Samaysar (Hindi). Kalash: 205-214 ; Gatha: 345-365.

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(शार्दूलविक्रीडित)
माऽकर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्यार्हताः
कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः
ऊर्ध्वं तूद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं
पश्यन्तु च्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम्
।।२०५।।
कुछ प्रकृतिका कार्य मानते हैं और पुरुषको अकर्ता मानते हैं उसीप्रकार, अपनी बुद्धिके दोषसे
इन मुनियोंकी भी ऐसी ही ऐकान्तिक मान्यता हुई
इसलिये जिनवाणी तो स्याद्वादरूप होनेसे
सर्वथा एकान्तको माननेवाले उन मुनियों पर जिनवाणीका कोप अवश्य होता है जिनवाणीके
कोपके भयसे यदि वे विवक्षाको बदलकर यह कहें कि‘‘भावकर्मका कर्ता कर्म है और
अपने आत्माका (अर्थात् अपनेको) कर्ता आत्मा है; इसप्रकार हम आत्माको कंथचित् कर्ता
कहते हैं, इसलिये वाणीका कोप नहीं होता;’’ तो उनका यह कथन भी मिथ्या ही है
आत्मा
द्रव्यसे नित्य है, असंख्यातप्रदेशी है, लोकपरिमाण है, इसलिये उसमें तो कुछ नवीन करना नहीं
है; और जो भावकर्मरूप पर्यायें हैं उनका कर्ता तो वे मुनि कर्मको ही कहते हैं; इसलिये आत्मा
तो अकर्ता ही रहा ! तब फि र वाणीका कोप कैसे मिट गया ? इसलिये आत्माके कर्तृत्व-
अकर्तृत्वकी विवक्षाको यथार्थ मानना ही स्याद्वादको यथार्थ मानना है
आत्माके कर्तृत्व-
अकर्तृत्वके सम्बन्धमें सत्यार्थ स्याद्वाद-प्ररूपण इसप्रकार है :
आत्मा सामान्य अपेक्षासे तो ज्ञानस्वभावमें ही स्थित है; परन्तु मिथ्यात्वादि भावोंको जानते
समय, अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानके अभावके कारण, ज्ञेयरूप मिथ्यात्वादि भावोंको
आत्माके रूपमें जानता है, इसलिये इसप्रकार विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करनेसे
कर्ता है; और जब भेदविज्ञान होनेसे आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता है, तब विशेष अपेक्षासे
भी ज्ञानरूप ज्ञानपरिणाममें ही परिणमित होता हुआ मात्र ज्ञाता रहनेसे साक्षात् अकर्ता
है
।।३३२ से ३४४।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[अमी आर्हताः अपि ] इस आर्हत् मतके अनुयायी अर्थात् जैन भी
[पुरुषं ] आत्माको, [सांख्याः इव ] सांख्यमतियोंकी भाँति, [अकर्तारम् मा स्पृशन्तु ] (सर्वथा)
अक र्ता मत मानो; [भेद-अवबोधात् अधः ] भेदज्ञान होनेसे पूर्व [तं किल ] उसे [सदा ]
निरन्तर [कर्तारं कलयन्तु ] क र्ता मानो, [तु ] और [ऊ र्ध्वं ] भेदज्ञान होनेके बाद [उद्धत-बोध-
धाम-नियतं स्वयं प्रत्यक्षम् एनम् ]
उद्धत
ज्ञानधाममें निश्चित इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्माको
ज्ञानधाम = ज्ञानमन्दिर; ज्ञानप्रकाश

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(मालिनी)
क्षणिकमिदमिहैकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं
निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोर्विभेदम्
अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघैः
स्वयमयमभिषिंचंश्चिच्चमत्कार एव
।।२०६।।
62
[च्युत-कर्तृभावम् अचलं एकं परम् ज्ञातारम् ] क र्तृत्व रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही
[पश्यन्तु ] देखो
भावार्थ :सांख्यमतावलम्बी पुरुषको सर्वथा एकान्तसे अकर्ता, शुद्ध उदासीन चैतन्यमात्र
मानते हैं ऐसा माननेसे पुरुषको संसारके अभावका प्रसंग आता है; और यदि प्रकृतिको संसार
माना जाये तो वह भी घटित नहीं होता, क्योंकि प्रकृति तो जड़ है, उसे सुखदुःखादिका संवेदन
नहीं है, तो उसे संसार कैसा ? ऐसे अनेक दोष एकान्त मान्यतामें आते हैं
सर्वथा एकान्त वस्तुका
स्वरूप ही नहीं है इसिलये सांख्यमती मिथ्यादृष्टि हैं; और यदि जैन भी ऐसा मानें तो वे भी
मिथ्यादृष्टि हैं इसलिये आचार्यदेव उपदेश देते हैं किसांख्यमतियोंकी भाँति जैन आत्माको
सर्वथा अकर्ता न मानें; जब तक स्व-परका भेदविज्ञान न हो तब तक तो उसे रागादिकाअपने
चेतनरूप भावकर्मोंकाकर्ता मानो, और भेदविज्ञान होनेके बाद शुद्ध विज्ञानघन, समस्त कर्तृत्वके
भावसे रहित, एक ज्ञाता ही मानो इसप्रकार एक ही आत्मामें कर्तृत्व तथा अकर्तृत्वये दोनों
भाव विवक्षावश सिद्ध होते हैं ऐसा स्याद्वाद मत जैनोंका है; और वस्तुस्वभाव भी ऐसा ही है,
कल्पना नहीं है ऐसा (स्याद्वादानुसार) माननेसे पुरुषको संसार-मोक्ष आदिकी सिद्धि होती है;
और सर्वथा एकान्त माननेसे सर्व निश्चय-व्यवहारका लोप होता है ।२०५।
आगेकी गाथाओंमें, ‘कर्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है’ ऐसा माननेवाले क्षणिकवादी
बौद्धमतियोंको उनकी सर्वथा एकान्त मान्यतामें दूषण बतायेंगे और स्याद्वाद अनुसार जिसप्रकार
वस्तुस्वरूप अर्थात् कर्ताभोक्तापन है उसप्रकार कहेंगे
उन गाथाओंका सूचक काव्य प्रथम
कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह ] इस जगतमें [एकः ] कोई एक तो (अर्थात् क्षणिक वादी
बौद्धमती तो) [इदम् आत्मतत्त्वं क्षणिकम् कल्पयित्वा ] इस आत्मतत्त्वको क्षणिक क ल्पित
करके [निज-मनसि ] अपने मनमें [कर्तृ-भोक्त्रोः विभेदम् विधत्ते ] क र्ता और भोक्ताका भेद
क रते हैं (
क र्ता अन्य है और भोक्ता अन्य है, ऐसा मानते हैं); [तस्य विमोहं ] उनके
मोहको (अज्ञानको) [अयम् चित्-चमत्कारः एव स्वयम् ] यह चैतन्यचमत्कार ही स्वयं
[नित्य-अमृत-ओघैः ] नित्यतारूप अमृतके ओघ(
समूह)के द्वारा [अभिषिंचं ] अभिसिंचन

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(अनुष्टुभ्)
वृत्त्यंशभेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात्
अन्यः करोति भुंक्ते ऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा ।।२०७।।
क रता हुआ, [अपहरति ] दूर क रता है
भावार्थ :क्षणिकवादी कर्ता-भोक्तामें भेद मानते हैं, अर्थात् वे यह मानते हैं कि
प्रथम क्षणमें जो आत्मा था, वह दूसरे क्षणमें नहीं है आचार्यदेव कहते हैं किहम उसे क्या
समझायें ? यह चैतन्य ही उसका अज्ञान दूर कर देगाकि जो (चैतन्य) अनुभवगोचर नित्य है
प्रथम क्षणमें जो आत्मा था, वही द्वितीय क्षणमें कहता है कि ‘मैं जो पहले था वही हूँ’; इसप्रकारका
स्मरणपूर्वक प्रत्यभिज्ञान आत्माकी नित्यता बतलाता है
यहाँ बौद्धमती कहता है कि‘जो प्रथम
क्षणमें था, वही मैं दूसरे क्षणमें हूँ’ ऐसा मानना वह तो अनादिकालीन अविद्यासे भ्रम है; यह भ्रम
दूर हो तो तत्त्व सिद्ध हो, और समस्त क्लेश मिटे
उसका उत्तर देते हुये कहते हैं कि‘‘हे
बौद्ध ! तू यह जो तर्क (दलील) करता है, उस संपूर्ण तर्कको करनेवाला एक ही आत्मा है
या अनेक आत्मा हैं ? और तेरे संपूर्ण तर्कको एक ही आत्मा सुनता है ऐसा मानकर तू तर्क करता
है या संपूर्ण तर्क पूर्ण होने तक अनेक आत्मा बदल जाते हैं, ऐसा मानकर तर्क करता है ? यदि
अनेक आत्मा बदल जाते हैं, तो तेरे संपूर्ण तर्कको तो कोई आत्मा सुनता नहीं है; तब फि र तर्क
करनेका क्या प्रयोजन है ?
यों अनेक प्रकारसे विचार करने पर तुझे ज्ञात होगा कि आत्माको
क्षणिक मानकर प्रत्यभिज्ञानको भ्रम कह देना वह यथार्थ नहीं है इसलिये यह समझना चाहिये
किआत्माको एकान्ततः नित्य या एकान्ततः अनित्य मानना वह दोनों भ्रम हैं, वस्तुस्वरूप नहीं;
हम (जैन) कथंचित् नित्यानित्यात्मक वस्तुस्वरूप कहते हैं वही सत्यार्थ है ’’ ।२०६।
पुनः, क्षणिकवादका युक्ति द्वारा निषेध करता हुआ, और आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य
कहते हैं :
श्लोकार्थ :[वृत्ति-अंश-भेदतः ] वृत्त्यंशोंके अर्थात् पर्यायोंके भेदके कारण [अत्यन्तं
वृत्तिमत्-नाश-कल्पनात् ] ‘वृत्तिमान् अर्थात् द्रव्य अत्यन्त (सर्वथा) नष्ट हो जाता है’ ऐसी
क ल्पनाके द्वारा [अन्यः करोति ] ‘अन्य क रता है और [अन्यः भुंक्ते ] अन्य भोगता है’ [इति
एकान्तः मा चकास्तु ]
ऐसा एकान्त प्रकाशित मत क रो
यदि यह कहा जाये कि ‘आत्मा नष्ट हो जाता है, किन्तु संस्कार छोड़ता जाता है’ तो यह भी यथार्थ
नहीं है; यदि आत्मा नष्ट हो जाये तो आधारके बिना संस्कार कैसे रह सकता है ? और यदि कदाचित्
एक आत्मा संस्कार छोड़ता जाये, तो भी उस आत्माके संस्कार दूसरे आत्मामें प्रविष्ट हो जायें
, ऐसा
नियम न्यायसंगत नहीं है

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केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो
जम्हा तम्हा कुव्वदि सो वा अण्णो व णेयंतो ।।३४५।।
केहिंचि दु पज्जएहिं विणस्सए णेव केहिंचि दु जीवो
जम्हा तम्हा वेददि सो वा अण्णो व णेयंतो ।।३४६।।
जो चेव कुणदि सो चिय ण वेदए जस्स एस सिद्धंतो
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ।।३४७।।
अण्णो करेदि अण्णो परिभुंजदि जस्स एस सिद्धंतो
सो जीवो णादव्वो मिच्छादिट्ठी अणारिहदो ।।३४८।।
कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः
यस्मात्तस्मात्करोति स वा अन्यो वा नैकान्तः ।।३४५।।
भावार्थ :द्रव्यकी पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट होती हैं, इसलिये बौद्ध यह मानते हैं कि
‘द्रव्य ही सर्वथा नष्ट होता है’ ऐसी एकान्त मान्यता मिथ्या है यदि पर्यायवान पदार्थका
ही नाश हो जाये तो पर्याय किसके आश्रयसे होगी ? इसप्रकार दोनोंके नाशका प्रसंग आनेसे
शून्यका प्रसंग आता है
।२०७।
अब, निम्नलिखित गाथाओंमें अनेकान्तको प्रगट करके क्षणिकवादका स्पष्टतया निषेध
करते हैं :
पर्याय कुछसे नष्ट जीव, कुछसे न जीव विनष्ट है
इससे करै है सो हि या को अन्यनहिं एकान्त है ।।३४५।।
पर्याय कुछसे नष्ट जीव, कुछसे न जीव विनष्ट है
यों जीव वेदै सो हि या को अन्यनहिं एकान्त है ।।३४६।।
जीव जो करै वह भोगता नहिंजिसका यह सिद्धान्त है
अर्हन्तके मतका नहीं सो जीव मिथ्यादृष्टि है ।।३४७।।
जीव अन्य करता, अन्य वेदेजिसका यह सिद्धान्त है
अर्हन्तके मतका नहीं, सो जीव मिथ्यादृष्टि है ।।३४८।।
गाथार्थ :[यस्मात् ] क्योंकि [जीवः ] जीव [कैश्चित् पर्यायैः तु ] कितनी ही

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कैश्चित्तु पर्यायैर्विनश्यति नैव कैश्चित्तु जीवः
यस्मात्तस्माद्वेदयते स वा अन्यो वा नैकान्तः ।।३४६।।
यश्चैव करोति स चैव न वेदयते यस्य एष सिद्धान्तः
स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्याद्रष्टिरनार्हतः ।।३४७।।
अन्यः करोत्यन्यः परिभुंक्ते यस्य एष सिद्धान्तः
स जीवो ज्ञातव्यो मिथ्याद्रष्टिरनार्हतः ।।३४८।।
यतो हि प्रतिसमयं सम्भवदगुरुलघुगुणपरिणामद्वारेण क्षणिकत्वादचलितचैतन्यान्वय-
गुणद्वारेण नित्यत्वाच्च जीवः कैश्चित्पर्यायैर्विनश्यति, कैश्चित्तु न विनश्यतीति द्विस्वभावो
जीवस्वभावः
ततो य एव करोति स एवान्यो वा वेदयते य एव वेदयते, स एवान्यो वा
पर्यायोंसे [विनश्यति ] नष्ट होता है [तु ] और [कैश्चित् ] कितनी ही पर्यायोंसे [न एव ] नष्ट
नहीं होता, [तस्मात् ] इसलिये [सः वा करोति ] ‘(जो भोगता है) वही क रता है’ [अन्यः वा ]
अथवा ‘दूसरा ही क रता है’ [न एकान्तः ] ऐसा एकान्त नहीं है (
स्याद्वाद है)
[यस्मात् ] क्योंकि [जीवः ] जीव [कैश्चित् पर्यायैः तु ] कितनी ही पर्यायोंसे
[विनश्यति ] नष्ट होता है [तु ] और [कैश्चित् ] कितनी ही पर्यायोंसे [न एव ] नष्ट नहीं होता,
[तस्मात् ] इसलिये [सः वा वेदयते ] ‘(जो क रता है) वही भोगता है’ [अन्यः वा ] अथवा
‘दूसरा ही भोगता है’ [न एकान्तः ] ऐसा एकान्त नहीं है (
स्याद्वाद है)
[यः च एव करोति ] जो क रता है [सः च एव न वेदयते ] वही नहीं भोगता’ [एषः
यस्य सिद्धान्तः ] ऐसा जिसका सिद्धांत है, [सः जीवः ] वह जीव [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि,
[अनार्हतः ] अनार्हत (
अर्हन्तके मतको न माननेवाला) [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिए
[अन्यः करोति ] दूसरा क रता है [अन्यः परिभुंक्ते ] और दूसरा भोगता है’ [एषः यस्य
सिद्धान्तः ] ऐसा जिसका सिद्धांत है, [सः जीवः ] वह जीव [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि,
[अनार्हतः ] अनार्हत (
अजैन) [ज्ञातव्यः ] जानना चाहिये
टीका :जीव, प्रतिसमय सम्भवते (होनेवाले) अगुरुलघुगुणके परिणाम द्वारा क्षणिक
होनसे और अचलित चैतन्यके अन्वयरूप गुण द्वारा नित्य होनेसे, कितनी ही पर्यायोंसे विनाशको
प्राप्त होता है और कितनी ही पर्यायोंसे विनाशको नहीं प्राप्त होता है
इसप्रकार दो स्वभाववाला
जीवस्वभाव है; इसलिये ‘जो करता है वही भोगता है ’ अथवा ‘दूसरा ही भोगता है’, ‘जो भोगता

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करोतीति नास्त्येकान्तः एवमनेकान्तेऽपि यस्तत्क्षणवर्तमानस्यैव परमार्थसत्त्वेन वस्तुत्वमिति
वस्त्वंशेऽपि वस्तुत्वमध्यास्य शुद्धनयलोभाद्ऋजुसूत्रैकान्ते स्थित्वा य एव करोति स एव न वेदयते,
अन्यः करोति अन्यो वेदयते इति पश्यति स मिथ्या
द्रष्टिरेव द्रष्टव्यः, क्षणिकत्वेऽपि वृत्त्यंशानां
वृत्तिमतश्चैतन्यचमत्कारस्य टंकोत्कीर्णस्यैवान्तःप्रतिभासमानत्वात्
है वही करता है’ अथवा ‘दूसरा ही करता है’ऐसा एकान्त नहीं है इसप्रकार अनेकान्त होने
पर भी, ‘जो (पर्याय) उस समय होती है, उसीको परमार्थ सत्त्व है, इसलिये वही वस्तु है’
इसप्रकार वस्तुके अंशमें वस्तुत्वका अध्यास करके शुद्धनयके लोभसे ऋजुसूत्रनयके एकान्तमें
रहकर जो यह देखता
मानता है कि ‘‘जो करता है वही नहीं भोगता, दूसरा करता है और दूसरा
भोगता है’’, उस जीवको मिथ्यादृष्टि ही देखना-मानना चाहिये; क्योंकि, वृत्त्यंशों(पर्यायों)का
क्षणिकत्व होने पर भी, वृत्तिमान (पर्यायमान) जो चैतन्यचमत्कार (आत्मा) है, वह तो टंकोत्कीर्ण
(नित्य) ही अन्तरंगमें प्रतिभासित होता है
भावार्थ :वस्तुका स्वभाव जिनवाणीमें द्रव्यपर्यायस्वरूप कहा है; इसलिये स्याद्वादसे
ऐसा अनेकान्त सिद्ध होता है कि पर्याय-अपेक्षासे तो वस्तु क्षणिक है और द्रव्य-अपेक्षासे नित्य
है
जीव भी वस्तु होनेसे द्रव्यपर्यायस्वरूप है इसलिये, पर्यायदृष्टिसे देखा जाय तो कार्यको करती
है एक पर्याय, और भोगती है दूसरी पर्याय; जैसे किमनुष्यपर्यायने शुभाशुभ कर्म किये और
उनका फल देवादिपर्यायने भोगा यदि द्रव्यदृष्टिसे देखा जाय तो, जो करता है वही भोगता है;
जैसे किमनुष्यपर्यायमें जिस जीवद्रव्यने शुभाशुभ कर्म किये, उसी जीवद्रव्यने देवादि पर्यायमें
स्वयं किये गये कर्मके फलको भोगा
इसप्रकार वस्तुका स्वरूप अनेकान्तरूप सिद्ध होने पर भी, जो जीव शुद्धनयको समझे बिना
शुद्धनयके लोभसे वस्तुके एक अंशको (वर्तमान कालमें वर्तती पर्यायको) ही वस्तु मानकर
ऋजुसूत्रनयके विषयका एकान्त पकड़कर यह मानता है कि ‘जो करता है वही नहीं भोगता
अन्य भोगता है, और जो भोगता है वही नहीं करताअन्य करता है, ’ वह जीव मिथ्यादृष्टि है,
अरहन्तके मतका नहीं है; क्योंकि, पर्यायोंका क्षणिकत्व होने पर भी, द्रव्यरूप चैतन्यचमत्कार तो
अनुभवगोचर नित्य है; प्रत्यभिज्ञानसे ज्ञात होता है कि ‘जो मैं बालक अवस्थामें था, वहीं मैं तरुण
अवस्थामें था और वही मैं वृद्ध अवस्थामें हूँ
’ इसप्रकार जो कथंचित् नित्यरूपसे अनुभवगोचर
हैस्वसंवेदनमें आता है और जिसे जिनवाणी भी ऐसा ही कहती है, उसे जो नहीं मानता वह
मिथ्यादृष्टि है, ऐसा समझना चाहिये ।।३४५ से ३४८।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :

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(शार्दूलविक्रीडित)
आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यान्धकैः
कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः
चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतै-
रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्ते क्षिभिः
।।२०८।।
श्लोकार्थ :[आत्मानं परिशुद्धम् ईप्सुभिः परैः अन्धकैः ] आत्माको सम्पूर्णतया शुद्ध
चाहनेवाले अन्य किन्हीं अन्धोंने[पृथुकैः ] बालिशजनोंने (बौद्धोंने)[काल-उपाधि-बलात्
अपि तत्र अधिकाम् अशुद्धिम् मत्वा ] कालकी उपाधिके कारण भी आत्मामें अधिक अशुद्धि
मानकर [अतिव्याप्तिं प्रपद्य ] अतिव्याप्तिको प्राप्त होकर, [शुद्ध-ऋजुसूत्रे रतैः ] शुद्ध ऋजुसूत्रनयमें
रत होते हुए [चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य ] चैतन्यको क्षणिक क ल्पित करके, [अहो एषः आत्मा
व्युज्झितः ]
इस आत्माको छोड़ दिया; [निःसूत्र-मुक्ता-ईक्षिभिः हारवत् ] जैसे हारके सूत्र(डोरे)को
न देखकर मोतियोंको ही देखनेवाले हारको छोड़ देते हैं
भावार्थ :आत्माको सम्पूर्णतया शुद्ध माननेके इच्छुक बौद्धोंने विचार किया कि‘‘यदि
आत्माको नित्य माना जाय तो नित्यमें कालकी अपेक्षा होती है, इसलिये उपाधि लग जायेगी; इसप्रकार
कालकी उपाधि लगनेसे आत्माको बहुत बड़ी अशुद्धि लग जायेगी और इससे अतिव्याप्ति दोष
लगेगा
’’ इस दोषके भयसे उन्होंने शुद्ध ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान समय है, उतना मात्र (
क्षणिक ही) आत्माको माना और उसे (आत्माको) नित्यनित्यास्वरूप नहीं माना इसप्रकार
आत्माको सर्वथा क्षणिक माननेसे उन्हें नित्यानित्यस्वरूपद्रव्यपर्यायस्वरूप सत्यार्थ आत्माकी
प्राप्ति नहीं हुई; मात्र क्षणिक पर्यायमें आत्माकी कल्पना हुई; किन्तु वह आत्मा सत्यार्थ नहीं है
मोतियोंके हारमें, डोरेमें अनेक मोती पिरोये होते हैं; जो मनुष्य उस हार नामक वस्तुको
मोतियों तथा डोरे सहित नहीं देखतामात्र मोतियोंको ही देखता है, वह पृथक् पृथक् मोतियोंको
ही ग्रहण करता है, हारको छोड़ देता है; अर्थात् उसे हारकी प्राप्ति नहीं होती इसीप्रकार जो जीव
आत्माके एक चैतन्यभावको ग्रहण नहीं करते और समय समय पर वर्तनापरिणामरूप उपयोगकी
प्रवृत्तिको देखकर आत्माको अनित्य कल्पित करके, ऋजुसूत्रनयका विषय जो वर्तमान-समयमात्र
क्षणिकत्व है, उतना मात्र ही आत्माको मानते हैं (अर्थात् जो जीव आत्माको द्रव्यपर्यायस्वरूप नहीं
मानते
मात्र क्षणिक पर्यायरूप ही मानते हैं ), वे आत्माको छोड़ देते हैं; अर्थात् उन्हें आत्माकी
प्राप्ति नहीं होती ।२०८।
अब, इस काव्यमें आत्मानुभव करनेको कहते हैं :

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(शार्दूलविक्रीडित)
कर्तृर्वेदयितुश्च युक्ति वशतो भेदोऽस्त्वभेदोऽपि वा
कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव संचिन्त्यताम्
प्रोता सूत्र इवात्मनीह निपुणैर्भेत्तुं न शक्या क्वचि-
च्चिच्चिन्तामणिमालिकेयमभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः
।।२०९।।
(रथोद्धता)
व्यावहारिकद्रशैव केवलं
कर्तृ कर्म च विभिन्नमिष्यते
निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते
कर्तृ कर्म च सदैकमिष्यते
।।२१०।।
श्लोकार्थ :[कर्तुः च वेदयितुः युक्ति वशतः भेदः अस्तु वा अभेदः अपि ] क र्ताका
और भोक्ताका युक्ति के वशसे भेद हो या अभेद हो, [वा कर्ता च वेदयिता मा भवतु ] अथवा
क र्ता और भोक्ता दोनों न हों; [वस्तु एव संचिन्त्यताम् ] वस्तुका ही अनुभव करो
[निपुणैः सूत्रे
इव इह आत्मनि प्रोता चित्-चिन्तामणि-मालिका क्वचित् भेत्तुं न शक्या ] जैसे चतुर पुरुषोंके द्वारा
डोरेमें पिरोई गई मणियोंकी माला भेदी नहीं जा सकती, उसीप्रकार आत्मामें पिरोई गई चैतन्यरूप
चिन्तामणिकी माला भी कभी किसीसे भेदी नहीं जा सकती; [इयम् एका ] ऐसी यह आत्मारूप
माला एक ही, [नः अभितः अपि चकास्तु एव ] हमें समस्ततया प्रकाशमान हो (अर्थात् नित्यत्व,
अनित्यत्व आदिके विक ल्प छूटकर हमें आत्माका निर्विक ल्प अनुभव हो)
भावार्थ :आत्मा वस्तु होनेसे द्रव्यपर्यायात्मक है इसलिये उसमें चैतन्यके
परिणमनरूप पर्यायके भेदोंकी अपेक्षासे तो कर्ता-भोक्ताका भेद है और चिन्मात्रद्रव्यकी अपेक्षासे
भेद नहीं है; इसप्रकार भेद-अभेद हो
अथवा चिन्मात्र अनुभवनमें भेद-अभेद क्यों कहना
चाहिये ? (आत्माको) कर्ता-भोक्ता ही न कहना चाहिये, वस्तुमात्रका अनुभव करना चाहिये जैसे
मणियोंकी मालामें मणियोंकी और डोरेकी विवक्षासे भेद-अभेद है, परन्तु मालामात्रके ग्रहण करने
पर भेदाभेद-विकल्प नहीं है, इसीप्रकार आत्मामें पर्यायोंकी और द्रव्यकी विवक्षासे भेद-अभेद
है, परन्तु आत्मवस्तुमात्रका अनुभव करने पर विकल्प नहीं है
आचार्यदेव कहते हैं किऐसा
निर्विकल्प आत्माका अनुभव हमें प्रकाशमान हो ।२०९।
अब, आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[केवलं व्यावहारिकदृशा एव कर्तृ च कर्म विभिन्नम् इष्यते ] केवल
व्यावहारिक दृष्टिसे ही क र्ता और क र्म भिन्न माने जाते हैं; [निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते ] यदि

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जह सिप्पिओ दु कम्मं कुव्वदि ण य सो दु तम्मओ होदि
तह जीवो वि य कम्मं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ।।३४९।।
जह सिप्पिओ दु करणेहिं कुव्वदि ण सो दु तम्मओ होदि
तह जीवो करणेहिं कुव्वदि ण य तम्मओ होदि ।।३५०।।
जह सिप्पिओ दु करणाणि गिण्हदि ण सो दु तम्मओ होदि
तह जीवो करणाणि दु गिण्हदि ण य तम्मओ होदि ।।३५१।।
जह सिप्पि दु कम्मफलं भुंजदि ण य सो दु तम्मओ होदि
तह जीवो कम्मफलं भुंजदि ण य तम्मओ होदि ।।३५२।।
एवं ववहारस्स दु वत्तव्वं दरिसणं समासेण
सुणु णिच्छयस्स वयणं परिणामक दं तु जं होदि ।।३५३।।
निश्चयसे वस्तुका विचार किया जाये, [कर्तृ च कर्म सदा एकम् इष्यते ] तो क र्ता और क र्म सदा
एक माना जाता है
भावार्थ :मात्र व्यवहार-दृष्टिसे ही भिन्न द्रव्योंमें कर्तृत्व-कर्मत्व माना जाता है; निश्चय-
दृष्टिसे तो एक ही द्रव्यमें कर्तृत्व-कर्मत्व घटित होता है ।२१०।
अब, इस कथनको दृष्टान्त द्वारा गाथामें कहते हैं :
ज्यों शिल्पि कर्म करे परन्तु वह नहीं तन्मय बने
त्यों कर्मको आत्मा करे पर वह नहीं तन्मय बने ।।३४९।।
ज्यों शिल्पि करणोंसे करे पर वह नहीं तन्मय बने
त्यों जीव करणोंसे करे पर वह नहीं तन्मय बने ।।३५०।।
ज्यों शिल्पि करण ग्रहे परन्तु वह नहीं तन्मय बने
त्यों जीव करणोंको ग्रहे पर वह नहीं तन्मय बने ।।३५१।।
शिल्पी करमफल भोगता, पर वह नहीं तन्मय बने
त्यों जीव करमफल भोगता, पर वह नहीं तन्मय बने ।।३५२।।
इस भाँति मत व्यवहारका संक्षेपसे वक्तव्य है
सुन लो वचन परमार्थका, परिणामविषयक जो हि है ।।३५३।।

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जह सिप्पिओ दु चेट्ठं कुव्वदि हवदि य तहा अणण्णो से
तह जीवो वि य कम्मं कुवदि हवदि य अणण्णो से ।।३५४।।
जह चेट्ठं कुव्वंतो दु सिप्पिओ णिच्चदुक्खिओ होदि
तत्तो सिया अणण्णो तह चेट्ठंतो दुही जीवो ।।३५५।।
यथा शिल्पिकस्तु कर्म करोति न च स तु तन्मयो भवति
तथा जीवोऽपि च कर्म करोति न च तन्मयो भवति ।।३४९।।
यथा शिल्पिकस्तु करणैः करोति न च स तु तन्मयो भवति
तथा जीवः करणैः करोति न च तन्मयो भवति ।।३५०।।
यथा शिल्पिकस्तु करणानि गृह्णाति न स तु तन्मयो भवति
तथा जीवः करणानि तु गृह्णाति न च तन्मयो भवति ।।३५१।।
63
शिल्पी करे चेष्टा अवरु, उस ही से शिल्पी अनन्य है
त्यों जीव कर्म करे अवरु, उस ही से जीव अनन्य है ।।३५४।।
चेष्टित हुआ शिल्पी निरन्तर दुखित जैसे होय है
अरु दुखसे शिल्पि अनन्य, त्यों जीव चेष्टमान दुखी बने ।।३५५।।
गाथार्थ :[यथा ] जैसे [शिल्पिकः तु ] शिल्पी (स्वर्णकारसोनी आदि क लाकार)
[कर्म ] कुण्डल आदि क र्म (कार्य) [करोति ] क रता है, [सः तु ] परन्तु वह [तन्मयः न च भवति ]
तन्मय (उस-मय, कुण्डलादिमय) नहीं होता, [तथा ] उसीप्रकार [जीवः अपि च ] जीव भी [कर्म ]
पुण्यपापादि पुद्गलक र्म [करोति ] क रता है, [न च तन्मयः भवति ] परन्तु तन्मय (पुद्गलक र्ममय)
नहीं होता
[यथा ] जैसे [शिल्पिकः तु ] शिल्पी [करणैः ] हथौड़ा आदि क रणों(साधनों)के द्वारा
[करोति ] (क र्म) क रता है, [सः तु ] परन्तु वह [तन्मयः न भवति ] तन्मय (हथौड़ा आदि
क रणमय) नहीं होता, [तथा ] उसीप्रकार [जीवः ] जीव [करणैः ] (मन-वचन-कायरूप)
क रणोंके द्वारा [करोति ] (क र्म) क रता है, [न च तन्मयः भवति ] परंतु तन्मय (मन-वचन-
कायरूप क रणमय) नहीं होता
[यथा ] जैसे [शिल्पिकः तु ] शिल्पी [करणानि ] क रणोंको
[गृह्णाति ] ग्रहण क रता है, [सः तु ] परन्तु वह [तन्मयः न भवति ] तन्मय नहीं होता, [तथा ]
उसीप्रकार [जीवः ] जीव [करणानि तु ] क रणोंको [गृह्णाति ] ग्रहण क रता है, [न च तन्मयः भवति ]

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यथा शिल्पी तु कर्मफलं भुंक्ते न च स तु तन्मयो भवति
तथा जीवः कर्मफलं भुंक्ते न च तन्मयो भवति ।।३५२।।
एवं व्यवहारस्य तु वक्तव्यं दर्शनं समासेन
शृणु निश्चयस्य वचनं परिणामकृतं तु यद्भवति ।।३५३।।
यथा शिल्पिकस्तु चेष्टां करोति भवति च तथानन्यस्तस्याः
तथा जीवोऽपि च कर्म करोति भवति चानन्यस्तस्मात् ।।३५४।।
यथा चेष्टां कुर्वाणस्तु शिल्पिको नित्यदुःखितो भवति
तस्माच्च स्यादनन्यस्तथा चेष्टमानो दुःखी जीवः ।।३५५।।
यथा खलु शिल्पी सुवर्णकारादिः कुण्डलादि परद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति,
परन्तु तन्मय (क रणमय) नहीं होता [यथा ] जैसे [शिल्पी तु ] शिल्पी [कर्मफलं ] कुण्डल आदि
क र्मके फलको (खान-पानादिको) [भुंक्ते ] भोगता है, [सः तु ] परन्तु वह [तन्मयः न च भवति ]
तन्मय (खान-पानादिमय) नहीं होता, [तथा ] उसीप्रकार [जीवः ] जीव [कर्मफलं ] पुण्यपापादि
पुद्गलक र्मके फलको (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिको) [भुंक्ते ] भोगता है, [न च तन्मयः
भवति ]
परन्तु तन्मय (पुद्गलपरिणामरूप सुखदुःखादिमय) नहीं होता
[एवं तु ] इसप्रकार तो [व्यवहारस्य दर्शनं ] व्यवहारका मत [समासेन ] संक्षेपसे
[वक्तव्यं ] क हने योग्य है [निश्चयस्य वचनं ] (अब) निश्चयका वचन [शृणु ] सुनो [यत् ]
जो कि [परिणामकृतं तु भवति ] परिणामविषयक है
[यथा ] जैसे [शिल्पिकः तु ] शिल्पी [चेष्टां करोति ] चेष्टारूप क र्म (अपने परिणामरूप
क र्म)को क रता है [तथा च ] और [तस्याः अनन्यः भवति ] उससे अनन्य है, [तथा ] उसीप्रकार
[जीवः अपि च ] जीव भी [क र्म क रोति ] (अपने परिणामरूप) क र्मको क रता है [च ] और
[तस्मात् अनन्यः भवति ] उससे अनन्य है
[यथा ] जैसे [चेष्टां कुर्वाणः ] चेष्टारूप क र्म क रता
हुआ [शिल्पिकः तु ] शिल्पी [नित्यदुःखितः भवति ] नित्य दुःखी होता है [तस्मात् च ] और
उससे (दुःखसे) [अनन्यः स्यात् ] अनन्य है, [तथा ] उसीप्रकार [चेष्टमानः ] चेष्टा क रता हुआ
(अपने परिणामरूप क र्मको क रता हुआ) [जीवः ] जीव [दुःखी ] दुःखी होता है (और दुःखसे
अनन्य है)
टीका :जैसेशिल्पी (स्वर्णकार आदि कलाकार) कुण्डल आदि जो
परद्रव्यपरिणामात्मक कर्म करता है, हथौड़ा आदि परद्रव्यपरिणामात्मक करणोंके द्वारा करता है,

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हस्तकुट्टकादिभिः परद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, हस्तकुट्टकादीनि परद्रव्यपरिणामात्मकानि
करणानि गृह्णाति, ग्रामादिपरद्रव्यपरिणामात्मकं कुण्डलादिकर्मफलं भुंक्ते च, नत्वनेकद्रव्यत्वेन
ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र कर्तृकर्मभोक्तृ-
भोग्यत्वव्यवहारः; तथात्मापि पुण्यपापादि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं कर्म करोति, कायवाङ्मनोभिः
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकैः करणैः करोति, कायवाङ्मनांसि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि
गृह्णाति, सुखदुःखादि पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मकं पुण्यपापादिकर्मफलं भुंक्ते च, न त्वनेकद्रव्यत्वेन
ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति; ततो निमित्तनैमित्तिकभावमात्रेणैव तत्र
कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वव्यवहारः
यथा च स एव शिल्पी चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म
करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति
तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः; तथात्मापि
चिकीर्षुश्चेष्टारूपमात्मपरिणामात्मकं कर्म करोति, दुःखलक्षणमात्मपरिणामात्मकं चेष्टारूपकर्मफलं
हथौड़ा आदि परद्रव्यपरिणामात्मक करणोंको ग्रहण करता है और कुण्डल आदि कर्मका जो ग्रामादि
परद्रव्यपरिणामात्मक फल भोगता है, किन्तु अनेकद्रव्यत्वके कारण उनसे (कर्म, करण आदिसे)
अन्य होनेसे तन्मय (कर्मकरणादिमय) नहीं होता; इसलिये निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ
कर्तृकर्मत्वका और भोक्तृभोग्यत्वका व्यवहार है; इसीप्रकार
आत्मा भी पुण्यपापादि जो
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक (पुद्गलद्रव्यके परिणामस्वरूप) कर्म उसको करता है, काय-वचन-
मनरूप जो पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करण उनके द्वारा करता है, काय-वचन-मनरूप जो
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक करण उनको ग्रहण करता है और पुण्यपापादि कर्मका जो सुख-दुःखादि
पुद्गलद्रव्यपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, परंतु अनेकद्रव्यत्वके कारण उनसे अन्य होनेसे
तन्मय नहीं होता; इसलिये निमित्त-नैमित्तिकभावमात्रसे ही वहाँ कर्तृ-कर्मत्वका और भोक्तृ-
भोग्यत्वका व्यवहार है
और जैसेवही शिल्पी, करनेका इच्छुक होता हुआ, चेष्टारूप (अर्थात् कुण्डलादि
करनेके अपने परिणामरूप और हस्तादिके व्यापाररूप) ऐसा जो स्वपरिणामात्मक कर्म उसको
करता है, तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो चेष्टारूप कर्मका स्वपरिणामात्मक फल उसको भोगता है
और एकद्रव्यत्वके कारण उनसे (कर्म और कर्मफलसे) अनन्य होनेसे तन्मय (कर्ममय और
कर्मफलमय) है; इसलिये परिणाम-परिणामीभावसे वहीं कर्ता-कर्मपनका और भोक्ता
-भोग्यपनका निश्चय है; उसीप्रकार
आत्मा भी, करनेका इच्छुक होता हुआ, चेष्टारूप
(रागादिपरिणामरूप और प्रदेशोंके व्यापाररूप) ऐसा जो आत्मपरिणामात्मक कर्म उसको करता

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भुंक्ते च, एकद्रव्यत्वेन ततोऽनन्यत्वे सति तन्मयश्च भवति; ततः परिणामपरिणामिभावेन तत्रैव
कर्तृकर्मभोक्तृभोग्यत्वनिश्चयः
(नर्दटक)
ननु परिणाम एव किल कर्म विनिश्चयतः
स भवति नापरस्य परिणामिन एव भवेत्
न भवति कर्तृशून्यमिह कर्म न चैकतया
स्थितिरिह वस्तुनो भवतु कर्तृ तदेव ततः
।।२११।।
(पृथ्वी)
बहिर्लुठति यद्यपि स्फु टदनन्तशक्ति : स्वयं
तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्त्वन्तरम्
स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्त्विष्यते
स्वभावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते
।।२१२।।
है तथा दुःखस्वरूप ऐसा जो चेष्टारूप कर्मका आत्मपरिणामात्मक फल उसको भोगता है, और
एकद्रव्यत्वके कारण उनसे अनन्य होनेसे तन्मय है; इसलिये परिणाम-परिणामीभावसे वहीं कर्ता-
कर्मपनका और भोक्ता-भोग्यपनका निश्चय है
।।३४९ से ३५५।।
अब, इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[ननु परिणाम एव किल विनिश्चयतः कर्म ] वास्तवमें परिणाम ही
निश्चयसे क र्म है, और [सः परिणामिन एव भवेत्, अपरस्य न भवति ] परिणाम अपने
आश्रयभूत परिणामीका ही होता है, अन्यका नहीं (क्योंकि परिणाम अपने अपने द्रव्यके आश्रित
हैं, अन्यके परिणामका अन्य आश्रय नहीं होता); [इह कर्म कर्तृशून्यम् न भवति ] और क र्म
क र्ताके बिना नहीं होता, [च वस्तुनः एकतया स्थितिः इह न ] तथा वस्तुकी एकरूप
(कूटस्थ) स्थिति नहीं होती (क्योंकि वस्तु द्रव्यपर्यायस्वरूप होनेसे सर्वथा नित्यत्व बाधासहित
है); [ततः तद् एव कर्तृ भवतु ] इसलिये वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप क र्मकी क र्ता है
(
यह निश्चयसिद्धांत है)
।२११।
अब, आगेकी गाथाओंका सूचक काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[स्वयं स्फु टत्-अनन्त-शक्ति : ] जिसको स्वयं अनंत शक्ति प्रकाशमान है,
ऐसी वस्तु [बहिः यद्यपि लुठति ] अन्य वस्तुके बाहर यद्यपि लोटती है [तथापि अन्य-वस्तु

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(रथोद्धता)
वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुनो
येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत्
निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य कः
किं करोति हि बहिर्लुठन्नपि
।।२१३।।
अपरवस्तुनः अन्तरम् न विशति ] तथापि अन्य वस्तु अन्य वस्तुके भीतर प्रवेश नहीं करती, [यतः
सकलम् एव वस्तु स्वभाव-नियतम् इष्यते ]
क्योंकि समस्त वस्तुएँ अपने अपने स्वभावमें निश्चित
हैं, ऐसा माना जाता है
(आचार्यदेव क हते हैं कि) [इह ] ऐसा होने पर भी, [मोहितः ] मोहित
जीव, [स्वभाव-चलन-आकुलः ] अपने स्वभावसे चलित होकर आकुल होता हुआ, [किम्
क्लिश्यते ]
क्यों क्लेश पाता है ?
भावार्थ :वस्तुस्वभाव तो नियमसे ऐसा है कि किसी वस्तुमें कोई वस्तु नहीं मिलती
ऐसा होने पर भी, यह मोही प्राणी, ‘परज्ञेयोंके साथ अपनेको पारमार्थिक सम्बन्ध है’ ऐसा मानकर,
क्लेश पाता है, यह महा अज्ञान है
।२१२।
पुनः आगेकी गाथाओंका सूचक दूसरा काव्य कहते हैं :
श्लोकार्थ :[इह च ] इस लोक में [येन एकम् वस्तु अन्यवस्तुनः न ] एक वस्तु अन्य
वस्तुकी नहीं है, [तेन खलु वस्तु तत् वस्तु ] इसलिये वास्तवमें वस्तु वस्तु ही है[अयम्
निश्चयः ] यह निश्चय है [कः अपरः ] ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु [अपरस्य बहिः लुठन् अपि
हि ] अन्य वस्तुके बाहर लोटती हुई भी [किं करोति ] उसका क्या कर सकती है ?
भावार्थ :वस्तुका स्वभाव तो ऐसा है कि एक वस्तु अन्य वस्तुको नहीं बदला सकती
यदि ऐसा न हो तो वस्तुका वस्तुत्व ही न रहे इसप्रकार जहाँ एक वस्तु अन्यको परिणमित नहीं
कर सकती, वहाँ एक वस्तुने अन्यका क्या किया ? कुछ नहीं चेतन-वस्तुके साथ पुद्गल
एकक्षेत्रावगाहरूपसे रह रहे हैं तथापि वे चेतनको जड़ बनाकर अपनेरूपमें परिणमित नहीं कर सके;
तब फि र पुद्गलने चेतनका क्या किया ? कुछ भी नहीं
इससे यह समझना चाहिए किव्यवहारसे परद्रव्योंका और आत्माका ज्ञेय-ज्ञायक
सम्बन्ध होने पर भी परद्रव्य ज्ञायकका कुछ भी नहीं कर सकते और ज्ञायक परद्रव्यका कुछ भी
नहीं कर सकता
।२१३।
अब, इसी अर्थको दृढ़ करनेवाला तीसरा काव्य कहते हैं :

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(रथोद्धता)
यत्तु वस्तु कुरुतेऽन्यवस्तुनः
किंचनापि परिणामिनः स्वयम्
व्यावहारिकद्रशैव तन्मतं
नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ।।२१४।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि
तह जाणगो दु ण परस्स जाणगो जाणगो सो दु ।।३५६।।
श्लोकार्थ :[वस्तु ] एक वस्तु [स्वयम् परिणामिनः अन्य-वस्तुनः ] स्वयं परिणमित
होती हुई अन्य वस्तुका [किंचन अपि कुरुते ] कुछ भी क र सकती है[यत् तु ] ऐसा जो माना
जाता है, [तत् व्यावहारिक-दशा एव मतम् ] वह व्यवहारदृष्टिसे ही माना जाता है [निश्चयात् ]
निश्चयसे [इह अन्यत् किम् अपि न अस्ति ] इस लोक में अन्य वस्तुको अन्य वस्तु कुछ भी नहीं
(अर्थात् एक वस्तुको अन्य वस्तुके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं) है
भावार्थ :एक द्रव्यके परिणमनमें अन्य द्रव्यको निमित्त देखकर यह कहना कि ‘अन्य
द्रव्यने यह किया’, वह व्यवहारनयकी दृष्टिसे ही (क हा जाता) है; निश्चयसे तो उस द्रव्यमें अन्य
द्रव्यने कुछ भी नहीं किया है
वस्तुके पर्यायस्वभावके कारण वस्तुका अपना ही एक अवस्थासे
दूसरी अवस्थारूप परिणमन होता है; उसमें अन्य वस्तु अपना कुछ भी नहीं मिला सकती
इससे यह समझना चाहिये किपरद्रव्यरूप ज्ञेय पदार्थ उनके भावसे परिणमित होते हैं
और ज्ञायक आत्मा अपने भावरूप परिणमन करता है; वे एक-दूसरेका परस्पर कुछ नहीं कर
सकते
इसलिये यह व्यवहारसे ही माना जाता है कि ‘ज्ञायक परद्रव्योंको जानता है’; निश्चयसे
ज्ञायक तो बस ज्ञायक ही है ।२१४।
(‘खड़िया मिट्टी अर्थात् पोतनेका चूना या कलई तो खड़िया मिट्टी ही है’यह निश्चय है;
‘खड़िया-स्वभावरूपसे परिणमित खड़िया दीवाल-स्वभावरूप परिणमित दीवालको सफे द करती है’
यह कहना भी व्यवहारकथन है
इसीप्रकार ‘ज्ञायक तो ज्ञायक ही है’यह निश्चय है;
‘ज्ञायकस्वभावरूप परिणमित ज्ञायक परद्रव्यस्वभावरूप परिणत परद्रव्योंको जानता है’ यह कहना भी
व्यवहारकथन है
) ऐसे निश्चय-व्यवहार कथनको अब गाथाओं द्वारा दृष्टान्तपूर्वक स्पष्ट कहते हैं :
ज्यों सेटिका नहिं अन्यकी, है सेटिका बस सेटिका
ज्ञायक नहीं त्यों अन्यका, ज्ञायक अहो ज्ञायक तथा ।।३५६।।

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जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि
तह पासगो दु ण परस्स पासगो पासगो सो दु ।।३५७।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सडिया य सा होदि
तह संजदो दु ण परस्स संजदो संजदो सो दु ।।३५८।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होदि
तह दंसणं दु ण परस्स दंसणं दंसणं त तु ।।३५९।।
एवं तु णिच्छयणयस्स भासिदं णाणदंसणचरित्ते
सुणु ववहारणयस्स य वत्तव्वं से समासेण ।।३६०।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण
तह परदव्वं जाणदि णादा वि सएण भावेण ।।३६१।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण
तह परदव्वं पस्सदि जीवो वि सएण भावेण ।।३६२।।
ज्यों सेटिका नहिं अन्यकी, है सेटिका बस सेटिका
दर्शक नहीं त्यों अन्यका, दर्शक अहो दर्शक तथा ।।३५७।।
ज्यों सेटिका नहिं अन्यकी, है सेटिका बस सेटिका
संयत नहीं त्यों अन्यका, संयत अहो संयत तथा ।।३५८।।
ज्यों सेटिका नहिं अन्यकी, है सेटिका बस सेटिका
दर्शन नहीं त्यों अन्यका, दर्शन अहो दर्शन तथा ।।३५९।।
यों ज्ञान-दर्शन-चरितविषयक कथन नय परमार्थका
सुन लो वचन संक्षेपसे, इस विषयमें व्यवहारका ।।३६०।।
ज्यों श्वेत करती सेटिका, परद्रव्य आप स्वभावसे
ज्ञाता भी त्यों ही जानता, परद्रव्यको निज भावसे ।।३६१।।
ज्यों श्वेत करती सेटिका, परद्रव्य आप स्वभावसे
आत्मा भी त्यों ही देखता, परद्रव्यको निज भावसे ।।३६२।।

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जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण
तह परदव्वं विजहदि णादा वि सएण भावेण ।।३६३।।
जह परदव्वं सेडदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण
तह परदव्वं सद्दहदि सम्मदिट्ठी सहावेण ।।३६४।।
एवं ववहारस्स दु विणिच्छओ णाणदंसणचरित्ते
भणिदो अण्णेसु वि पज्जएसु एमेव णादव्वो ।।३६५।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति
तथा ज्ञायकस्तु न परस्य ज्ञायको ज्ञायकः स तु ।।३५६।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति
तथा दर्शकस्तु न परस्य दर्शको दर्शकः स तु ।।३५७।।
यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति
तथा संयतस्तु न परस्य संयतः संयतः स तु ।।३५८।।
ज्यों श्वेत करती सेटिका, परद्रव्य आप स्वभावसे
ज्ञाता भी त्यों ही त्यागता, परद्रव्यको निज भावसे ।।३६३।।
ज्यों श्वेत करती सेटिका, परद्रव्य आप स्वभावसे
सुदृष्टि त्यों ही श्रद्धता, परद्रव्यको निज भावसे ।।३६४।।
यों ज्ञान-दर्शन-चरितमें निर्णय कहा व्यवहारका
अरु अन्य पर्यय विषयमें भी इस प्रकार हि जानना ।।३६५।।
गाथार्थ :(यद्यपि व्यवहारसे परद्रव्योंका और आत्माका ज्ञेय-ज्ञायक , दृश्य-दर्शक ,
त्याज्य-त्याजक इत्यादि सम्बन्ध है, तथापि निश्चयसे तो इसप्रकार है :) [यथा ] जैसे [सेटिका
तु ] खड़िया मिट्टी या पोतनेका चूना या कलई [परस्य न ] परकी (दीवाल आदिकी) नहीं है,
[सेटिका ] कलई [सा च सेटिका भवति ] वह तो कलई ही है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञायकः
तु ]
ज्ञायक (जाननेवाला, आत्मा) [परस्य न ] परका (परद्रव्यका) नहीं है, [ज्ञायकः ] ज्ञायक
[सः तु ज्ञायकः ] वह तो ज्ञायक ही है
[यथा ] जैसे [सेटिका तु ] कलई [परस्य न ] परकी
नहीं है, [सेटिका ] कलई [सा च सेटिका भवति ] वह तो कलई ही है, [तथा ] उसीप्रकार

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यथा सेटिका तु न परस्य सेटिका सेटिका च सा भवति
तथा दर्शनं तु न परस्य दर्शनं दर्शनं तत्तु ।।३५९।।
एवं तु निश्चयनयस्य भाषितं ज्ञानदर्शनचरित्रे
शृणु व्यवहारनयस्य च वक्तव्यं तस्य समासेन ।।३६०।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन
तथा परद्रव्यं जानाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ।।३६१।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन
तथा परद्रव्यं पश्यति जीवोऽपि स्वकेन भावेन ।।३६२।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन
तथा परद्रव्यं विजहाति ज्ञातापि स्वकेन भावेन ।।३६३।।
यथा परद्रव्यं सेटयति सेटिकात्मनः स्वभावेन
तथा परद्रव्यं श्रद्धत्ते सम्यग्द्रष्टिः स्वभावेन ।।३६४।।
64
[दर्शकः तु ] दर्शक (देखनेवाला, आत्मा) [परस्य न ] परका नहीं है, [दर्शकः ] दर्शक [सः
तु दर्शकः ]
वह तो दर्शक ही है
[यथा ] जैसे [सेटिका तु ] कलई [परस्य न ] परकी
(दीवाल आदिकी) नहीं है, [सेटिका ] कलई [सा च सेटिका भवति ] वह तो कलई ही है,
[तथा ] उसीप्रकार [संयतः तु ] संयत (त्याग क रनेवाला, आत्मा) [परस्य न ] परका
(
परद्रव्यका) नहीं है, [संयतः ] संयत [सः तु संयतः ] यह तो संयत ही है [यथा ] जैसे
[सेटिका तु ] कलई [परस्य न ] परकी नहीं है, [सेटिका ] कलई [सा च सेटिका भवति ]
यह तो कलई ही है, [तथा ] उसीप्रकार [दर्शनं तु ] दर्शन अर्थात् श्रद्धान [परस्य न ] परका नहीं
है, [दर्शनं तत् तु दर्शनम् ] दर्शन वह तो दर्शन ही है अर्थात् श्रद्धान वह तो श्रद्धान ही है
[एवं तु ] इसप्रकार [ज्ञानदर्शनचरित्रे ] ज्ञान-दर्शन-चारित्रमें [निश्चयनयस्य भाषितम् ]
निश्चयनयका क थन है [तस्य च ] और उस सम्बन्धमें [समासेन ] संक्षेपसे [व्यवहारनयस्य
वक्तव्यं ] व्यवहारनयका क थन [शृणु ] सुनो
[यथा ] जैसे [सेटिका ] कलई [आत्मनः स्वभावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] (दीवाल
आदि) परद्रव्यको [सेटयति ] सफे द क रती है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञाता अपि ] ज्ञाता भी [स्वकेन
भावेन ]
अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] परद्रव्यको [जानाति ] जानता है
[यथा ] जैसे [सेटिका ]
कलई [आत्मनः स्वभावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] परद्रव्यको [सेटयति ] सफे द क रती है,
[तथा ] उसीप्रकार [जीवः अपि ] जीव भी [स्वकेन भावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] परद्रव्यको

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एवं व्यवहारस्य तु विनिश्चयो ज्ञानदर्शनचरित्रे
भणितोऽन्येष्वपि पर्यायेषु एवमेव ज्ञातव्यः ।।३६५।।
सेटिकात्र तावच्छवेतगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेण श्वैत्यं कुङ्यादि
परद्रव्यम् अथात्र कुडयादेः परद्रव्यस्य श्वैत्यस्य श्वेतयित्री सेटिका किं
भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्वसम्बन्धो मीमांस्यतेयदि सेटिका कुडयादेर्भवति
तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे
जीवति सेटिका कुडयादेर्भवन्ती कुडयादिरेव भवेत्; एवं सति सेटिकायाः
स्वद्रव्योच्छेदः
न च द्रव्यान्तरसंक्र मस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो
न भवति सेटिका कुडयादेः यदि न भवति सेटिका कुडयादेस्तर्हि कस्य सेटिका
भवति ? सेटिकाया एव सेटिका भवति ननु कतराऽन्या सेटिका सेटिकायाः
[पश्यति ] देखता है [यथा ] जैसे [सेटिका ] कलई [आत्मनः स्वभावेन ] अपने स्वभावसे
[परद्रव्यं ] परद्रव्यको [सेटयति ] सफे द क रती है, [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञाता अपि ] ज्ञाता भी
[स्वकेन भावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] परद्रव्यको [विजहाति ] त्यागता है
[यथा ] जैसे
[सेटिका ] कलई [आत्मनः स्वभावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ] परद्रव्यको [सेटयति ] सफे द
क रती है, [तथा ] उसीप्रकार [सम्यग्दृष्टिः ] सम्यग्दृष्टि [स्वभावेन ] अपने स्वभावसे [परद्रव्यं ]
परद्रव्यको [श्रद्धत्ते ] श्रद्धान करता है
[एवं तु ] इसप्रकार [ज्ञानदर्शनचरित्रे ] ज्ञान-दर्शन-चारित्रमें
[व्यवहारनयस्य विनिश्चयः ] व्यवहारनयका निर्णय [भणितः ] क हा है; [अन्येषु पर्यायेषु अपि ]
अन्य पर्यायोंमें भी [एवम् एव ज्ञातव्यः ] इसीप्रकार जानना चाहिए
टीका :इस जगतमें कलई है, वह श्वेतगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है दीवार-
आदि परद्रव्य व्यवहारसे उस कलईका श्वैत्य है (अर्थात् कलईके द्वारा श्वेत किये जाने योग्य पदार्थ
है)
अब, ‘श्वेत करनेवाली कलई, श्वेत की जाने योग्य जो दीवार-आदि परद्रव्य उसकी है या
नहीं ?’इसप्रकार उन दोनोंके तात्त्विक (पारमार्थिक) सम्बन्धका यहाँ विचार किया जाता
है :यदि कलई दीवार-आदि परद्रव्यकी हो तो क्या हो वह प्रथम विचार करते हैं :‘जिसका
जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा ही है (पृथक् द्रव्य
नहीं);’ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवित (अर्थात् विद्यमान) होनेसे, कलई यदि दीवार-आदिकी
हो तो कलई वह दीवार-आदि ही होगी (अर्थात् कलई दीवार-आदिरूप ही होना चाहिए, दीवार-
आदिसे पृथक् द्रव्य नहीं होना चाहिए); ऐसा होने पर, कलईके स्वद्रव्यका उच्छेद (नाश) हो

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यस्याः सेटिका भवति ? न खल्वन्या सेटिका सेटिकायाः, किन्तु स्वस्वाम्यंशावेवान्यौ
किमत्र साध्यं स्वस्वाम्यंशव्यवहारेण ? न किमपि तर्हि न कस्यापि सेटिका,
सेटिका सेटिकैवेति निश्चयः यथायं द्रष्टान्तस्तथायं दार्ष्टान्तिक :चेतयितात्र तावद्
ज्ञानगुणनिर्भरस्वभावं द्रव्यम् तस्य तु व्यवहारेण ज्ञेयं पुद्गलादि परद्रव्यम् अथात्र
पुद्गलादेः परद्रव्यस्य ज्ञेयस्य ज्ञायकश्चेतयिता किं भवति किं न भवतीति तदुभयतत्त्व-
सम्बन्धो मीमांस्यते
यदि चेतयिता पुद्गलादेर्भवति तदा यस्य यद्भवति तत्तदेव
भवति यथात्मनो ज्ञानं भवदात्मैव भवतीति तत्त्वसम्बन्धे जीवति चेतयिता
पुद्गलादेर्भवन् पुद्गलादिरेव भवेत्; एवं सति चेतयितुः स्वद्रव्योच्छेदः
न च द्रव्यान्तर-
संक्र मस्य पूर्वमेव प्रतिषिद्धत्वाद्द्रव्यस्यास्त्युच्छेदः ततो न भवति चेतयिता पुद्गलादेः
यदि न भवति चेतयिता पुद्गलादेस्तर्हि कस्य चेतयिता भवति ? चेतयितुरेव
चेतयिता भवति
ननु कतरोऽन्यश्चेतयिता चेतयितुर्यस्य चेतयिता भवति ? न
जायेगा परन्तु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें संक्रमण होनेका
तो पहले ही निषेध किया गया है इससे (यह सिद्ध हुआ कि) कलई दीवार-आदिकी नहीं है
(अब आगे और विचार करते हैं :) यदि कलई दीवार-आदिकी नहीं है, तो कलई किसकी है ?
कलईकी ही कलई है
(इस) कलईसे भिन्न ऐसी दूसरी कौनसी कलई है कि जिसकी (यह)
कलई है ? (इस) कलईसे भिन्न अन्य कोई कलई नहीं है, किन्तु वे दो स्व-स्वामिरूप अंश
ही हैं
यहाँ स्व-स्वामिरूप अंशोंके व्यवहारसे क्या साध्य है ? कुछ भी साध्य नहीं है तब फि र
कलई किसीकी नहीं है, कलई कलई ही हैयह निश्चय है (इसप्रकार दृष्टान्त कहा ) जैसे
यह दृष्टान्त है, उसीप्रकार यहाँ यह दार्ष्टान्त है :इस जगतमें चेतयिता है (चेतनेवाला अर्थात्
आत्मा है) वह ज्ञानगुणसे परिपूर्ण स्वभाववाला द्रव्य है पुद्गलादिका परद्रव्य व्यवहारसे उस
चेतयिताका, (आत्माका) ज्ञेय (ज्ञात होने योग्य) है अब, ‘ज्ञायक (जाननेवाला) चेतयिता,
ज्ञेय जो पुद्गलादिका परद्रव्य उनका है या नहीं ?’इसप्रकार यहाँ उन दोनोंके तात्त्विक
सम्बन्धका विचार करते हैं :यदि चेतयिता पुद्गलादिका हो तो क्या हो इसका प्रथम विचार
करते हैं : ‘जिसका जो होता है वह वही होता है, जैसे आत्माका ज्ञान होनेसे ज्ञान वह आत्मा
ही है; ‘
ऐसा तात्त्विक सम्बन्ध जीवित (विद्यमान) होनेसे, चेतयिता यदि पुद्गलादिका हो
तो चेतयिता वह पुद्गलादिका ही होवे (अर्थात् चेतयिता पुद्गलादिस्वरूप ही होना चाहिए,
पुद्गलादिसे भिन्न द्रव्य नहीं होना चाहिए); ऐसा होने पर, चेतयिताके स्वद्रव्यका उच्छेद हो
जायेगा
किन्तु द्रव्यका उच्छेद तो नहीं होता, क्योंकि एक द्रव्यका अन्य द्रव्यरूपमें संक्रमण
होनेका तो पहले ही निषेध कर दिया है इसलिये (यह सिद्ध हुआ कि) चेतयिता पुद्गलादिका