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केवलज्ञानोत्पादः
है, अथवा केवलज्ञानसे स्वयं अभिन्न होनेसे आत्मा स्वयं ही कर्म है; अपने अनन्त शक्तिवाले
परिणमन स्वभावरूप उत्कृष्ट साधनसे केवलज्ञानको प्रगट करता है, इसलिये आत्मा स्वयं ही
करण है; अपनेको ही केवलज्ञान देता है, इसलिये आत्मा स्वयं ही सम्प्रदान है; अपनेमेंसे मति
श्रुतादि अपूर्ण ज्ञान दूर करके केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिये और स्वयं सहज ज्ञान
स्वभावके द्वारा ध्रुव रहता है इसलिये स्वयं ही अपादान है, अपनेमें ही अर्थात् अपने ही आधारसे
केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिये स्वयं ही अधिकरण है
स्वयमेव आविर्भूत हुआ अर्थात् किसीकी सहायताके बिना अपने आप ही स्वयं प्रगट हुआ
इसलिये ‘स्वयंभू’ कहलाता है
तेने ज वळी उत्पादध्रौव्यविनाशनो समवाय छे
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समवाय मिलाप, एकत्रपना विद्यमान है
अभाव होनेसे विनाश रहित है; और (उस आत्माके शुद्धोपयोगके प्रसादसे हुआ) जो
अशुद्धात्मस्वभावसे विनाश है वह पुनः उत्पत्तिका अभाव होनेसे, उत्पाद रहित है
उत्पाद रहित विनाशके साथ और उन दोनोंके आधारभूत द्रव्यके साथ समवेत (तन्मयतासे युक्त
-एकमेक) है
एक बार सर्वथा नाशको प्राप्त होनेके बाद फि र कभी उत्पन्न नहीं होते, इसलिये उनके उत्पाद
रहित विनाश है
उत्पाद है, अशुद्ध पर्यायकी अपेक्षासे व्यय है और उन दोनोंके आधारभूत आत्मत्वकी अपेक्षासे
ध्रौव्य है
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ध्रौव्यमिति
वळी कोई पर्ययथी दरेक पदार्थ छे सद्भूत खरे
तु ] और किसी पर्यायसे [अर्थः ] पदार्थ [सद्भूतः खलु भवति ] वास्तवमें ध्रुव है
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ज्ञानादिव्यक्तिरूपस्य कार्यसमयसारपर्यायस्योत्पादश्च भवति, तथाप्युभयपर्यायपरिणतात्मद्रव्यत्वेन
ध्रौव्यत्वं पदार्थत्वादिति
“
“
“
“
देता है
पदार्थके होता है
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ददाति
होता है उस -उस प्रकारसे ज्ञानमें उत्पादादिक होता रहता है, इसलिये मुक्त आत्माके समय
समय पर उत्पाद -व्यय -ध्रौव्य होता है
उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यमय वर्तता है
इन्द्रिय -अतीत थयेल आत्मा ज्ञानसौख्ये परिणमे
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प्रलयादधिक के वलज्ञानदर्शनाभिधानतेजाः, समस्तमोहनीयाभावादत्यन्तनिर्विकारशुद्धचैतन्य-
स्वभावमात्मानमासादयन् स्वयमेव स्वपरप्रकाशकत्वलक्षणं ज्ञानमनाकु लत्वलक्षणं सौख्यं च
भूत्वा परिणमते
पश्चादिन्द्रियाधारेण किमप्यल्पज्ञानं सुखं च परिणमति
[अधिकतेजाः ]
समस्त अन्तरायका क्षय होनेसे अनन्त जिसका उत्तम वीर्य है, समस्त ज्ञानावरण और
दर्शनावरणका प्रलय हो जानेसे अधिक जिसका केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज है
स्वभाववाले आत्माका (अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्य जिसका स्वभाव है ऐसे आत्माका )
अनुभव करता हुआ स्वयमेव स्वपरप्रकाशकता लक्षण ज्ञान और अनाकुलता लक्षण सुख होकर
परिणमित होता है
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जिसका लक्षण अनाकुलता है ऐसा सुख आत्माका स्वभाव ही है
जेथी अतीन्द्रियता थई ते कारणे ए जाणजे
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निरवशेषमोहाभावात् क्षुधाबाधा नास्ति
ततः कारणात् केवलिनामाहारोऽस्तीति
रायकर्मनिरवशेषक्षयात् प्रतिक्षणं पुद्गला आस्रवन्तीति नवकेवललब्धिव्याख्यानकाले भणितं तिष्ठति
ध्यानसिद्धयर्थं, न च देहममत्वार्थम्
अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है [तस्मात् तु तत् ज्ञेयम् ] इसलिये ऐसा जानना चाहिये
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स्यात
घनके घोर आघातोंकी परम्परा नहीं है (लोहेके गोलेके संसर्गका अभाव होने पर घनके
लगातार आघातों की भयंकर मार अग्निपर नहीं पड़ती) इसीप्रकार शुद्ध आत्माके शरीर
सम्बन्धी सुख दुःख नहीं हैं
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प्रविक सत्केवलज्ञानोपयोगीभूय विपरिणमते, ततोऽस्याक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकाल-
भावतया समक्षसंवेदनालम्बनभूताः सर्वद्रव्यपर्यायाः प्रत्यक्षा एव भवन्ति
अथात्मज्ञानयोर्निश्चयेनासंख्यातप्रदेशत्वेऽपि व्यवहारेण सर्वगतत्वं भवतीत्यादिकथनमुख्यत्वेन ‘आदा
णाणपमाणं’ इत्यादिगाथापञ्चकम्, ततः परं ज्ञानज्ञेययोः परस्परगमननिराकरणमुख्यतया ‘णाणी
णाणसहावो’ इत्यादिगाथापञ्चकम्, अथ निश्चयव्यवहारकेवलिप्रतिपादनादिमुख्यत्वेन ‘जो हि सुदेण’
इत्यादिसूत्रचतुष्टयम्, अथ वर्तमानज्ञाने कालत्रयपर्यायपरिच्छित्तिकथनादिरूपेण ‘तक्कालिगेव सव्वे’
इत्यादिसूत्रपञ्चकम्, अथ केवलज्ञानं बन्धकारणं न भवति रागादिविकल्परहितं छद्मस्थज्ञानमपि, किंतु
रागादयो बन्धकारणमित्यादिनिरूपणमुख्यतया ‘परिणमदि णेयं’ इत्यादिसूत्रपञ्चकम्, अथ केवलज्ञानं
सर्वज्ञानं सर्वज्ञत्वेन प्रतिपादयतीत्यादिव्याख्यानमुख्यत्वेन ‘जं तक्कालियमिदरं’ इत्यादिगाथापञ्चकम्,
अथ ज्ञानप्रपञ्चोपसंहारमुख्यत्वेन प्रथमगाथा, नमस्कारकथनेन द्वितीया चेति ‘णवि परिणमदि’ इत्यादि
गाथाद्वयम्
[प्रत्यक्षाः ] प्रत्यक्ष हैं; [सः ] वे [तान् ] उन्हें [अवग्रहपूर्वाभिः क्रियाभिः ] अवग्रहादि
क्रियाओंसे [नैव विजानाति ] नहीं जानते
असाधारण ज्ञानस्वभावको ही कारणरूप ग्रहण करनेसे तत्काल ही प्रगट होनेवाले
केवलज्ञानोपयोगरूप होकर परिणमित होते हैं; इसलिये उनके समस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल और
भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे समक्ष संवेदनकी (
उत्पत्तिके बीजभूत शुक्लध्यान नामक स्वसंवेदनज्ञानरूपसे जब आत्मा परिणमित होता है तब
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जालरहितस्वसंवेदनज्ञानेन यदायमात्मा परिणमति, तदा स्वसंवेदनज्ञानफलभूतकेवलज्ञान-
परिच्छित्त्याकारपरिणतस्य तस्मिन्नेव क्षणे क्रमप्रवृत्तक्षायोपशमिकज्ञानाभावादक्रमसमाक्रान्तसमस्त-
द्रव्यक्षेत्रकालभावतया सर्वद्रव्यगुणपर्याया अस्यात्मनः प्रत्यक्षा भवन्तीत्यभिप्रायः
स्वयमेव केवलज्ञानरूप परिणमित होने लगता है
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको युगपत् जानते हैं
भी [परोक्षं नास्ति ] परोक्ष नहीं है
इन्द्रिय -अतीत सदैव ने स्वयमेव ज्ञान थयेलने
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समरसतया समन्ततः सर्वै̄रेवेन्द्रियगुणैः समृद्धस्य, स्वयमेव सामस्त्येन स्वपरप्रकाशनक्षममनश्वरं
लोकोत्तरज्ञानं जातस्य, अक्रमसमाक्रान्तसमस्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया न किंचनापि परोक्षमेव
स्यात
दृढयति
परिणतस्यास्य भगवतः परोक्षं किमपि नास्तीति भावार्थः
इन्द्रियोंसे अतीत हुए हैं, जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दके ज्ञानरूप सर्व इन्द्रिय
सर्व आत्मप्रदेशोंसे समानरूपसे जानते हैं) और जो स्वयमेव समस्तरूपसे स्वपरका प्रकाशन
करनेमें समर्थ अविनाशी लोकोत्तर ज्ञानरूप हुए हैं, ऐसे इन (केवली) भगवानको समस्त द्रव्य-
क्षेत्र -काल -भावका अक्रमिक ग्रहण होनेसे कुछ भी परोक्ष नहीं है
(
भी परोक्ष नहीं है
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लोकालोकविभागविभक्तानन्तपर्यायमालिकालीढस्वरूपसूचिता विच्छेदोत्पादध्रौव्या षड्द्रव्यी
निश्चयतः सर्वदैवाव्याबाधाक्षयसुखाद्यनन्तगुणाधारभूतो योऽसौ केवलज्ञानगुणस्तत्प्रमाणोऽयमात्मा
ने ज्ञेय लोकालोक, तेथी सर्वगत ए ज्ञान छे
ज्ञानप्रमाण है, और ज्ञान
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द्रव्यार्थिकनयेन नित्यम्
भण्यते
लोक और अलोकके विभागसे विभक्त समस्त वस्तुओंके आकारोंके पारको प्राप्त करके
इसीप्रकार अच्युतरूप रहने से ज्ञान सर्वगत है
ही है उसी प्रकार ज्ञेयका अवलम्बन करनेवाला ज्ञान ज्ञेयके बराबर ही है
ने अधिक ज्ञानथी होय तो वण ज्ञान क्यम जाणे अरे
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[ध्रुवम् एव ] अवश्य [ज्ञानात् हीनः वा ] ज्ञानसे हीन [अधिकः वा भवति ] अथवा अधिक
होना चाहिये
(आत्मा) ज्ञानसे अधिक हो तो (वह आत्मा) [ज्ञानेन विना ] ज्ञानके बिना [कथं जानाति ]
कैसे जानेगा ?
जैसा होनेसे नहीं जानेगा; और यदि ऐसा पक्ष स्वीकार किया जाये कि यह आत्मा ज्ञानसे अधिक
है तो अवश्य (आत्मा) ज्ञानसे आगे बढ़ जानेसे (
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न कथमपीति
वह जाननेका काम नहीं कर सकेगा, जैसे कि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श इत्यादि अचेतन गुण
जाननेका काम नहीं कर सकते
सकेगा, जैसे ज्ञानशून्य घट, पट इत्यादि पदार्थ जाननेका काम नहीं कर सकते
[जिनः ज्ञानमयत्वात् ] क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं [च ] और [ते ] वे सब पदार्थ
[विषयत्वात् ] ज्ञानके विषय होनेसे [तस्य ] जिनके विषय [भणिताः ] कहे गये हैं
जिन ज्ञानमय ने सर्व अर्थो विषय जिनना होइने
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व्यपदिश्यते
ही (
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परमार्थतः उनका एक दूसरेमें गमन नहीं होता, क्योंकि सर्व द्रव्य स्वरूपनिष्ठ (अर्थात् अपने-
अपने स्वरूपमें निश्चल अवस्थित) हैं
चाहिए)
वा ] (ज्ञान गुण द्वारा) ज्ञान है [अन्यत् वा ] अथवा (सुखादि अन्य गुण द्वारा) अन्य है
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अति निकटतया (अभिन्न प्रदेशरूपसे) अवलम्बन करके प्रवर्तमान होनेसे ज्ञान आत्माके बिना
अपना अस्तित्व नहीं रख सकता; इसलिये ज्ञान आत्मा ही है
अभाव हो जायेगा, (और ज्ञानगुणका अभाव होनेसे) आत्माके अचेतनता आ जायेगी अथवा
विशेषगुणका अभाव होनेसे आत्माका अभाव हो जायेगा
रहनेसे) निराश्रयताके कारण ज्ञानका अभाव हो जायेगा अथवा (आत्मद्रव्यके एक ज्ञानगुणरूप
हो जानेसे) आत्माकी शेष पर्यायोंका (
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दूसरेमें प्रवृत्ति पाई जाती है
स्वभाव है, ऐसे ज्ञानज्ञेयभावरूप सम्बन्धके कारण ही मात्र उनका एक दूसरेमें होना नेत्र
ज्यम रूप छे नेत्रो तणां, नहि वर्तता अन्योन्यमां