवति निरपराधः साधु शुद्धात्मसेवी
।।’’
तथा हि
(मालिनी)
अपगतपरमात्मध्यानसंभावनात्मा
नियतमिह भवार्तः सापराधः स्मृतः सः
अनवरतमखंडाद्वैतचिद्भावयुक्तो
भवति निरपराधः कर्मसंन्यासदक्षः
।।११२।।
श्री समयसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत आत्मख्याति नामक) टीकामें भी
(१८७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] सापराध आत्मा निरंतर अनन्त (पुद्गलपरमाणुरूप) कर्मोंसे
बँधता है; निरपराध आत्मा बन्धनको कदापि स्पर्श ही नहीं करता जो सापराध आत्मा है
वह तो नियमसे अपनेको अशुद्ध सेवन करता हुआ सापराध है; निरपराध आत्मा तो
भलीभाँति शुद्ध आत्माका सेवन करनेवाला होता है
’’
और (इस ८४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] इस लोकमें जो जीव परमात्मध्यानकी संभावना रहित है
(अर्थात् जो जीव परमात्माके ध्यानरूप परिणमनसे रहित हैपरमात्मध्यानरूप परिणमित
नहीं हुआ है ) वह भवार्त जीव नियमसे सापराध माना गया है; जो जीव निरंतर
अखण्ड
- अद्वैत - चैतन्यभावसे युक्त है वह कर्मसंन्यासदक्ष (कर्मत्यागमें निपुण) जीव
निरपराध है ११२

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मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभावं
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८५।।
मुक्त्वानाचारमाचारे यस्तु करोति स्थिरभावम्
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात।।८५।।
अत्र निश्चयचरणात्मकस्य परमोपेक्षासंयमधरस्य निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपं च भवतीत्युक्त म्
नियतं परमोपेक्षासंयमिनः शुद्धात्माराधनाव्यतिरिक्त : सर्वोऽप्यनाचारः, अत एव सर्व-
मनाचारं मुक्त्वा ह्याचारे सहजचिद्विलासलक्षणनिरंजने निजपरमात्मतत्त्वभावनास्वरूपे यः
सहजवैराग्यभावनापरिणतः स्थिरभावं करोति, स परमतपोधन एव प्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते,
यस्मात
् परमसमरसीभावनापरिणतः सहजनिश्चयप्रतिक्रमणमयो भवतीति
गाथा : ८५ अन्वयार्थ :[यः तु ] जो (जीव) [अनाचारं ] अनाचार
[मुक्त्वा ] छोड़कर [आचारे ] आचारमें [स्थिरभावम् ] स्थिरभाव [करोति ] करता है,
[सः ] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण
कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
टीका :यहाँ (इस गाथामें) निश्चयचरणात्मक परमोपेक्षासंयमके धारण
करनेवालेको निश्चयप्रतिक्रमणका स्वरूप होता है ऐसा कहा है
नियमसे परमोपेक्षासंयमवालेको शुद्ध आत्माकी आराधनाके अतिरिक्त सब अनाचार
है; इसीलिये सर्व अनाचार छोड़कर सहजचिद्विलासलक्षण निरंजन निज परमात्मतत्त्वकी
भावनास्वरूप
आचारमें जो (परम तपोधन) सहजवैराग्यभावनारूपसे परिणमित हुआ
स्थिरभाव करता है, वह परम तपोधन ही प्रतिक्रमणस्वरूप कहलाता है, कारण कि वह
परम समरसीभावनारूपसे परिणमित हुआ सहज निश्चयप्रतिक्रमणमय है
सहजचैतन्यविलासात्मक निर्मल निज परमात्मतत्त्वको भानाअनुभवन करना वही आचारका स्वरूप
है; ऐसे आचारमें जो परम तपोधन स्थिरता करता है वह स्वयं ही प्रतिक्रमण है
जो जीव त्याग अनाचरण, आचारमें स्थिरता करे
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।।८५।।

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(मालिनी)
अथ निजपरमानन्दैकपीयूषसान्द्रं
स्फु रितसहजबोधात्मानमात्मानमात्मा
निजशममयवार्भिर्निर्भरानंदभक्त्या
स्नपयतु बहुभिः किं लौकिकालापजालैः
।।११३।।
(स्रग्धरा)
मुक्त्वानाचारमुच्चैर्जननमृतकरं सर्वदोषप्रसंगं
स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरुपमसहजानंद
द्रग्ज्ञप्तिशक्तौ
बाह्याचारप्रमुक्त : शमजलनिधिवार्बिन्दुसन्दोहपूतः
सोऽयं पुण्यः पुराणः क्षपितमलकलिर्भाति लोकोद्घसाक्षी
।।११४।।
उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभावं
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८६।।
[अब इस ८५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते
हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] आत्मा निज परमानन्दरूपी अद्वितीय अमृतसे गाढ़ भरे हुए,
स्फु रित - सहज - ज्ञानस्वरूप आत्माको निर्भर (भरपूर) आनन्द - भक्तिपूर्वक निज शममय
जल द्वारा स्नान कराओ; बहुत लौकिक आलापजालोंसे क्या प्रयोजन है (अर्थात् अन्य अनेक
लौकिक कथनसमूहोंसे क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ) ? ११३
[श्लोकार्थ : ] जो आत्मा जन्म - मरणके करनेवाले, सर्व दोषोंके प्रसंगवाले
अनाचारको अत्यन्त छोड़कर, निरुपम सहज आनन्द-दर्शन-ज्ञान-वीर्यवाले आत्मामें
आत्मासे स्थित होकर, बाह्य आचारसे मुक्त होता हुआ, शमरूपी समुद्रके जलबिन्दुओंके
समूहसे पवित्र होता है, ऐसा वह पवित्र पुराण (
सनातन) आत्मा मलरूपी क्लेशका क्षय
करके लोकका उत्कृष्ट साक्षी होता है ११४
स्फु रित = प्रगट प्रसंग = संग; सहवास; सम्बन्ध; युक्तता
उन्मार्गका कर परित्यजन जिनमार्गमें स्थिरता करे
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।।८६।।

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उन्मार्गं परित्यज्य जिनमार्गे यस्तु करोति स्थिरभावम्
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात।।८६।।
अत्र उन्मार्गपरित्यागः सर्वज्ञवीतरागमार्गस्वीकारश्चोक्त :
यस्तु शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यद्रष्टिप्रशंसासंस्तवमलकलंकपंकनिर्मुक्त : शुद्ध-
निश्चयसद्दृष्टिः बुद्धादिप्रणीतमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकं मार्गाभासमुन्मार्गं परित्यज्य व्यवहारेण
महादेवाधिदेवपरमेश्वरसर्वज्ञवीतरागमार्गे पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिपंचेन्द्रियनिरोध-
षडावश्यकाद्यष्टाविंशतिमूलगुणात्मके स्थिरपरिणामं करोति, शुद्धनिश्चयनयेन सहज-
बोधादिशुद्धगुणालंकृते सहजपरमचित्सामान्यविशेषभासिनि निजपरमात्मद्रव्ये स्थिरभावं
गाथा : ८६ अन्वयार्थ :[यः तु ] जो (जीव) [उन्मार्गं ] उन्मार्गका
[परित्यज्य ] परित्याग करके [जिनमार्गे ] जिनमार्गमें [स्थिरभावम् ] स्थिरभाव [करोति ]
करता है, [सः ] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है,
[यस्मात् ] कारण कि वह [प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
टीका :यहाँ उन्मार्गके परित्याग और सर्वज्ञवीतराग - मार्गके स्वीकारका वर्णन
किया गया है
जो शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तवरूप
मलकलङ्कपंकसे विमुक्त (मलकलङ्करूपी कीचड़से रहित) शुद्धनिश्चयसम्यग्दृष्टि (जीव)
बुद्धादिप्रणीत मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मक मार्गाभासरूप उन्मार्गका परित्याग करके, व्यवहारसे
पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, पाँच इन्द्रियोंका निरोध, छह आवश्यक इत्यादि
अट्ठाईस मूलगुणस्वरूप महादेवाधिदेव
- परमेश्वर - सर्वज्ञ - वीतरागके मार्गमें स्थिर परिणाम करता
है, और शुद्धनिश्चयनयसे सहजज्ञानादि शुद्धगुणोंसे अलंकृत, सहज परम चैतन्यसामान्य तथा
(सहज परम) चैतन्यविशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निज परमात्मद्रव्यमें शुद्धचारित्रमय
स्थिरभाव करता है, (अर्थात् जो शुद्धनिश्चय
- सम्यग्दृष्टि जीव व्यवहारसे अट्ठाईस
मूलगुणात्मक मार्गमें और निश्चयसे शुद्ध गुणोंसे शोभित दर्शनज्ञानात्मक परमात्मद्रव्यमें
स्थिरभाव करता है,) वह मुनि निश्चय प्रतिक्रमणस्वरूप कहलाता है, कारण कि उसे
अन्यदृष्टिसंस्तव = (१) मिथ्यादृष्टिका परिचय; (२) मिथ्यादृष्टिकी स्तुति (मनसे मिथ्यादृष्टिकी महिमा
करना वह अन्यदृष्टिप्रशंसा है और मिथ्यादृष्टिकी महिमाके वचन बोलना वह अन्यदृष्टिसंस्तव है )

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शुद्धचारित्रमयं करोति, स मुनिर्निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मान्निश्चयप्रतिक्रमणं
परमतत्त्वगतं तत एव स तपोधनः सदा शुद्ध इति
तथा चोक्तं प्रवचनसारव्याख्यायाम्
(शार्दूलविक्रीडित)
‘‘इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरै-
रुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्बह्वीः पृथग्भूमिकाः
आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वत-
श्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम्
।।’’
तथा हि
(मालिनी)
विषयसुखविरक्ताः शुद्धतत्त्वानुरक्ताः
तपसि निरतचित्ताः शास्त्रसंघातमत्ताः
गुणमणिगणयुक्ताः सर्वसंकल्पमुक्ताः
कथममृतवधूटीवल्लभा न स्युरेते
।।११५।।
परमतत्त्वगत (परमात्मतत्त्वके साथ सम्बन्धवाला) निश्चयप्रतिक्रमण है इसीलिये वह
तपोधन सदा शुद्ध है
इसीप्रकार श्री प्रवचनसारकी (अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत तत्त्वदीपिका नामक) टीकामें
(१५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] इसप्रकार विशिष्ट आदरवाले पुराण पुरुषों द्वारा सेवन किया
गया, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा अनेक पृथक् - पृथक् भूमिकाओंमें व्याप्त जो चरण
(चारित्र) उसे यति प्राप्त करके, क्रमशः अतुल निवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और
चैतन्यविशेषरूप जिसका प्रकाश है ऐसे निजद्रव्यमें सर्वतः स्थिति करो ’’
और (इस ८६वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
[श्लोकार्थ : ] जो विषयसुखसे विरक्त हैं, शुद्ध तत्त्वमें अनुरक्त हैं, तपमें लीन
जिनका चित्त है, शास्त्रसमूहमें जो मत्त हैं, गुणरूपी मणियोंके समुदायसे युक्त हैं और सर्व
आदर = सावधानी; प्रयत्न; बहुमान मत्त = मस्त; पागल; अति प्रीतिवंत; अति आनन्दित

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मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले जो दु साहु परिणमदि
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८७।।
मुक्त्वा शल्यभावं निःशल्ये यस्तु साधुः परिणमति
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात।।८७।।
इह हि निःशल्यभावपरिणतमहातपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्त :
निश्चयतो निःशल्यस्वरूपस्य परमात्मनस्तावद् व्यवहारनयबलेन कर्मपंकयुक्त त्वात
निदानमायामिथ्याशल्यत्रयं विद्यत इत्युपचारतः अत एव शल्यत्रयं परित्यज्य परम-
निःशल्यस्वरूपे तिष्ठति यो हि परमयोगी स निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मात
स्वरूपगतवास्तवप्रतिक्रमणमस्त्येवेति
संकल्पोंसे मुक्त हैं, वे मुक्तिसुन्दरीके वल्लभ क्यों न होंगे ? (अवश्य ही होंगे ) ११५
गाथा : ८७ अन्वयार्थ :[यः तु साधुः ] जो साधु [शल्यभावं ] शल्यभाव
[मुक्त्वा ] छोड़कर [निःशल्ये ] निःशल्यभावसे [परिणमति ] परिणमित होता है, [सः ]
वह (साधु) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह
[प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
टीका :यहाँ निःशल्यभावसे परिणत महातपोधनको ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप
कहा है
प्रथम तो, निश्चयसे निःशल्यस्वरूप परमात्माको, व्यवहारनयके बलसे कर्मपंक-
युक्तपना होनेके कारण (व्यवहारनयसे कर्मरूपी कीचड़के साथ सम्बन्ध होनेके कारण)
‘उसे निदान, माया और मिथ्यात्वरूपी तीन शल्य वर्तते हैं’ ऐसा उपचारसे कहा जाता है
ऐसा होनेसे ही तीन शल्योंका परित्याग करके जो परम योगी परम निःशल्य स्वरूपमें रहता
है उसे निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है, कारण कि उसे स्वरूपगत (
निज स्वरूपके
साथ सम्बन्धवाला) वास्तविक प्रतिक्रमण है ही
[अब इस ८७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं : ]
कर शल्यका परित्याग मुनि निःशल्य जो वर्तन करे
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।।८७।।

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(अनुष्टुभ्)
शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि
स्थित्वा विद्वान्सदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फु टम् ।।११६।।
(पृथ्वी)
कषायकलिरंजितं त्यजतु चित्तमुच्चैर्भवान्
भवभ्रमणकारणं स्मरशराग्निदग्धं मुहुः
स्वभावनियतं सुखं विधिवशादनासादितं
भज त्वमलिनं यते प्रबलसंसृतेर्भीतितः
।।११७।।
चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८८।।
त्यक्त्वा अगुप्तिभावं त्रिगुप्तिगुप्तो भवेद्यः साधुः
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात।।८८।।
[श्लोकार्थ : ] तीन शल्योंका परित्याग करके, निःशल्य परमात्मामें स्थित
रहकर, विद्वानको सदा शुद्ध आत्माको स्फु टरूपसे भाना चाहिये ११६
[श्लोकार्थ : ] हे यति ! जो (चित्त) भवभ्रमणका कारण है और बारम्बार
कामबाणकी अग्निसे दग्ध हैऐसे कषायक्लेशसे रंगे हुए चित्तको तू अत्यन्त छोड़; जो
विधिवशात् (कर्मवशताके कारण) अप्राप्त है ऐसे निर्मल स्वभावनियत सुखको तू प्रबल
संसारकी भीतीसे डरकर भज ११७
गाथा : ८८ अन्वयार्थ :[यः साधुः ] जो साधु [अगुप्तिभावं ] अगुप्तिभाव
[त्यक्त्वा ] छोड़कर, [त्रिगुप्तिगुप्तः भवेत् ] त्रिगुप्तिगुप्त रहता है, [सः ] वह (साधु)
[प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है, [यस्मात् ] कारण कि वह
[प्रतिक्रमणमयः भवेत् ] प्रतिक्रमणमय है
स्वभावनियत = स्वभावमें निश्चित रहा हुआ; स्वभावमें नियमसे रहा हुआ
जो साधु छोड़ अगुप्तिको त्रय - गुप्तिमें विचरण करे
प्रतिक्रमणमयता हेतुसे प्रतिक्रमण कहते हैं उसे ।।८८।।

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त्रिगुप्तिगुप्तलक्षणपरमतपोधनस्य निश्चयचारित्राख्यानमेतत
यः परमतपश्चरणसरःसरसिरुहाकरचंडचंडरश्मिरत्यासन्नभव्यो मुनीश्वरः बाह्यप्रपंचरूपम्
अगुप्तिभावं त्यक्त्वा त्रिगुप्तिगुप्तनिर्विकल्पपरमसमाधिलक्षणलक्षितम् अत्यपूर्वमात्मानं ध्यायति,
यस्मात
् प्रतिक्रमणमयः परमसंयमी अत एव स च निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवतीति
(हरिणी)
अथ तनुमनोवाचां त्यक्त्वा सदा विकृतिं मुनिः
सहजपरमां गुप्तिं संज्ञानपुंजमयीमिमाम्
भजतु परमां भव्यः शुद्धात्मभावनया समं
भवति विशदं शीलं तस्य त्रिगुप्तिमयस्य तत
।।११८।।
मोत्तूण अट्टरुद्दं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा
सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु ।।9।।
टीका :त्रिगुप्तिगुप्तपना (तीन गुप्ति द्वारा गुप्तपना) जिसका लक्षण है ऐसे परम
तपोधनको निश्चयचारित्र होनेका यह कथन है
परम तपश्चरणरूपी सरोवरके कमलसमूहके लिये प्रचंड सूर्य समान ऐसे जो अति-
आसन्नभव्य मुनीश्वर बाह्य प्रपंचरूप अगुप्तिभाव छोड़कर, त्रिगुप्तिगुप्त - निर्विकल्प
- परमसमाधिलक्षणसे लक्षित अति - अपूर्व आत्माको ध्याते हैं, वे मुनीश्वर प्रतिक्रमणमय
परमसंयमी होनेसे ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप हैं
[अब इस ८८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] मन - वचन - कायकी विकृतिको सदा छोड़कर, भव्य मुनि
सम्यग्ज्ञानके पुंजमयी इस सहज परम गुप्तिको शुद्धात्माकी भावना सहित उत्कृष्टरूपसे भजो
त्रिगुप्तिमय ऐसे उस मुनिका वह चारित्र निर्मल है ११८
जो आर्त रौद्र विहाय वर्त्ते धर्म-शुक्ल सुध्यानमें
प्रतिक्रमण कहते हैं उसे जिनदेवके आख्यानमें ।।८९।।

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मुक्त्वार्तरौद्रं ध्यानं यो ध्यायति धर्मशुक्लं वा
स प्रतिक्रमणमुच्यते जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु ।।9।।
ध्यानविकल्पस्वरूपाख्यानमेतत
स्वदेशत्यागात् द्रव्यनाशात् मित्रजनविदेशगमनात् कमनीयकामिनीवियोगात
अनिष्टसंयोगाद्वा समुपजातमार्तध्यानम्, चौरजारशात्रवजनवधबंधननिबद्धमहद्द्वेषजनित-
रौद्रध्यानं च, एतद्द्वितयम् अपरिमितस्वर्गापवर्गसुखप्रतिपक्षं संसारदुःखमूलत्वान्निरवशेषेण
त्यक्त्वा, स्वर्गापवर्गनिःसीमसुखमूलस्वात्माश्रितनिश्चयपरमधर्मध्यानम्, ध्यानध्येयविविधविकल्प-
विरहितान्तर्मुखाकारसकलकरणग्रामातीतनिर्भेदपरमकलासनाथनिश्चयशुक्लध्यानं च ध्यात्वा यः
परमभावभावनापरिणतः भव्यवरपुंडरीकः निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपो भवति, परमजिनेन्द्रवदनार-
विन्दविनिर्गतद्रव्यश्रुतेषु विदितमिति
ध्यानेषु च चतुर्षु हेयमाद्यं ध्यानद्वितयं, त्रितयं
गाथा : ८९ अन्वयार्थ :[यः ] जो (जीव) [आर्तरौद्रं ध्यानं ] आर्त और
रौद्र ध्यान [मुक्त्वा ] छोड़कर [धर्मशुक्लं वा ] धर्म अथवा शुक्लध्यानको [ध्यायति ]
ध्याता है, [सः ] वह (जीव) [जिनवरनिर्दिष्टसूत्रेषु ] जिनवरकथित सूत्रोंमें [प्रतिक्रमणम् ]
प्रतिक्रमण [उच्यते ] कहलाता है
टीका :यह, ध्यानके भेदोंके स्वरूपका कथन है
(१) स्वदेशके त्यागसे, द्रव्यके नाशसे, मित्रजनके विदेशगमनसे, कमनीय (इष्ट,
सुन्दर) कामिनीके वियोगसे अथवा अनिष्टके संयोगसे उत्पन्न होनेवाला जो आर्तध्यान, तथा
(२) चोर
- जार - शत्रुजनोंके बध - बन्धन सम्बन्धी महा द्वेषसे उत्पन्न होनेवाला जो रौद्रध्यान, वे
दोनों ध्यान स्वर्ग और मोक्षके अपरिमित सुखसे प्रतिपक्ष संसारदुःखके मूल होनेके कारण उन
दोनोंको निरवशेषरूपसे (सर्वथा) छोड़कर, (३) स्वर्ग और मोक्षके निःसीम
(
अपार) सुखका मूल ऐसा जो स्वात्माश्रित निश्चय - परमधर्मध्यान, तथा (४) ध्यान और
ध्येयके विविध विकल्प रहित, अंतर्मुखाकार, सकल इन्द्रियोंके समूहसे अतीत (समस्त
इन्द्रियातीत) और निर्भेद परम कला सहित ऐसा जो निश्चय - शुक्लध्यान, उन्हें ध्याकर, जो
भव्यपुंडरीक (भव्योत्तम) परमभावकी (पारिणामिक भावकी) भावनारूपसे परिणमित
हुआ है, वह निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप हैऐसा परम जिनेन्द्रके मुखारविंदसे निकले हुए
द्रव्यश्रुतमें कहा है
अंतर्मुखाकार = अन्तर्मुख जिसका आकार अर्थात् स्वरूप है ऐसा

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तावदुपादेयं, सर्वदोपादेयं च चतुर्थमिति
तथा चोक्त म्
(अनुष्टुभ्)
‘‘निष्क्रियं करणातीतं ध्यानध्येयविवर्जितम्
अन्तर्मुखं तु यद्धयानं तच्छुक्लं योगिनो विदुः ।।’’
(वसंततिलका)
ध्यानावलीमपि च शुद्धनयो न वक्ति
व्यक्तं सदाशिवमये परमात्मतत्त्वे
सास्तीत्युवाच सततं व्यवहारमार्ग-
स्तत्त्वं जिनेन्द्र तदहो महदिन्द्रजालम्
।।११9।।
(वसंततिलका)
सद्बोधमंडनमिदं परमात्मतत्त्वं
मुक्तं विकल्पनिकरैरखिलैः समन्तात
नास्त्येष सर्वनयजातगतप्रपंचो
ध्यानावली कथय सा कथमत्र जाता
।।१२०।।
चार ध्यानोंमें प्रथम दो ध्यान हेय हैं, तीसरा प्रथम तो उपादेय है और चौथा सर्वदा
उपादेय है
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] जो ध्यान निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है, ध्यानध्येयविवर्जित (अर्थात्
ध्यान और ध्येयके विकल्पोंसे रहित) है और अन्तर्मुख है, उस ध्यानको योगी शुक्लध्यान कहते
हैं
’’
[अब इस ८९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ : ] प्रगटरूपसे सदाशिवमय (निरंतर कल्याणमय) ऐसे परमात्म-
तत्त्वमें ध्यानावली होना भी शुद्धनय नहीं कहता ‘वह है (अर्थात् ध्यानावली आत्मामें है )’
ऐसा (मात्र) व्यवहारमार्गने सतत कहा है हे जिनेन्द्र ! ऐसा वह तत्त्व (तूने नय द्वारा कहा
हुआ वस्तुस्वरूप), अहो ! महा इन्द्रजाल है ११९
[श्लोकार्थ : ] सम्यग्ज्ञानका आभूषण ऐसा यह परमात्मतत्त्व समस्त
ध्यानावली = ध्यानपंक्ति; ध्यान परम्परा

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मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं
सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होंति जीवेण ।।9।।
मिथ्यात्वप्रभृतिभावाः पूर्वं जीवेन भाविताः सुचिरम्
सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः अभाविता भवन्ति जीवेन ।।9।।
आसन्नानासन्नभव्यजीवपूर्वापरपरिणामस्वरूपोपन्यासोऽयम्
मिथ्यात्वाव्रतकषाययोगपरिणामास्सामान्यप्रत्ययाः, तेषां विकल्पास्त्रयोदश भवन्ति
‘मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं’ इति वचनात्, मिथ्याद्रष्टिगुणस्थानादिसयोगि-
गुणस्थानचरमसमयपर्यंतस्थिता इत्यर्थः
विकल्पसमूहोंसे सर्वतः मुक्त (सर्व ओरसे रहित) है (इसप्रकार) सर्वनयसमूह सम्बन्धी
यह प्रपंच परमात्मतत्त्वमें नहीं है तो फि र वह ध्यानावली इसमें किस प्रकार उत्पन्न हुई
(अर्थात् ध्यानावली इस परमात्मतत्त्वमें कैसे हो सकती है ) सो कहो
१२०
गाथा : ९० अन्वयार्थ :[मिथ्यात्वप्रभृतिभावाः ] मिथ्यात्वादि भाव
[जीवेन ] जीवने [पूर्वं ] पूर्वमें [सुचिरम् ] सुचिर काल (अति दीर्घ काल) [भाविताः ]
भाये हैं; [सम्यक्त्वप्रभृतिभावाः ] सम्यक्त्वादि भाव [जीवेन ] जीवने [अभाविताः भवन्ति ]
नहीं भाये हैं
टीका :यह, आसन्नभव्य और अनासन्नभव्य जीवके पूर्वापर (पहलेके और
बादके) परिणामोंके स्वरूपका कथन है
मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योगरूप परिणाम सामान्य प्रत्यय (आस्रव) हैं;
उनके तेरह भेद हैं, कारण कि ‘मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ’ ऐसा
(शास्त्रका) वचन है; मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर सयोगीगुणस्थानके अन्तिम समय तक
प्रत्यय होते हैं
ऐसा अर्थ है
अर्थ :(प्रत्ययोंके, तेरह प्रकारके भेद कहे गये हैं) मिथ्यादृष्टिगुणस्थानसे लेकर सयोगकेवली-
गुणस्थानके चरम समय तकके
मिथ्यात्व आदिक भावकी की जीवने चिर भावना
सम्यक्त्व आदिक भावकी न करी कभी भी भावना ।।९०।।

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अनासन्नभव्यजीवेन निरंजननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानविकलेन पूर्वं सुचिरं भाविताः
खलु सामान्यप्रत्ययाः, तेन स्वरूपविकलेन बहिरात्मजीवेनानासादितपरमनैष्कर्म्य-
चरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति
अस्य मिथ्याद्रष्टे-
र्विपरीतगुणनिचयसंपन्नोऽत्यासन्नभव्यजीवः अस्य सम्यग्ज्ञानभावना कथमिति
चेत
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(अनुष्टुभ्)
‘‘भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः
भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ।।’’
तथा हि
निरंजन निज परमात्मतत्त्वके श्रद्धान रहित अनासन्नभव्य जीवने वास्तवमें
सामान्य प्रत्ययोंको पहले सुचिर काल भाया है; जिसने परम नैष्कर्म्यरूप चारित्र प्राप्त नहीं
किया है ऐसे उस स्वरूपशून्य बहिरात्म
- जीवने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-
चारित्रको नहीं भाया है इस मिथ्यादृष्टि जीवसे विपरीत गुणसमुदायवाला अति-आसन्नभव्य
जीव होता है
इस (अतिनिकटभव्य) जीवको सम्यग्ज्ञानकी भावना किसप्रकारसे होती है ऐसा
प्रश्न किया जाये तो (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २३८वें श्लोक
द्वारा) कहा है कि :
‘‘[श्लोकार्थ : ] भवावर्तमें पहले न भायी हुई भावनाएँ (अब) मैं भाता हूँ
वे भावनाएँ (पहले) न भायी होनेसे मैं भवके अभावके लिये उन्हें भाता हूँ (कारण कि
भवका अभाव तो भवभ्रमणके कारणभूत भावनाओंसे विरुद्ध प्रकारकी, पहले न भायी हुई
ऐसी अपूर्व भावनाओंसे ही होता है )
’’
और (इस ९०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
भवावर्त = भव-आवर्त; भवका चक्र; भवका भँवरजाल; भव-परावर्त

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(मालिनी)
अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्वं
किमपि वचनमात्रं निर्वृतेः कारणं यत
तदपि भवभवेषु श्रूयते वाह्यते वा
न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम्
।।१२१।।
मिच्छादंसणणाणचरित्तं चइऊण णिरवसेसेण
सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं ।।9।।
मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं त्यक्त्वा निरवशेषेण
सम्यक्त्वज्ञानचरणं यो भावयति स प्रतिक्रमणम् ।।9।।
अत्र सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां निरवशेषस्वीकारेण मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणां
निरवशेषत्यागेन च परममुमुक्षोर्निश्चयप्रतिक्रमणं च भवति इत्युक्त म्
[श्लोकार्थ : ] जो मोक्षका कुछ कथनमात्र (कहनेमात्र) कारण है उसे भी
(अर्थात् व्यवहार - रत्नत्रयको भी) भवसागरमें डूबे हुए जीवने पहले भवभवमें (अनेक
भवोंमें) सुना है और आचरा (आचरणमें लिया) है; परन्तु अरेरे ! खेद है कि जो सर्वदा
एक ज्ञान है उसे (अर्थात् जो सदा एक ज्ञानस्वरूप ही है ऐसे परमात्मतत्त्वको) जीवने
सुना
- आचरा नहीं है, नहीं है १२१
गाथा : ९१ अन्वयार्थ :[मिथ्यादर्शनज्ञानचरित्रं ] मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान
और मिथ्याचारित्रको [निरवशेषेण ] निरवशेषरूपसे [त्यक्त्वा ] छोड़कर
[सम्यक्त्वज्ञानचरणं ] सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको [यः ] जो (जीव)
[भावयति ] भाता है, [सः ] वह (जीव) [प्रतिक्रमणम् ] प्रतिक्रमण है
टीका :यहाँ (इस गाथामें), सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रका निरवशेष (सम्पूर्ण)
स्वीकार करनेसे और मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रका निरवशेष त्याग करनेसे परम मुमुक्षुको
निश्चयप्रतिक्रमण होता है ऐसा कहा है
जो जीव त्यागे सर्व मिथ्यादर्श - ज्ञान - चरित्र रे
सम्यक्त्व - ज्ञान - चरित्र भावे प्रतिक्रमण कहते उसे ।।९१।।

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भगवदर्हत्परमेश्वरमार्गप्रतिकूलमार्गाभासमार्गश्रद्धानं मिथ्यादर्शनं, तत्रैवावस्तुनि
वस्तुबुद्धिर्मिथ्याज्ञानं, तन्मार्गाचरणं मिथ्याचारित्रं च, एतत्र्रितयमपि निरवशेषं त्यक्त्वा, अथवा
स्वात्मश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपविमुखत्वमेव मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रात्मकरत्नत्रयम्, एतदपि
त्यक्त्वा
त्रिकालनिरावरणनित्यानंदैकलक्षणनिरंजननिजपरमपारिणामिकभावात्मककारण-
परमात्मा ह्यात्मा, तत्स्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणस्वरूपं हि निश्चयरत्नत्रयम्; एवं भगवत्पर-
मात्मसुखाभिलाषी यः परमपुरुषार्थपरायणः शुद्धरत्नत्रयात्मकम् आत्मानं भावयति स
परमतपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्त :
(वसंततिलका)
त्यक्त्वा विभावमखिलं व्यवहारमार्ग-
रत्नत्रयं च मतिमान्निजतत्त्ववेदी
शुद्धात्मतत्त्वनियतं निजबोधमेकं
श्रद्धानमन्यदपरं चरणं प्रपेदे
।।१२२।।
भगवान अर्हत् परमेश्वरके मार्गसे प्रतिकूल मार्गाभासमें मार्गका श्रद्धान वह
मिथ्यादर्शन है, उसीमें कही हुई अवस्तुमें वस्तुबुद्धि वह मिथ्याज्ञान है और उस मार्गका
आचरण वह मिथ्याचारित्र है;
इन तीनोंको निरवशेषरूपसे छोड़कर अथवा, निज
आत्माके श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानके रूपसे विमुखता वही मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्रात्मक
(मिथ्या) रत्नत्रय है; इसे भी (निरवशेषरूपसे) छोड़कर त्रिकाल - निरावरण, नित्य
आनन्द जिसका एक लक्षण है ऐसा, निरंजन निज परमपारिणामिकभावस्वरूप
कारणपरमात्मा वह आत्मा है; उसके स्वरूपके श्रद्धान
ज्ञानआचरणका रूप वह
वास्तवमें निश्चयरत्नत्रय है; इसप्रकार भगवान परमात्माके सुखका अभिलाषी ऐसा
जो परमपुरुषार्थपरायण (परम तपोधन) शुद्धरत्नत्रयात्मक आत्माको भाता है, उस परम
तपोधनको ही (शास्त्रमें) निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा है
[अब इस ९१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] समस्त विभावको तथा व्यवहारमार्गके रत्नत्रयको छोड़कर
निजतत्त्ववेदी (निज आत्मतत्त्वको जाननेवालाअनुभवन करनेवाला) मतिमान पुरुष