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यथात्र लोके द्रष्टिर्दश्यादत्यन्तविभक्त त्वेन तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात् द्रश्यं न करोति न वेदयते च, अन्यथाग्निदर्शनात्सन्धुक्षणवत् स्वयं ज्वलनकरणस्य, लोहपिण्डवत्स्वयमौष्ण्यानुभवनस्य च दुर्निवारत्वात्, किन्तु केवलं दर्शनमात्रस्वभावत्वात् तत्सर्वं केवलमेव पश्यति; तथा ज्ञानमपि स्वयं द्रष्टृत्वात् कर्मणोऽत्यन्तविभक्त त्वेन निश्चयतस्तत्करणवेदनयोरसमर्थत्वात्कर्म न करोति न वेदयते च, किन्तु केवलं ज्ञानमात्रस्वभावत्वात्कर्मबन्धं मोक्षं वा कर्मोदयं निर्जरां वा केवलमेव जानाति ।
गाथार्थ : — [यथा एव दृष्टिः ] जैसे नेत्र (दृश्य पदार्थोंको क रता-भोगता नहीं है, किन्तु देखता ही है), [तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानम् ] ज्ञान [अकारकं ] अकारक [अवेदकं च एव ] तथा अवेदक है, [च ] और [बन्धमोक्षं ] बन्ध, मोक्ष, [कर्मोदयं ] क र्मोदय [निर्जरां च एव ] तथा निर्जराको [जानाति ] जानता ही है ।
टीका : — जैसे इस जगतमें नेत्र दृश्य पदार्थसे अत्यन्त भिन्नताके कारण उसे करने-वेदने ( – भोगने)में असमर्थ होनेसे, दृश्य पदार्थको न तो करता है और न वेदता ( – भोगता) है — यदि ऐसा न हो तो अग्निको देखने पर, १संधुक्षणकी भाँति, अपनेको ( – नेत्रको) अग्निका कर्तृत्व (जलाना), और लोहेके गोलेकी भाँति अपनेको (नेत्रको) अग्निका अनुभव दुर्निवार होना चाहिए, (अर्थात् यदि नेत्र दृश्य पदार्थको करता और भोगता हो तो नेत्रके द्वारा अग्नि जलनी चाहिए और नेत्रको अग्निकी उष्णताका अनुभव होना चाहिए; किन्तु ऐसा नहीं होता, इसलिये नेत्र दृश्य पदार्थका कर्ता-भोक्ता नहीं है) — किन्तु केवल दर्शनमात्रस्वभाववाला होनेसे वह (नेत्र) सबको मात्र देखता ही है; इसीप्रकार ज्ञान भी, स्वयं (नेत्रकी भाँति) देखनेवाला होनेसे, कर्मसे अत्यन्त भिन्नताके कारण निश्चयसे उसके करने-वेदने-(भोगने) में असमर्थ होनेसे, कर्मको न तो करता है और न वेदता (भोगता) है, किन्तु केवल ज्ञानमात्रस्वभाववाला ( – जाननेका स्वभाववाला) होनेसे कर्मके बन्धको तथा मोक्षको, और कर्मके उदयको तथा निर्जराको मात्र जानता ही है ।
भावार्थ : — ज्ञानका स्वभाव नेत्रकी भाँति दूरसे जानना है; इसलिये ज्ञानके कर्तृत्व- भोक्तृत्व नहीं है । कर्तृत्व-भोक्तृत्व मानना अज्ञान है । यहाँ कोई पूछता है कि — ‘‘ऐसा तो केवलज्ञान है । और शेष तो जब तक मोहकर्मका उदय है तब तक सुखदुःखरागादिरूप परिणमन होता ही है, तथा जब तक दर्शनावरण, ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायका उदय है तब तक अदर्शन, १संधुक्षण = संधूकण; अग्नि जलानेवाला पदार्थ; अग्निको चेतानेवाली वस्तु ।
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सकता है ?’’ उसका समाधान : — पहलेसे ही यह कहा जा रहा है कि जो स्वतन्त्रतया करता-
स्वतन्त्रतया तो किसीका कर्ता-भोक्ता नहीं होता, तथा अपनी निर्बलतासे कर्मके उदयकी
बलवत्तासे जो कार्य होता है उसका परमार्थदृष्टिसे वह कर्ता-भोक्ता नहीं कहा जाता । और उस
और इतना विशेष जानना चाहिए कि — केवलज्ञानी तो साक्षात् शुद्धात्मस्वरूप ही हैं और श्रुतज्ञानी भी शुद्धनयके अवलम्बनसे आत्माको ऐसा ही अनुभव करते हैं; प्रत्यक्ष और परोक्षका ही भेद है । इसलिये श्रुतज्ञानीको ज्ञान-श्रद्धानकी अपेक्षासे ज्ञाता-द्रष्टापन ही है और चारित्रकी अपेक्षासे प्रतिपक्षी कर्मका जितना उदय है उतना घात है और उसे नष्ट करनेका उद्यम भी है । जब उस कर्मका अभाव हो जायेगा तब साक्षात् यथाख्यात् चारित्र प्रगट होगा और तब केवलज्ञान प्रगट होगा । यहाँ सम्यग्दृष्टिको जो ज्ञानी कहा जाता है सो वह मिथ्यात्वके अभावकी अपेक्षासे कहा जाता है । यदि ज्ञानसामान्यकी अपेक्षा लें तो सभी जीव ज्ञानी हैं और विशेषकी अपेक्षा लें तो जब तक किंचित्मात्र भी अज्ञान है तब तक ज्ञानी नहीं कहा जा सकता — जैसे सिद्धांत ग्रन्थोंमें भावोंका वर्णन करते हुए, जब तक केवलज्ञान उत्पन्न न हो तब तक अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक अज्ञानभाव कहा है । इसलिये यहाँ जो ज्ञानी-अज्ञानीपन कहा है वह सम्यक्त्व मिथ्यात्वकी अपेक्षासे ही जानना चाहिए ।।३२०।।
अब, जो — जैन साधु भी — सर्वथा एकान्तके आशयसे आत्माको कर्ता ही मानते हैं उनका निषेध करते हुए, आगामी गाथाका सूचक श्लोक कहते हैं : —
श्लोकार्थ : — [ये तु तमसा तताः आत्मानं कर्तारम् पश्यन्ति ] जो अज्ञान-अंधकारसे आच्छादित होते हुए आत्माको कर्ता मानते हैं, [मुमुक्षताम् अपि ] वे भले ही मोक्षके इच्छुक हों तथापि [सामान्यजनवत् ] सामान्य (लौकि क ) जनोंकी भाँति [तेषां मोक्षः न ] उनकी भी मुक्ति नहीं होती । १९९ ।
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— जो देव, मानव, असुरके त्रयलोकको नित्य हि करे ।।३२३।।
गाथार्थ : — [लोकस्य ] लोक के (लौकि क जनोंके) मतमें [सुरनारकतिर्यङ्मानुषान् सत्त्वान् ] देव, नारकी , तिर्यंच, मनुष्य — प्राणियोंको [विष्णुः ] विष्णु [करोति ] क रता है; [च ] और [यदि ] यदि [श्रमणानाम् अपि ] श्रमणों-(मुनियों)के मन्तव्यमें भी [षडिवधान् कायान् ] छह कायके जीवोंको [आत्मा ] आत्मा [करोति ] क रता हो, [यदि लोकश्रमणानाम् ] तो लोक और श्रमणोंका [एकः सिद्धान्तः ] एक सिद्धांत हो गया, [विशेषः न दृश्यते ] उनमें कोई अन्तर दिखाई नहीं देता; (क्योंकि) [लोकस्य ] लोक के मतमें [विष्णुः ] विष्णु [करोति ] क रता है और
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ये त्वात्मानं कर्तारमेव पश्यन्ति ते लोकोत्तरिका अपि न लौकिकतामतिवर्तन्ते; लौकिकानां परमात्मा विष्णुः सुरनारकादिकार्याणि करोति, तेषां तु स्वात्मा तानि करोतीत्यपसिद्धान्तस्य समत्वात् । ततस्तेषामात्मनो नित्यकर्तृत्वाभ्युपगमात् लौकिकानामिव लोकोत्तरिकाणामपि नास्ति मोक्षः ।
मान्यतामें दोनों समान हुए) । [एवं ] इसप्रकार, [सदेवमनुजासुरान् लोकान् ] देव, मनुष्य और
प्रवर्तमान) ऐसे [लोकश्रमणानां द्वयेषाम् अपि ] उन लोक और श्रमण — दोनोंका [कोऽपि मोक्षः ]
टीका : — जो आत्माको कर्ता ही देखते — मानते हैं, वे लोकोत्तर हों तो भी लौकिकताको अतिक्रमण नहीं करते; क्योंकि, लौकिक जनोंके मतमें परमात्मा विष्णु देवनारकादि कार्य करता है, और उन ( — लोकोत्तर भी मुनियों)के मतमें अपना आत्मा उन कार्यको करता है — इसप्रकार (दोनोमें) १अपसिद्धान्तकी समानता है । इसलिये आत्माके नित्य कर्तृत्वकी उनकी मान्यताके कारण, लौकिक जनोंकी भाँति, लोकोत्तर पुरुषों (मुनियों) का भी मोक्ष नहीं होता ।
भावार्थ : — जो आत्माको कर्ता मानते हैं, वे भले ही मुनि हो गये हों तथापि वे लौकिक जन जैसे ही हैं; क्योंकि, लोक ईश्वरको कर्ता मानता है और उन मुनियोंने आत्माको कर्ता माना है — इसप्रकार दोनोंकी मान्यता समान हुई । इसलिये जैसे लौकिक जनोंको मोक्ष नहीं होती, उसीप्रकार उन मुनियोंकी भी मुक्ति नहीं है । जो कर्ता होगा वह कार्यके फलको भी अवश्य भोगेगा, और जो फलको भोगेगा उसकी मुक्ति कैसी ?।।३२१ से ३२३।।
अब आगेके श्लोकमें यह कहते हैं कि — ‘परद्रव्य और आत्माका कोई भी सम्बन्ध नहीं है, इसलिये उनमें कर्ता-कर्मसम्बन्ध भी नहीं है; : —
श्लोकार्थ : — [परद्रव्य-आत्मतत्त्वयोः सर्वः अपि सम्बन्धः नास्ति ] परद्रव्य और आत्म- तत्त्वका सम्पूर्ण ही (कोई भी) सम्बन्ध नहीं है; [कर्तृ-कर्मत्व-सम्बन्ध-अभावे ] इसप्रकार क र्तृ- क र्मत्वके सम्बन्धका अभाव होनेसे, [तत्कर्तृता कुतः ] आत्माके परद्रव्यका क र्तृत्व क हाँसे हो सकता है ?
भावार्थ : — परद्रव्य और आत्माका कोई भी सम्बन्ध नहीं है, तब फि र उनमें १अपसिद्धान्त = मिथ्या अर्थात् भूलभरा सिद्धान्त ।
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परद्रव्यका कर्तृत्व कैसे हो सकता है ? २००।
अब, ‘‘जो व्यवहारनयके कथनको ग्रहण करके यह कहते हैं कि ‘परद्रव्य मेरा है’, और इसप्रकार व्यवहारको ही निश्चय मानकर आत्माको परद्रव्यका कर्ता मानते हैं, वे मिथ्यादृष्टि हैं’’ इत्यादि अर्थकी सूचक गाथायें दृष्टान्त सहित कहते हैं : —
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अज्ञानिन एव व्यवहारविमूढाः परद्रव्यं ममेदमिति पश्यन्ति । ज्ञानिनस्तु निश्चयप्रतिबुद्धाः परद्रव्यकणिकामात्रमपि न ममेदमिति पश्यन्ति । ततो यथात्र लोके कश्चिद् व्यवहारविमूढः परकीयग्रामवासी ममायं ग्राम इति पश्यन् मिथ्याद्रष्टिः, तथा यदि ज्ञान्यपि कथचिंद् [व्यवहारभाषितेन तु ] व्यवहारके वचनोंको ग्रहण करके [परद्रव्यं मम ] ‘परद्रव्य मेरा है’ [भणन्ति ] ऐसा क हते हैं, [तु ] परन्तु ज्ञानीजन [निश्चयेन जानन्ति ] निश्चयसे जानतेे हैं कि ‘[किञ्चित् ] कोई [परमाणुमात्रम् अपि ] परमाणुमात्र भी [न च मम ] मेरा नहीं है’ ।
[यथा ] जैसे [कः अपि नरः ] कोई मनुष्य [अस्माकं ग्रामविषयनगरराष्ट्रम् ] ‘हमारा ग्राम, हमारा देश, हमारा नगर, हमारा राष्ट्र’ [जल्पति ] इसप्रकार क हता है, [तु ] किन्तु [तानि ] वे [तस्य ] उसके [न च भवन्ति ] नहीं हैं, [मोहेन च ] मोहसे [सः आत्मा ] वह आत्मा [भणति ] ‘मेरे हैं’ इसप्रकार क हता है; [एवम् एव ] इसीप्रकार [यः ज्ञानी ] जो ज्ञानी भी [परद्रव्यं मम ] ‘परद्रव्य मेरा है’ [इति जानन् ] ऐसा जानता हुआ [आत्मानं करोति ] परद्रव्यको निजरूप क रता है, [एषः ] वह [निःसंशयं ] निःसंदेह अर्थात् निश्चयतः [मिथ्यादृष्टिः ] मिथ्यादृष्टि [भवति ] होता है ।
[तस्मात् ] इसलिये तत्त्वज्ञ [न मे इति ज्ञात्वा ] ‘परद्रव्य मेरा नहीं है’ यह जानकर, [एतेषां द्वयेषाम् अपि ] इन दोनोंका ( – लोक का और श्रमणका – ) [परद्रव्ये ] परद्रव्यमें [कर्तृव्यवसायं जानन् ] क र्तृत्वके व्यवसायको जानते हुए, [जानीयात् ] यह जानते हैं कि [दृष्टिरहितानाम् ] यह व्यवसाय सम्यग्दर्शनसे रहित पुरुषोंका है ।
टीका : — अज्ञानीजन ही व्यवहारविमूढ़ (व्यवहारमें ही विमूढ़) होनेसे परद्रव्यको ऐसा देखते — मानते हैं कि ‘यह मेरा है’; और ज्ञानीजन तो निश्चयप्रतिबुद्ध (निश्चयके ज्ञाता) होनेसे परद्रव्यकी कणिकामात्रको भी ‘यह मेरा है’ ऐसा नहीं देखते – मानते । इसलिये, जैसे इस जगतमें कोई व्यवहारविमूढ़ ऐसा दूसरेके गाँवमें रहनेवाला मनुष्य ‘यह ग्राम मेरा है’ इसप्रकार देखता – मानता हुआ मिथ्यादृष्टि ( – विपरीत दृष्टिवाला) है, उसीप्रकार यदि ज्ञानी भी किसी प्रकारसे
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व्यवहारविमूढो भूत्वा परद्रव्यं ममेदमिति पश्येत् तदा सोऽपि निस्संशयं परद्रव्यमात्मानं कुर्वाणो मिथ्याद्रष्टिरेव स्यात् । अतस्तत्त्वं जानन् पुरुषः सर्वमेव परद्रव्यं न ममेति ज्ञात्वा लोकश्रमणानां द्वयेषामपि योऽयं परद्रव्ये कर्तृव्यवसायः स तेषां सम्यग्दर्शनरहितत्वादेव भवति इति सुनिश्चितं जानीयात् ।
सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषिद्धः ।
पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाश्च तत्त्वम् ।।२०१।।
व्यवहारविमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘यह मेरा है’ इसप्रकार देखे – माने तो उस समय वह भी निःसंशयतः अर्थात् निश्चयतः, परद्रव्यको निजरूप करता हुआ, मिथ्यादृष्टि ही होता है । इसलिये तत्त्वज्ञ पुरुष ‘समस्त परद्रव्य मेरा नहीं है’ यह जानकर, यह सुनिश्चिततया जानता है कि — ‘लोक और श्रमण — दोनोंको जो यह परद्रव्यमें कर्तृत्वका व्यवसाय है, वह उनकी सम्यग्दर्शनरहितताके कारण ही है’ ।
भावार्थ : — जो व्यवहारसे मोही होकर परद्रव्यके कर्तृत्वको मानते हैं, वे — लौकिकजन हों या मुनिजन हों — मिथ्यादृष्टि ही हैं । यदि ज्ञानी भी व्यवहारमूढ़ होकर परद्रव्यको ‘अपना’ मानता है, तो वह मिथ्यादृष्टि ही होता है ।।३२४ से ३२७।।
श्लोकार्थ : — [यतः ] क्योंकि [इह ] इस लोक में [एकस्य वस्तुनः अन्यतरेण सार्धं सकलः अपि सम्बन्धः एव निषिद्धः ] एक वस्तुका अन्य वस्तुके साथ सम्पूर्ण सम्बन्ध ही निषेध किया गया है, [तत् ] इसलिये [वस्तुभेदे ] जहाँ वस्तुभेद है अर्थात् भिन्न वस्तुएँ हैं वहाँ [कर्तृकर्मघटना अस्ति न ] क र्ताक र्मघटना नहीं होती — [मुनयः च जनाः च ] इसप्रकार मुनिजन और लौकि क जन [तत्त्वम् अकर्तृ पश्यन्तु ] तत्त्वको ( – वस्तुके यथार्थ स्वरूपको) अक र्ता देखो, (यह श्रद्धामें लाओ कि — कोई किसीका क र्ता नहीं है, परद्रव्य परका अक र्ता ही है) ।२०१।
‘‘जो पुरुष ऐसा वस्तुस्वभावका नियम नहीं जानते वे अज्ञानी होते हुए कर्मको करते हैं; इसप्रकार भावकर्मका कर्ता अज्ञानसे चेतन ही होता है ।’’ — इस अर्थका एवं आगामी गाथाओंका सूचक कलशरूप काव्य कहते हैं : —
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मज्ञानमग्नमहसो बत ते वराकाः ।
कर्ता स्वयं भवति चेतन एव नान्यः ।।२०२।।
श्लोकार्थ : — (आचार्यदेव खेदपूर्वक क हते हैं कि :) [बत ] अरेरे! [ये तु इमम् स्वभावनियमं न कलयन्ति ] जो इस वस्तुस्वभावके नियमको नहीं जानते [ते वराकाः ] वे बेचारे, [अज्ञानमग्नमहसः ] जिनका (पुरुषार्थरूप – पराक्रमरूप) तेज अज्ञानमें डूब गया है ऐसे, [कर्म कुर्वन्ति ] क र्मको क रते हैं; [ततः एव हि ] इसलिये [भावकर्मकर्ता चेतनः एव स्वयं भवति ] भावक र्मका क र्ता चेतन ही स्वयं होता है, [अन्यः न ] अन्य कोई नहीं ।
भावार्थ : — वस्तुके स्वरूपके नियमको नहीं जानता, इसलिये परद्रव्यका कर्ता होता हुआ अज्ञानी ( – मिथ्यादृष्टि) जीव स्वयं ही अज्ञानभावमें परिणमित होता है; इसप्रकार अपने भावकर्मका कर्ता अज्ञानी स्वयं ही है, अन्य नहीं ।२०२।
अब, ‘(जीवके) जो मिथ्यात्वभाव होता है, उसका कर्ता कौन है ?’ — इस बातकी भलीभाँति चर्चा करके, ‘भावकर्मका कर्ता (अज्ञानी) जीव ही है’ यह युक्तिपूर्वक सिद्ध करते हैं : —
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गाथार्थ : — [यदि ] यदि [मिथ्यात्वं प्रकृतिः ] मिथ्यात्व नामक (मोहनीय क र्मकी) प्रकृ ति [आत्मानम् ] आत्माको [मिथ्यादृष्टिं ] मिथ्यादृष्टि [करोति ] क रती है ऐसा माना जाये, [तस्मात् ] तो [ते ] तुम्हारे मतमें [अचेतना प्रकृतिः ] अचेतन प्रकृ ति [ननु कारका प्राप्ता ] (मिथ्यात्वभावकी) क र्ता हो गई ! (इसलिये मिथ्यात्वभाव अचेतन सिद्ध हुआ!)
[अथवा ] अथवा, [एषः जीवः ] यह जीव [पुद्गलद्रव्यस्य ] पुद्गलद्रव्यके [मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्वको [करोति ] क रता है ऐसा माना जाये, [तस्मात् ] तो [पुद्गलद्रव्यं मिथ्यादृष्टिः ] पुद्गल- द्रव्य मिथ्यादृष्टि सिद्ध होगा! — [न पुनः जीवः ] जीव नहीं!
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जीव एव मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता, तस्याचेतनप्रकृतिकार्यत्वेऽचेतनत्वानुषंगात् । स्वस्यैव जीवो मिथ्यात्वादिभावकर्मणः कर्ता, जीवेन पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावकर्मणि क्रियमाणे पुद्गलद्रव्यस्य चेतनानुषंगात् । न च जीवः प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वौ कर्तारौ, जीववद- चेतनायाः प्रकृतेरपि तत्फलभोगानुषंगात् । न च जीवः प्रकृतिश्च मिथ्यात्वादिभावकर्मणो द्वावप्यकर्तारौ, स्वभावत एव पुद्गलद्रव्यस्य मिथ्यात्वादिभावानुषंगात् । ततो जीवः कर्ता, स्वस्य कर्म कार्यमिति सिद्धम् । पुद्गलद्रव्यको [मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्वभावरूप [कुरुतः ] क रते हैं ऐसा माना जाये, [तस्मात् ] तो [द्वाभ्यां कृतं तत् ] जो दोनोंके द्वारा किया [तस्य फलम् ] उसका फल [द्वौ अपि भुञ्जाते ] दोनों भोगेंगे !
[अथ ] अथवा यदि [पुद्गलद्रव्यं ] पुद्गलद्रव्यको [मिथ्यात्वम् ] मिथ्यात्वभावरूप [न प्रकृतिः करोति ] न तो प्रकृ ति क रती है [न जीवः ] और न जीव क रता है ( – दोनोंमेंसे कोई नहीं क रता) ऐसा माना जाय, [तस्मात् ] तो [पुद्गलद्रव्यं मिथ्यात्वम् ] पुद्गलद्रव्य स्वभावसे ही मिथ्यात्वभावरूप सिद्ध होगा ! [तत् तु न खलु मिथ्या ] क्या यह वास्तवमें मिथ्या नहीं है ?
टीका : — जीव ही मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है; क्योंकि यदि वह (भावकर्म) अचेतन प्रकृतिका कार्य हो तो उसे ( – भावकर्मको) अचेतनत्वका प्रसंग आ जायेगा । जीव अपने ही मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है; क्योंकि यदि जीव पुद्गलद्रव्यके मिथ्यात्वादि भावकर्मको करे तो पुद्गलद्रव्यको चेतनत्वका प्रसंग आ जायेगा । और जीव तथा प्रकृति दोनों मिथ्यात्वादि भावकर्मके कर्ता हैं ऐसा भी नहीं है; क्योंकि यदि वे दोनों कर्ता हों तो जीवकी भाँति अचेतन प्रकृतिको भी उस (-भावकर्म)का फल भोगनेका प्रसंग आ जायेगा । और जीव तथा प्रकृति दोनों मिथ्यात्वादि भावकर्मके अकर्ता हैं सो ऐसा भी नहीं है; क्योंकि यदि वे दोनों अकर्ता हों तो स्वभावसे ही पुद्गलद्रव्यको मिथ्यात्वादि भावका प्रसंग आ जायेगा । इससे यह सिद्ध हुआ कि — जीव कर्ता है और अपना कर्म कार्य है (अर्थात् जीव अपने मिथ्यात्वादि भावकर्मका कर्ता है और अपना भावकर्म अपना कार्य है) ।
भावार्थ : — इन गाथाओंमें यह सिद्ध किया है कि भावकर्मका कर्ता जीव ही है । यहाँ यह जानना चाहिए कि — परमार्थसे अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यके भावका कर्ता नहीं होता, इसलिये जो चेतनके भाव हैं उनका कर्ता चेतन ही हो सकता है । इस जीवके अज्ञानसे जो मिथ्यात्वादि भावरूप परिणाम हैं वे चेतन हैं, जड़ नहीं; अशुद्धनिश्चयनयसे उन्हें चिदाभास भी कहा जाता है । इसप्रकार
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रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषंगात्कृतिः ।
जीवस्यैव च कर्म तच्चिदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ।।२०३।।
वे परिणाम चेतन हैं, इसलिये उनका कर्ता भी चेतन ही है; क्योंकि चेतनकर्मका कर्ता चेतन ही होता है — यह परमार्थ है । अभेददृष्टिमें तो जीव शुद्धचेतनामात्र ही है, किन्तु जब वह कर्मके निमित्तसे परिणमित होता है तब वह उन-उन परिणामोंसे युक्त होता है और तब परिणाम- परिणामीकी भेददृष्टिमें अपने अज्ञानभावरूप परिणामोंका कर्ता जीव ही है । अभेददृष्टिमें तो कर्ताकर्मभाव ही नहीं है, शुद्ध चेतनामात्र जीववस्तु है । इसप्रकार यथार्थतया समझना चाहिये कि चेतनकर्मका कर्ता चेतन ही है ।।३२८ से ३३१।।
श्लोकार्थ : — [कर्म कार्यत्वात् अकृतं न ] जो क र्म (अर्थात् भावक र्म) है वह कार्य है, इसलिये वह अकृत नहीं हो सकता अर्थात् किसीके द्वारा किये बिना नहीं हो सकता । [च ] और [तत् जीव-प्रकृत्योः द्वयोः कृतिः न ] ऐसे भी नहीं है कि वह (भावक र्म) जीव और प्रकृ ति दोनोंकी कृ ति हो, [अज्ञायाः प्रकृतेः स्व-कार्य-फल-भुग्-भाव-अनुषंगात् ] क्योंकि यदि वह दोनोंका कार्य हो तो ज्ञानरहित (जड़) प्रकृ तिको भी अपने कार्यका फल भोगनेका प्रसंग आ जायेगा । [एकस्याः प्रकृतेः न ] और वह (भावक र्म) एक प्रकृ तिकी कृ ति ( – अके ली प्रकृ तिका कार्य – ) भी नहीं है, [अचित्त्वलसनात् ] क्योंकि प्रकृ तिका तो अचेतनत्व प्रगट है (अर्थात् प्रकृ ति तो अचेतन है और भावक र्म चेतन है) । [ततः ] इसलिये [अस्य कर्ता जीवः ] उस भावक र्मका क र्ता जीव ही है [च ] और [चिद्-अनुगं ] चेतनका अनुसरण करनेवाला अर्थात् चेतनके साथ अन्वयरूप ( – चेतनके परिणामरूप – ) ऐसा [तत् ] वह भावक र्म [जीवस्य एव कर्म ] जीवका ही क र्म है, [यत् ] क्योंकि [पुद्गलः ज्ञाता न ] पुद्गल तो ज्ञाता नहीं है (इसलिये वह भावक र्म पुद्गलका क र्म नहीं हो सकता) ।
भावार्थ : — चेतनकर्म चेतनके ही होता है; पुद्गल जड़ है, उससे चेतनकर्म कैसे हो सकता है ? ।२०३।
अब आगेकी गाथाओंमें, जो भावकर्मका कर्ता भी कर्मको ही मानते हैं उन्हें समझानेके लिए स्याद्वादके अनुसार वस्तुस्थिति कहेंगे; पहले उसका सूचक काव्य कहते हैं : —
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कर्तात्मैष कथंचिदित्यचलिता कैश्चिच्छ्रुतिः कोपिता ।
स्याद्वादप्रतिबन्धलब्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ।।२०४।।
श्लोकार्थ : — [कैश्चित् हतकैः ] कोई आत्माके घातक (सर्वथा एकान्तवादी) [कर्म एव कर्तृ प्रवितर्क्य ] क र्मको ही क र्ता विचार कर [आत्मनः कर्तृतां क्षिप्त्वा ] आत्माके क र्तृत्वको उड़ाकर, ‘[एषः आत्मा कथंचित् क र्ता ] यह आत्मा क थंचित् क र्ता है’ [इति अचलिता श्रुतिः कोपिता ] ऐसा क हनेवाली अचलित श्रुतिको कोपित क रते हैं ( – निर्बाध जिनवाणीकी विराधना क रते हैं); [उद्धत-मोह-मुद्रित-धियां तेषाम् बोधस्य संशुद्धये ] जिनकी बुद्धि तीव्र मोहसे मुद्रित हो गई है ऐसे उन आत्मघातकोंके ज्ञानकी संशुद्धिके लिये (निम्नलिखित गाथाओं द्वारा) [वस्तुस्थितिः स्तूयते ] वस्तुस्थिति क ही जाती है — [स्याद्वाद- प्रतिबन्ध-लब्ध-विजया ] जिस वस्तुस्थितिने स्याद्वादके प्रतिबन्धसे विजय प्राप्त की है (अर्थात् जो वस्तुस्थिति स्याद्वादरूप नियमसे निर्बाधतया सिद्ध होती है) ।
भावार्थ : — कोई एकान्तवादी सर्वथा एकान्ततः कर्मका कर्ता कर्मको ही कहते हैं और आत्माको अकर्ता ही कहते हैं; वे आत्माके घातक हैं । उन पर जिनवाणीका कोप है, क्योंकि स्याद्वादसे वस्तुस्थितिको निर्बाधतया सिद्ध करनेवाली जिनवाणी तो आत्माको कथंचित् कर्ता कहती है । आत्माको अकर्ता ही कहनेवाले एकान्तवादियोंकी बुद्धि उत्कट मिथ्यात्वसे ढक गई है; उनके मिथ्यात्वको दूर करनेके लिये आचार्यदेव स्याद्वादानुसार जैसी वस्तुस्थिति है, वह निम्नलिखित गाथाओंमें कहते हैं ।२०४।
‘आत्मा सर्वथा अकर्ता नहीं है, कथंचित् कर्ता भी है’ इस अर्थकी गाथायें अब कहते हैं : —
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कम्मेहि सुहाविज्जदि दुक्खाविज्जदि तहेव कम्मेहिं । कम्मेहि य मिच्छत्तं णिज्जदि णिज्जदि असंजमं चेव ।।३३३।। कम्मेहि भमाडिज्जदि उड्ढमहो चावि तिरियलोयं च । कम्मेहि चेव किज्जदि सुहासुहं जेत्तियं किंचि ।।३३४।। जम्हा कम्मं कुव्वदि कम्मं देदि हरदि त्ति जं किंचि । तम्हा उ सव्वजीवा अकारगा होंति आवण्णा ।।३३५।। पुरिसित्थियाहिलासी इत्थीकम्मं च पुरिसमहिलसदि । एसा आयरियपरंपरागदा एरिसी दु सुदी ।।३३६।। तम्हा ण को वि जीवो अबंभचारी दु अम्ह उवदेसे । जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं अहिलसदि इदि भणिदं ।।३३७।। जम्हा घादेदि परं परेण घादिज्जदे य सा पयडी । एदेणत्थेणं किर भण्णदि परघादणामेत्ति ।।३३८।।
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तम्हा ण को वि जीवो वधादओ अत्थि अम्ह उवदेसे । जम्हा कम्मं चेव हि कम्मं घादेदि इदि भणिदं ।।३३९।। एवं संखुवएसं जे दु परूवेंति एरिसं समणा । तेसिं पयडी कुव्वदि अप्पा य अकारगा सव्वे ।।३४०।। अहवा मण्णसि मज्झं अप्पा अप्पाणमप्पणो कुणदि । एसो मिच्छसहावो तुम्हं एयं मुणंतस्स ।।३४१।। अप्पा णिच्चोऽसंखेज्जपदेसो देसिदो दु समयम्हि । ण वि सो सक्कदि तत्तो हीणो अहिओ य कादुं जे ।।३४२।। जीवस्स जीवरूवं वित्थरदो जाण लोगमेत्तं खु । तत्तो सो किं हीणो अहिओ य कहं कुणदि दव्वं ।।३४३।। अह जाणगो दु भावो णाणसहावेण अच्छदे त्ति मदं । तम्हा ण वि अप्पा अप्पयं तु सयमप्पणो कुणदि ।।३४४।।
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गाथार्थ : — ‘‘[कर्मभिः तु ] क र्म [अज्ञानी क्रियते ] (जीवको) अज्ञानी क रते हैं [तथा एव ] उसी तरह [कर्मभिः ज्ञानी ] कर्म (जीवको) ज्ञानी क रते हैं, [कर्मभिः स्वाप्यते ] क र्म सुलाते हैं [तथा एव ] उसी तरह [कर्मभिः जागर्यते ] क र्म जगाते हैं, [कर्मभिः सुखी क्रियते ] क र्म सुखी क रते हैं [तथा एव ] उसी तरह [कर्मभिः दुःखी क्रियते ] क र्म दुःखी क रते हैं, [कर्मभिः च मिथ्यात्वं नीयते ] क र्म मिथ्यात्वको प्राप्त कराते हैं [च एव ] और [असंयमं नीयते ] क र्म असंयमको प्राप्त कराते हैं, [कर्मभिः ] क र्म [ऊ र्ध्वम् अधः च अपि तिर्यग्लोकं च ] ऊ र्ध्वलोक , अधोलोक और तिर्यग्लोक में [भ्राम्यते ] भ्रमण कराते हैं, [यत्किञ्चित् यावत् शुभाशुभं ] जो कुछ भी जितना शुभ और अशुभ है वह सब [कर्मभिः च एव क्रियते ] क र्म ही क रते हैं । [यस्मात् ] यतः [कर्म करोति ] क र्म क रता है, [कर्म ददाति ] क र्म देता है, [हरति ] क र्म हर लेता है — [इति यत्किञ्चित् ] इसप्रकार जो कुछ भी करता वह क र्म ही क रता है, [तस्मात् तु ] इसलिये [सर्वजीवाः ] सभी जीव [अकारकाः आपन्नाः भवन्ति ] अकारक (अक र्ता) सिद्ध होते हैं ।
और, [पुरुषः ] पुरुषवेदक र्म [स्त्र्यभिलाषी ] स्त्रीका अभिलाषी है [च ] और [स्त्रीकर्म ] स्त्रीवेदक र्म [पुरुषम् अभिलषति ] पुरुषकी अभिलाषा क रता है — [एषा आचार्यपरम्परागता ईदृशी तु श्रुतिः ] ऐसी यह आचार्यकी परम्परासे आई हुई श्रुति है; [तस्मात् ] इसलिये [अस्माकम् उपदेशे तु ] हमारे उपदेशमें [कः अपि जीवः ] कोई भी जीव [अब्रह्मचारी न ] अब्रह्मचारी नहीं है,
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[यस्मात् ] क्योंकि [कर्म च एव हि ] क र्म ही [कर्म अभिलषति ] क र्मकी अभिलाषा क रता है [इति भणितम् ] ऐसा कहा है ।
और, [यस्मात् परं हन्ति ] जो परको मारता है [च ] और [परेण हन्यते ] जो परके द्वारा मारा जाता है [सा प्रकृतिः ] वह प्रकृ ति है — [एतेन अर्थेन किल ] इस अर्थमें [परघातनाम इति भण्यते ] परघातनामक र्म क हा जाता है, [तस्मात् ] इसलिये [अस्माकम् उपदेशे ] हमारे उपदेशमें [कः अपि जीवः ] कोई भी जीव [उपघातकः न अस्ति ] उपघातक (मारनेवाला) नहीं है, [यस्मात् ] क्योंकि [कर्म च एव हि ] क र्म ही [कर्म हन्ति ] क र्मको मारता है [इति भणितम् ] ऐसा कहा है ।’’
(आचार्यदेव क हते हैं कि : — ) [एवं तु ] इसप्रकार [ईदृशं साङ्खयोपदेशं ] ऐसा सांख्यमतका उपदेश [ये श्रमणाः ] जो श्रमण (जैन मुनि) [प्ररूपयन्ति ] प्ररूपित करते हैं, [तेषां ] उनके मतमें [प्रकृतिः करोति ] प्रकृ ति ही क रती है [आत्मानः च सर्वे ] और आत्मा तो सब [अकारकाः ] अकारक हैं ऐसा सिद्ध होता है !
[अथवा ] अथवा (क र्तृत्वका पक्ष सिद्ध करनेके लिये) [मन्यसे ] यदि तुम यह मानते हो कि ‘[मम आत्मा ] मेरा आत्मा [आत्मनः ] अपने [आत्मानम् ] (द्रव्यरूप) आत्माको [करोति ] क रता है’, [एतत् जानतः तव ] तो ऐसा जाननेवालेका – तुम्हारा [एषः मिथ्यास्वभावः ] यह मिथ्यास्वभाव है (अर्थात् ऐसा जानना वह तेरा मिथ्यास्वभाव है); [यद् ] क्योंकि — [समये ] सिद्धांतमें [आत्मा ] आत्माको [नित्यः ] नित्य, [असङ्खयेयप्रदेशः ] असंख्यात-प्रदेशी [दर्शितः तु ] बताया गया है, [ततः ] उससे [सः ] वह [हीनः अधिकः च ] हीन या अधिक [कर्तुं न
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कर्मैवात्मानमज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव ज्ञानिनं करोति, ज्ञानावरणाख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव स्वापयति, निद्राख्यकर्मोदय- मन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव जागरयति, निद्राख्यकर्मक्षयोपशममन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव सुखयति, सद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव दुःखयति, असद्वेद्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैव मिथ्याद्रष्टिं करोति, मिथ्यात्वकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवासंयतं अपि शक्यते ] नहीं किया जा सक ता; [विस्तरतः ] और विस्तारसे भी [जीवस्य जीवरूपं ] जीवका जीवरूप [खलु ] निश्चयसे [लोकमात्रं जानीहि ] लोक मात्र जानो; [ततः ] उससे [किं सः हीनः अधिकः वा ] क्या वह हीन अथवा अधिक होता है ? [द्रव्यम् कथं करोति ] तब फि र (आत्मा) द्रव्यको (अर्थात् द्रव्यरूप आत्माको) कैसे क रता है ?
[अथ ] अथवा यदि ‘[ज्ञायकः भावः तु ] ज्ञायक भाव तो [ज्ञानस्वभावेन तिष्ठति ] ज्ञान- स्वभावसे स्थित रहता है’ [इति मतम् ] ऐसा माना जाये, [तस्मात् अपि] तो इससे भी [आत्मा स्वयं ] आत्मा स्वयं [आत्मनः आत्मानं तु ] अपने आत्माको [न करोति ] नहीं करता यह सिद्ध होगा !
(इसप्रकार कर्तृत्वको सिद्ध करनेके लिये विवक्षाको बदलकर जो पक्ष कहा है, वह घटित नहीं होता ।)
(इसप्रकार, यदि कर्मका कर्ता कर्म ही माना जाय तो स्याद्वादके साथ विरोध आता है; इसलिये आत्माको अज्ञान-अवस्थामें कथंचित् अपने अज्ञानभावरूप कर्मका कर्ता मानना चाहिये, जिससे स्याद्वादके साथ विरोध नहीं आता ।)
टीका : — (यहाँ पूर्वपक्ष इसप्रकार है :) ‘‘कर्म ही आत्माको अज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके उदयके बिना उसकी ( – अज्ञानकी) अनुपपत्ति है; कर्म ही (आत्माको) ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरण नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही सुलाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही जगाता है, क्योंकि निद्रा नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही सुखी करता है, क्योंकि सातावेदनीय नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म
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करोति, चारित्रमोहाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । कर्मैवोर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकं भ्रमयति, आनुपूर्व्याख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । अपरमपि यद्यावत्किंचिच्छुभाशुभं तत्तावत्सकलमपि कर्मैव करोति, प्रशस्ताप्रशस्तरागाख्यकर्मोदयमन्तरेण तदनुपपत्तेः । यत एवं समस्तमपि स्वतन्त्रं कर्म करोति, कर्म ददाति, कर्म हरति च, ततः सर्व एव जीवाः नित्यमेवैकान्तेनाकर्तार एवेति निश्चिनुमः । किंच – श्रुतिरप्येनमर्थमाह, पुंवेदाख्यं कर्म स्त्रियमभिलषति, स्त्रीवेदाख्यं कर्म पुमांसमभिलषति इति वाक्येन कर्मण एव कर्माभिलाषकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्याब्रह्मकर्तृत्व- प्रतिषेधात्, तथा यत्परं हन्ति, येन च परेण हन्यते तत्परघातकर्मेति वाक्येन कर्मण एव कर्मघातकर्तृत्वसमर्थनेन जीवस्य घातकर्तृत्वप्रतिषेधाच्च सर्वथैवाकर्तृत्वज्ञापनात् । एवमीद्रशं सांख्यसमयं स्वप्रज्ञापराधेन सूत्रार्थमबुध्यमानाः केचिच्छ्रमणाभासाः प्ररूपयन्ति; तेषां प्रकृतेरेकान्तेन ही दुःखी करता है, क्योंकि असातावेदनीय नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही मिथ्यादृष्टि करता है, क्योंकि मिथ्यात्वकर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही असंयमी करता है, क्योंकि चारित्रमोह नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; कर्म ही ऊ र्ध्वलोकमें, अधोलोकमें और तिर्यग्लोकमें भ्रमण कराता है, क्योंकि आनुपूर्वी नामक कर्मके उदयके बिना उसकी अनुपपत्ति है; दूसरा भी जो कुछ जितना शुभ – अशुभ है वह सब कर्म ही करता है, क्योंकि प्रशस्त-अप्रशस्त राग नामक कर्मके उदयके बिना उनकी अनुपपत्ति है । इसप्रकार सब कुछ स्वतन्त्रतया कर्म ही करता है, कर्म ही देता है, कर्म ही हर लेता है, इसलिये हम यह निश्चय करते हैं कि — सभी जीव सदा ही एकान्तसे अकर्ता ही हैं । और श्रुति (भगवानकी वाणी, शास्त्र) भी इसी अर्थको कहती है; क्योंकि, (वह श्रुति) ‘पुरुषवेद नामक कर्म स्त्रीकी अभिलाषा करता है और स्त्रीवेद नामक कर्म पुरुषकी अभिलाषा करता है’ इस वाक्यसे कर्मको ही कर्मकी अभिलाषाके कर्तृत्वके समर्थन द्वारा जीवको अब्रह्मचर्यके कर्तृत्वका निषेध करती है, तथा ‘जो परको हनता है और जो परके द्वारा हना जाता है वह परघातकर्म है’ इस वाक्यसे कर्मको ही कर्मके घातका कर्तृत्व होनेके समर्थन द्वारा जीवको घातके कर्तृत्वका निषेध करती है, और इसप्रकार (अब्रह्मचर्यके तथा घातके कर्तृत्वके निषेध द्वारा) जीवका सर्वथा अकर्तृत्व बतलाती है ।’’
(आचार्यदेव कहते हैं कि : — ) इसप्रकार ऐसे सांख्यमतको, अपनी प्रज्ञा(बुद्धि)के अपराधसे सूत्रके अर्थको न जाननेवाले कुछ १श्रमणाभास प्ररूपित करते हैं; उनकी, एकान्तसे प्रकृतिके कर्तृत्वकी मान्यतासे, समस्त जीवोंके एकान्तसे अकर्तृत्व आ जाता है, इसलिये ‘जीव १श्रमणाभास = मुनिके गुण नहीं होने पर भी अपनेको मुनि कहलानेवाले
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कर्तृत्वाभ्युपगमेन सर्वेषामेव जीवानामेकान्तेनाकर्तृत्वापत्तेः जीवः कर्तेति श्रुतेः कोपो दुःशक्यः परिहर्तुम् । यस्तु कर्म आत्मनोऽज्ञानादिसर्वभावान् पर्यायरूपान् करोति, आत्मा त्वात्मानमेवैकं द्रव्यरूपं करोति, ततो जीवः कर्तेति श्रुतिकोपो न भवतीत्यभिप्रायः स मिथ्यैव । जीवो हि द्रव्यरूपेण तावन्नित्योऽसंख्येयप्रदेशो लोकपरिमाणश्च । तत्र न तावन्नित्यस्य कार्यत्वमुप- पन्नं, कृतकत्वनित्यत्वयोरेकत्वविरोधात् । न चावस्थितासंख्येयप्रदेशस्यैकस्य पुद्गलस्कन्धस्येव प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणद्वारेणापि तस्य कार्यत्वं, प्रदेशप्रक्षेपणाकर्षणे सति तस्यैकत्वव्याघातात् । न चापि सकललोकवास्तुविस्तारपरिमितनियतनिजाभोगसंग्रहस्य प्रदेशसंकोचनविकाशनद्वारेण तस्य कार्यत्वं, प्रदेशसंकोचनविकाशनयोरपि शुष्कार्द्रचर्मवत्प्रतिनियतनिजविस्ताराद्धीनाधिकस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात् । यस्तु वस्तुस्वभावस्य सर्वथापोढुमशक्यत्वात् ज्ञायको भावो ज्ञानस्वभावेन सर्वदैव कर्ता है’ ऐसी जो श्रुति है उसका कोप दूर करना अशक्य हो जाता है (अर्थात् भगवानकी वाणीकी विराधना होती है) । और, ‘कर्म आत्माके अज्ञानादि सर्व भावोंको — जो कि पर्यायरूप हैं उन्हें — करता है, और आत्मा तो आत्माको ही एकको द्रव्यरूपको करता है, इसलिये जीव कर्ता है; इसप्रकार श्रुतिका कोप नहीं होता’ — ऐसा जो अभिप्राय है वह मिथ्या ही है । (इसीको समझाते हैं : — ) जीव तो द्रव्यरूपसे नित्य है, असंख्यातप्रदेशी है और लोकपरिमाण है । उनमें प्रथम, नित्यका कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि कृतकत्वके और नित्यत्वके एकत्वका विरोध है । (आत्मा नित्य है, इसलिये वह कृतक अर्थात् किसीके द्वारा किया गया नहीं हो सकता ।) और अवस्थित असंख्य-प्रदेशवाले एक(-आत्मा)को पुद्गलस्कन्धकी भाँति, प्रदेशोंके प्रक्षेपण- आकर्षण द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंका प्रक्षेपण तथा आकर्षण हो तो उसके एकत्वका व्याघात हो जायेगा । (स्कन्ध अनेक परमाणुओंका बना हुआ है, इसलिये उसमेंसे परमाणु निकल जाते हैं तथा उसमें आते भी हैं; परन्तु आत्मा निश्चित असंख्यात- प्रदेशवाला एक ही द्रव्य है, इसलिये वह अपने प्रदेशोंको निकाल नहीं सकता तथा अधिक प्रदेशोंको ले नहीं सकता ।) और सकल लोकरूप घरके विस्तारसे परिमित जिसका निश्चित निज विस्तारसंग्रह है (अर्थात् जिसका लोक जितना निश्चित माप है) उसके (-आत्माके) प्रदेशोंके संकोच-विकास द्वारा भी कार्यत्व नहीं बन सकता, क्योंकि प्रदेशोंके संकोच-विस्तार होने पर भी, सूखे-गीले चमड़ेकी भाँति, निश्चित निज विस्तारके कारण उसे ( – आत्माको) हीनाधिक नहीं किया जा सकता । (इसप्रकार आत्माके द्रव्यरूप आत्माके कर्तृत्व नहीं बन सकता ।) और, ‘‘वस्तुस्वभावका सर्वथा मिटना अशक्य होनेसे ज्ञायक भाव ज्ञानस्वभावसे ही सदैव स्थित रहता है और इसप्रकार स्थित रहता हुआ, ज्ञायकत्व और कर्तृत्वके अत्यन्त विरुद्धता होनेसे,
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तिष्ठति, तथा तिष्ठंश्च ज्ञायककर्तृत्वयोरत्यन्तविरुद्धत्वान्मिथ्यात्वादिभावानां न कर्ता भवति, भवन्ति च मिथ्यात्वादिभावाः, ततस्तेषां कर्मैव कर्तृ प्ररूप्यत इति वासनोन्मेषः स तु नितरामात्मात्मानं करोतीत्यभ्युपगममुपहन्त्येव ।
ततो ज्ञायकस्य भावस्य सामान्यापेक्षया ज्ञानस्वभावावस्थितत्वेऽपि कर्मजानां मिथ्यात्वादिभावानां ज्ञानसमयेऽनादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञानशून्यत्वात् परमात्मेति जानतो विशेषापेक्षया त्वज्ञानरूपस्य ज्ञानपरिणामस्य करणात्कर्तृत्वमनुमन्तव्यं; तावद्यावत्तदादिज्ञेयज्ञानभेदविज्ञान- पूर्णत्वादात्मानमेवात्मेति जानतो विशेषापेक्षयापि ज्ञानरूपेणैव ज्ञानपरिणामेन परिणममानस्य केवलं ज्ञातृत्वात्साक्षादकर्तृत्वं स्यात् । मिथ्यात्वादि भावोंका कर्ता नहीं होता; और मिथ्यात्वादि भाव तो होते हैं; इसलिये उनका कर्ता कर्म ही है, इसप्रकार प्ररूपित किया जाता है’’ — ऐसी जो वासना (अभिप्राय, झुकाव) प्रगट की जाती है वह भी ‘आत्माको करता है’ इस (पूर्वोक्त) मान्यताका अतिशयतापूर्वक घात करती ही है (क्योंकि सदा ही ज्ञायक माननेसे आत्मा अकर्ता ही सिद्ध हुआ) ।
इसलिये, ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षासे ज्ञानस्वभावसे अवस्थित होने पर भी, कर्मसे उत्पन्न मिथ्यात्वादि भावोंके ज्ञानके समय, अनादिकालसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे शून्य होनेसे, परको आत्माके रूपमें जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव) विशेष अपेक्षासे अज्ञानरूप ज्ञानपरिणामको करता है ( – अज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञानका परिणमन उसको करता है) इसलिये, उसके कर्तृत्वको स्वीकार करना (अर्थात् ऐसा स्वीकार करना कि वह कर्त्ता है) वह भी तब तक की जब तक भेदविज्ञानके प्रारम्भसे ज्ञेय और ज्ञानके भेदविज्ञानसे पूर्ण (अर्थात् भेदविज्ञान सहित) होनेके कारण आत्माको ही आत्माके रूपमें जानता हुआ वह (ज्ञायकभाव), विशेष अपेक्षासे भी ज्ञानरूप ही ज्ञानपरिणामसे परिणमित होता हुआ ( – ज्ञानरूप ऐसा जो ज्ञानका परिणमन उसरूप ही परिणमित होता हुआ), मात्र ज्ञातृत्वके कारण साक्षात् अकर्ता हो ।
भावार्थ : — कितने ही जैन मुनि भी स्याद्वाद-वाणीको भलीभाँति न समझकर सर्वथा एकान्तका अभिप्राय करते हैं और विवक्षाको बदलकर यह कहते हैं कि — ‘‘आत्मा तो भावकर्मका अकर्ता ही है, कर्मप्रकृतिका उदय ही भावकर्मको करता है; अज्ञान, ज्ञान, सोना, जागना, सुख, दुःख, मिथ्यात्व, असंयम, चार गतियोंमें भ्रमण — इन सबको, तथा जो कुछ शुभ-अशुभ भाव हैं इन सबको कर्म ही करता है; जीव तो अकर्ता है ।’’ और वे मुनि शास्त्रका भी ऐसा ही अर्थ करते हैं कि — ‘‘वेदके उदयसे स्त्री-पुरुषका विकार होता है और उपघात तथा परघात प्रकृतिके उदयसे परस्पर घात होता है ।’’ इसप्रकार, जैसे सांख्यमतावलम्बी सब