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ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्यायं सकलाविद्यानामेकमूलमुपगता यथोदितात्मस्वभावसंभावनक्लीबाः तस्मिन्नेवाशक्तिमुपव्रजन्ति, ते खलूच्छलितनिरर्गलैकान्त- दृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवैतन्मनुष्यशरीरमित्यहंकारममकाराभ्यां विप्रलभ्यमाना अविचलित- चेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात् प्रच्युत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रव्येण कर्मणा संगतत्वात्परसमया जायन्ते ।
ये तु पुनरसंकीर्ण -द्रव्यगुणपर्यायसुस्थितं भगवन्तमात्मनः स्वभावं सकलविद्यानामेकमूलमुपगम्य यथोदितात्मस्वभावसंभावनसमर्थतया पर्यायमात्राशक्ति- द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानमूढा अथवा नारकादिपर्यायरूपो न भवाम्यहमिति भेदविज्ञानमूढाश्च परसमया मिथ्यादृष्टयो भवन्तीति । तस्मादियं पारमेश्वरी द्रव्यगुणपर्यायव्याख्या समीचीना भद्रा भवतीत्यभि- प्रायः ।।९३।। अथ प्रसंगायातां परसमयस्वसमयव्यवस्थां कथयति — जे पज्जएसु णिरदा जीवा ये पर्यायेषु
टीका : — जो जीव पुद्गलात्मक असमानजातीय द्रव्यपर्यायका — जो कि सकल अविद्याओंका एक मूल है उसका — आश्रय करते हुए १यथोक्त आत्मस्वभावकी २संभावना करनेमें नपुंसक होनेसे उसीमें बल धारण करते हैं (अर्थात् उन असमानजातीय द्रव्य -पर्यायोंके प्रति ही बलवान हैं ), वे — जिनकी ३निरर्गल एकान्तदृष्टि उछलती है ऐसे — ‘यह मैं मनुष्य ही हूँ, मेरा ही यह मनुष्य शरीर है’ इसप्रकार अहंकार -ममकारसे ठगाये जाते हुये, अविचलितचेतनाविलासमात्र ४आत्मव्यवहारसे च्युत होकर, जिसमें समस्त क्रियाकलापको छातीसे लगाया जाता है ऐसे ५मनुष्यव्यवहारका आश्रय करके रागी -द्वेषी होते हुए पर द्रव्यरूप कर्मके साथ संगतताके कारण (-परद्रव्यरूप कर्मके साथ युक्त हो जानेसे) वास्तवमें ६परसमय होते हैं अर्थात् परसमयरूप परिणमित होते हैं ।
और जो ७असंकीर्ण द्रव्य गुण -पर्यायोंसे सुस्थित भगवान आत्माके स्वभावका — जो कि सकल विद्याओंका एक मूल है उसका — आश्रय करके यथोक्त आत्मस्वभावकी संभावनामें समर्थ होनेसे पर्यायमात्र प्रतिके बलको दूर करके आत्माके स्वभावमें ही स्थिति करते १. यथोक्त = पूर्व गाथामें कहा जैसा । २. संभावना = संचेतन; अनुभव; मान्यता; आदर । ३. निरर्गल = अंकुश बिना की; बेहद (जो मनुष्यादि पर्यायमें लीन हैं, वे बेहद एकांतदृष्टिरूप है ।) ४. आत्मव्यवहार = आत्मारूप वर्तन, आत्मारूप कार्य, आत्मारूप व्यापार । ५. मनुष्यव्यवहार = मनुष्यरूप वर्तन (मैं मनुष्य ही हूँ । ऐसी मान्यतापूर्वक वर्तन) । ६. जो जीव परके साथ एकत्वकी मान्यतापूर्वक युक्त होता है, उसे परसमय कहते हैं । ७. असंकीर्ण = एकमेक नहीं ऐसे; स्पष्टतया भिन्न [भगवान आत्मस्वभाव स्पष्ट भिन्न -परके साथ एकमेक
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मत्यस्यात्मनः स्वभाव एव स्थितिमासूत्रयन्ति, ते खलु सहजविजृम्भितानेकान्तदृष्टिप्रक्षपित- समस्तैकान्तदृष्टिपरिग्रहग्रहा मनुष्यादिगतिषु तद्विग्रहेषु चाविहिताहंकारममकारा अनेकापवरकसंचारितरत्नप्रदीपमिवैकरूपमेवात्मानमुपलभमाना अविचलितचेतनाविलास- मात्रमात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमनाश्रयन्तो विश्रान्त- रागद्वेषोन्मेषतया परममौदासीन्यमवलंबमाना निरस्तसमस्तपरद्रव्यसंगतितया स्वद्रव्येणैव केवलेन संगतत्वात्स्वसमया जायन्ते
अतः स्वसमय एवात्मन -स्तत्त्वम् ।।९४।। निरताः जीवाः परसमइग त्ति णिद्दिट्ठा ते परसमया इति निर्दिष्टाः क थिताः । तथाहितथाहि — मनुष्यादिपर्यायरूपोऽहमित्यहङ्कारो भण्यते, मनुष्यादिशरीरं तच्छरीराधारोत्पन्नपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वरूपं च ममेति ममकारो भण्यते, ताभ्यां परिणताः ममकाराहङ्काररहितपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतेश्च्युता ये ते क र्मोदयजनितपरपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो भण्यन्ते । आदसहावम्हि ठिदा ये पुनरात्मस्वरूपे स्थितास्ते सगसमया मुणेदव्वा स्वसमया मन्तव्या ज्ञातव्या इति । तद्यथातद्यथा — अनेकापवरक संचारितैक - रत्नप्रदीप इवानेक शरीरेष्वप्येकोऽहमिति दृढसंस्कारेण निजशुद्धात्मनि स्थिता ये ते क र्मोदयजनित- पर्यायपरिणतिरहितत्वात्स्वसमया भवन्तीत्यर्थः ।।९४।। अथ द्रव्यस्य सत्तादिलक्षणत्रयं सूचयति — हैं (-लीन होते हैं), वे — जिन्होंने सहज -विकसित अनेकान्तदृष्टि से समस्त एकान्तदृष्टिके १परिग्रहके आग्रह प्रक्षीण कर दिये हैं, ऐसे — मनुष्यादि गतियोंमें और उन गतियोंके शरीरोंमें अहंकार – ममकार न करके अनेक कक्षों (कमरों) में २संचारित रत्नदीपककी भाँति एकरूप ही आत्माको उपलब्ध (-अनुभव) करते हुये, अविचलित -चेतनाविलासमात्र आत्मव्यवहारको अंगीकार करके, जिसमें समस्त क्रियाकलापसे भेंट की जाती है ऐसे मनुष्यव्यवहारका आश्रय नहीं करते हुये, रागद्वेषका उन्मेष (प्राकटय) रुक जानेसे परम उदासीनताका आलम्बन लेते हुये, समस्त परद्रव्योंकी संगति दूर कर देनेसे मात्र स्वद्रव्यके साथ ही संगतता होनेसे वास्तवमें ३स्वसमय होते हैं अर्थात् स्वसमयरूप परिणमित होते हैं ।
इसलिये स्वसमय ही आत्माका तत्त्व है । १. परिग्रह = स्वीकार; अंगीकार । २. संचारित = लेजाये गये । (जैसे भिन्न -भिन्न कमरोंमें लेजाया गया रत्नदीपक एकरूप ही है, वह किंचित्मात्र
भी कमरेके रूपमें नहीं होता, और न कमरेकी क्रिया करता है, उसीप्रकार भिन्न -भिन्न शरीरोंमें प्रविष्ट होनेवाला आत्मा एकरूप ही है, वह किंचित्मात्र भी शरीररूप नहीं होता और न शरीरकी क्रिया करता है – इसप्रकार ज्ञानी जानता है ।) ३. जो जीव स्वके साथ एकत्वकी मान्यतापूर्वक (स्वके साथ) युक्त होता है उसे स्व -समय कहा जाता
। प्र २२
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भावार्थ : — ‘मैं मनुष्य हूँ, शरीरादिक समस्त क्रियाओंको मैं करता हूँ, स्त्री -पुत्र- धनादिके ग्रहण -त्यागका मैं स्वामी हूँ’ इत्यादि मानना सो मनुष्यव्यवहार (मनुष्यरूप प्रवृत्ति) है; ‘मात्र अचलित चेतना वह ही मैं हूँ’ ऐसा मानना — परिणमित होना सो आत्मव्यवहार (आत्मारूप प्रवृत्ति) है ।
जो मनुष्यादिपर्यायमें लीन हैं, वे एकान्तदृष्टिवाले लोग मनुष्यव्यवहारका आश्रय करते हैं, इसलिये रागी -द्वेषी होते हैं और इसप्रकार परद्रव्यरूप कर्मके साथ सम्बन्ध करते होनेसे वे परसमय हैं; और जो भगवान आत्मस्वभावमें ही स्थित हैं वे अनेकान्तदृष्टिवाले लोग मनुष्यव्यवहारका आश्रय नहीं करके आत्मव्यवहारका आश्रय करते हैं, इसलिये रागी -द्वेषी नहीं होते अर्थात् परम उदासीन रहते हैं और इसप्रकार परद्रव्यरूप कर्मके साथ सम्बन्ध न करके मात्र स्वद्रव्यके साथ ही सम्बन्ध करते हैं, इसलिये वे स्वसमय हैं ।।९४।।
अन्वयार्थ : — [अपरित्यक्तस्वभावेन ] स्वभावको छोड़े बिना [यत् ] जो [उत्पादव्ययध्रुवत्वसंबद्धम् ] उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यसंयुक्त है [च ] तथा [गुणवत् सपर्यायं ] गुणयुक्त और पर्यायसहित है, [तत् ] उसे [द्रव्यम् इति ] ‘द्रव्य’ [ब्रुवन्ति ] कहते हैं ।।९५।।
छोडया विना ज स्वभावने उत्पाद -व्यय -ध्रुवयुक्त छे, वळी गुण ने पर्यय सहित जे, ‘द्रव्य’ भाख्युं तेहने. ९५.
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इह खलु यदनारब्धस्वभावभेदमुत्पादव्ययध्रौव्यत्रयेण गुणपर्यायद्वयेन च यल्लक्ष्यते तद् द्रव्यम् । तत्र हि द्रव्यस्य स्वभावोऽस्तित्वसामान्यान्वयः । अस्तित्वं हि वक्ष्यति द्विविधं – स्वरूपास्तित्वं सादृश्यास्तित्वं चेति । तत्रोत्पादः प्रादुर्भावः, व्ययः प्रच्यवनं, ध्रौव्यमवस्थितिः । गुणा विस्तारविशेषाः । ते द्विविधाः सामान्यविशेषात्मकत्वात् । तत्रास्तित्वं नास्तित्व- मेकत्वमन्यत्वं द्रव्यत्वं पर्यायत्वं सर्वगतत्वमसर्वगतत्वं सप्रदेशत्वमप्रदेशत्वं मूर्तत्वममूर्तत्वं सक्रि यत्वमक्रि यत्वं चेतनत्वमचेतनत्वं कर्तृत्वमकर्तृत्वं भोक्तृत्वमभोक्तृत्वमगुरुलघुत्वं चेत्यादयः सामान्यगुणाः, अवगाहहेतुत्वं गतिनिमित्तता स्थितिकारणत्वं वर्तनायतनत्वं रूपादिमत्ता चेतनत्वमित्यादयो विशेषगुणाः । पर्याया आयतविशेषाः । ते पूर्वमेवोक्ताश्चतुर्विधाः । केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे शुद्धात्मरुचिपरिच्छित्तिनिश्चलानुभूतिरूपकारणसमयसारपर्यायस्य विनाशे सति शुद्धात्मोपलम्भव्यक्तिरूपकार्यसमयसारस्योत्पादः कारणसमयसारस्य व्ययस्तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्य- त्वेन ध्रौव्यं च । तथानन्तज्ञानादिगुणाः, गतिमार्गणाविपक्षभूतसिद्धगतिः, इन्द्रियमार्गणाविपक्ष- भूतातीन्द्रियत्वादिलक्षणाः शुद्धपर्यायाश्च भवन्तीति । यथा शुद्धसत्तया सहाभिन्नं परमात्मद्रव्यं पूर्वोक्तोत्पादव्ययध्रौव्यैर्गुणपर्यायैश्च सह संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि सति तैः सह सत्ताभेदं न
टीका : — यहाँ (इस विश्वमें) जो, स्वभावभेद किये बिना, १उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यत्रयसे और २गुणपर्यायद्वयसे ३लक्षित होता है, वह द्रव्य है । इनमेंसे (-स्वभाव, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य, गुण और पर्यायमेंसे) द्रव्यका स्वभाव वह ४अस्तित्वसामान्यरूप अन्वय है; अस्तित्व दो प्रकारका कहेंगे : — १ – स्वरूप -अस्तित्व । २ – सादृश्य -अस्तित्व । उत्पाद वह प्रादुर्भाव (प्रगट होना – उत्पन्न होना) है; व्यय वह प्रच्युति (अर्थात् भ्रष्ट, – नष्ट होना) है; ध्रौव्य वह अवस्थिति (ठिकाना) है; गुण वह विस्तारविशेष हैं । वे सामान्यविशेषात्मक होनेसे दो प्रकारके हैं । इनमें, अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, अन्यत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगतत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोक्तृत्व, अगुरुलघुत्व, इत्यादि सामान्यगुण हैं; अवगाहहेतुत्व, गतिनिमित्तता, स्थितिकारणत्व, वर्तनायतनत्व, रूपादिमत्त्व, चेतनत्व इत्यादि विशेष गुण हैं । पर्याय आयतविशेष हैं । वे पूर्व ही (९३ वीं गाथा की टीकामें) कथित चार प्रकारकी हैं । १. उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यत्रय = उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य – यह त्रिपुटी (तीनोंका समूह) । २. गुणपर्यायद्वय = गुण और पर्याय – यह युगल (दोनोंका समूह) ३. लक्षित होता है = लक्ष्यरूप होता है, पहिचाना जाता है । [ (१) उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य तथा (२) गुणपर्याय
वे लक्षण हैं और द्रव्य वह लक्ष्य है । ] ४. अस्तित्वसामान्यरूप अन्वय = ‘है, है, है’ ऐसा एकरूप भाव द्रव्यका स्वभाव है । (अन्वय = एकरूपता
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न च तैरुत्पादादिभिर्गुणपर्यायैर्वा सह द्रव्यं लक्ष्यलक्षणभेदेऽपि स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव द्रव्यस्य तथाविधत्वादुत्तरीयवत् ।
यथा खलूत्तरीयमुपात्तमलिनावस्थं प्रक्षालितममलावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते, तथा द्रव्यमपि समुपात्तप्राक्तनावस्थं समुचितबहिरंगसाधनसन्निधिसद्भावे विचित्रबहुतरावस्थानं स्वरूपकर्तृकरण- सामर्थ्यस्वभावेनान्तरंगसाधनतामुपागतेनानुगृहीतमुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं तेनोत्पादेन लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथा च तदेवोत्तरीय- ममलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्थया व्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेद- करोति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । तथाविधत्वं कोऽर्थः । उत्पादव्ययध्रौव्यगुणपर्यायस्वरूपेण परिणमति, तथा सर्वद्रव्याणि स्वकीयस्वकीययथोचितोत्पादव्ययध्रौव्यैस्तथैव गुणपर्यायैश्च सह यद्यपि संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभिर्भेदं कुर्वन्ति तथापि सत्तास्वरूपेण भेदं न कुर्वन्ति, स्वभावत एव तथाविधत्वमवलम्बन्ते । तथाविधत्वं कोऽर्थः । उत्पादव्ययादिस्वरूपेण परिणमन्ति । अथवा यथा वस्त्रं
द्रव्यका उन उत्पादादिके साथ अथवा गुणपर्यायोंके साथ लक्ष्य -लक्षण भेद होने पर भी स्वरूपभेद नहीं है । स्वरूपसे ही द्रव्य वैसा (उत्पादादि अथवा गुणपर्यायवाला) है — वस्त्रके समान ।
जैसे मलिन अवस्थाको प्राप्त वस्त्र, धोने पर निर्मल अवस्थासे (-निर्मल अवस्थारूप, निर्मल अवस्थाकी अपेक्षासे) उत्पन्न होता हुआ उस उत्पादसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूप भेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है (अर्थात् स्वयं उत्पादरूपसे ही परिणत है); उसीप्रकार जिसने पूर्व अवस्था प्राप्त की है ऐसा द्रव्य भी — जो कि उचित बहिरंग साधनोंके सान्निध्य (निकटता; हाजरी) के सद्भावमें अनेक प्रकारकी बहुतसी अवस्थायें करता है वह — १अन्तरंगसाधनभूत स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरणके सामर्थ्यरूप स्वभावसे अनुगृहीत होने पर, उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ वह उत्पादसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उस उत्पादके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है । और जैसे वही वस्त्र निर्मल अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ और मलिन अवस्थासे व्ययको प्राप्त होता हुआ उस व्ययसे लक्षित होता है, परन्तु उसका उस व्ययके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है; उसीप्रकार वही द्रव्य भी उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ और पूर्व अवस्थासे व्ययको प्राप्त होता हुआ उस व्ययसे लक्षित होता है; परन्तु उसका उस व्ययके १. द्रव्यमें निजमें ही स्वरूपकर्ता और स्वरूपकरण होनेकी सामर्थ्य है । यह सामर्थ्यस्वरूप स्वभाव ही अपने
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मुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते, तथा तदेव द्रव्यमप्युत्तरावस्थयोत्पद्यमानं प्राक्तनावस्थया व्ययमानं तेन व्ययेन लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमेककालममलावस्थयोत्पद्यमानं मलिनावस्थया व्ययमानमवस्थायिन्योत्तरीयत्वावस्थया ध्रौव्यमालम्बमानं ध्रौव्येण लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते, तथैव तदेव द्रव्यमप्येककाल- मुत्तरावस्थयोत्पद्यमानं प्राक्तनावस्थया व्ययमानमवस्थायिन्या द्रव्यत्वावस्थया ध्रौव्यमालम्बमानं ध्रौव्येण लक्ष्यते, न च तेन सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते ।
यथैव च तदेवोत्तरीयं विस्तारविशेषात्मकैर्गुणैर्लक्ष्यते, न च तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते, तथैव तदेव द्रव्यमपि विस्तारविशेषात्मकैर्गुणैर्लक्ष्यते, न च तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वम -वलम्बते । यथैव च तदेवोत्तरीयमायतविशेषात्मकैः पर्यायवर्तिभिस्तन्तुभिर्लक्ष्यते, न च तैः सह स्वरूप -भेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते; तथैव तदेव द्रव्यमप्यायतविशेषात्मकैः पर्यायैर्लक्ष्यते, न च तैः सह स्वरूपभेदमुपव्रजति, स्वरूपत एव तथाविधत्वमवलम्बते ।।९५।। निर्मलपर्यायेणोत्पन्नं मलिनपर्यायेण विनष्टं तदुभयाधारभूतवस्त्ररूपेण ध्रुवमविनश्वरं, तथैव शुक्ल- वर्णादिगुणनवजीर्णादिपर्यायसहितं च सत् तैरुत्पादव्ययध्रौव्यैस्तथैव च स्वकीयगुणपर्यायैः सह संज्ञादिभेदेऽपि सति सत्तारूपेण भेदं न करोति । तर्हि किं करोति । स्वरूपत एवोत्पादादिरूपेण साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे ही वैसा है । और जैसे वही वस्त्र एक ही समयमें निर्मल अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ, मलिन अवस्थासे व्ययको प्राप्त होता हुआ और टिकनेवाली ऐसी वस्त्रत्व -अवस्थासे ध्रुव रहता हुआ ध्रौव्यसे लक्षित होता है; परन्तु उसका उस ध्रौव्यके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वैसा है; इसीप्रकार वही द्रव्य भी एक ही समय उत्तर अवस्थासे उत्पन्न होता हुआ, पूर्व अवस्थासे व्यय होता हुआ, और टिकनेवाली ऐसी द्रव्यत्वअवस्थासे ध्रुव रहता हुआ ध्रौव्यसे लक्षित होता है । किन्तु उसका उस ध्रौव्यके साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे ही वैसा है ।
और जैसे वही वस्त्र विस्तारविशेषस्वरूप (शुक्लत्वादि) गुणोंसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उन गुणोंके साथ स्वरूपभेद नहीं है, स्वरूपसे ही वह वैसा है; इसीप्रकार वही द्रव्य भी विस्तारविशेषस्वरूप गुणोंसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उन गुणोंके साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे ही वैसा है । और जैसे वही वस्त्र आयतविशेषस्वरूप पर्यायवर्ती (-पर्यायस्थानीय) तंतुओंसे लक्षित होता है; किन्तु उसका उन तंतुओंके साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे ही वैसा है । उसीप्रकार वही द्रव्य भी आयतविशेषस्वरूप पर्यायोंसे लक्षित होता है, परन्तु उसका उन पर्यायोंके साथ स्वरूपभेद नहीं है, वह स्वरूपसे ही वैसा है ।।९५।।
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अथ क्रमेणास्तित्वं द्विविधमभिदधाति — स्वरूपास्तित्वं सादृश्यास्तित्वं चेति । तत्रेदं स्वरूपास्तित्वाभिधानम् —
अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभावः। तत्पुनरन्यसाधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततया- हेतुकयैकरूपया वृत्त्या नित्यप्रवृत्तत्वाद् विभावधर्मवैलक्षण्याच्च भावभाववद्भावान्नानात्वेऽपि परिणमति, तथा सर्वद्रव्याणीत्यभिप्रायः ।।९५।। एवं नमस्कारगाथा द्रव्यगुणपर्यायकथनगाथा स्वसमयपरसमयनिरूपणगाथा सत्तादिलक्षणत्रयसूचनगाथा चेति स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन पीठिकाभिधानं प्रथमस्थलं गतम् । अथ प्रथमं तावत्स्वरूपास्तित्वं प्रतिपादयति — सहावो हि स्वभावः स्वरूपं भवति हि स्वभावः स्वरूपं भवति हि स्फु टम् । कः कर्ता । सब्भावो सद्भावः शुद्धसत्ता शुद्धास्तित्वम् । कस्य स्वभावो भवति । दव्वस्स मुक्तात्मद्रव्यस्य । तच्च स्वरूपास्तित्वं यथा मुक्तात्मनः सकाशात्पृथग्भूतानां पुद्गलादिपञ्चद्रव्याणां
अन्वयार्थ : — [सर्वकालं ] सर्वकालमें [गुणैः ] गुण तथा [चित्रैः स्वकपर्यायैः ] अनेक प्रकारकी अपनी पर्यायोंसे [उत्पादव्ययध्रुवत्वैः ] और उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यसे [द्रव्यस्य सद्भावः ] द्रव्यका जो अस्तित्व है, [हि ] वह वास्तवमें [स्वभावः ] स्वभाव है ।।९६।।
टीका : — अस्तित्व वास्तवमें द्रव्यका स्वभाव है; और वह (अस्तित्व) अन्य साधनसे १निरपेक्ष होनेके कारण अनादि – अनन्त होनेसे तथा २अहेतुक, एकरूप ३वृत्तिसे सदा ही प्रवर्तता होनेके कारण विभावधर्मसे विलक्षण होनेसे, भाव और ४भाववानताके कारण १. अस्तित्व अन्य साधनकी अपेक्षासे रहित – स्वयंसिद्ध है इसलिये अनादि -अनन्त है । २. अहेतुक = अकारण, जिसका कोई कारण नहीं है ऐसी । ३. वृत्ति = वर्तन; वर्तना वह; परिणति । (अकारणिक एकरूप परिणतिसे सदाकाल परिणमता होनेसे अस्तित्व
४. अस्तित्व तो (द्रव्यका) भाव है और द्रव्य भाववान् है ।
उत्पाद -ध्रौव्य -विनाशथी, गुण ने विविध पर्यायथी अस्तित्व द्रव्यनुं सर्वदा जे, तेह द्रव्यस्वभाव छे . ९६.
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प्रदेशभेदाभावाद् द्रव्येण सहैकत्वमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एव कथं न भवेत् । तत्तु द्रव्यान्तराणामिव द्रव्यगुणपर्यायाणां न प्रत्येकं परिसमाप्यते, यतो हि परस्परसाधित- सिद्धियुक्तत्वात्तेषामस्तित्वमेकमेव, कार्तस्वरवत् ।
यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरात् पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण पीततादिगुणानां कुण्डलादिपर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमान- प्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपर्यायैश्च यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण गुणानां पर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय शेषजीवानां च भिन्नं भवति न च तथा । कैः सह । गुणेहिं सगपज्जएहिं केवलज्ञानादिगुणैः किञ्चिदूनचरमशरीराकारादिस्वकपर्यायैश्च सह । कथंभूतैः । चित्तेहिं सिद्धगतित्वमतीन्द्रियत्वमकायत्वम- योगत्वमवेदत्वमित्यादिबहुभेदभिन्नैः । न केवलं गुणपर्यायैः सह भिन्नं न भवति । उप्पादव्वयधुवत्तेहिं शुद्धात्मप्राप्तिरूपमोक्षपर्यायस्योत्पादो रागादिविकल्परहितपरमसमाधिरूपमोक्षमार्गपर्यायस्य व्ययस्तथा मोक्षमोक्षमार्गाधारभूतान्वयद्रव्यत्वलक्षणं ध्रौव्यं चेत्युक्तलक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यैश्च सह भिन्नं न भवति । कथम् । सव्वकालं सर्वकालपर्यन्तं यथा भवति । कस्मात्तैः सह भिन्नं न भवतीति चेत्। यतः कारणाद्गुणपर्यायास्तित्वेनोत्पादव्ययध्रौव्यास्तित्वेन च कर्तृभूतेन शुद्धात्मद्रव्यास्तित्वं साध्यते, अनेकत्व होने पर भी प्रदेशभेद न होनेसे द्रव्यके साथ एकत्वको धारण करता हुआ, द्रव्यका स्वभाव ही क्यों न हो ? (अवश्य हो ।) वह अस्तित्व — जैसे भिन्न -भिन्न द्रव्योंमें प्रत्येकमें समाप्त हो जाता है उसीप्रकार — द्रव्य -गुण -पर्यायमें प्रत्येकमें समाप्त नहीं हो जाता, क्योंकि उनकी सिद्धि परस्पर होती है, इसलिये (अर्थात् द्रव्य -गुण और पर्याय एक दूसरेसे परस्पर सिद्ध होते हैं इसलिये — यदि एक न हो तो दूसरे दो भी सिद्ध नहीं होते इसलिये) उनका अस्तित्व एक ही है; — सुवर्णकी भाँति ।
जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल या भावसे १सुवर्णसे जो पृथक् दिखाई नहीं देते; कर्ता -करण- अधिकरणरूपसे पीतत्वादिगुणोंके और कुण्डलादिपर्यायोंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान सुवर्णके अस्तित्वसे जिनकी उत्पत्ति होती है, — ऐसे पीतत्वादिगुणों और कुण्डलादि पर्यायोंसे जो सुवर्णका अस्तित्व है, वह सुवर्णका स्वभाव है; उसीप्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे जो द्रव्यसे पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता -करण-२अधिकरणरूपसे गुणोंके और पर्यायोंके १. पीतत्वादि गुण और कुण्डलादि पर्यायें । २. द्रव्य ही गुण -पर्यायोंका कर्ता (करनेवाला), उनका करण (साधन) और उनका अधिकरण (आधार)
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प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैर्गुणैः पर्यायैश्च यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा पीततादिगुणेभ्यः कुण्डलादिपर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिक रणरूपेण कार्तस्वरस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैः पीततादिगुणैः कुण्डलादिपर्यायैश्च निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा गुणेभ्यः पर्यायेभ्यश्च पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण शुद्धात्मद्रव्यास्तित्वेन च गुणपर्यायोत्पादव्ययध्रौव्यास्तित्वं साध्यत इति । तद्यथा – यथा स्वकीय- द्रव्यक्षेत्रकालभावैः सुवर्णादभिन्नानां पीतत्वादिगुणकुण्डलादिपर्यायाणां संबन्धि यदस्तित्वं स एव सुवर्णस्य सद्भावः, तथा स्वकीयद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परमात्मद्रव्यादभिन्नानां केवलज्ञानादिगुणकिंचिदून- चरमशरीराकारादिपर्यायाणां संबन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मद्रव्यस्य सद्भावः । यथा स्वकीय- द्रव्यक्षेत्रकालभावैः पीतत्वादिगुणकुण्डलादिपर्यायेभ्यः सकाशादभिन्नस्य सुवर्णस्य सम्बन्धि यदस्तित्वं स स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान द्रव्यके अस्तित्वसे जिनकी उत्पत्ति होती है, — ऐसे गुणों और पर्यायोंसे जो द्रव्यका अस्तित्व है, वह स्वभाव है । (द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे सुवर्णसे भिन्न न दिखाई देनेवाले पीतत्वादिक और कुण्डलादिकका अस्तित्व वह सुवर्णका ही अस्तित्व है, क्योंकि पीतत्वादिकके और कुण्डलादिकके स्वरूपको सुवर्ण ही धारण करता है, इसलिये सुवर्णके अस्तित्वसे ही पीतत्वादिककी और कुण्डलादिककी निष्पत्ति — सिद्ध — होती है; सुवर्ण न हो तो पीतत्वादिक और कुण्डलादिक भी न हों, इसीप्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे द्रव्यसे भिन्न नहीं दिखाई देनेवाले गुणों और पर्यायोंका अस्तित्व वह द्रव्यका ही अस्तित्व है, क्योंकि गुणों और पर्यायोंके स्वरूपको द्रव्य ही धारण करता है, इसलिये द्रव्यके अस्तित्वसे ही गुणोंकी और पर्यायोंकी निष्पत्ति होती है, द्रव्य न हो तो गुण और पर्यायें भी न हों । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्यका स्वभाव है ।)
अथवा, जैसे द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे १जो पीतत्वादि गुणोंसे और कुण्डलादि पर्यायोंसे पृथक् नहीं दिखाई देता; कर्ता -करण -अधिकरणरूपसे सुवर्णके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान पीतत्वादिगुणों और कुण्डलादिपर्यायोंसे जिसकी निष्पत्ति होती है, — ऐसे सुवर्णका, मूलसाधनपनेसे २उनसे निष्पन्न होता हुआ, जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है; उसीप्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे गुणोंसे और पर्यायोंसे जो पृथक् नहीं दिखाई देता, कर्ता- १. जो = जो सुवर्ण । २. उनसे = पीतत्वादि गुणों और कुण्डलादि पर्यायोंसे । (सुवर्णका अस्तित्व निष्पन्न होनेमें, उपजनेमें, या
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द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैर्गुणैः पर्यायैश्च निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः ।
किंच — यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कार्तस्वरा- त्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेण कुण्डलांगदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्याणां स्वरूप- एव पीतत्वादिगुणकुण्डलादिपर्यायाणां स्वभावो भवति, तथा स्वकीयद्रव्यक्षेत्रकालभावैः केवल- ज्ञानादिगुणकिंचिदूनचरमशरीराकारपर्यायेभ्यः सकाशादभिन्नस्य मुक्तात्मद्रव्यस्य संबन्धि यदस्तित्वं स एव केवलज्ञानादिगुणकिंचिदूनचरमशरीराकारपर्यायाणां स्वभावो ज्ञातव्यः । अथेदानीमुत्पादव्यय- ध्रौव्याणामपि द्रव्येण सहाभिन्नास्तित्वं कथ्यते । यथा स्वकीयद्रव्यादिचतुष्टयेन सुवर्णादभिन्नानां कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायविनाशसुवर्णत्वलक्षणध्रौव्याणां संबन्धि यदस्तित्वं स एव सुवर्णसद्भावः, करण-१अधिकरणरूपसे द्रव्यके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान गुणों और पर्यायोंसे जिसकी निष्पत्ति होती है, — ऐसे द्रव्यका, मूलसाधनपनेसे उनसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है । (पीतत्वादिकसे और कुण्डलादिकसे भिन्न न दिखाई देनेवाले सुवर्णका अस्तित्व वह पीतत्वादिक और कुण्डलादिकका ही अस्तित्व है, क्योंकि सुवर्णके स्वरूपको पीतत्वादिक और कुण्डलादिक ही धारण करते हैं, इसलिये पीतत्वादिक और कुण्डलादिकके अस्तित्वसे ही सुवर्णकी निष्पत्ति होती है, पीतत्वादिक और कुण्डलादिक न हों तो सुवर्ण भी न हो; इसीप्रकार गुणोंसे और पर्यायोंसे भिन्न न दिखाई देनेवाले द्रव्यका अस्तित्व वह गुणों और पर्यायोंका ही अस्तित्व है, क्योंकि द्रव्यके स्वरूपको गुण और पर्यायें ही धारण करती हैं इसलिये गुणों और पर्यायोंके अस्तित्वसे ही द्रव्यकी निष्पत्ति होती है । यदि गुण और पर्यायें न हो तो द्रव्य भी न हो । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्यका स्वभाव है ।)
(जिसप्रकार द्रव्यका और गुण -पर्यायका एक ही अस्तित्व है ऐसा सुवर्णके दृष्टान्त पूर्वक समझाया, उसीप्रकार अब सुवर्णके दृष्टान्त पूर्वक ऐसा बताया जा रहा है कि द्रव्यका और उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यका भी एक ही अस्तित्व है ।)
जैसे द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे, सुवर्णसे २जो पृथक् नहीं दिखाई देते, कर्ता -करण-३अधिकरणरूपसे कुण्डलादि उत्पादोंके, बाजूबंधादि व्ययोंके और पीतत्वादि १. गुण -पर्यायें ही द्रव्यकी कर्ता, करण और अधिकरण हैं; इसलिये गुण – पर्यायें ही द्रव्यका स्वरूप धारण
करती हैं । २. जो = जो कुण्डलादि उत्पाद, बाजूबंधादि व्यय आर पीतादि ध्रौव्य । ३. सुवर्ण ही कुण्डलादि -उत्पाद, बाजूबंधादि -व्यय और पीतत्वादि ध्रौव्यका कर्ता, करण तथा अधिकरण है;
प्र २३
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मुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य कार्तस्वरास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैः कुण्डलांगद- पीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्यैर्यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः, तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमानैः कर्तृकरणाधिकरणरूपेणोत्पादव्ययध्रौव्याणां स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य द्रव्यास्तित्वेन निष्पादितनिष्पत्तियुक्तैरुत्पादव्यय- ध्रौव्यैर्यदस्तित्वं द्रव्यस्य स स्वभावः । यथा वा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा भावेन वा कुण्डलांगदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण कार्तस्वर- स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैः कुण्डलांगदपीतताद्युत्पादव्ययध्रौव्यैर्निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य कार्तस्वरस्य मूलसाधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः, तथा द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन परमात्मद्रव्यादभिन्नानां मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्गपर्यायव्ययतदुभयाधार- भूतपरमात्मद्रव्यत्वलक्षणध्रौव्याणां संबन्धि यदस्तित्वं स एव मुक्तात्मद्रव्यसद्भावः । यथा स्वद्रव्यादि- चतुष्टयेन कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायव्ययसुवर्णत्वलक्षणध्रौव्येभ्यः सकाशादभिन्नस्य सुवर्णस्य संबन्धि यदस्तित्वं स एव कटकपर्यायोत्पादकङ्कणपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतसुवर्णत्वलक्षणध्रौव्याणां स्वभावः, तथा स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्गपर्यायव्ययतदुभयाधारभूतमुक्तात्मद्रव्यत्वलक्षण- ध्रौव्येभ्यः सकाशादभिन्नस्य परमात्मद्रव्यस्य संबन्धि यदस्तित्वं स एव मोक्षपर्यायोत्पादमोक्षमार्ग- ध्रौव्योंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान सुवर्णके अस्तित्वसे जिनकी निष्पत्ति होती है, — ऐसे कुण्डलादि – उत्पाद, बाजूबंधादि – व्यय और पीतत्वादि ध्रौव्योंसे जो सुवर्णका अस्तित्व है, वह (सुवर्णका) स्वभाव है; उसीप्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे, जो द्रव्यसे पृथक् दिखाई नहीं देते, कर्ता -करण -अधिकरणरूपसे उत्पाद -व्यय -ध्रौव्योंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान द्रव्यके अस्तित्वसे जिनकी निष्पत्ति होती है, — ऐसे उत्पाद -व्यय- ध्रौव्योंसे जो द्रव्यका अस्तित्व है वह स्वभाव है । (द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे द्रव्यसे भिन्न दिखाई न देनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्योंका अस्तित्व है वह द्रव्यका ही अस्तित्व है; क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्योंके स्वरूपको द्रव्य ही धारण करता है, इसलिए द्रव्यके अस्तित्वसे ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्योंकी निष्पत्ति होती है । यदि द्रव्य न हो तो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी न हों । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्यका स्वभाव है ।)
अथवा जैसे द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे कुण्डलादि -उत्पादोंसे बाजूबंधादि व्ययोंसे और पीतत्वादि ध्रौव्योंसे जो पृथक् नहीं दिखाई देता; कर्ता -करण -अधिकरणरूपसे सुवर्णके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान कुण्डलादि -उत्पादों, बाजूबंधादि व्ययों और पीतत्वादि ध्रौव्योंसे जिसकी निष्पत्ति होती है, — ऐसे सुवर्णका, मूलसाधनपनेसे उनसे निष्पन्न होता हुआ, जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है । उसीप्रकार द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे या भावसे
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कालेन वा भावेन वोत्पादव्ययध्रौव्येभ्यः पृथगनुपलभ्यमानस्य कर्तृकरणाधिकरणरूपेण द्रव्यस्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तैरुत्पादव्ययध्रौव्यैर्निष्पादितनिष्पत्तियुक्तस्य द्रव्यस्य मूल- साधनतया तैर्निष्पादितं यदस्तित्वं स स्वभावः ।।९६।।
पर्यायव्ययतदुभयाधारभूतमुक्तात्मद्रव्यत्वलक्षणध्रौव्याणां स्वभाव इति । एवं यथा मुक्तात्मद्रव्यस्य स्वकीयगुणपर्यायोत्पादव्ययध्रौव्यैः सह स्वरूपास्तित्वाभिधानमवान्तरास्तित्वमभिन्नं व्यवस्थापितं तथैव उत्पाद -व्यय -ध्रौव्योंसे जो पृथक् दिखाई नहीं देता, कर्ता -करण-१अधिकरणरूपसे द्रव्यके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान उत्पाद -व्यय -ध्रौव्योंसे जिसकी निष्पत्ति होती है, — ऐसे द्रव्यका मूलसाधनपनेसे उनसे निष्पन्न होता हुआ जो अस्तित्व है, वह स्वभाव है । (उत्पादोंसे, व्ययोंसे और ध्रौव्योंसे भिन्न न दिखाई देनेवाले द्रव्यका अस्तित्व वह उत्पादों, व्ययों और ध्रौव्योंका ही अस्तित्व है; क्योंकि द्रव्यके स्वरूपको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ही धारण करते हैं, इसलिये उत्पाद -व्यय और ध्रौव्योंके अस्तित्वसे ही द्रव्यकी निष्पत्ति होती है । यदि उत्पाद- व्यय -ध्रौव्य न हों तो द्रव्य भी न हो । ऐसा अस्तित्व वह द्रव्यका स्वभाव है ।)
भावार्थ : — अस्तित्वके और द्रव्यके प्रदेशभेद नहीं है; और वह अस्तित्व अनादि- अनन्त है तथा अहेतुक एकरूप परिणतिसे सदा परिणमित होता है, इसलिये विभावधर्मसे भी भिन्न प्रकारका है; ऐसा होनेसे अस्तित्व द्रव्यका स्वभाव ही है ।
गुण -पर्यायोंका और द्रव्यका अस्तित्व भिन्न नहीं है; एक ही है; क्योंकि गुण -पर्यायें द्रव्यसे ही निष्पन्न होती हैं, और द्रव्य गुण -पर्यायोंसे ही निष्पन्न होता है । और इसीप्रकार उत्पाद- व्यय -ध्रौव्यका और द्रव्यका अस्तित्व भी एक ही है; क्योंकि उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य द्रव्यसे ही उत्पन्न होते हैं, और द्रव्य उत्पाद -व्यय -ध्रौव्योंसे ही उत्पन्न होता है ।
इसप्रकार स्वरूपास्तित्वका निरूपण हुआ ।।९६।। १. उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य ही द्रव्यके कर्ता, करण और अधिकरण हैं, इसलिये उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य ही द्रव्यके
– ए धर्मने उपदेशता जिनवरवृषभ निर्द्दिष्ट छे. ९७.
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इह किल प्रपंचितवैचित्र्येण द्रव्यान्तरेभ्यो व्यावृत्य वृत्तेन प्रतिद्रव्यं सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभूतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्वद्रव्याणामस्तमितवैचित्र्यप्रपंच प्रवृत्य वृत्तं प्रतिद्रव्यमासूत्रितं सीमानं भिन्दत्सदिति सर्वगतं सामान्यलक्षणभूतं सादृश्यास्तित्वमेकं खल्ववबोधव्यम् । एवं सदित्यभिधानं सदिति परिच्छेदनं च सर्वार्थपरामर्शि स्यात् । यदि पुनरिदमेवं न स्यात्तदा किंचित्सदिति किंचिदसदिति किंचित्सच्चासच्चेति किंचिदवाच्यमिति च स्यात् । तत्तु विप्रतिषिद्धमेव । प्रसाध्यं चैतदनोकहवत् । यथा हि बहूनां बहुविधानामनो- समस्तशेषद्रव्याणामपि व्यवस्थापनीयमित्यर्थः ।।९६।। अथ सादृश्यास्तित्वशब्दाभिधेयां महासत्तां प्रज्ञापयति — इह विविहलक्खणाणं इह लोके प्रत्येकसत्ताभिधानेन स्वरूपास्तित्वेन विविधलक्षणानां भिन्नलक्षणानां चेतनाचेतनमूर्तामूर्तपदार्थानां लक्खणमेगं तु एकमखण्डलक्षणं भवति । किं कर्तृ । सदित्ति सर्वं सदिति महासत्तारूपम् । किंविशिष्टम् । सव्वगयं संकरव्यतिकरपरिहाररूपस्वजात्यविरोधेन
अन्वयार्थ : — [धर्मं ] धर्मका [खलु ] वास्तवमें [उपदिशता ] उपदेश करते हुये [जिनवरवृषभेण ] १जिनवरवृषभने [इह ] इस विश्वमें [विविधलक्षणानां ] विविध लक्षणवाले (भिन्न भिन्न स्वरूपास्तित्ववाले सर्व) द्रव्योंका [सत् इति ] ‘सत्’ ऐसा [सर्वगतं ] २सर्वगत [लक्षणं ] लक्षण (सादृश्यास्तित्व) [एकं ] एक [प्रज्ञप्तम् ] कहा है ।।९७।।
टीका : — इस विश्वमें, विचित्रताको विस्तारित करते हुए (विविधता -अनेकताको दिखाते हुए), अन्य द्रव्योंसे ३व्यावृत्त रहकर प्रवर्तमान, और प्रत्येक द्रव्यकी सीमाको बाँधते हुए ऐसे विशेषलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वसे (समस्त द्रव्य) लक्षित होते हैं फि र भी सर्व द्रव्योंका, विचित्रताके विस्तारको अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्योंमें प्रवृत्त होकर रहनेवाला, और प्रत्येक द्रव्यकी बँधी हुई सीमाकी अवगणना करता हुआ, ‘सत्’ ऐसा जो सर्वगत सामान्यलक्षणभूत सादृश्यास्तित्व है वह वास्तवमें एक ही जानना चाहिए । इसप्रकार ‘सत्’ ऐसा कथन और ‘सत्’ ऐसा ज्ञान सर्व पदार्थोंका ४परामर्श करनेवाला है । यदि वह ऐसा (सर्वपदार्थपरामर्शी) न हो तो कोई पदार्थ सत्, (अस्तित्ववाला) कोई असत् (अस्तित्व रहित), कोई सत् तथा असत् और कोई अवाच्य होना चाहिये; किन्तु वह तो विरुद्ध ही है, और यह (‘सत्’ ऐसा कथन और ज्ञानके सर्वपदार्थपरामर्शी होनेकी बात) तो सिद्ध हो सकती है, वृक्षकी भाँति । १. जिनवरवृषभ = जिनवरोंमें श्रेष्ठ; तीर्थंकर ।२. सर्वगत = सर्वमें व्यापनेवाला । ३. व्यावृत्त = पृथक्; अलग; भिन्न ।४. परामर्श = स्पर्श; विचार; लक्ष; स्मरण ।
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कहानामात्मीयात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं सामान्य- लक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापितमेकत्वं तिरियति, तथा बहूनां बहुविधानां द्रव्याणामात्मीयात्मीयस्य विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वं सामान्य- लक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावेनोत्थापितमेकत्वं तिरियति । यथा च तेषामनो- कहानां सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिनानोकहत्वेनोत्थापितेनैकत्वेन तिरोहितमपि विशेषलक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वमुच्चकास्ति, तथा सर्वद्रव्याणामपि सामान्यलक्षणभूतेन सादृश्योद्भासिना सदित्यस्य भावेनोत्थापितेनैकत्वेन तिरोहितमपि विशेष- लक्षणभूतस्य स्वरूपास्तित्वस्यावष्टम्भेनोत्तिष्ठन्नानात्वमुच्चकास्ति ।।९७।। शुद्धसंग्रहनयेन सर्वगतं सर्वपदार्थव्यापकम् । इदं केनोक्त म् । उवदिसदा खलु धम्मं जिणवरवसहेण पण्णत्तं धर्मं वस्तुस्वभावसंग्रहमुपदिशता खलु स्फु टं जिनवरवृषभेण प्रज्ञप्तमिति । तद्यथा – यथा सर्वे मुक्तात्मनः सन्तीत्युक्ते सति परमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादभरितावस्थलोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयात्मप्रदेशै-
जैसे बहुतसे, अनेक प्रकारके वृक्षोंको अपने अपने विशेषलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अवलम्बनसे उत्पन्न होनेवाले अनेकत्वको, सामान्य लक्षणभूत १सादृश्यदर्शक वृक्षत्वसे उत्पन्न होनेवाला एकत्व २तिरोहित (अदृश्य) कर देता है, इसीप्रकार बहुतसे, अनेकप्रकारके द्रव्योंको अपने -अपने विशेष लक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अवलम्बनसे उत्पन्न होनेवाले अनेकत्वको, सामान्यलक्षणभूत सादृश्यदर्शक ‘सत्’ पनेसे (-‘सत्’ ऐसे भावसे, अस्तित्वसे, ‘है’ पनेसे) उत्पन्न होनेवाला एकत्व तिरोहित कर देता है । और जैसे उन वृक्षोंके विषयमें सामान्यलक्षणभूत सादृश्यदर्शक वृक्षत्वसे उत्पन्न होनेवाले एकत्वसे तिरोहित होने पर भी (अपने -अपने) विशेषलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अवलम्बनसे उत्पन्न होनेवाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है, (बना रहता है, नष्ट नहीं होता); उसीप्रकार सर्व द्रव्योंके विषयमें भी सामान्यलक्षणभूत सादृश्यदर्शक ‘सत्’ पनेसे उत्पन्न होनेवाले एकत्वसे तिरोहित होने पर भी (अपने -अपने) विशेषलक्षणभूत स्वरूपास्तित्वके अवलम्बनसे उत्पन्न होनेवाला अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान रहता है
[बहुतसे (संख्यापेक्षासे अनेक) और अनेक प्रकारके (अर्थात् आम्र, अशोकादि) वृक्षोंका अपना -अपना स्वरूपास्तित्व भिन्न -भिन्न है, इसलिये स्वरूपास्तित्वकी अपेक्षासे उनमें अनेकत्व है, परन्तु वृक्षत्व जो कि सर्व वृक्षोंका सामान्यलक्षण है और जो सर्व वृक्षोंमें सादृश्य बतलाता है, उसकी अपेक्षासे सर्व वृक्षोंमें एकत्व है । जब इस एकत्वको मुख्य करते हैं तब अनेकत्व गौण हो जाता है; इसीप्रकार बहुतसे (अनन्त) और अनेक (छह) प्रकारके द्रव्योंका १. सादृश्य = समानत्व ।२. तिरोहित = तिरोभूत; आच्छादित; अदृश्य ।
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सिद्धजीवानां ग्रहणं भवति, तथा ‘सर्वं सत्’ इत्युक्ते संग्रहनयेन सर्वपदार्थानां ग्रहणं भवति । अथवा
युगपद्ग्रहणं भवति, तथा सर्वं सदित्युक्ते सति सादृश्यसत्ताभिधानेन महासत्तारूपेण शुद्धसंग्रह-
नयेन सर्वपदार्थानां स्वजात्यविरोधेन ग्रहणं भवतीत्यर्थः ।।९७।। अथ यथा द्रव्यं स्वभावसिद्धं तथा
है, परन्तु सत्पना (-अस्तित्वपना, ‘है’ ऐसा भाव) जो कि सर्व द्रव्योंका सामान्य लक्षण है और
जो सर्वद्रव्योंमें सादृश्य बतलाता है उसकी अपेक्षासे सर्वद्रव्योंमें एकत्व है । जब इस एकत्वको
(समस्त द्रव्योंका स्वरूप -अस्तित्व संबंधी) अनेकत्व स्पष्टतया प्रकाशमान ही रहता है । ]
खण्डन करते हैं । (अर्थात् ऐसा निश्चित करते हैं कि किसी द्रव्यसे अन्य द्रव्यकी उत्पत्ति नहीं होती और द्रव्यसे अस्तित्व कोई पृथक् पदार्थ नहीं है) : —
अन्वयार्थ : — [द्रव्यं ] द्रव्य [स्वभावसिद्धं ] स्वभावसे सिद्ध और [सत् इति ] (स्वभावसे ही) ‘सत्’ है, ऐसा [जिनाः ] जिनेन्द्रदेवने [तत्त्वतः ] यथार्थतः [समाख्यातवन्तः ] कहा है; [तथा ] इसप्रकार [आगमतः ] आगमसे [सिद्धं ] सिद्ध है; [यः ] जो [न इच्छति ] इसे नहीं मानता [सः ] वह [हि ] वास्तवमें [परसमयः ] परसमय है ।।९८।। १. अर्थान्तरत्व = अन्यपदार्थपना ।
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न खलु द्रव्यैर्द्रव्यान्तराणामारम्भः, सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात् । स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात् । अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते । गुणपर्यायात्मानमात्मनः स्वभावमेव मूलसाधनमुपादाय स्वयमेव सिद्धसिद्धिमद्भूतं वर्तते । यत्तु द्रव्यैरारभ्यते न तद् द्रव्यान्तरं, कादाचित्कत्वात् स पर्यायः, द्वयणुकादिवन्मनुष्यादिवच्च । द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्यात् । अथैवं यथा सिद्धं स्वभावत एव द्रव्यं, तथा सदित्यपि तत्स्वभावत एव सिद्धमित्यवधार्यताम्, सत्तात्मनात्मनः स्वभावेन निष्पन्ननिष्पत्तिमद्भाव- युक्तत्वात् । न च द्रव्यादर्थान्तरभूता सत्तोपपत्तिमभिप्रपद्यते, यतस्तत्समवायात्तत्सदिति स्यात् । तत्सदपि स्वभावत एवेत्याख्याति — दव्वं सहावसिद्धं द्रव्यं परमात्मद्रव्यं स्वभावसिद्धं भवति । कस्मात् । अनाद्यनन्तेन परहेतुनिरपेक्षेण स्वतः सिद्धेन केवलज्ञानादिगुणाधारभूतेन सदानन्दैकरूपसुखसुधारसपरम- समरसीभावपरिणतसर्वशुद्धात्मप्रदेशभरितावस्थेन शुद्धोपादानभूतेन स्वकीयस्वभावेन निष्पन्नत्वात् । यच्च स्वभावसिद्धं न भवति तद्द्रव्यमपि न भवति । द्वयणुकादिपुद्गलस्कन्धपर्यायवत् मनुष्यादिजीवपर्यायवच्च । सदिति यथा स्वभावतः सिद्धं तद्द्रव्यं तथा सदिति सत्तालक्षणमपि स्वभावत
टीका : — वास्तवमें द्रव्योंसे द्रव्यान्तरोंकी उत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वभावसिद्ध हैं । (उनकी) स्वभावसिद्धता तो उनकी अनादिनिधनतासे है; क्योंकि १अनादिनिधन साधनान्तरकी अपेक्षा नहीं रखता । वह गुणपर्यायात्मक ऐसे अपने स्वभावको ही — जो कि मूल साधन है उसे — धारण करके स्वयमेव सिद्ध हुआ वर्तता है ।
जो द्रव्योंसे उत्पन्न होता है वह तो द्रव्यान्तर नहीं है, २कादाचित्कपनेके कारण पर्याय है; जैसे – द्विअणुक इत्यादि तथा मनुष्य इत्यादि । द्रव्य तो अनवधि (मर्यादा रहित) त्रिसमय – अवस्थायी (त्रिकालस्थायी) होनेसे उत्पन्न नहीं होता ।
अब इसप्रकार – जैसे द्रव्य स्वभावसे ही सिद्ध है उसीप्रकार ‘(वह) सत् है’ ऐसा भी उसके स्वभावसे ही सिद्ध है, ऐसा निर्णय हो; क्योंकि सत्तात्मक ऐसे अपने स्वभावसे निष्पन्न हुए भाववाला है ( – द्रव्यका ‘सत् है’ ऐसा भाव द्रव्यके सत्तास्वरूप स्वभावका ही बना हुआ है) ।
द्रव्यसे अर्थान्तरभूत सत्ता उत्पन्न नहीं है (-नहीं बन सकती, योग्य नहीं है) कि जिसके समवायसे वह (-द्रव्य) ‘सत्’ हो । (इसीको स्पष्ट समझाते हैं ) : — १. अनादिनिधन = आदि और अन्तसे रहित । (जो अनादिअनन्त हो उसकी सिद्धिके लिये अन्य साधनकी
आवश्यकता नहीं है ।) २. कादाचित्क = कदाचित् – किसीसमय हो ऐसा; अनित्य ।
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सतः सत्तायाश्च न तावद्युतसिद्धत्वेनार्थान्तरत्वं, तयोर्दण्डदण्डिवद्युतसिद्धस्यादर्शनात् । अयुत- सिद्धत्वेनापि न तदुपपद्यते । इहेदमिति प्रतीतेरुपपद्यत इति चेत् किंनिबन्धना हीहेदमिति प्रतीतिः । भेदनिबन्धनेति चेत् को नाम भेदः । प्रादेशिक अताद्भाविको वा । न तावत्प्रादेशिकः, पूर्वमेव युतसिद्धत्वस्यापसारणात् । अताद्भाविकश्चेत् उपपन्न एव, यद् द्रव्यं तन्न गुण इति वचनात् । अयं तु न खल्वेकान्तेनेहेदमिति प्रतीतेर्निबन्धनं, एव भवति, न च भिन्नसत्तासमवायात् । अथवा यथा द्रव्यं स्वभावतः सिद्धं तथा तस्य योऽसौ सत्तागुणः सोऽपि स्वभावसिद्ध एव । कस्मादिति चेत् । सत्ताद्रव्ययोः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि दण्डदण्डिवद्भिन्नप्रदेशाभावात् । इदं के कथितवन्तः । जिणा तच्चदो समक्खादा जिनाः कर्तारः तत्त्वतः सम्यगाख्यातवन्तः कथितवन्तः सिद्धं तह आगमदो सन्तानापेक्षया द्रव्यार्थिकनयेनानादिनिधनागमादपि तथा सिद्धं णेच्छदि जो सो हि परसमओ नेच्छति न मन्यते य इदं वस्तुस्वरूपं स हि स्फु टं परसमयो
प्रथम तो १सत्से २सत्ताकी ३युतसिद्धतासे अर्थान्तरत्व नहीं है, क्योंकि दण्ड और दण्डीकी भाँति उनके सम्बन्धमें युतसिद्धता दिखाई नहीं देती । (दूसरे) अयुतसिद्धतासे भी वह (अर्थान्तरत्व) नहीं बनता । ‘इसमें यह है (अर्थात् द्रव्यमें सत्ता है)’ ऐसी प्रतीति होती है इसलिये वह बन सकता है, — ऐसा कहा जाय तो (पूछते हैं कि) ‘इसमें यह है’ ऐसी प्रतीति किसके आश्रय (-कारण) से होती है ? यदि ऐसा कहा जाय कि भेदके आश्रयसे (अर्थात् द्रव्य और सत्तामें भेद होनेसे) होती है तो, वह कौनसा भेद है ? प्रादेशिक या अताद्भाविक ? ४प्रादेशिक तो है नहीं, क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही रद्द (नष्ट, निरर्थक) कर दिया गया है, और यदि ५अताद्भाविक कहा जाय तो वह उपपन्न ही (ठीक ही) है, क्योंकि ऐसा (शास्त्रका) वचन है कि ‘जो द्रव्य है वह गुण नहीं है ।’ परन्तु (यहाँ भी यह ध्यानमें रखना कि) यह अताद्भाविक भेद ‘एकान्तसे इसमें यह है’ ऐसी प्रतीतिका आश्रय (कारण) नहीं है, क्योंकि वह १. सत् = अस्तित्ववान् अर्थात् द्रव्य ।२. सत्ता = अस्तित्व (गुण) । ३. युतसिद्ध = जुड़कर सिद्ध हुआ; समवायसे – संयोगसे सिद्ध हुआ । [जैसे लाठी और मनुष्यके भिन्न होने
सत्ताके योगसे द्रव्य ‘सत्तावाला’ (‘सत्’) हुआ है ऐसा नहीं है । लाठी और मनुष्यकी भाँति सत्ता और
४. द्रव्य और सत्तामें प्रदेशभेद नहीं है; क्योंकि प्रदेशभेद हो तो युतसिद्धत्व आये, जिसको पहले ही रद्द करके
बताया है । ५. द्रव्य वह गुण नहीं है और गुण वह द्रव्य नहीं है, – ऐसे द्रव्य -गुणके भेदको (गुण -गुणी -भेदको)
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स्वयमेवोन्मग्ननिमग्नत्वात् । तथा हि — यदैव पर्यायेणार्प्यते द्रव्यं तदैव गुणवदिदं द्रव्यमय- मस्य गुणः, शुभ्रमिदमुत्तरीयमयमस्य शुभ्रो गुण इत्यादिवदताद्भाविको भेद उन्मज्जति । यदा तु द्रव्येणार्प्यते द्रव्यं तदास्तमितसमस्तगुणवासनोन्मेषस्य तथाविधं द्रव्यमेव शुभ्रमुत्तरीय- मित्यादिवत्प्रपश्यतः समूल एवाताद्भाविको भेदो निमज्जति । एवं हि भेदे निमज्जति तत्प्रत्यया प्रतीतिर्निमज्जति । तस्यां निमज्जत्यामयुतसिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वं निमज्जति । ततः समस्तमपि द्रव्यमेवैकं भूत्वावतिष्ठते । यदा तु भेद उन्मज्जति, तस्मिन्नुन्मज्जति तत्प्रत्यया प्रतीति- रुन्मज्जति, तस्यामुन्मज्जत्यामयुतसिद्धत्वोत्थमर्थान्तरत्वमुन्मज्जति, तदापि तत्पर्यायत्वेनोन्मज्जज्जल- राशेर्जलकल्लोल इव द्रव्यान्न व्यतिरिक्तं स्यात् । एवं सति स्वयमेव सद् द्रव्यं भवति । यस्त्वेवं मिथ्यादृष्टिर्भवति । एवं यथा परमात्मद्रव्यं स्वभावतः सिद्धमवबोद्धव्यं तथा सर्वद्रव्याणीति । अत्र द्रव्यं केनापि पुरुषेण न क्रियते । सत्तागुणोऽपि द्रव्याद्भिन्नो नास्तीत्यभिप्रायः ।।९८।। अथोत्पादव्ययध्रौव्यत्वे (अताद्भाविक भेद) स्वयमेव १उन्मग्न और २निमग्न होता है । वह इसप्रकार है : — जब द्रव्यको पर्याय प्राप्त कराई जाय ( अर्थात् जब द्रव्यको पर्याय प्राप्त करती है — पहुँचती है इसप्रकार पर्यायार्थिकनयसे देखा जाय) तब ही — ‘शुक्ल यह वस्त्र है, यह इसका शुक्लत्व गुण है’ इत्यादिकी भाँति — ‘गुणवाला यह द्रव्य है, यह इसका गुण है’ इसप्रकार अताद्भाविक भेद उन्मग्न होता है; परन्तु जब द्रव्यको द्रव्य प्राप्त कराया जाय (अर्थात् द्रव्यको द्रव्य प्राप्त करता है; — पहुँचता है इसप्रकार द्रव्यार्थिकनयसे देखा जाय), तब जिसके समस्त ३गुणवासनाके उन्मेष अस्त हो गये हैं ऐसे उस जीवको — ‘शुक्लवस्त्र ही है’ इत्यादिकी भाँति — ‘ऐसा द्रव्य ही है’ इसप्रकार देखने पर समूल ही अताद्भाविक भेद निमग्न होता है । इसप्रकार भेदके निमग्न होने पर उसके आश्रयसे (-कारणसे) होती हुई प्रतीति निमग्न होती है । उसके निमग्न होने पर अयुतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरपना निमग्न होता है, इसलिये समस्त ही एक द्रव्य ही होकर रहता है । और जब भेद उन्मग्न होता है, वह उन्मग्न होने पर उसके आश्रय (कारण) से होती हुई प्रतीति उन्मग्न होती है, उसके उन्मग्न होने पर अयुतसिद्धत्वजनित अर्थान्तरपना उन्मग्न होता है, तब भी (वह) द्रव्यके पर्यायरूपसे उन्मग्न होनेसे, — जैसे जलराशिसे जलतरंगें व्यतिरिक्त नहीं हैं (अर्थात् समुद्रसे तरंगें अलग नहीं हैं) उसीप्रकार — द्रव्यसे व्यतिरिक्त नहीं होता । १. उन्मग्न होना = ऊ पर आना; तैर आना; प्रगट होना (मुख्य होना) । २. निमग्न होना = डूब जाना (गौण होना) । ३. गुणवासनाके उन्मेष = द्रव्यमें अनेक गुण होनेके अभिप्रायकी प्रगटता; गुणभेद होनेरूप मनोवृत्तिके
(अभिप्रायके) अंकुर । प्र २४
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नेच्छति स खलु परसमय एव द्रष्टव्यः ।।९८।।
इह हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति द्रव्यम् । स्वभावस्तु द्रव्यस्य ध्रौव्यो- त्पादोच्छेदैक्यात्मकपरिणामः । यथैव हि द्रव्यवास्तुनः सामस्त्येनैकस्यापि विष्कम्भक्रम- सति सत्तैव द्रव्यं भवतीति प्रज्ञापयति — सदवट्ठिदं सहावे दव्वं द्रव्यं मुक्तात्मद्रव्यं भवति । किं कर्तृ । सदिति शुद्धचेतनान्वयरूपमस्तित्वम् । किंविशिष्टम् । अवस्थितम् । क्व । स्वभावे । स्वभावं कथयति — दव्वस्स जो हि परिणामो तस्य परमात्मद्रव्यस्य संबन्धी हि स्फु टं यः परिणामः । केषु विषयेषु । अत्थेसु
ऐसा होनेसे (यह निश्चित हुआ कि) द्रव्य स्वयमेव सत् है । जो ऐसा नहीं मानता वह (उसे) वास्तवमें ‘परसमय’ (मिथ्यादृष्टि) ही मानना ।।९८।।
अन्वयार्थ : — [स्वभावे ] स्वभावमें [अवस्थितं ] अवस्थित (होनेसे) [द्रव्यं ] द्रव्य [सत् ] ‘सत्’ है; [द्रव्यस्य ] द्रव्यका [यः हि ] जो [स्थितिसंभवनाशसंबद्धः ] उत्पादव्ययध्रौव्य सहित [परिणामः ] परिणाम है [सः ] वह [अर्थेषु स्वभावः ] पदार्थोंका स्वभाव है ।।९९।।
टीका : — यहाँ (विश्वमें) स्वभावमें नित्य अवस्थित होनेसे द्रव्य ‘सत्’ है । स्वभाव द्रव्यका ध्रौव्य -उत्पाद -विनाशकी एकतास्वरूप परिणाम है ।
जैसे १द्रव्यका वास्तु समग्रपने द्वारा (अखण्डता द्वारा) एक होनेपर भी, विस्तारक्रममें १. द्रव्यका वास्तु = द्रव्यका स्व -विस्तार, द्रव्यका स्व -क्षेत्र, द्रव्यका स्व -आकार, द्रव्यका स्व -दल ।
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प्रवृत्तिवर्तिनः सूक्ष्मांशाः प्रदेशाः, तथैव हि द्रव्यवृत्तेः सामस्त्येनैकस्यापि प्रवाहक्रमप्रवृत्तिवर्तिनः सूक्ष्मांशाः परिणामाः । यथा च प्रदेशानां परस्परव्यतिरेकनिबन्धनो विष्कम्भक्रमः, तथा परिणामानां परस्परव्यतिरेकनिबन्धनः प्रवाहक्रमः । यथैव च ते प्रदेशाः स्वस्थाने स्वरूप- पूर्वरूपाभ्यामुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकवास्तुतयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्च संभूति- संहारध्रौव्यात्मकमात्मानं धारयन्ति, तथैव ते परिणामाः स्वावसरे स्वरूपपूर्वरूपाभ्या- मुत्पन्नोच्छन्नत्वात्सर्वत्र परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकप्रवाहतयानुत्पन्नप्रलीनत्वाच्च संभूतिसंहारध्रौव्या- त्मकमात्मानं धारयन्ति । यथैव च य एव हि पूर्वप्रदेशोच्छेदनात्मको वास्तुसीमान्तः स एव हि तदुत्तरोत्पादात्मकः, स एव च परस्परानुस्यूतिसूत्रितैकवास्तुतयातदुभयात्मक इति; तथैव परमात्मपदार्थस्य धर्मत्वादभेदनयेनार्था भण्यन्ते । के ते । केवलज्ञानादिगुणाः सिद्धत्वादिपर्यायाश्च, तेष्वर्थेषु विषयेषु योऽसौ परिणामः । सो सहावो केवलज्ञानादिगुणसिद्धत्वादिपर्यायरूपस्तस्य परमात्मद्रव्यस्य स्वभावो भवति । स च कथंभूतः । ठिदिसंभवणाससंबद्धो स्वात्मप्राप्तिरूपमोक्षपर्यायस्य संभवस्तस्मिन्नेव क्षणे परमागमभाषयैकत्ववितर्कावीचारद्वितीयशुक्लध्यानसंज्ञस्य शुद्धोपादानभूतस्य प्रवर्तमान उसके जो सूक्ष्म अंश हैं वे प्रदेश हैं, इसीप्रकार द्रव्यकी १वृत्ति समग्रपने द्वारा एक होनेपर भी, प्रवाहक्रममें प्रवर्तमान उसके जो सूक्ष्म अंश हैं वे परिणाम है । जैसे विस्तारक्रमका कारण प्रदेशोंका परस्पर व्यतिरेक है, उसीप्रकार प्रवाहक्रमका कारण परिणामोंका परस्पर २व्यतिरेक है ।
जैसे वे प्रदेश अपने स्थानमें स्व -रूपसे उत्पन्न और पूर्व -रूपसे विनष्ट होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर ३अनुस्यूतिसे रचित एकवास्तुपने द्वारा अनुत्पन्न -अविनष्ट होनेसे उत्पत्ति -संहार- ध्रौव्यात्मक हैं, उसीप्रकार वे परिणाम अपने अवसरमें स्व -रूपसे उत्पन्न और पूर्वरूपसे विनष्ट होनेसे तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूतिसे रचित एक प्रवाहपने द्वारा अनुत्पन्न -अविनष्ट होनेसे उत्पत्ति -संहार -ध्रौव्यात्मक हैं । और जैसे वास्तुका जो छोटेसे छोटा अंश पूर्वप्रदेशके विनाशस्वरूप है वही (अंश) उसके बादके प्रदेशका उत्पादस्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूतिसे रचित एक वास्तुपने द्वारा अनुभय स्वरूप है (अर्थात् दोमेंसे एक भी स्वरूप नहीं है), इसीप्रकार प्रवाहका जो छोटेसे छोटा अंश पूर्वपरिणामके विनाशस्वरूप है वही उसके १. वृत्ति = वर्तना वह; होना वह; अस्तित्व । २. व्यतिरेक = भेद; (एकका दूसरेमें) अभाव, (एक परिणाम दूसरे परिणामरूप नहीं है, इसलिये द्रव्यके
प्रवाहमें क्रम है) । ३. अनुस्यूति = अन्वयपूर्वक जुड़ान । [सर्व परिणाम परस्पर अन्वयपूर्वक (सादृश्य सहित) गुंथित (जुड़े)