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सर्वेष्टोपलम्भाच्च । यतो हि केवलावस्थायां सुखप्रतिपत्तिविपक्षभूतस्य दुःखस्य साधनतामुप- गतमज्ञानमखिलमेव प्रणश्यति, सुखस्य साधनीभूतं तु परिपूर्णं ज्ञानमुपजायते, ततः केवलमेव सौख्यमित्यलं प्रपंचेन ।।६१।।
सुखमित्यभिप्रायः ।।६१।। अथ पारमार्थिकसुखं केवलिनामेव, संसारिणां ये मन्यन्ते तेऽभव्या इति
(प्रकारान्तरसे केवलज्ञानकी सुखस्वरूपता बतलाते हैं : — ) और, केवल अर्थात् केवलज्ञान सुख ही है, क्योंकि सर्व अनिष्टोंका नाश हो चुका है और सम्पूर्ण इष्टकी प्राप्ति हो चुकी है । केवल -अवस्थामें, सुखोपलब्धिके विपक्षभूत दुःखोंके साधनभूत अज्ञानका सम्पूर्णतया नाश हो जाता है और सुखका साधनभूत परिपूर्ण ज्ञान उत्पन्न होता है, इसलिये केवल ही सुख है । अधिक विस्तारसे बस हो ।।६१।।
अन्वयार्थ : — ‘[विगतघातिनां ] जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं उनका [सौख्यं ] सुख [सुखेषु परमं ] (सर्व) सुखोंमें परम अर्थात् उत्कृष्ट है’ [इति श्रुत्वा ] ऐसा वचन सुनकर [न श्रद्दधति ] जो श्रद्धा नहीं करते [ते अभव्याः ] वे अभव्य हैं; [भव्याः वा ] और भव्य [तत् ] उसे [प्रतीच्छन्ति ] स्वीकार (-आदर) करते हैं – उसकी श्रद्धा करते हैं ।।६२।।
सुणी ‘घातिकर्मविहीननुं सुख सौ सुखे उत्कृष्ट छे’, श्रद्धे न तेह अभव्य छे, ने भव्य ते संमत करे. ६२.
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इह खलु स्वभावप्रतिघातादाकुलत्वाच्च मोहनीयादिकर्मजालशालिनां सुखाभासे- ऽप्यपारमार्थिकी सुखमिति रूढिः । केवलिनां तु भगवतां प्रक्षीणघातिकर्मणां स्वभाव- प्रतिघाताभावादनाकुलत्वाच्च यथोदितस्य हेतोर्लक्षणस्य च सद्भावात्पारमार्थिकं सुखमिति श्रद्धेयम् । न किलैवं येषां श्रद्धानमस्ति ते खलु मोक्षसुखसुधापानदूरवर्तिनो मृगतृष्णाम्भो- भारमेवाभव्याः पश्यन्ति । ये पुनरिदमिदानीमेव वचः प्रतीच्छन्ति ते शिवश्रियो भाजनं समासन्नभव्याः भवन्ति । ये तु पुरा प्रतीच्छन्ति ते तु दूरभव्या इति ।।६२।। सम्यक्त्वरूपभव्यत्वव्यक्त्यभावादभव्या भण्यन्ते, न पुनः सर्वथा । भव्वा वा तं पडिच्छंति ये वर्तमानकाले सम्यक्त्वरूपभव्यत्वव्यक्तिपरिणतास्तिष्ठन्ति ते तदनन्तसुखमिदानीं मन्यन्ते । ये च सम्यक्त्वरूप- भव्यत्वव्यक्त्या भाविकाले परिणमिष्यन्ति ते च दूरभव्या अग्रे श्रद्धानं कुर्युरिति । अयमत्रार्थः — मारणार्थं तलवरगृहीततस्करस्य मरणमिव यद्यपीन्द्रियसुखमिष्टं न भवति, तथापि तलवरस्थानीय- चारित्रमोहोदयेन मोहितः सन्निरुपरागस्वात्मोत्थसुखमलभमानः सन् सरागसम्यग्दृष्टिरात्मनिन्दादिपरिणतो हेयरूपेण तदनुभवति । ये पुनर्वीतरागसम्यग्दृष्टयः शुद्धोपयोगिनस्तेषां, मत्स्यानां स्थलगमनमिवा- ग्निप्रवेश इव वा, निर्विकारशुद्धात्मसुखाच्च्यवनमपि दुःखं प्रतिभाति । तथा चोक्तम् —
टीका : — इस लोकमें मोहनीयआदिकर्मजालवालोंके स्वभावप्रतिघातके कारण और आकुलताके कारण सुखाभास होने पर भी उस सुखाभासको ‘सुख’ कहनेकी अपारमार्थिक रूढ़ि है; और जिनके घातिकर्म नष्ट हो चुके हैं ऐसे केवलीभगवानके, स्वभावप्रतिघातके अभावके कारण और आकुलताके कारण सुखके यथोक्त १कारणका और २लक्षणका सद्भाव होनेसे पारमार्थिक सुख है — ऐसी श्रद्धा करने योग्य है । जिन्हें ऐसी श्रद्धा नहीं है वे – मोक्षसुखके सुधापानसे दूर रहनेवाले अभव्य — मृगतृष्णाके जलसमूहको ही देखते (-अनुभव करते) हैं; और जो उस वचनको इसीसमय स्वीकार(-श्रद्धा) करते हैं वे — शिवश्रीके (-मोक्षलक्ष्मीके) भाजन — आसन्नभव्य हैं, और जो आगे जाकर स्वीकार करेंगे वे दूरभव्य हैं ।
भावार्थ : — ‘केवलीभगवानके ही पारमार्थिक सुख है’ ऐसा वचन सुनकर जो कभी इसका स्वीकार – आदर – श्रद्धा नहीं करते वे कभी मोक्ष प्राप्त नहीं करते; जो उपरोक्त वचन सुनकर अंतरंगसे उसकी श्रद्धा करते हैं वे ही मोक्षको प्राप्त करते हैं । जो वर्तमानमें श्रद्धा करते हैं वे आसन्नभव्य हैं और जो भविष्यमें श्रद्धा करेंगे वे दूरभव्य हैं ।।६२।। १. सुखका कारण स्वभाव प्रतिघातका अभाव है । २. सुखका लक्षण अनाकुलता है ।
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अमीषां प्राणिनां हि प्रत्यक्षज्ञानाभावात्परोक्षज्ञानमुपसर्पतां तत्सामग्रीभूतेषु स्वरसत एवेन्द्रियेषु मैत्री प्रवर्तते । अथ तेषां तेषु मैत्रीमुपगतानामुदीर्णमहामोहकालानलकवलितानां ‘‘समसुखशीलितमनसां च्यवनमपि द्वेषमेति किमु कामाः । स्थलमपि दहति झषाणां किमङ्ग पुनरङ्गमङ्गाराः’’ ।।६२।। एवमभेदनयेन केवलज्ञानमेव सुखं भण्यते इति कथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन चतुर्थस्थलं गतम् । अथ संसारिणामिन्द्रियज्ञानसाधकमिन्द्रियसुखं विचारयति — मणुआसुरामरिंदा मनुजा- सुरामरेन्द्राः । कथंभूताः । अहिद्दुदा इंदिएहिं सहजेहिं अभिद्रुताः कदर्थिताः दुखिताः । कैः । इन्द्रियैः सहजैः । असहंता तं दुक्खं तद्दुःखोद्रेकमसहमानाः सन्तः । रमंति विसएसु रम्मेसु रमन्ते विषयेषु रम्याभासेषु इति । अथ विस्तरः — मनुजादयो जीवा अमूर्तातीन्द्रियज्ञानसुखास्वादमलभमानाः सन्तः मूर्तेन्द्रिय- ज्ञानसुखनिमित्तं तन्निमित्तपञ्चेन्द्रियेषु मैत्री कुर्वन्ति । ततश्च तप्तलोहगोलकानामुदकाकर्षणमिव विषयेषु तीव्रतृष्णा जायते । तां तृष्णामसहमाना विषयाननुभवन्ति इति । ततो ज्ञायते पञ्चेन्द्रियाणि
अन्वयार्थ : — [मनुजासुरामरेन्द्राः ] मनुष्येन्द्र (चक्रवर्ती) असुरेन्द्र और सुरेन्द्र [सहजैः इन्द्रियैः ] स्वाभाविक (परोक्षज्ञानवालोंको जो स्वाभाविक है ऐसी) इन्द्रियोंसे [अभिद्रुताः ] पीड़ित वर्तते हुए [तद् दुःखं ] उस दुःखको [असहमानाः ] सहन न कर सकनेसे [रम्येषु विषयेषु ] रम्य विषयोंमें [रमन्ते ] रमण करते हैं ।।६३।।
टीका : — प्रत्यक्ष ज्ञानके अभावके कारण परोक्ष ज्ञानका आश्रय लेनेवाले इन प्राणियोंको उसकी (-परोक्ष ज्ञानकी) सामग्रीरूप इन्द्रियोंके प्रति निजरससे ही (-स्वभावसे ही) मैत्री प्रवर्तती है । अब इन्द्रियोंके प्रति मैत्रीको प्राप्त उन प्राणियोंको, उदयप्राप्त महामोहरूपी कालाग्निने ग्रास बना लिया है, इसलिये तप्त लोहेके गोलेकी भाँति (-जैसे गरम
सुर -असुर -नरपति पीडित वर्ते सहज इन्द्रियो वडे, नव सही शके ते दुःख तेथी रम्य विषयोमां रमे. ६३.
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तप्तायोगोलानामिवात्यन्तमुपात्ततृष्णानां तद्दुःखवेगमसहमानानां व्याधिसात्म्यतामुपगतेषु रम्येषु विषयेषु रतिरुपजायते । ततो व्याधिस्थानीयत्वादिन्द्रियाणां व्याधिसात्म्यसमत्वाद्विषयाणां च न छद्मस्थानां पारमार्थिकं सौख्यम् ।।६३।।
उस दुःखके वेगको सहन न कर सकनेसे उन्हें व्याधिके प्रतिकारके समान (-रोगमें थोड़ासा
आराम जैसा अनुभव करानेवाले उपचारके समान) रम्य विषयोंमें रति उत्पन्न होती है ।
पारमार्थिक सुख नहीं है ।।६३।।
अब, जहाँ तक इन्द्रियाँ हैं वहाँ तक स्वभावसे ही दुःख है, ऐसा न्यायसे निश्चित करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [येषां ] जिन्हें [विषयेषु रतिः ] विषयोंमें रति है, [तेषां ] उन्हें [दुःख ] दुःख [स्वाभावं ] स्वाभाविक [विजानीहि ] जानो; [हि ] क्योंकि [यदि ] यदि [तद् ] वह दुःख [स्वभावं न ] स्वभाव न हो तो [विषयार्थं ] विषयार्थमें [व्यापारः ] व्यापार [न अस्ति ] न हो ।।६४।।
विषयो विषे रति जेमने, दुःख छे स्वभाविक तेमने; जो ते न होय स्वभाव तो व्यापार नहि विषयो विषे. ६४.
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येषां जीवदवस्थानि हतकानीन्द्रियाणि, न नाम तेषामुपाधिप्रत्ययं दुःखम्, किंतु स्वाभाविकमेव, विषयेषु रतेरवलोकनात् । अवलोक्यते हि तेषां स्तम्बेरमस्य करेणुकुट्टनीगात्र- स्पर्श इव, सफ रस्य बडिशामिषस्वाद इव, इन्दिरस्य संकोचसंमुखारविन्दामोद इव, पतंगस्य प्रदीपार्चीरूप इव, कुरंगस्य मृगयुगेयस्वर इव, दुर्निवारेन्द्रियवेदनावशीकृतानामासन्ननिपातेष्वपि विषयेष्वभिपातः । यदि पुनर्न तेषां दुःखं स्वाभाविकमभ्युपगम्येत तदोपशान्तशीतज्वरस्य संस्वेदनमिव, प्रहीणदाहज्वरस्यारनालपरिषेक इव, निवृत्तनेत्रसंरम्भस्य च वटाचूर्णावचूर्णनमिव, विनष्टकर्णशूलस्य बस्तमूत्रपूरणमिव, रूढव्रणस्यालेपनदानमिव, विषयव्यापारो न दृश्येत । दृश्यते चासौ । ततः स्वभावभूतदुःखयोगिन एव जीवदिन्द्रियाः परोक्षज्ञानिनः ।।६४।। कस्मादिति चेत् । पञ्चेन्द्रियविषयेषु रतेरवलोकनात् । जइ तं ण सब्भावं यदि तद्दुःखं स्वभावेन नास्ति हि स्फु टं वावारो णत्थि विसयत्थं तर्हि विषयार्थं व्यापारो नास्ति न घटते । व्याधिस्थानामौषधेष्विव
टीका : — जिनकी हत (निकृष्ट, निंद्य) इन्द्रियाँ जीवित (-विद्यमान) हैं, उन्हें उपाधिके कारण (बाह्य संयोगोंके कारण, औपाधिक) दुःख नहीं है किन्तु स्वाभाविक ही है, क्योंकि उनकी विषयोंमें रति देखी जाती है । जैसे – हाथी हथिनीरूपी कुट्टनीके शरीर- स्पर्शकी ओर, मछली बंसीमें फँसे हुए मांसके स्वादकी ओर, भ्रमर बन्द हो जानेवाले कमलके गंधकी ओर, पतंगा दीपककी ज्योतिके रूपकी ओर और हिरन शिकारीके संगीतके स्वरकी ओर दौड़ते हुए दिखाई देते हैं उसीप्रकार – दुर्निवार इन्द्रियवेदनाके वशीभूत होते हुए वे यद्यपि विषयोंका नाश अति निकट है (अर्थात् विषय क्षणिक हैं) तथापि, विषयोंकी ओर दौड़ते दिखाई देते हैं । और यदि ‘उनका दुःख स्वाभाविक है’ ऐसा स्वीकार न किया जाये तो जैसे — जिसका शीतज्वर उपशांत हो गया है, वह पसीना आनेके लिये उपचार करता तथा जिसका दाहज्वर उतर गया है वह काँजीसे शरीरके तापको उतारता तथा जिसकी आँखोंका दुःख दूर हो गया है वह वटाचूर्ण (-शंख इत्यादिका चूर्ण) आँजता तथा जिसका कर्णशूल नष्ट हो गया हो वह कानमें फि र बकरेका मूत्र डालता दिखाई नहीं देता और जिसका घाव भर जाता है वह फि र लेप करता दिखाई नहीं देता — इसीप्रकार उनके विषय व्यापार देखनेमें नहीं आना चाहिये; किन्तु उनके वह (विषयप्रवृत्ति) तो देखी जाती है । इससे (सिद्ध हुआ कि) जिनके इन्द्रियाँ जीवित हैं ऐसे परोक्षज्ञानियोंके दुःख स्वाभाविक ही है ।
भावार्थ : — परोक्षज्ञानियोंके स्वभावसे ही दुःख है, क्योंकि उनके विषयोंमें रति वर्तती है; कभी -कभी तो वे, असह्य तृष्णाकी दाहसे (-तीव्र इच्छारूपी दुःखके कारण)
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अस्य खल्वात्मनः सशरीरावस्थायामपि न शरीरं सुखसाधनतामापद्यमानं पश्यामः, यतस्तदापि पीतोन्मत्तकरसैरिव प्रकृष्टमोहवशवर्तिभिरिन्द्रियैरिमेऽस्माकमिष्टा इति क्रमेण विषयार्थं व्यापारो दृश्यते चेत्तत एव ज्ञायते दुःखमस्तीत्यभिप्रायः ।।६४।। एवं परमार्थेनेन्द्रियसुखस्य दुःखस्थापनार्थं गाथाद्वयं गतम् । अथ मुक्तात्मनां शरीराभावेऽपि सुखमस्तीति ज्ञापनार्थं शरीरं सुख- कारणं न स्यादिति व्यक्तीकरोति — पप्पा प्राप्य । कान् । इट्ठे विसए इष्टपञ्चेन्द्रियविषयान् । कथंभूतान् । मरने तककी परवाह न करके क्षणिक इन्द्रियविषयोंमें कूद पड़ते हैं । यदि उन्हें स्वभावसे ही दुःख न हो तो विषयोंमें रति ही न होनी चाहिये । जिसके शरीरका दाह दुःख नष्ट हो गया हो वह बाह्य शीतोपचारमें रति क्यों करेगा ? इससे सिद्ध हुआ कि परोक्षज्ञानियोंके दुःख स्वाभाविक ही है ।।६४।।
अब, मुक्त आत्माके सुखकी प्रसिद्धिके लिये, शरीर सुखका साधन होनेकी बातका खंडन करते हैं । (सिद्ध भगवानके शरीरके बिना भी सुख होता है यह बात स्पष्ट समझानेके लिये, संसारावस्थामें भी शरीर सुखका – इन्द्रियसुखका – साधन नहीं है, ऐसा निश्चित करते हैं) : —
अन्वयार्थ : — [स्पर्शैः समाश्रितान् ] स्पर्शनादिक इन्द्रियाँ जिनका आश्रय लेती हैं ऐसे [इष्टान् विषयान् ] इष्ट विषयोंको [प्राप्य ] पाकर [स्वभावेन ] (अपने शुद्ध) स्वभावसे [परिणममानः ] परिणमन करता हुआ [आत्मा ] आत्मा [स्वयमेव ] स्वयं ही [सुख ] सुखरूप (-इन्द्रियसुखरूप) होता है [देहः न भवति ] देह सुखरूप नहीं होती ।।६५।।
टीका : — वास्तवमें इस आत्माके लिये सशरीर अवस्थामें भी शरीर सुखका साधन हो ऐसा हमें दिखाई नहीं देता; क्योंकि तब भी, मानों उन्मादजनक मदिराका पान किया हो
जीव प्रणमतो स्वयमेव सुखरूप थाय, देह थतो नथी. ६५.
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विषयानभिपतद्भिरसमीचीनवृत्तितामनुभवन्नुपरुद्धशक्तिसारेणापि ज्ञानदर्शनवीर्यात्मकेन निश्चय- कारणतामुपागतेन स्वभावेन परिणममानः स्वयमेवायमात्मा सुखतामापद्यते । शरीरं त्वचेतन- त्वादेव सुखत्वपरिणतेर्निश्चयकारणतामनुपगच्छन्न जातु सुखतामुपढौकत इति ।।६५।।
फासेहिं समस्सिदे स्पर्शनादीन्द्रियरहितशुद्धात्मतत्त्वविलक्षणैः स्पर्शनादिभिरिन्द्रियैः समाश्रितान् सम्यक् प्राप्यान् ग्राह्यान्, इत्थंभूतान् विषयान् प्राप्य । स कः । अप्पा आत्मा कर्ता । किंविशिष्टः । सहावेण परिणममाणो अनन्तसुखोपादानभूतशुद्धात्मस्वभावविपरीतेनाशुद्धसुखोपादानभूतेनाशुद्धात्मस्वभावेन परिणममानः । इत्थंभूतः सन् सयमेव सुहं स्वयमेवेन्द्रियसुखं भवति परिणमति । ण हवदि देहो देहः ऐसी, प्रबल मोहके वश वर्तनेवाली, ‘यह (विषय) हमें इष्ट है’ इसप्रकार विषयोंकी ओर दौड़ती हुई इन्द्रियोंके द्वारा असमीचीन (अयोग्य) परिणतिका अनुभव करनेसे जिसकी १शक्तिकी उत्कृष्टता (-परम शुद्धता) रुक गई है ऐसे भी (अपने) ज्ञान -दर्शन -वीर्यात्मक स्वभावमें — जो कि (सुखके) निश्चयकारणरूप है — परिणमन करता हुआ यह आत्मा स्वयमेव सुखत्वको प्राप्त करता है, (-सुखरूप होता है;) और शरीर तो अचेतन ही होनेसे सुखत्वपरिणतिका निश्चय -कारण न होता हुआ किंचित् मात्र भी सुखत्वको प्राप्त नहीं करता ।
भावार्थ : — सशरीर अवस्थामें भी आत्मा ही सुखरूप (-इन्द्रियसुखरूप) परिणतिमें परिणमन करता है, शरीर नहीं; इसलिये सशरीर अवस्थामें भी सुखका निश्चय कारण आत्मा ही है अर्थात् इन्द्रियसुखका भी वास्तविक कारण आत्माका ही अशुद्ध स्वभाव है । अशुद्ध स्वभावमें परिणमित आत्मा ही स्वयमेव इन्द्रियसुखरूप होता है उसमें शरीर कारण नहीं है; क्योंकि सुखरूप परिणति और शरीर सर्वथा भिन्न होनेके कारण सुख और शरीरमें निश्चयसे किंचित्मात्र भी कार्यकारणता नहीं है ।।६५।।
अब, इसी बातको दृढ़ करते हैं : — १. इन्द्रियसुखरूप परिणमन करनेवाले आत्माकी ज्ञानदर्शन -वीर्यात्मक स्वभावकी उत्कृष्ट शक्ति रुक गई है
पण विषयवश स्वयमेव आत्मा सुख वा दुःख थाय छे. ६६.
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अयमत्र सिद्धान्तो यद्दिव्यवैक्रियिकत्वेऽपि शरीरं न खलु सुखाय कल्प्येतेतीष्टानाम- निष्टानां वा विषयाणां वशेन सुखं वा दुःखं वा स्वयमेवात्मा स्यात् ।।६६।।
पुनरचेतनत्वात्सुखं न भवतीति । अयमत्रार्थः – कर्मावृतसंसारिजीवानां यदिन्द्रियसुखं तत्रापि जीव उपादानकारणं, न च देहः । देहकर्मरहितमुक्तात्मनां पुनर्यदनन्तातीन्द्रियसुखं तत्र विशेषेणात्मैव कारणमिति ।।६५।। अथ मनुष्यशरीरं मा भवतु, देवशरीरं दिव्यं तत्किल सुखकारणं भविष्यतीत्याशङ्कां निराकरोति — एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि एकान्तेन हि स्फु टं देहः कर्ता सुखं न करोति । कस्य । देहिनः संसारिजीवस्य । क्व । सग्गे वा आस्तां तावन्मनुष्याणां मनुष्यदेहः सुखं न करोति, स्वर्गे
अन्वयार्थ : — [एकान्तेन हि ] एकांतसे अर्थात् नियमसे [स्वर्गे वा ] स्वर्गमें भी [देहः ] शरीर [देहिनः ] शरीरी (-आत्माको) [सुखं न करोति ] सुख नहीं देता [विषयवशेन तु ] परन्तु विषयोंके वशसे [सौख्यं दुःखं वा ] सुख अथवा दुःखरूप [स्वयं आत्मा भवति ] स्वयं आत्मा होता है ।।६६।।
टीका : — यहाँ यह सिद्धांत है कि — भले ही दिव्य वैक्रियिक ता प्राप्त हो तथापि ‘शरीर सुख नहीं दे सकता’; इसलिये, आत्मा स्वयं ही इष्ट अथवा अनिष्ट विषयोंके वशसे सुख अथवा दुःखरूप स्वयं ही होता है ।
भावार्थ : — शरीर सुख -दुःख नहीं देता । देवोंका उत्तम वैक्रियिक शरीर सुखका कारण नहीं है और नारकियोंका शरीर दुःखका कारण नहीं है । आत्मा स्वयं ही इष्ट -अनिष्ट विषयोंके वश होकर सुख -दुःखकी कल्पनारूपमें परिणमित होता है ।।६६।।
अब, आत्मा स्वयं ही सुखपरिणामकी शक्तिवाला होनेसे विषयोंकी अकिंचित्करता बतलाते हैं : —
ज्यां जीव स्वयं सुख परिणमे, विषयो करे छे शुं तहीं ? .६७.
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यथा हि केषांचिन्नक्तंचराणां चक्षुषः स्वयमेव तिमिरविकरणशक्तियोगित्वान्न तदपाकरणप्रवणेन प्रदीपप्रकाशादिना कार्यं, एवमस्यात्मनः संसारे मुक्तौ वा स्वयमेव सुखतया परिणममानस्य सुखसाधनधिया अबुधैर्मुधाध्यास्यमाना अपि विषयाः किं हि नाम कुर्युः ।।६७।। वा योऽसौ दिव्यो देवदेहः सोऽप्युपचारं विहाय सुखं न करोति । विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा किंतु निश्चयेन निर्विषयामूर्तस्वाभाविकसदानन्दैकसुखस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादि- कर्मबन्धवशाद्विषयाधीनत्वेन परिणम्य सांसारिकसुखं दुःखं वा स्वयमात्मैव भवति, न च देह इत्यभिप्रायः ।।६६।। एवं मुक्तात्मनां देहाभावेऽपि सुखमस्तीति परिज्ञानार्थं संसारिणामपि देहः सुखकारणं न भवतीतिकथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् । अथात्मनः स्वयमेव सुखस्वभावत्वान्निश्चयेन यथा देहः सुखकारणं न भवति तथा विषया अपीति प्रतिपादयति — जइ यदि दिट्ठी नक्तंचरजनस्य दृष्टिः तिमिरहरा अन्धकारहरा भवति जणस्स जनस्य दीवेण णत्थि कायव्वं दीपेन नास्ति कर्तव्यं । तस्य प्रदीपादीनां यथा प्रयोजनं नास्ति तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति तथा
अन्वयार्थ : — [यदि ] यदि [जनस्य दृष्टिः ] प्राणीकी दृष्टि [तिमिरहरा ] तिमिरनाशक हो तो [दीपेन नास्ति कर्तव्यं ] दीपकसे कोई प्रयोजन नहीं है, अर्थात् दीपक कुछ नहीं कर सकता, [तथा ] उसीप्रकार जहाँ [आत्मा ] आत्मा [स्वयं ] स्वयं [सौख्यं ] सुखरूप परिणमन करता है [तत्र ] वहाँ [विषयाः ] विषय [किं कुर्वन्ति ] क्या कर सकते हैं ? ।।६७।।
टीका : — जैसे किन्हीं निशाचरोंके (उल्लू, सर्प, भूत इत्यादि) नेत्र स्वयमेव अन्धकारको नष्ट करनेकी शक्तिवाले होते हैं इसलिये उन्हें अंधकार नाशक स्वभाववाले दीपक -प्रकाशादिसे कोई प्रयोजन नहीं होता, (उन्हें दीपक -प्रकाश कुछ नहीं करता,) इसीप्रकार — यद्यपि अज्ञानी ‘विषय सुखके साधन हैं’ ऐसी बुद्धिके द्वारा व्यर्थ ही विषयोंका अध्यास (-आश्रय) करते हैं तथापि – संसारमें या मुक्तिमें स्वयमेव सुखरूप परिणमित इस आत्माको विषय क्या कर सकते हैं ?
भावार्थ : — संसारमें या मोक्षमें आत्मा अपने आप ही सुखरूप परिणमित होता है; उसमें विषय अकिंचित्कर हैं अर्थात् कुछ नहीं कर सकते । अज्ञानी विषयोंको सुखका कारण मानकर व्यर्थ ही उनका अवलंबन लेते हैं ।।६७।।
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यथा खलु नभसि कारणान्तरमनपेक्ष्यैव स्वयमेव प्रभाकरः प्रभूतप्रभाभारभास्वर- स्वरूपविकस्वरप्रकाशशालितया तेजः, यथा च कादाचित्कौष्ण्यपरिणतायःपिण्डवन्नित्य- मेवौष्ण्यपरिणामापन्नत्वादुष्णः, यथा च देवगतिनामकर्मोदयानुवृत्तिवशवर्तिस्वभावतया देवः; निर्विषयामूर्तसर्वप्रदेशाह्लादकसहजानन्दैकलक्षणसुखस्वभावो निश्चयेनात्मैव, तत्र मुक्तौ संसारे वा विषयाः किं कुर्वन्ति, न किमपीति भावः ।।६७।। अथात्मनः सुखस्वभावत्वं ज्ञानस्वभावत्वं च पुनरपि दृष्टान्तेन दृढयति — सयमेव जहादिच्चो तेजो उण्हो य देवदा णभसि कारणान्तरं निरपेक्ष्य स्वयमेव यथादित्यः स्वपरप्रकाशरूपं तेजो भवति, तथैव च स्वयमेवोष्णो भवति, तथा चाज्ञानिजनानां देवता भवति । क्व स्थितः । नभसि आकाशे । सिद्धो वि तहा णाणं सुहं च सिद्धोऽपि भगवांस्तथैव कारणान्तरं निरपेक्ष्य स्वभावेनैव स्वपरप्रकाशकं केवलज्ञानं, तथैव परमतृप्तिरूपमनाकुलत्वलक्षणं सुखम् । क्व । लोगे
अन्वयार्थ : — [यथा ] जैसे [नभसि ] आकाशमें [आदित्यः ] सूर्य [स्वयमेव ] अपने आप ही [तेजः ] तेज, [उष्णः ] उष्ण [च ] और [देवता ] देव है, [तथा ] उसीप्रकार [लोके ] लोकमें [सिद्धः अपि ] सिद्ध भगवान भी (स्वयमेव) [ज्ञानं ] ज्ञान [सुखं च ] सुख [तथा देवः ] और देव हैं ।।६८।।
टीका : — जैसे आकाशमें अन्य कारणकी अपेक्षा रखे बिना ही सूर्य (१) स्वयमेव अत्यधिक प्रभासमूहसे चमकते हुए स्वरूपके द्वारा विकसित प्रकाशयुक्त होनेसे तेज है, (२) कभी १उष्णतारूप परिणमित लोहेके गोलेकी भाँति सदा उष्णता -परिणामको प्राप्त होनेसे उष्ण है, और (३) देवगतिनामकर्मके धारावाहिक उदयके वशवर्ती स्वभावसे देव है; इसीप्रकार १. जैसे लोहेका गोला कभी उष्णतापरिणामसे परिणमता है वैसे सूर्य सदा ही उष्णतापरिणामसे परिणमा हुआ
ज्यम आभमां स्वयमेव भास्कर उष्ण, देव, प्रकाश छे, स्वयमेव लोके सिद्ध पण त्यम ज्ञान, सुख ने देव छे. ६८.
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तथैव लोके कारणांतरमनपेक्ष्यैव स्वयमेव भगवानात्मापि स्वपरप्रकाशनसमर्थनिर्वितथानन्त- शक्तिसहजसंवेदनतादात्म्यात् ज्ञानं, तथैव चात्मतृप्तिसमुपजातपरिनिर्वृत्तिप्रवर्तितानाकुलत्व- सुस्थितत्वात् सौख्यं, तथैव चासन्नात्मतत्त्वोपलम्भलब्धवर्णजनमानसशिलास्तम्भोत्कीर्ण- समुदीर्णद्युतिस्तुतियोगिदिव्यात्मस्वरूपत्वाद्देवः । अतोऽस्यात्मनः सुखसाधनाभासैर्विषयैः पर्याप्तम् ।।६८।। — इति आनन्दप्रपंचः । जगति । तहा देवो निजशुद्धात्मसम्यक्श्रद्धानज्ञानानुष्ठानरूपाभेदरत्नत्रयात्मकनिर्विकल्पसमाधिसमुत्पन्न- सुन्दरानन्दस्यन्दिसुखामृतपानपिपासितानां गणधरदेवादिपरमयोगिनां देवेन्द्रादीनां चासन्नभव्यानां मनसि निरन्तरं परमाराध्यं, तथैवानन्तज्ञानादिगुणस्तवनेन स्तुत्यं च यद्दिव्यमात्मस्वरूपं तत्स्वभावत्वात्तथैव देवश्चेति । ततो ज्ञायते मुक्तात्मनां विषयैरपि प्रयोजनं नास्तीति ।।६८।। एवं स्वभावेनैव सुखस्वभावत्वाद्विषया अपि मुक्तात्मनां सुखकारणं न भवन्तीतिकथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् । अथेदानीं श्रीकुन्दकुन्दाचार्यदेवाः पूर्वोक्तलक्षणानन्तसुखाधारभूतं सर्वज्ञं वस्तुस्तवेन नमस्कुर्वन्ति — लोकमें अन्य कारणकी अपेक्षा रखे बिना ही भगवान आत्मा स्वयमेव ही (१) स्वपरको प्रकाशित करनेमें समर्थ निर्वितथ ( – सच्ची) अनन्त शक्तियुक्त सहज संवेदनके साथ तादात्म्य होनेसे ज्ञान है, (२) आत्मतृप्तिसे उत्पन्न होनेवाली जो १परिनिवृत्ति है; उसमें प्रवर्तमान अनाकुलतामें सुस्थितताके कारण सौख्य है, और (३) जिन्हें आत्मतत्त्वकी उपलब्धि निकट है ऐसे बुध जनोंके मनरूपी २शिलास्तंभमें जिसकी अतिशय ३द्युति स्तुति उत्कीर्ण है ऐसा दिव्य आत्मस्वरूपवान होनेसे देव है । इसलिये इस आत्माको सुखसाधनाभास (-जो सुखके साधन नहीं हैं परन्तु सुखके साधन होनेका आभासमात्र जिनमें होता है ऐसे) विषयोंसे बस हो ।
भावार्थ : — सिद्ध भगवान किसी बाह्य कारणकी अपेक्षाके बिना अपने आप ही स्वपरप्रकाशक ज्ञानरूप हैं, अनन्त आत्मिक आनन्दरूप हैं और अचिंत्य दिव्यतारूप हैं । सिद्ध भगवानकी भाँति ही सर्व जीवोंका स्वभाव है; इसलिये सुखार्थी जीवोंको विषयालम्बी भाव छोड़कर निरालम्बी परमानन्दस्वभावरूप परिणमन करना चाहिये ।
१. परिनिर्वृत्ति = मोक्ष; परिपूर्णता; अन्तिम सम्पूर्ण सुख. (परिनिर्वृत्ति आत्मतृप्तिसे होती है अर्थात् आत्मतृप्तिकी
पराकाष्ठा ही परिनिर्वृत्ति है ।) २. शिलास्तंभ = पत्थरका खंभा । ३. द्युति = दिव्यता; भव्यता, महिमा (गणधरदेवादि बुध जनोंके मनमें शुद्धात्मस्वरूपकी दिव्यताका स्तुतिगान
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तेजो दिट्ठी णाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं तिहुवणपहाणदइयं तेजः प्रभामण्डलं, जगत्त्रयकालत्रयवस्तुगतयुगपत्सामान्यास्तित्वग्राहकं केवलदर्शनं, तथैव समस्तविशेषास्तित्वग्राहकं केवलज्ञानं, ऋद्धिशब्देन समवसरणादिलक्षणा विभूतिः, सुखशब्देनाव्याबाधानन्तसुखं, तत्पदाभि- लाषेण इन्द्रादयोऽपि भृत्यत्वं कुर्वन्तीत्येवंलक्षणमैश्वर्यं, त्रिभुवनाधीशानामपि वल्लभत्वं दैवं भण्यते । माहप्पं जस्स सो अरिहो इत्थंभूतं माहात्म्यं यस्य सोऽर्हन् भण्यते । इति वस्तुस्तवनरूपेण नमस्कारं कृतवन्तः ।।“ “ “ “ “
पणमामि नमस्करोमि पुणो पुणो पुनः पुनः । कम् । तं सिद्धं परमागमप्रसिद्धं सिद्धम् । कथंभूतम् । गुणदो अधिगदरं अव्याबाधानन्तसुखादिगुणैरधिकतरं समधिकतरगुणम् । पुनरपि कथं-
-: अब, यहाँ शुभ परिणामका अधिकार प्रारम्भ होता है :-
अब, इन्द्रियसुखस्वरूप सम्बन्धी विचारोंको लेकर, उसके (इन्द्रिय सुखके) साधनका (-शुभोपयोगका) स्वरूप कहते हैं : —
अन्वयार्थ : — [देवतायतिगुरुपूजासु ] देव, गुरु और यतिकी पूजामें, [दाने च एव ] दानमें [सुशीलेषु वा ] एवं सुशीलोंमें [उपवासादिषु ] और उपवासादिकमें [रक्तः आत्मा ] लीन आत्मा [शुभोपयोगात्मकः ] शुभोपयोगात्मक है ।।६९।।
गुरु -देव -यतिपूजा विषे, वळी दान ने सुशीलो विषे, जीव रक्त उपवासादिके, शुभ -उपयोगस्वरूप छे. ६९.
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यदायमात्मा दुःखस्य साधनीभूतां द्वेषरूपामिन्द्रियार्थानुरागरूपां चाशुभोपयोग- भूमिकामतिक्रम्य देवगुरुयतिपूजादानशीलोपवासप्रीतिलक्षणं धर्मानुरागमंगीकरोति तदेन्द्रिय- सुखस्य साधनीभूतां शुभोपयोगभूमिकामधिरूढोऽभिलप्येत ।।६९।। भूतम् । अविच्छिदं मणुवदेवपदिभावं यथा पूर्वमर्हदवस्थायां मनुजदेवेन्द्रादयः समवशरणे समागत्य नमस्कुर्वन्ति तेन प्रभुत्वं भवति, तदतिक्रान्तत्वादतिक्रान्तमनुजदेवपतिभावम् । पुनश्च किंविशिष्टम् । अपुणब्भावणिबद्धं द्रव्यक्षेत्रादिपञ्चप्रकारभवाद्विलक्षणः शुद्धबुद्धैकस्वभावनिजात्मोपलम्भलक्षणो योऽसौ मोक्षस्तस्याधीनत्वादपुनर्भावनिबद्धमिति भावः ।।✽४।। एवं नमस्कारमुख्यत्वेन गाथाद्वयं गतम् । इति गाथाष्टकेन पञ्चमस्थलं ज्ञातव्यम् । एवमष्टादशगाथाभिः स्थलपञ्चके न सुखप्रपञ्चनामान्तराधिकारो गतः । इति पूर्वोक्तप्रकारेण ‘एस सुरासुर’ इत्यादि चतुर्दशगाथाभिः पीठिका गता, तदनन्तरं सप्तगाथाभिः सामान्यसर्वज्ञसिद्धिः, तदनन्तरं त्रयस्त्रिंशद्गाथाभिः ज्ञानप्रपञ्चः, तदनन्तर- मष्टादशगाथाभिः सुखप्रपञ्च इति समुदायेन द्वासप्ततिगाथाभिरन्तराधिकारचतुष्टयेन शुद्धोपयोगाधिकारः समाप्तः ।। इत ऊर्द्ध्वं पञ्चविंशतिगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयाभिधानोऽधिकारः प्रारभ्यते । तत्र पञ्चविंशतिगाथामध्ये प्रथमं तावच्छुभाशुभविषये मूढत्वनिराकरणार्थं ‘देवदजदिगुरु’ इत्यादि दशगाथापर्यन्तं प्रथमज्ञानकण्डिका कथ्यते । तदनन्तरमाप्तात्मस्वरूपपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराकरणार्थं ‘चत्ता पावारंभं’ इत्यादि सप्तगाथापर्यन्तं द्वितीयज्ञानकण्डिका । अथानन्तरं द्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराक रणार्थं ‘दव्वादीएसु’ इत्यादि गाथाषट्क पर्यन्तं तृतीयज्ञानक ण्डिका । तदनन्तरं स्वपर- तत्त्वपरिज्ञानविषये मूढत्वनिराकरणार्थं ‘णाणप्पगं’ इत्यादि गाथाद्वयेन चतुर्थज्ञानकण्डिका । इति ज्ञानकण्डिकाचतुष्टयाभिधानाधिकारे समुदायपातनिका । अथेदानीं प्रथमज्ञानकण्डिकायां स्वतन्त्र- व्याख्यानेन गाथाचतुष्टयं, तदनन्तरं पुण्यं जीवस्य विषयतृष्णामुत्पादयतीति कथनरूपेण गाथाचतुष्टयं, तदनन्तरमुपसंहाररूपेण गाथाद्वयं, इति स्थलत्रयपर्यन्तं क्रमेण व्याख्यानं क्रियते । तद्यथा --अथ यद्यपि पूर्वं गाथाषट्केनेन्द्रियसुखस्वरूपं भणितं तथापि पुनरपि तदेव विस्तरेण कथयन् सन् तत्साधकं शुभोपयोगं प्रतिपादयति, अथवा द्वितीयपातनिका --पीठिकायां यच्छुभोपयोगस्वरूपं सूचितं तस्येदानीमिन्द्रियसुखविशेषविचारप्रस्तावे तत्साधकत्वेन विशेषविवरणं करोति ---देवदजदिगुरुपूजासु चेव दाणम्मि वा सुसीलेसु देवतायतिगुरुपूजासु चैव दाने वा सुशीलेषु उववासादिसु रत्तो तथैवोपवासादिषु च रक्त आसक्तः अप्पा जीवः सुहोवओगप्पगो शुभोपयोगात्मको भण्यते इति । तथाहि – देवता
टीका : – जब यह आत्मा दुःखकी साधना भूत ऐसी द्वेषरूप तथा इन्द्रिय विषयकी अनुरागरूप अशुभोपयोग भूमिकाका उल्लंघन करके, देव -गुरु -यतिकी पूजा, दान, शील और उपवासादिकके प्रीतिस्वरूप धर्मानुरागको अंगीकार करता है तब वह इन्द्रियसुखकी साधनभूत शुभोपयोगभूमिकामें आरूढ़ कहलाता है ।
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अयमात्मेन्द्रियसुखसाधनीभूतस्य शुभोपयोगस्य सामर्थ्यात्तदधिष्ठानभूतानां तिर्यग्मानुष- निर्दोषिपरमात्मा, इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूपप्रयत्नपरो यतिः, स्वयं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकस्तदर्थिनां भव्यानां जिनदीक्षादायको गुरुः, पूर्वोक्तदेवतायतिगुरूणां तत्प्रतिबिम्बादीनां च यथासंभवं द्रव्यभावरूपा पूजा, आहारादिचतुर्विधदानं च आचारादिकथितशीलव्रतानि तथैवोपवासादिजिनगुणसंपत्त्यादिविधि- विशेषाश्व । एतेषु शुभानुष्ठानेषु योऽसौ रतः द्वेषरूपे विषयानुरागरूपे चाशुभानुष्ठाने विरतः, स जीवः
भावार्थ : – सर्व दोष रहित परमात्मा वह देव हैं; भेदाभेद रत्नत्रयके स्वयं आराधक तथा उस आराधनाके अर्थी अन्य भव्य जीवोंको जिनदीक्षा देनेवाले वे गुरु हैं; इन्द्रियजय करके शुद्धात्मस्वरूपमें प्रयत्नपरायण वे यति हैं । ऐसे देव -गुरु -यतिकी अथवा उनकी प्रतिमाकी पूजामें, आहारादिक चतुर्विध दानमें, आचारांगादि शास्त्रोंमें कहे हुए शीलव्रतोंमें तथा उपवासादिक तपमें प्रीतिका होना वह धर्मानुराग है । जो आत्मा द्वेषरूप और विषयानुरागरूप अशुभोपयोगको पार करके धर्मानुरागको अंगीकार करता है वह शुभोपयोगी है ।।६९।।
अब, इन्द्रियसुखको शुभोपयोगके साध्यके रूपमें (अर्थात् शुभोपयोग साधन है और उनका साध्य इन्द्रियसुख है ऐसा) कहते हैं : —
अन्वयार्थ : — [शुभेन युक्तः ] शुभोपयोगयुक्त [आत्मा ] आत्मा [तिर्यक् वा ] तिर्यंच, [मानुषः वा ] मनुष्य [देवः वा ] अथवा देव [भूतः ] होकर, [तावत्कालं ] उतने समय तक [विविधं ] विविध [ऐन्द्रियं सुखं ] इन्द्रियसुख [लभते ] प्राप्त करता है ।।७०।।
टीका : — यह आत्मा इन्द्रियसुखके साधनभूत शुभोपयोगकी सामर्थ्यसे उसके अधिष्ठानभूत (-इन्द्रियसुखके स्थानभूत -आधारभूत ऐसी) तिर्यंच, मनुष्य और देवत्वकी
ते पर्यये तावत्समय इन्द्रियसुख विधविध लहे. ७०.
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देवत्वभूमिकानामन्यतमां भूमिकामवाप्य यावत्कालमवतिष्ठते, तावत्कालमनेकप्रकारमिन्द्रियसुखं समासादयतीति ।।७०।।
तिर्यग्मनुष्यदेवरूपो भूत्वा तावदि कालं तावत्कालं स्वकीयायुःपर्यन्तं लहदि सुहं इंदियं विविहं इन्द्रियजं
समय तक अनेक प्रकारका इन्द्रियसुख प्राप्त करता है ।।७०।।
अन्वयार्थ : — [उपदेशे सिद्धं ] (जिनेन्द्रदेवके) उपदेशसे सिद्ध है कि [सुराणाम् अपि ] देवोंके भी [स्वभावसिद्धं ] स्वभावसिद्ध [सौख्यं ] सुख [नास्ति ] नहीं है; [ते ] वे [देहवेदनार्ता ] (पंचेन्द्रियमय) देहकी वेदनासे पीड़ित होनेसे [रम्येसु विषयेसु ] रम्य विषयोंमें [रमन्ते ] रमते हैं ।।७१।।
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इन्द्रियसुखभाजनेषु हि प्रधाना दिवौकसः । तेषामपि स्वाभाविकं न खलु सुखमस्ति, प्रत्युत तेषां स्वाभाविकं दुःखमेवावलोक्यते, यतस्ते पंचेन्द्रियात्मकशरीरपिशाचपीडया परवशा भृगुप्रपातस्थानीयान् मनोज्ञविषयानभिपतन्ति ।।७१।।
अथैवमिन्द्रियसुखस्य दुःखतायां युक्त्यावतारितायामिन्द्रियसुखसाधनीभूतपुण्यनिर्वर्तक- शुभोपयोगस्य दुःखसाधनीभूतपापनिर्वर्तकाशुभोपयोगविशेषादविशेषत्वमवतारयति —
स्थानीयमहारण्ये मिथ्यात्वादिकुमार्गे नष्टः सन् मृत्युस्थानीयहस्तिभयेनायुष्कर्मस्थानीये साटिकविशेषे
शुक्लकृष्णपक्षस्थानीयशुक्लकृष्णमूषकद्वयछेद्यमानमूले व्याधिस्थानीयमधुमक्षिकावेष्टिते लग्नस्तेनैव
टीका : — इन्द्रियसुखके भाजनोंमें प्रधान देव हैं; उनके भी वास्तवमें स्वाभाविक सुख नहीं है, उलटा उनके स्वाभाविक दुःख ही देखा जाता है; क्योंकि वे पंचेन्द्रियात्मक शरीररूपी पिशाचकी पीड़ासे परवश होनेसे १भृगुप्रपातके समान मनोज्ञ विषयोंकी ओर दौंड़ते है ।।७१।।
इसप्रकार युक्तिपूर्वक इन्द्रियसुखको दुःखरूप प्रगट करके, अब इन्द्रियसुखके साधनभूत पुण्यको उत्पन्न करनेवाले शुभोपयोगकी, दुःखके साधनभूत पापको उत्पन्न करनेवाले अशुभोपयोगसे अविशेषता प्रगट करते हैं : —
अन्वयार्थ : – [नरनारकतिर्यक्सुराः ] मनुष्य, नारकी, तिर्यंच और देव ( – सभी) [यदि ] यदि [देहसंभवं ] देहोत्पन्न [दुःखं ] दुःखको [भजंति ] अनुभव करते हैं, [जीवानां ] तो जीवोंका [सः उपयोगः ] वह (शुद्धोपयोगसे विलक्षण -अशुद्ध) उपयोग [शुभः वा अशुभः ] शुभ और अशुभ — दो प्रकारका [कथं भवति ] कैसे है ? (अर्थात् नहीं है )।।७२।। १. भृगुप्रपात = अत्यंत दुःखसे घबराकर आत्मघात करनेके लिये पर्वतके निराधार उच्च शिखरसे गिरना ।
तिर्यंच -नारक -सुर -नरो जो देहगत दुःख अनुभवे, तो जीवनो उपयोग ए शुभ ने अशुभ कई रीत छे ?. ७२.
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यदि शुभोपयोगजन्यसमुदीर्णपुण्यसंपदस्त्रिदशादयोऽशुभोपयोगजन्यपर्यागतपातकापदो वा नारकादयश्च, उभयेऽपि स्वाभाविकसुखाभावादविशेषेण पंचेन्द्रियात्मकशरीरप्रत्ययं दुःख- मेवानुभवन्ति, ततः परमार्थतः शुभाशुभोपयोगयोः पृथक्त्वव्यवस्था नावतिष्ठते ।।७२।।
व्यवस्थापयति — णरणारयतिरियसुरा भजंति जदि देहसंभवं दुक्खं सहजातीन्द्रियामूर्तसदानन्दैकलक्षणं
पञ्चेन्द्रियात्मकशरीरोत्पन्नं निश्चयनयेन दुःखमेव भजन्ते सेवन्ते, किह सो सुहो व असुहो उवओगो हवदि
टीका : — यदि शुभोपयोगजन्य उदयगत पुण्यकी सम्पत्तिवाले देवादिक (अर्थात् शुभोपयोगजन्य पुण्यके उदयसे प्राप्त होनेवाली ऋद्धिवाले देव इत्यादि) और अशुभोपयोगजन्य उदयगत पापकी आपदावाले नारकादिक — यह दोनों स्वाभाविक सुखके अभावके कारण अविशेषरूपसे (-बिना अन्तरके) पंचेन्द्रियात्मक शरीर सम्बन्धी दुःखका ही अनुभव करते हैं, तब फि र परमार्थसे शुभ और अशुभ उपयोगकी पृथक्त्वव्यवस्था नहीं रहती ।
भावार्थ : — शुभोपयोगजन्य पुण्यके फलरूपमें देवादिककी सम्पदायें मिलती हैं और अशुभोपयोगजन्य पापके फलरूपमें नारकादिक की आपदायें मिलती हैं । किन्तु वे देवादिक तथा नारकादिक दोनों परमार्थसे दुःखी ही हैं । इसप्रकार दोनोंका फल समान होनेसे शुभोपयोग और अशुभोपयोग दोनों परमार्थसे समान ही हैं अर्थात् उपयोगमें — अशुद्धोपयोगमें — शुभ और अशुभ नामक भेद परमार्थसे घटित नहीं होते ।।७२।।
(जैसे इन्द्रियसुखको दुःखरूप और शुभोपयोगको अशुभोपयोगके समान बताया है इसीप्रकार) अब, शुभोपयोगजन्य फलवाला जो पुण्य है उसे विशेषतः दूषण देनेके लिये (अर्थात् उसमें दोष दिखानेके लिये) उस पुण्यको (-उसके अस्तित्वको) स्वीकार करके उसकी (पुण्यकी) बातका खंडन करते हैं : —
चक्री अने देवेंद्र शुभ -उपयोगमूलक भोगथी पुष्टि करे देहादिनी, सुखी सम दीसे अभिरत रही. ७३.
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यतो हि शक्राश्चक्रिणश्च स्वेच्छोपगतैर्भोगैः शरीरादीन् पुष्णन्तस्तेषु दुष्टशोणित इव जलौकसोऽत्यन्तमासक्ताः सुखिता इव प्रतिभासन्ते, ततः शुभोपयोगजन्यानि फलवन्ति पुण्यान्यवलोक्यन्ते ।।७३।। जीवाणं व्यवहारेण विशेषेऽपि निश्चयेन सः प्रसिद्धः शुद्धोपयोगाद्विलक्षणः शुभाशुभोपयोगः कथं भिन्नत्वं लभते, न कथमपीति भावः ।।७२।। एवं स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन प्रथमस्थलं गतम् । अथ पुण्यानि देवेन्द्रचक्रवर्त्यादिपदं प्रयच्छन्ति इति पूर्वं प्रशंसां करोति । किमर्थम् । तत्फलाधारेणाग्रे तृष्णोत्पत्तिरूपदुःखदर्शनार्थं । कुलिसाउहचक्कधरा देवेन्द्राश्चक्रवर्तिनश्च कर्तारः । सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं शुभोपयोगजन्यभोगैः कृत्वा देहादीणं विद्धिं करेंति विकुर्वणारूपेण देहपरिवारादीनां वृद्धिं कुर्वन्ति । कथंभूताः सन्तः । सुहिदा इवाभिरदा सुखिता इवाभिरता आसक्ता इति । अयमत्रार्थः — यत्परमातिशय- तृप्तिसमुत्पादकं विषयतृष्णाविच्छित्तिकारकं च स्वाभाविकसुखं तदलभमाना दुष्टशोणिते जलयूका इवासक्ताः सुखाभासेन देहादीनां वृद्धिं कुर्वन्ति । ततो ज्ञायते तेषां स्वाभाविकं सुखं नास्तीति ।।७३।। अथ पुण्यानि जीवस्य विषयतृष्णामुत्पादयन्तीति प्रतिपादयति — जदि संति हि पुण्णाणि य यदि
अन्वयार्थ : — [कुलिशायुधचक्रधराः ] वज्रधर और चक्रधर (-इन्द्र और चक्रवर्ती) [शुभोपयोगात्मकैः भोगैः ] शुभोपयोगमूलक (पुण्योंके फलरूप) भोगोंके द्वारा [देहादीनां ] देहादिकी [वृद्धिं कुर्वन्ति ] पुष्टि करते हैं और [अभिरताः ] (इसप्रकार) भोगोंमें रत वर्तते हुए [सुखिताः इव ] सुखी जैसे भासित होते हैं । (इसलिये पुण्य विद्यमान अवश्य है) ।।७३।।
टीका : — शक्रेन्द्र और चक्रवर्ती अपनी इच्छानुसार प्राप्त भोगोंके द्वारा शरीरादिको पुष्ट करते हुए — जैसे गोंच (जोंक) दूषित रक्तमें अत्यन्त आसक्त वर्तती हुई सुखी जैसी भासित होती है, उसीप्रकार — उन भोगोंमें अत्यन्त आसक्त वर्तते हुए सुखी जैसे भासित होते हैं; इसलिये शुभोपयोगजन्य फलवाले पुण्य दिखाई देते हैं (अर्थात् शुभोपयोगजन्य फलवाले पुण्योंका अस्तित्व दिखाई देता है) ।
भावार्थ : — जो भोगोंमें आसक्त वर्तते हुए इन्द्र इत्यादि गोंच (जोंक)की भाँति सुखी जैसे मालूम होते हैं, वे भोग पुण्यके फल हैं; इसलिये पुण्यका अस्तित्व अवश्य है । (इसप्रकार इस गाथामें पुण्यकी विद्यमानता स्वीकार करके आगेकी गाथाओंमें पुण्यको दुःखका कारणरूप बतायेंगे) ।।७३।।
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यदि नामैवं शुभोपयोगपरिणामकृतसमुत्पत्तीन्यनेकप्रकाराणि पुण्यानि विद्यन्त इत्य- भ्युपगम्यते, तदा तानि सुधाशनानप्यवधिं कृत्वा समस्तसंसारिणां विषयतृष्णामवश्यमेव समुत्पादयन्ति । न खलु तृष्णामन्तरेण दुष्टशोणित इव जलूकानां समस्तसंसारिणां विषयेषु प्रवृत्तिरवलोक्यते । अवलोक्यते च सा । ततोऽस्तु पुण्यानां तृष्णायतनत्वमबाधितमेव ।।७४।। चेन्निश्चयेन पुण्यपापरहितपरमात्मनो विपरीतानि पुण्यानि सन्ति । पुनरपि किंविशिष्टानि । परिणामसमुब्भवाणि निर्विकारस्वसंवित्तिविलक्षणशुभपरिणामसमुद्भवानि विविहाणि स्वकीयानन्तभेदेन बहुविधानि । तदा तानि किं कुर्वन्ति । जणयंति विसयतण्हं जनयन्ति । काम् । विषयतृष्णाम् । केषाम् ।
अब, इसप्रकार स्वीकार किये गये पुण्य दुःखके बीजके कारण हैं, (अर्थात् तृष्णाके कारण हैं ) इसप्रकार न्यायसे प्रगट करते हैं : —
अन्वयार्थ : — [यदि हि ] (पूर्वोक्त प्रकारसे) यदि [परिणामसमुद्भवानी ] (शुभोपयोगरूप) परिणामसे उत्पन्न होनेवाले [विविधानि पुण्यानि च ] विविध पुण्य [संति ] विद्यमान हैं, [देवतान्तानां जीवानां ] तो वे देवों तकके जीवोंको [विषयतृष्णां ] विषयतृष्णा [जनयन्ति ] उत्पन्न करते हैं ।।७४।।
टीका : — यदि इसप्रकार शुभोपयोगपरिणामसे उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके पुण्य विद्यमान हैं ऐसा स्वीकार किया है, तो वे (-पुण्य) देवों तकके समस्त संसारियोंको विषयतृष्णा अवश्यमेव उत्पन्न करते हैं (ऐसा भी स्वीकार करना पड़ता है) वास्तवमें तृष्णाके बिना; जैसे जोंक (गोंच)को दूषित रक्तमें उसीप्रकार समस्त संसारियोंको विषयोंमें प्रवृत्ति दिखाई न दे; किन्तु वह तो दिखाई देती है । इसलिये पुण्योंकी तृष्णायतनता अबाधित ही है (अर्थात् पुण्य तृष्णाके घर हैं, ऐसा अविरोधरूपसे सिद्ध होता है) ।
परिणामजन्य अनेकविध जो पुण्यनुं अस्तित्व छे, तो पुण्य ए देवान्त जीवने विषयतृष्णोद्भव करे. ७४.
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अथ ते पुनस्त्रिदशावसानाः कृत्स्नसंसारिणः समुदीर्णतृष्णाः पुण्यनिर्वर्तिताभिरपि जीवाणं देवदंताणं दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षारूपनिदानबन्धप्रभृतिनानामनोरथहयरूपविकल्पजालरहित- परमसमाधिसमुत्पन्नसुखामृतरूपां सर्वात्मप्रदेशेषु परमाह्लादोत्पत्तिभूतामेकाकारपरमसमरसीभावरूपां विषयाकाङ्क्षाग्निजनितपरमदाहविनाशिकां स्वरूपतृप्तिमलभमानानां देवेन्द्रप्रभृतिबहिर्मुखसंसारि- जीवानामिति । इदमत्र तात्पर्यम् – यदि तथाविधा विषयतृष्णा नास्ति तर्हि दुष्टशोणिते जलयूका इव कथं ते विषयेषु प्रवृत्तिं कुर्वन्ति । कुर्वन्ति चेत् पुण्यानि तृष्णोत्पादकत्वेन दुःखकारणानि इति ज्ञायन्ते ।।७४।। अथ पुण्यानि दुःखकारणानीति पूर्वोक्तमेवार्थं विशेषेण समर्थयति — ते पुण उदिण्णतण्हा सहजशुद्धात्म- तृप्तेरभावात्ते निखिलसंसारिजीवाः पुनरुदीर्णतृष्णाः सन्तः दुहिदा तण्हाहिं स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपारमार्थिक- सुखाभावात्पूर्वोक्ततृष्णाभिर्दुःखिताः सन्तः । किं कुर्वन्ति । विसयसोक्खाणि इच्छंति निर्विषयपरमात्म-
भावार्थ : — जैसा कि ७३ वीं गाथामें कहा गया है उसप्रकार अनेक तरहके पुण्य विद्यमान हैं, सो भले रहें । वे सुखके साधन नहीं किन्तु दुःखके बीजरूप तृष्णाके ही साधन हैं ।।७४।।
अब, पुण्यमें दुःखके बीजकी विजय घोषित करते हैं । (अर्थात् पुण्यमें तृष्णाबीज दुःखवृक्षरूपसे वृद्धिको प्राप्त होता है — फै लता है ऐसा घोषित करते हैं) : —
अन्वयार्थ : — [पुनः ] और, [उदीर्णतृष्णाः ते ] जिनकी तृष्णा उदित है ऐसे वे जीव [तृष्णाभिः दुःखिताः ] तृष्णाओंके द्वारा दुःखी होते हुए, [आमरणं ] मरणपर्यंत [विषय सौख्यानि इच्छन्ति ] विषयसुखोंको चाहते हैं [च ] और [दुःखसन्तप्ताः ] दुःखोंसे संतप्त होते हुए (-दुःखदाहको सहन न करते हुए) [अनुभवंति ] उन्हें भोगते हैं ।।७५।।
ते उदिततृष्ण जीवो, दुःखित तृष्णाथी, विषयिक सुखने इच्छे अने आमरण दुःखसंतप्त तेने भोगवे. ७५.