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पचयः
सो उपायान्तर है
भिन्न वस्तु नहीं हैं) [ इति उपदेशः ] इसप्रकार (जिनेन्द्रका) उपदेश है
परमसमाधिकाले रागादिविकल्परहितमानसप्रत्यक्षेण च तमेवात्मानं परिच्छिनत्ति, तथैवानुमानेन वा
गुण -पर्ययोनो आतमा छे द्रव्य जिन
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भूतैरर्यन्त इति वा अर्था गुणाः, द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेय्रति द्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यन्त इति
वा अर्थाः पर्यायाः
भेद न दंखें तो ‘अर्थ’ ऐसे एक ही वाचक (-शब्द) से ये तीनों पहिचाने जाते हैं ]
प्राप्त करते हैं
ज्ञायन्ते
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कुण्डलादयः पर्यायाः
द्रव्यगुणपर्यायेषु गुणपर्यायाणां द्रव्यादपृथग्भावाद्द्रव्यमेवात्मा
(-पीलापन इत्यादि गुणोंका और कुण्डल इत्यादि पर्यायोंका) सुवर्ण ही आत्मा है, उसीप्रकार
उन द्रव्य -गुण -पर्यायोंमें गुण -पर्यायोंका द्रव्यसे अपृथक्त्व होनेसे उनका द्रव्य ही आत्मा है
(अर्थात् द्रव्य ही गुण और पर्यायोंका आत्मा -स्वरूप -सर्वस्व -सत्य है)
सर्वस्व) द्रव्य ही है
हैं) इसलिये सुवर्ण ‘अर्थ’ है, वैसे द्रव्य ‘अर्थ’; जैसे पीलापन आदि आश्रयभूत सुवर्णको प्राप्त करता
है अथवा आश्रयभूत सुवर्णद्वारा प्राप्त किये जाते है (अर्थात् आश्रयभूत सुवर्ण पीलापन आदिको प्राप्त करता
है) इसलिये पीलापन आदि ‘अर्थ’ हैं, वैसे गुण ‘अर्थ’ हैं; जैसे कुण्डल आदि सुवर्णको क्रमपरिणामसे
प्राप्त करते हैं अथवा सुवर्ण द्वारा क्रमपरिणामसे प्राप्त किया जाता है (अर्थात् सुवर्ण कुण्डल आदिको
क्रमपरिणामसे प्राप्त करता है) इसलिये कुण्डल आदि ‘अर्थ’ हैं, वैसे पर्यायें ‘अर्थ’ हैं
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अल्प कालमें [सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोति ] सर्व दुःखोंसे मुक्त हो जाता है
दृढता पूर्वक उसका प्रहार करता है वही हाथमें तलवार लिये हुए मनुष्यकी भाँति शीघ्र ही
समस्त दुःखोंसे परिमुक्त होता है; अन्य (कोई) व्यापार (प्रयत्न; क्रिया) समस्त दुःखोंसे
ते जीव पामे अल्प काले सर्वदुःखविमोक्षने. ८८
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इस अनादि संसारमें महाभाग्यसे जिनेश्वरदेवके उपदेशरूपी तीक्ष्ण तलवारको प्राप्त करके भी जो
जीव मोह -राग -द्वेषरूपी शत्रुओं पर अतिदृढ़ता पूर्वक उसका प्रहार करता है वही सर्व दुःखोंसे
मुक्त होता है अन्यथा नहीं) इसीलिये सम्पूर्ण आरम्भसे (-प्रयत्नपूर्वक) मोहका क्षय करनेके
लिये मैं पुरुषार्थका आश्रय ग्रहण करता हूँ
(-संयुक्त) [यदि जानाति ] जानता है, [सः ] वह [मोह क्षयं करोति ] मोहका क्षय
करता है
पातयति स एव पारमार्थिकानाकुलत्वलक्षणसुखविलक्षणानां दुःखानां क्षयं करोतीत्यर्थः
द्रव्यत्वथी संबद्ध जाणे, मोहनो क्षय ते करे. ८९
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क्षपयति
करता है
[इच्छति ] चाहता हो तो [जिनमार्गात् ] जिनमार्गसे [गुणैः ] गुणोंके द्वारा [द्रव्येषु ] द्रव्योंमें
[ आत्मानं परं च ] स्व और परको [अभिगच्छतु ] जानो (अर्थात् जिनागमके द्वारा विशेष
गुणोंसे ऐसा विवेक करो कि
जिनमार्गथी द्रव्यो महीं जाणो स्व -परने गुण वडे. ९०
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लब्धवर्णाः
पहाय ममात्मन्येव वर्तमानेनात्मीयमात्मानं सकलत्रिकालकलितध्रौव्यं द्रव्यं जानामि
हैं और यह परद्रव्य हैं’ ऐसा विवेक करो), जोकि इसप्रकार हैं :
है उसके द्वारा
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द्रव्यमाकाशं धर्ममधर्मं कालं पुद्गलमात्मान्तरं च निश्चिनोमि
दीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि मच्चैतन्यं स्वरूपादप्रच्युतमेव मां पृथगवगमयति
ततः कारणादेकापवरक प्रबोधितानेकप्रदीपप्रकाशेष्विव संभूयावस्थितेष्वपि सर्वद्रव्येषु मम सहजशुद्ध-
चिदानन्दैकस्वभावस्य केनापि सह मोहो नास्तीत्यभिप्रायः
ध्रुव द्रव्यके रूपमें जाना, उसीप्रकार अवगाहहेतुत्व, गतिहेतुत्व इत्यादि लक्षणोंसे
नहीं हूँ, अधर्म नहीं हूँ, काल नहीं हूँ, पुद्गल नहीं हूँ, और आत्मान्तर नहीं हूँ; क्योंकि
सकता है
(क्योंकि उनमेंसे एक दीपक बुझ जाने पर उसी दीपकका प्रकाश नष्ट होता है; अन्य दीपकोंके प्रकाश
नष्ट नहीं होते) उसीप्रकार जीवादिक अनेक द्रव्य एक ही क्षेत्रमें रहते हैं फि र भी सूक्ष्मदृष्टिसे देखने पर
वे सब भिन्न -भिन्न ही हैं, एकमेक नहीं होते
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नहीं होता (अर्थात् उस श्रमणाभासके धर्म नहीं होता
(द्रव्यमुनित्वसे) आत्माका दमन करता है वह वास्तवमें श्रमण नहीं है; इसलिये, जैसे जिसे
श्रद्धा नहि, ते श्रमण ना; तेमांथी धर्मोद्भव नहीं. ९१
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तक्कालं तम्मयं ति पण्णत्तं, तम्हा धम्मपरिणदो आदा धम्मो मुणेयव्वो’ इति यदात्मनो
चारित्रस्य धर्मत्वं व्यवस्थापितम्
अभावके कारण मुनि नहीं है; इसलिये जैसे जिसे रेती और स्वर्णकणका विवेक नहीं है ऐसे
धूलको धोनेवालेको, चाहे जितना परिश्रम करने पर भी, स्वर्णकी प्राप्ति नहीं होती, उसीप्रकार
जिसे स्व और परका विवेक नहीं है ऐसे उस द्रव्यमुनिको, चाहे जितनी द्रव्यमुनित्वकी
क्रियाओंका कष्ट उठाने पर भी, धर्मकी प्राप्ति नहीं होती
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पावदि णिव्वाणसुहं’ इति निर्वाणसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगौ च
विरोधिनौ निर्ध्वस्तौ, शुद्धोपयोगस्वरूपं चोपवर्णितं, तत्प्रसादजौ चात्मनो ज्ञानानन्दौ सहजौ
समुद्योतयता संवेदनस्वरूपं सुखस्वरूपं च प्रपंचितम्, तदधुना कथं कथमपि शुद्धो-
पयोगप्रसादेन प्रसाध्य परमनिस्पृहामात्मतृप्तां पारमेश्वरीप्रवृत्तिमभ्युपगतः कृतकृत्यतामवाप्य
नितान्तमनाकुलो भूत्वा प्रलीनभेदवासनोन्मेषः स्वयं साक्षाद्धर्म एवास्मीत्यवतिष्ठते
दृष्टिर्विध्वंसितदर्शनमोहो यः
शुद्धोपयोगका अधिकार प्रारम्भ किया, विरोधी शुभाशुभ उपयोगको नष्ट किया (-हेय
बताया), शुद्धोपयोगका स्वरूप वर्णन किया, शुद्धोपयोगके प्रसादसे उत्पन्न होनेवाले ऐसे
आत्माके सहज ज्ञान और आनन्दको समझाते हुए ज्ञानके स्वरूपका और सुखके स्वरूपका
विस्तार किया, उसे (-आत्माके धर्मत्वको) अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोगके प्रसादसे
हैं, (-ऐसे भावमें निश्चल स्थित होते हैं) :
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इत्यर्थः
आरूढ़ है, [महात्मा श्रमणः ] उस महात्मा श्रमणको [धर्मः इति विशेषितः ] (शास्त्रमें) ‘धर्म’
कहा हैं
वीतराग
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नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय
स्फू र्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम्
धम्ममादियदि ‘तवसिद्धे णयसिद्धे’ इत्यादि वन्दना भण्यते, नमोऽस्त्विति नमस्कारो भण्यते,
“
“
“
“
स्वयमेव धर्म हुआ है
प्रसारसे रसयुक्त) ऐसे ज्ञानतत्त्वमें लीन होकर, अत्यन्त अविचलताके कारण, दैदीप्यमान
ज्योतिमय और सहजरूपसे विलसित (-स्वभावसे ही प्रकाशित) रत्नदीपककी निष्कंप-
प्रकाशमय शोभाको पाता है
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प्रादुर्भूतिर्न भवति यथा जातु मोहांकु रस्य
ताभ्यां विभवैश्वर्याभ्यां संपूर्णमनोरथा भवन्तीति
पञ्चविंशतिगाथाभिर्ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयाभिधानो द्वितीयोऽधिकारः, ततश्च ‘सत्तासंबद्धेदे’ इत्यादि
सम्यकत्वकथनरूपेण प्रथमा गाथा, रत्नत्रयाधारपुरुषस्य धर्मः संभवतीति ‘जो णिहदमोदिट्ठी’ इत्यादि
द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयम्, तस्य निश्चयधर्मसंज्ञतपोधनस्य योऽसौ भक्तिं करोति तत्फलकथनेन
‘जो तं दिट्ठा’ इत्यादि गाथाद्वयम्
मात्र भी उत्पत्ति न हो
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गाथापर्यन्तं सामान्यज्ञेयव्याख्यानं, तदनन्तरं ‘दव्वं जीवमजीवं’ इत्याद्येकोनविंशतिगाथापर्यन्तं
विशेषज्ञेयव्याख्यानं, अथानन्तरं ‘सपदेसेहिं समग्गो लोगो’ इत्यादिगाथाष्टकपर्यन्तं सामान्यभेदभावना,
[पर्यायाः ] पर्यायें होती हैं
वळी द्रव्य -गुणथी पर्ययो; पर्यायमूढ परसमय छे. ९३
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समुदायपातनिका
सूचनगाथा चेति पीठिकाभिधाने प्रथमस्थले स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयम्
गाथात्रयपर्यन्तमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणकथनमुख्यता, ततश्च ‘पाडुब्भवदि य अण्णो’ इत्यादिगाथाद्वयेन
गुणात्मक भी हैं
ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि जीवद्रव्यके विस्तारविशेष अर्थात् गुण हैं
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रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योपदर्शितस्वभाव-
विशेषानेकत्वापत्तिः
सर्व एव पदार्थोऽवस्थायिना विस्तारसामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्यसमुदायेन च
प्रथमगाथा, द्रव्येण सह गुणपर्याययोरभेदमुख्यत्वेन ‘णत्थि गुणो त्ति व कोई’ इत्यादि द्वितीया चेति
स्वतन्त्रगाथाद्वयं, तदनन्तरं द्रव्यस्य द्रव्यार्थिकनयेन सदुत्पादो भवति, पर्यायार्थिकनयेनासदित्यादि-
कथनरूपेण ‘एवंविहं’ इतिप्रभृति गाथाचतुष्टयं, ततश्च ‘अत्थि त्ति य’ इत्याद्येकसूत्रेण
नयसप्तभङ्गीव्याख्यानमिति समुदायेन चतुर्विंशतिगाथाभिरष्टभिः स्थलैर्द्रव्यनिर्णयं करोति
ज्ञानादिके
उसीप्रकार सम्पूर्ण पदार्थ ‘द्रव्य’ नामक अवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायसे और दौड़ते हुये
आयतसामान्यसमुदायसे रचित होता हुआ द्रव्यमय ही है
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गुणात्मक एव, तथैव च पदार्थेष्ववस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायत-
सामान्यसमुदायो वा द्रव्यनामा गुणैरभिनिर्वर्त्यमानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद् गुणात्मक एव
चानेकपुद्गलात्मको द्वयणुकस्त्र्यणुक इति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः
चानेकजीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः
प्रतिपत्तिर्गुणात्मकः स्वभावपर्यायः, तथैव च समस्तेष्वपि द्रव्येषु सूक्ष्मात्मीयात्मीयागुरु-
नित्यमपि तद्गतमना भूत्वा
सूती) तो असमानजातीय द्रव्यपर्याय कहलाता है
या दौड़ता हुआ आयतसामान्यसमुदाय
अनेक रेशमी और सूती पटोंके बने हुए द्विपटिक, त्रिपटिक ऐसी असमानजातीय द्रव्यपर्याय
है, उसीप्रकार अनेक जीवपुद्गलात्मक देव, मनुष्य ऐसी असमानजातीय द्रव्यपर्याय है
परिणमित होनेके कारण अनेकत्वकी प्रतिपत्ति गुणात्मक स्वभावपर्याय है, उसीप्रकार समस्त
द्रव्योंमें अपने -अपने सूक्ष्म अगुरुलघुगुण द्वारा प्रतिसमय प्रगट होनेवाली षट्स्थानपतित
हानिवृद्धिरूप अनेकत्वकी अनुभूति वह गुणात्मक स्वभावपर्याय है; और जैसे पटमें,
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स्वभावपर्यायः
रूपादीनां ज्ञानादीनां वा स्वपरप्रत्ययप्रवर्तमानपूर्वोत्तरावस्थावतीर्णतारतम्योपदर्शितस्वभाव-
विशेषानेकत्वापत्तिः गुणात्मको विभावपर्यायः
यस्मात्सम्यक्त्वात्तत् परमार्थविनिश्चयाधिगमम्
सिद्धजीवद्रव्यं, तथैव स्वकीयस्वकीयविशेषसामान्यगुणेभ्यः सकाशादभिन्नत्वात् सर्वद्रव्याणि
गुणात्मकानि भवन्ति
आनेवाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्वकी आपत्ति वह गुणात्मक विभावपर्याय है, उसीप्रकार
समस्त द्रव्योंमें, रूपादिकके या ज्ञानादिके स्व -परके कारण प्रवर्तमान पूर्वोत्तर अवस्थामें
होनेवाले तारतम्यके कारण देखनेमें आनेवाले स्वभावविशेषरूप अनेकत्वकी आपत्ति वह
गुणात्मक विभावपर्याय है
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गुणपर्यायाश्च, तथा सर्वद्रव्येषु स्वभावद्रव्यपर्यायाः स्वजातीयविजातीयविभावद्रव्यपर्यायाश्च, तथैव
स्वभावविभावगुणपर्यायाश्च ‘जेसिं अत्थि सहाओ’ इत्यादिगाथायां, तथैव ‘भावा जीवादीया’ इत्यादि-
गाथायां च
आत्मस्वभावमें स्थित हैं [ते ] वे [स्वकसमयाः ज्ञातव्याः ] स्वसमय जानने
आत्मस्वभावे स्थित जे ते ‘स्वकसमय’ ज्ञातव्य छे