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त्वात्परमम्, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वात् कर्माष्टकवर्जितम्, द्रव्यभावकर्मरहितत्वाच्छुद्धम्, सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजचिच्छक्ति मयत्वाज्ज्ञानादिचतुःस्वभावम्, सादिसनिधन- पाँच प्रकारके संसारसे मुक्त, पाँच प्रकारके मोक्षरूपी फलको देनेवाले (अर्थात् द्रव्यपरावर्तन, क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भवपरावर्तन और भावपरावर्तनसे मुक्त करनेवाले), पाँचप्रकार सिद्धोंको (अर्थात् पाँच प्रकारकी मुक्तिको — सिद्धिको — प्राप्त सिद्धभगवन्तोंको) मैं पाँच प्रकारके संसारसे मुक्त होनेके लिये वन्दन करता हूँ ।२९५।
गाथा : १७७ अन्वयार्थ : — (परमात्मतत्त्व) [जातिजरामरणरहितम् ] जन्म - जरा - मरण रहित, [परमम् ] परम, [कर्माष्टवर्जितम् ] आठ कर्म रहित, [शुद्धम् ] शुद्ध, [ज्ञानादि-चतुःस्वभावम् ] ज्ञानादिक चार स्वभाववाला, [अक्षयम् ] अक्षय, [अविनाशम् ] अविनाशी और [अच्छेद्यम् ] अच्छेद्य है ।
टीका : — (जिसका सम्पूर्ण आश्रय करनेसे सिद्ध हुआ जाता है ऐसे) कारणपरमतत्त्वके स्वरूपका यह कथन है ।
(कारणपरमतत्त्व ऐसा है : — ) निसर्गसे (स्वभावसे) संसारका अभाव होनेके कारण जन्म - जरा - मरण रहित है; परम - पारिणामिकभाव द्वारा परमस्वभाववाला होनेके कारण परम है; तीनों काल निरुपाधि - स्वरूपवाला होनेके कारण आठ कर्म रहित है; द्रव्यकर्म और भावकर्म रहित होनेके कारण शुद्ध है; सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र और सहजचित्शक्तिमय होनेके कारण ज्ञानादिक चार स्वभाववाला है; सादि - सांत, मूर्त
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मूर्तेन्द्रियात्मकविजातीयविभावव्यंजनपर्यायवीतत्वादक्षयम्, प्रशस्ताप्रशस्तगतिहेतुभूतपुण्यपाप- कर्मद्वन्द्वाभावादविनाशम्, वधबंधच्छेदयोग्यमूर्तिमुक्त त्वादच्छेद्यमिति ।
निखिलदुरितदुर्गव्रातदावाग्निरूपम् ।
सकलविमलबोधस्ते भवत्येव तस्मात् ।।२९६।।
[अब इस १७७वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं :]
[श्लोकार्थ : — ] अविचल, अखण्डज्ञानरूप, अद्वंद्वनिष्ठ (रागद्वेषादि द्वंद्वमें जो स्थित नहीं है ) और समस्त पापके दुस्तर समूहको जलानेमें दावानल समान — ऐसे स्वोत्पन्न (अपनेसे उत्पन्न होनेवाले) दिव्यसुखामृतको ( – दिव्यसुखामृतस्वभावी आत्मतत्त्वको) — कि जिसे तू भज रहा है उसे — भज; उससे तुझे सकल - विमल ज्ञान (केवलज्ञान) होगा ही ।२९६।
गाथा : १७८ अन्वयार्थ : — (परमात्मतत्त्व) [अव्याबाधम् ] अव्याबाध, [अतीन्द्रियम् ] अतीन्द्रिय, [अनुपमम् ] अनुपम, [पुण्यपापनिर्मुक्तम् ] पुण्यपाप रहित,
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प्रदेशभरितचिदानन्दमयत्वादतीन्द्रियम्, त्रिषु तत्त्वेषु विशिष्टत्वादनौपम्यम्, संसृति- पुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाभावात्पुण्यपापनिर्मुक्त म्, पुनरागमनहेतुभूतप्रशस्ताप्रशस्तमोह- रागद्वेषाभावात्पुनरागमनविरहितम्, नित्यमरणतद्भवमरणकारणकलेवरसंबन्धाभावान्नित्यम्, निजगुणपर्यायप्रच्यवनाभावादचलम्, परद्रव्यावलम्बनाभावादनालम्बमिति
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः — [पुनरागमन-विरहितम् ] पुनरागमन रहित, [नित्यम् ] नित्य, [अचलम् ] अचल और [अनालंबम् ] निरालम्ब है ।
टीका : — यहाँ भी, निरुपाधि स्वरूप जिसका लक्षण है ऐसा परमात्मतत्त्व कहा है ।
(परमात्मतत्त्व ऐसा है : — ) समस्त दुष्ट १अघरूपी वीर शत्रुओंकी सेनाके धांधलको अगोचर ऐसे सहजज्ञानरूपी गढ़में आवास होनेके कारण अव्याबाध (निर्विघ्न) है; सर्व आत्मप्रदेशमें भरे हुए चिदानन्दमयपनेके कारण अतीन्द्रिय है; तीन तत्त्वोंमें विशिष्ट होनेके कारण (बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व इन तीनोंमें विशिष्ट — खास प्रकारका — उत्तम होनेके कारण) अनुपम है; संसाररूपी स्त्रीके संभोगसे उत्पन्न होनेवाले सुखदुःखका अभाव होनेके कारण पुण्यपाप रहित है; २पुनरागमनके हेतुभूत प्रशस्त - अप्रशस्त मोहरागद्वेषका अभाव होनेके कारण पुनरागमन रहित है; ३नित्य मरणके तथा उस भव सम्बन्धी मरणके कारणभूत कलेवरके (शरीरके) सम्बन्धका अभाव होनेके कारण नित्य है; निज गुणों और पर्यायोंसे च्युत न होनेके कारण अचल है; परद्रव्यके अवलम्बनका अभाव होनेके कारण निरालम्ब है ।
इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरिने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीकामें १३८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : — १ – अध्यात्मशास्त्रोंमें अनेक स्थानों पर पाप तथा पुण्य दोनोंको ‘अघ’ अथवा ‘पाप’ कहा जाता है । २ – पुनरागमन = (चार गतियोंमेंसे किसी गतिमें) फि रसे आना; पुनः जन्म धारण करना सो । ३ – नित्य मरण = प्रतिसमय होनेवाला आयुकर्मके निषेकोंका क्षय
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सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधाः ।
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ।।’’
स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्द्रशां गोचरः ।
एको भाति कलौ युगे मुनिपतिः पापाटवीपावकः ।।२९७।।
‘‘[श्लोकार्थ : — ] (श्रीगुरु संसारी भव्य जीवोंको सम्बोधते हैं कि : — ) हे अंध प्राणियों ! अनादि संसारसे लेकर पर्याय - पर्यायमें यह रागी जीव सदैव मत्त वर्तते हुए जिस पदमें सो रहे हैं — नींद ले रहे हैं वह पद अर्थात् स्थान अपद है — अपद है, (तुम्हारा स्थान नहीं है,) ऐसा तुम समझो । (दो बार कहनेसे अत्यन्त करुणाभाव सूचित होता है ।) इस ओर आओ — इस ओर आओ, (यहाँ निवास करो,) तुम्हारा पद यह है — यह है जहाँ शुद्ध - शुद्ध चैतन्यधातु निज रसकी अतिशयताके कारण स्थायीभावपनेको प्राप्त है अर्थात् स्थिर है — अविनाशी है । (यहाँ ‘शुद्ध’ शब्द दो बार कहा है वह द्रव्य और भाव दोनोंकी शुद्धता सूचित करता है । सर्व अन्यद्रव्योंसे पृथक् होनेके कारण आत्मा द्रव्यसे शुद्ध है और परके निमित्तसे होनेवाले अपने भावोंसे रहित होनेके कारण भावसे शुद्ध है ।)’’
और (इस १७८वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : — )
[श्लोकार्थ : — ] भाव पाँच हैं, जिनमें यह परम पंचम भाव (परम- पारिणामिकभाव) निरन्तर स्थायी है, संसारके नाशका कारण है और सम्यग्दृष्टियोंको गोचर है । बुद्धिमान पुरुष समस्त रागद्वेषके समूहको छोड़कर तथा उस परम पंचम भावको जानकर, अकेला, कलियुगमें पापवनकी अग्निरूप मुनिवरके रूपमें शोभा देता है (अर्थात् जो बुद्धिमान पुरुष परम पारिणामिक भावका उग्ररूपसे आश्रय करता है, वही एक पुरुष पापवनको जलानेमें अग्नि समान मुनिवर है ) ।२९७।
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तस्य वाऽशुभपरिणतेरभावान्न चाशुभकर्म अशुभकर्माभावान्न दुःखम्, शुभपरिणतेरभावान्न शुभकर्म शुभकर्माभावान्न खलु संसारसुखम्, पीडायोग्ययातनाशरीराभावान्न पीडा,
गाथा : १७९ अन्वयार्थ : — [न अपि दुःखं ] जहाँ दुःख नहीं है, [न अपि सौख्यं ] सुख नहीं है, [न अपि पीड़ा ] पीड़ा नहीं है, [न एव बाधा विद्यते ] बाधा नहीं है, [न अपि मरणं ] मरण नहीं है, [न अपि जननं ] जन्म नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् दुःखादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है ) ।
टीका : — यहाँ, (परमतत्त्वको) वास्तवमें सांसारिक विकारसमूहके अभावके कारण १निर्वाण है ऐसा कहा है ।
२सतत अन्तर्मुखाकार परम - अध्यात्मस्वरूपमें लीन ऐसे उस ३निरुपराग – रत्नत्रयात्मक परमात्माको अशुभ परिणतिके अभावके कारण अशुभ कर्म नहीं है और अशुभ कर्मके अभावके कारण दुःख नहीं है; शुभ परिणतिके अभावके कारण शुभ कर्म नहीं है और शुभ कर्मके अभावके कारण वास्तवमें संसारसुख नहीं है; पीड़ायोग्य १ – निर्वाण = मोक्ष; मुक्ति । [परमतत्त्व विकाररहित होनेसे द्रव्य-अपेक्षासे सदा मुक्त ही है । इसलिये
श्रद्धान - ज्ञान - आचरणसे) वह परमतत्त्व अपनी स्वाभाविक मुक्तपर्यायमें परिणमित होता है । ]
२ – सतत अन्तर्मुखाकार = निरन्तर अन्तर्मुख जिसका आकार अर्थात् रूप है ऐसे । ३ – निरुपराग = निर्विकार; निर्मल ।
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असातावेदनीयकर्माभावान्नैव विद्यते बाधा, पंचविधनोकर्माभावान्न मरणम्, पंचविध- नोकर्महेतुभूतकर्मपुद्गलस्वीकाराभावान्न जननम् । एवंलक्षणलक्षिताक्षुण्णविक्षेपविनिर्मुक्त - परमतत्त्वस्य सदा निर्वाणं भवतीति ।
जननमरणपीडा नास्ति यस्येह नित्यम् ।
स्मरसुखविमुखस्सन् मुक्ति सौख्याय नित्यम् ।।२९८।।
❃
बाधा नहीं है; पाँच प्रकारके नोकर्मके अभावके कारण मरण नहीं है । पाँच प्रकारके नोकर्मके हेतुभूत कर्मपुद्गलके स्वीकारके अभावके कारण जन्म नहीं है । — ऐसे लक्षणोंसे — लक्षित, अखण्ड, विक्षेपरहित परमतत्त्वको सदा निर्वाण है ।
[अब इस १७९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] इस लोकमें जिसे सदा भवभवके सुखदुःख नहीं हैं, बाधा नहीं है, जन्म, मरण और पीड़ा नहीं है, उसे ( – उस परमात्माको ) मैं, मुक्तिसुखकी प्राप्ति हेतु, कामदेवके सुखसे विमुख वर्तता हुआ नित्य नमन करता हूँ, उसका स्तवन करता हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ ।२९८।
[श्लोकार्थ : — ] आत्माकी आराधना रहित जीवको सापराध ( – अपराधी) माना गया है । (इसलिये ) मैं आनन्दमन्दिर आत्माको (आनन्दके घररूप निजात्माको) नित्य नमन करता हूँ ।२९९। ❃ यातना = वेदना; पीड़ा । (शरीर वेदनाकी मूर्ति है ।)
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देवमानवतिर्यगचेतनोपसर्गाश्च न भवन्ति, क्षायिकज्ञानयथाख्यातचारित्रमयत्वान्न दर्शन- चारित्रभेदविभिन्नमोहनीयद्वितयमपि, बाह्यप्रपंचविमुखत्वान्न विस्मयः, नित्योन्मीलित- शुद्धज्ञानस्वरूपत्वान्न निद्रा, असातावेदनीयकर्मनिर्मूलनान्न क्षुधा तृषा च । तत्र परम-
गाथा : १८० अन्वयार्थ : — [न अपि इन्द्रियाः उपसर्गाः ] जहाँ इन्द्रियाँ नहीं हैं, उपसर्ग नहीं हैं, [न अपि मोहः विस्मयः ] मोह नहीं है, विस्मय नहीं है, [न निद्रा च ] निद्रा नहीं है, [न च तृष्णा ] तृषा नहीं है, [न एव क्षुधा ] क्षुधा नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् इन्द्रियादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है ) ।
(परमतत्त्व ) ❃अखण्ड - एकप्रदेशी - ज्ञानस्वरूप होनेके कारण (उसे) स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र नामकी पाँच इन्द्रियोंके व्यापार नहीं हैं तथा देव, मानव, तिर्यञ्च और अचेतनकृत उपसर्ग नहीं हैं; क्षायिकज्ञानमय और यथाख्यातचारित्रमय होनेके कारण (उसे) दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ऐसे भेदवाला दो प्रकारका मोहनीय नहीं है; बाह्य प्रपंचसे विमुख होनेके कारण (उसे) विस्मय नहीं है; नित्य - प्रकटित शुद्धज्ञानस्वरूप होनेके कारण (उसे) निद्रा नहीं है; असातावेदनीय कर्मको निर्मूल कर देनेके कारण (उसे) क्षुधा और ❃खण्डरहित अभिन्नप्रदेशी ज्ञान परमतत्त्वका स्वरूप है इसलिये परमतत्त्वको इन्द्रियाँ और उपसर्ग नहीं हैं ।
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ब्रह्मणि नित्यं ब्रह्म भवतीति ।
परिभवति न मृत्युर्नागतिर्नो गतिर्वा ।
गुणगुरुगुरुपादाम्भोजसेवाप्रसादात् ।।’’
ऽक्षानामुच्चैर्विविधविषमं वर्तनं नैव किंचित् ।
तस्मिन्नित्यं निजसुखमयं भाति निर्वाणमेकम् ।।३००।।
तृषा नहीं है । उस परम ब्रह्ममें ( – परमात्मतत्त्वमें) सदा ब्रह्म ( – निर्वाण) है ।
मृत्यु नहीं है, गति या आगति नहीं है, उस तत्त्वका अति निर्मल चित्तवाले पुरुष, शरीरमें स्थित होने पर भी, गुणमें बड़े ऐसे गुरुके चरणकमलकी सेवाके प्रसादसे अनुभव करते हैं ।’’
और (इस १८०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं ) : —
[श्लोकार्थ : — ] अनुपम गुणोंसे अलंकृत और निर्विकल्प ऐसे जिस ब्रह्ममें (आत्मतत्त्वमें ) इन्द्रियोंका अति विविध और विषम वर्तन किंचित् भी नहीं ही है, तथा संसारके मूलभूत अन्य (मोह - विस्मयादि ) ❃संसारीगुणसमूह नहीं ही हैं, उस ब्रह्ममें सदा निजसुखमय एक निर्वाण प्रकाशमान है ।३००। ❃ मोह, विस्मय आदि दोष संसारियोंके गुण हैं — कि जो संसारके कारणभूत हैं ।
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सदा निरंजनत्वान्न द्रव्यकर्माष्टकं, त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपत्वान्न नोकर्मपंचकं च, अमनस्कत्वान्न चिंता, औदयिकादिविभावभावानामभावादार्तरौद्रध्याने न स्तः, धर्म- शुक्लध्यानयोग्यचरमशरीराभावात्तद्द्वितयमपि न भवति । तत्रैव च महानंद इति ।
गाथा : १८१ अन्वयार्थ : — [न अपि कर्म नोकर्म ] जहाँ कर्म और नोकर्म नहीं है, [न अपि चिन्ता ] चिन्ता नहीं है, [न एव आर्तरौद्रे ] आर्त और रौद्र ध्यान नहीं हैं, [न अपि धर्मशुक्लध्याने ] धर्म और शुक्ल ध्यान नहीं हैं, [तत्र एव च निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् कर्मादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है ) ।
टीका : — यह, सर्व कर्मोंसे विमुक्त ( – रहित) तथा शुभ, अशुभ और शुद्ध ध्यान तथा ध्येयके विकल्पोंसे विमुक्त परमतत्त्वके स्वरूपका कथन है ।
(परमतत्त्व) सदा निरंजन होनेके कारण (उसे) आठ द्रव्यकर्म नहीं हैं; तीनों काल निरुपाधिस्वरूपवाला होनेके कारण (उसे) पाँच नोकर्म नहीं है; मन रहित होनेके कारण चिंता नहीं है; औदयिकादि विभावभावोंका अभाव होनेके कारण आर्त और रौद्र ध्यान नहीं हैं; धर्मध्यान और शुक्लध्यानके योग्य चरम शरीरका अभाव होनेके कारण वे दो ध्यान नहीं हैं । वहीं महा आनन्द है ।
[अब इस १८१वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
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कर्माशेषं न च न च पुनर्ध्यानकं तच्चतुष्कम् ।
काचिन्मुक्ति र्भवति वचसां मानसानां च दूरम् ।।३०१।।
[श्लोकार्थ : — ] जो निर्वाणमें स्थित है, जिसने पापरूपी अंधकारके समूहका नाश किया है और जो विशुद्ध है, उसमें ( – उस परमब्रह्ममें ) अशेष (समस्त) कर्म नहीं है तथा वे चार ध्यान नहीं हैं । उस सिद्धरूप भगवान ज्ञानपुंज परमब्रह्ममें कोई ऐसी मुक्ति है कि जो वचन और मनसे दूर है ।३०१।
गाथा : १८२ अन्वयार्थ : — [केवलज्ञानं ] (सिद्ध भगवानको) केवलज्ञान, [केवलदृष्टिः ] केवलदर्शन, [केवलसौख्यं च ] केवलसुख, [केवलं वीर्यम् ] केवलवीर्य, [अमूर्तत्वम् ] अमूर्तत्व, [अस्तित्वं ] अस्तित्व और [सप्रदेशत्वम् ] सप्रदेशत्व [विद्यते ] होते हैं ।
निरवशेषरूपसे अन्तर्मुखाकार ( – सर्वथा अन्तर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), स्वात्माश्रित निश्चय - परमशुक्लध्यानके बलसे ज्ञानावरणादि आठ प्रकारके कर्मोंका विलय
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कर्मविलये जाते ततो भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनः केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलवीर्य- केवलसौख्यामूर्तत्वास्तित्वसप्रदेशत्वादिस्वभावगुणा भवंति इति ।
तस्मिन्सिद्धे भवति नितरां केवलज्ञानमेतत् ।
होने पर, उस कारणसे भगवान सिद्धपरमेष्ठीको केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलवीर्य, केवलसुख, अमूर्तत्व, अस्तित्व, सप्रदेशत्व आदि स्वभावगुण होते हैं ।
[अब इस १८२वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] बन्धके छेदनके कारण, भगवान तथा नित्यशुद्ध ऐसे उस प्रसिद्ध सिद्धमें ( – सिद्धपरमेष्ठीमें ) सदा अत्यन्तरूपसे यह केवलज्ञान होता है, समग्र जिसका विषय है ऐसा साक्षात् दर्शन होता है, ❃आत्यंतिक सौख्य होता है तथा शुद्धशुद्ध ऐसा वीर्यादिक अन्य गुणरूपी मणियोंका समूह होता है ।३०२।
गाथा : १८३ अन्वयार्थ : — [निर्वाणम् एव सिद्धाः ] निर्वाण ही सिद्ध हैं और [सिद्धाः निर्वाणम् ] सिद्ध वह निर्वाण है [इति समुद्दिष्टाः ] ऐसा (शास्त्रमें ) कहा है । ❃ आत्यंतिक = सर्वश्रेष्ठ; अत्यन्त ।
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सिद्धाः सिद्धक्षेत्रे तिष्ठंतीति व्यवहारः, निश्चयतो भगवंतः स्वस्वरूपे तिष्ठंति । ततो हेतोर्निर्वाणमेव सिद्धाः सिद्धा निर्वाणम् इत्यनेन क्रमेण निर्वाणशब्दसिद्धशब्दयोरेकत्वं सफलं जातम् । अपि च यः कश्चिदासन्नभव्यजीवः परमगुरुप्रसादासादितपरमभावभावनया सकलकर्मकलंकपंकविमुक्त : स परमात्मा भूत्वा लोकाग्रपर्यन्तं गच्छतीति ।
क्वचिदपि न च विद्मो युक्ति तश्चागमाच्च ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३०३।।
[कर्मविमुक्तः आत्मा ] कर्मसे विमुक्त आत्मा [लोकाग्रपर्यन्तम् ] लोकाग्र पर्यंत [गच्छति ] जाता है ।
निर्वाण शब्दके यहाँ दो अर्थ हैं । किसप्रकार ? ‘निर्वाण ही सिद्ध हैं’ ऐसा (शास्त्रका) वचन होनेसे । सिद्ध सिद्धक्षेत्रमें रहते हैं ऐसा व्यवहार है, निश्चयसे तो भगवन्त निज स्वरूपमें रहते हैं; उस कारणसे ‘निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध वह निर्वाण है’ ऐसे इसप्रकार द्वारा निर्वाणशब्दका और सिद्धशब्दका एकत्व सफल हुआ ।
तथा, जो कोई आसन्नभव्य जीव परमगुरुके प्रसाद द्वारा प्राप्त परमभावकी भावना द्वारा सकल कर्मकलंकरूपी कीचड़से विमुक्त होता हैं, वह परमात्मा होकर लोकाग्र पर्यंत जाता है ।
[अब इस १८३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] जिनसंमत मुक्तिमें और मुक्त जीवमें हम कहीं भी युक्तिसे या आगमसे भेद नहीं जानते । तथा, इस लोकमें यदि कोई भव्य जीव सर्व कर्मको निर्मूल
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स्वभावक्रिया परमाणुगतिः, विभावक्रिया व्द्यणुकादिस्कन्धगतिः । अतोऽमीषां त्रिलोक- शिखरादुपरि गतिक्रिया नास्ति, परतो गतिहेतोर्धर्मास्तिकायाभावात्; यथा जलाभावे मत्स्यानां करता है, तो वह परमश्रीरूपी (मुक्तिलक्ष्मीरूपी ) कामिनीका वल्लभ होता है ।३०३।
गाथा : १८४ अन्वयार्थ : — [यावत् धर्मास्तिकः ] जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहाँ तक [जीवानां पुद्गलानां ] जीवोंका और पुद्गलोंका [गमनं ] गमन [जानीहि ] जान; [धर्मास्तिकायाभावे ] धर्मास्तिकायके अभावमें [तस्मात् परतः ] उससे आगे [न गच्छंति ] वे नहीं जाते ।
जीवोंकी स्वभावक्रिया सिद्धिगमन (सिद्धक्षेत्रमें गमन) है और विभावक्रिया (अन्य भवमें जाते समय) छह दिशामें गमन है; पुद्गलोंकी स्वभावक्रिया परमाणुकी गति है और विभावक्रिया ❃
(जीवपुद्गलोंकी) गतिक्रिया त्रिलोकके शिखरसे ऊ पर नहीं है, क्योंकि आगे गतिहेतु (गतिके निमित्तभूत) धर्मास्तिकायका अभाव है; जिसप्रकार जलके अभावमें मछलियोंकी गतिक्रिया नहीं होती उसीप्रकार । इसीसे, जहाँ तक धर्मास्तिकाय है उस क्षेत्र तक ❃ द्वि – अणुकादि स्कन्ध = दो परमाणुओंसे लेकर अनन्त परमाणुओंके बने हुए स्कन्ध ।
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गतिक्रिया नास्ति । अत एव यावद्धर्मास्तिकायस्तिष्ठति तत्क्षेत्रपर्यन्तं स्वभावविभाव- गतिक्रियापरिणतानां जीवपुद्गलानां गतिरिति ।
शास्त्रादौ गृहीतस्य नियमशब्दस्य तत्फलस्य चोपसंहारोऽयम् । स्वभावगतिक्रिया और विभावगतिक्रियारूपसे परिणत जीव - पुद्गलोंकी गति होती है ।
[अब इस १८४ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] गतिहेतुके अभावके कारण, सदा (अर्थात् कदापि ) त्रिलोकके शिखरसे ऊ पर जीव और पुद्गल दोनोंका गमन नहीं ही होता । ३०४ ।
गाथा : १८५ अन्वयार्थ : — [नियमः ] नियम और [नियमस्य फलं ] नियमका फल [प्रवचनस्य भक्त्या ] प्रवचनकी भक्तिसे [निर्दिष्टम् ] दर्शाये गये । [यदि ] यदि (उसमें कुछ ) [पूर्वापरविरोधः ] पूर्वापर (आगेपीछे ) विरोध हो तो [समयज्ञाः ] समयज्ञ (आगमके ज्ञाता ) [अपनीय ] उसे दूर करके [पूरयंतु ] पूर्ति करना ।
टीका : — यह, शास्त्रके आदिमें लिये गये नियमशब्दका तथा उसके फलका उपसंहार है ।
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नियमस्तावच्छुद्धरत्नत्रयव्याख्यानस्वरूपेण प्रतिपादितः । तत्फलं परमनिर्वाण- मिति प्रतिपादितम् । न कवित्वदर्पात् प्रवचनभक्त्या प्रतिपादितमेतत् सर्वमिति यावत् । यद्यपि पूर्वापरदोषो विद्यते चेत्तद्दोषात्मकं लुप्त्वा परमकवीश्वरास्समयविदश्चोत्तमं पदं कुर्वन्त्विति ।
हृदयसरसिजाते निर्वृतेः कारणत्वात् ।
स खलु निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्गः ।।३०५।।
प्रथम तो, नियम शुद्धरत्नत्रयके व्याख्यानस्वरूपमें प्रतिपादित किया गया; उसका फल परम निर्वाणके रूपमें प्रतिपादित किया गया । यह सब कवित्वके अभिमानसे नहीं किन्तु प्रवचनकी भक्तिसे प्रतिपादित किया गया है । यदि (उसमें कुछ ) पूर्वापर दोष हो तो समयज्ञ परमकवीश्वर दोषात्मक पदका लोप करके उत्तम पद करना ।
[अब इस १८५वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] मुक्तिका कारण होनेसे नियमसार तथा उसका फल उत्तम पुरुषोंके हृदयकमलमें जयवन्त है । प्रवचनकी भक्तिसे सूत्रकारने जो किया है (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवने जो यह नियमसारकी रचना की है ), वह वास्तवमें समस्त भव्यसमूहको निर्वाणका मार्ग है ।३०५।
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तत्त्वसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानरूपशुद्धरत्नत्रयप्रतिपक्षमिथ्यात्वकर्मोदयसामर्थ्येन मिथ्या- दर्शनज्ञानचारित्रपरायणाः ईर्ष्याभावेन समत्सरपरिणामेन सुन्दरं मार्गं सर्वज्ञवीतरागस्य मार्गं पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं भेदोपचाररत्नत्रयात्मकमभेदोपचाररत्नत्रयात्मकं केचिन्निन्दन्ति, तेषां स्वरूपविकलानां कुहेतु
रत्नत्रयमार्गे हे भव्य मा कुरुष्व, पुनर्भक्ति : कर्तव्येति ।
गाथा : १८६ अन्वयार्थ : — [पुनः ] परन्तु [ईर्षाभावेन ] ईर्षाभावसे [केचित् ] कोई लोग [सुन्दरं मार्गम् ] सुन्दर मार्गको [निन्दन्ति ] निन्दते हैं [तेषां वचनं ] उनके वचन [श्रुत्वा ] सुनकर [जिनमार्गे ] जिनमार्गके प्रति [अभक्तिं ] अभक्ति [मा कुरुध्वम् ] नहीं करना ।
कोई मंदबुद्धि त्रिकाल - निरावरण, नित्य आनन्द जिसका एक लक्षण है ऐसे निर्विकल्प निजकारणपरमात्मतत्त्वके सम्यक् - श्रद्धान - ज्ञान - अनुष्ठानरूप शुद्धरत्नत्रयसे प्रतिपक्ष मिथ्यात्वकर्मोदयके सामर्थ्य द्वारा मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्रपरायण वर्तते हुए ईर्षाभावसे अर्थात् मत्सरयुक्त परिणामसे सुन्दरमार्गको — पापक्रियासे निवृत्ति जिसका लक्षण है ऐसे भेदोपचार - रत्नत्रयात्मक तथा अभेदोपचार - रत्नत्रयात्मक सर्वज्ञवीतरागके मार्गको — निन्दते हैं, उन स्वरूपविकल (स्वरूपप्राप्ति रहित ) जीवोंके कुहेतु - कुदृष्टान्तयुक्त कुतर्कवचन सुनकर जिनेश्वरप्रणीत शुद्धरत्नत्रयमार्गके प्रति, हे भव्य ! अभक्ति नहीं करना, परन्तु भक्ति कर्तव्य है ।
[अब इस १८६ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक कहते हैं : ]
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विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीयावने“ ।
स्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम् ।
जाने तत्स्तवनैककारणमहं भक्ति र्जिनेऽत्युत्सुका ।।३०७।।
[श्लोकार्थ : — ] देहसमूहरूपी वृक्षपंक्तिसे जो भयंकर है, जिसमें दुःख- परम्परारूपी जङ्गली पशु (बसते ) हैं, अति कराल कालरूपी अग्नि जहाँ सबका भक्षण करती है, जिसमें बुद्धिरूपी जल (?) सूखता है और जो दर्शनमोहयुक्त जीवोंको अनेक कुनयरूपी मार्गोंके कारण अत्यन्त ×
विकट स्थलमें जैन दर्शन एक ही शरण है ।३०६।
[श्लोकार्थ : — ] जिन प्रभुका ज्ञानशरीर सदा लोकालोकका निकेतन है (अर्थात् जिन नेमिनाथप्रभुके ज्ञानमें लोकालोक सदा समाते हैं — ज्ञात होते हैं ), उन श्री नेमिनाथ तीर्थेश्वरका — कि जिन्होंने शंखकी ध्वनिसे सारी पृथ्वीको कम्पा दिया था उनका — स्तवन करनेके लिये तीन लोकमें कौन मनुष्य या देव समर्थ हैं ? (तथापि) उनका स्तवन करनेका एकमात्र कारण जिनके प्रति अति उत्सुक भक्ति है ऐसा मैं जानता हूँ ।३०७। ★यहाँ कुछ अशुद्धि हो ऐसा लगता है । × दुर्गम = जिसे कठिनाईसे लाँघा जा सके ऐसा; दुस्तर । (संसार-अटवीमें अनेक कुनयरूपी मार्गोंमेंसे सत्य
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मशुभवंचनार्थं नियमसाराभिधानं श्रुतं परमाध्यात्मशास्त्रशतकुशलेन मया कृतम् । किं कृत्वा ? पूर्वं ज्ञात्वा अवंचकपरमगुरुप्रसादेन बुद्ध्वेति । कम् ? जिनोपदेशं वीतरागसर्वज्ञ- मुखारविन्दविनिर्गतपरमोपदेशम् । तं पुनः किंविशिष्टम् ? पूर्वापरदोषनिर्मुक्तं पूर्वापरदोष- हेतुभूतसकलमोहरागद्वेषाभावादाप्तमुखविनिर्गतत्वान्निर्दोषमिति ।
गाथा : १८७ अन्वयार्थ : — [पूर्वापरदोषनिर्मुक्तम् ] पूर्वापर दोष रहित [जिनोपदेशं ] जिनोपदेशको [ज्ञात्वा ] जानकर [मया ] मैंने [निजभावनानिमित्तं ] निजभावनानिमित्तसे [नियमसारनामश्रुतम् ] नियमसार नामका शास्त्र [कृतम् ] किया है ।
यहाँ आचार्यश्री (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ) प्रारम्भ किये हुए कार्यके अन्तको प्राप्त करनेसे अत्यन्त कृतार्थताकोे पाकर कहते हैं कि सैंकड़ों परम – अध्यात्मशास्त्रोंमें कुशल ऐसे मैंने निजभावनानिमित्तसे — अशुभवंचनार्थ नियमसार नामक शास्त्र किया है । क्या करके (यह शास्त्र किया है) ? प्रथम ×अवंचक परम गुरुके प्रसादसे जानकर । क्या जानकर ? जिनोपदेशको अर्थात् वीतराग - सर्वज्ञके मुखारविन्दसे निकले हुए परम उपदेशको । कैसा है वह उपदेश ? पूर्वापर दोष रहित है अर्थात् पूर्वापर दोषके हेतुभूत सकल मोहरागद्वेषके अभावके कारण जो आप्त हैं उनके मुखसे निकला होनेसे निर्दोष है । × अवंचक = ठगें नहीं ऐसे; निष्कपट; सरल; ऋजु ।
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किञ्च अस्य खलु निखिलागमार्थसार्थप्रतिपादनसमर्थस्य नियमशब्दसंसूचित- विशुद्धमोक्षमार्गस्य अंचितपञ्चास्तिकायपरिसनाथस्य संचितपंचाचारप्रपञ्चस्य षड्द्रव्यविचित्रस्य सप्ततत्त्वनवपदार्थगर्भीकृतस्य पंचभावप्रपंचप्रतिपादनपरायणस्य निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यान- प्रायश्चित्तपरमालोचनानियमव्युत्सर्गप्रभृतिसकलपरमार्थक्रियाकांडाडंबरसमृद्धस्य उपयोग- त्रयविशालस्य परमेश्वरस्य शास्त्रस्य द्विविधं किल तात्पर्यं, सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यं चेति ।
और (इस शास्त्रके तात्पर्य सम्बन्धी ऐसा समझना कि ), जो (नियमसारशास्त्र) वास्तवमें समस्त आगमके अर्थसमूहका प्रतिपादन करनेमें समर्थ है, जिसने नियम - शब्दसे विशुद्ध मोक्षमार्ग सम्यक् प्रकारसे दर्शाया है, जो शोभित पंचास्तिकाय सहित है (अर्थात् जिसमें पाँच अस्तिकायका वर्णन किया गया है ), जिसमें पंचाचारप्रपंचका संचय किया गया है (अर्थात् जिसमें ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचाररूप पाँच प्रकारके आचारका कथन किया गया है ), जो छह द्रव्योंसे विचित्र है (अर्थात् जो छह द्रव्योंके निरूपणसे विविध प्रकारका — सुन्दर है ), सात तत्त्व और नव पदार्थ जिसमें समाये हुए हैं, जो पाँच भावरूप विस्तारके प्रतिपादनमें परायण है, जो निश्चय - प्रतिक्रमण, निश्चय - प्रत्याख्यान, निश्चय - प्रायश्चित्त, परम - आलोचना, नियम, व्युत्सर्ग आदि सकल परमार्थ क्रियाकांडके आडम्बरसे समृद्ध है (अर्थात् जिसमें परमार्थ क्रियाओंका पुष्कल निरूपण है ) और जो तीन उपयोगोंसे सुसम्पन्न है (अर्थात् जिसमें अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोगका पुष्कल कथन है ) — ऐसे इस परमेश्वर शास्त्रका वास्तवमें दो प्रकारका तात्पर्य है : सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य । सूत्रतात्पर्य तो पद्यकथनसे प्रत्येक सूत्रमें ( – पद्य द्वारा प्रत्येक गाथाके अन्तमें ) प्रतिपादित किया गया है । और शास्त्रतात्पर्य यह निम्नानुसार टीका द्वारा प्रतिपादित किया जाता है : यह (नियमसार शास्त्र ) १भागवत शास्त्र है । जो (शास्त्र ) निर्वाणसुन्दरीसे उत्पन्न होनेवाले, परमवीतरागात्मक, २निराबाध, निरन्तर और ३अनंग परमानन्दका देनेवाला है, जो ४निरतिशय, नित्यशुद्ध, निरंजन निज कारणपरमात्माकी भावनाका कारण है, जो समस्त नयोंके समूहसे शोभित है, जो पंचम १ – भागवत = भगवानका; दैवी; पवित्र । २ – निराबाध = बाधा रहित; निर्विघ्न । ३ – अनंग = अशरीरी; आत्मिक; अतीन्द्रिय । ४ – निरतिशय = जिससे कोई बढ़कर नहीं है ऐसे; अनुत्तम; श्रेष्ठ; अद्वितीय ।
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सूत्रतात्पर्यं पद्योपन्यासेन प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम्, शास्त्रतात्पर्यं त्विदमुपदर्शनेन । भागवतं शास्त्रमिदं निर्वाणसुंदरीसमुद्भवपरमवीतरागात्मकनिर्व्याबाधनिरन्तरानङ्गपरमानन्दप्रदं निरति- शयनित्यशुद्धनिरंजननिजकारणपरमात्मभावनाकारणं समस्तनयनिचयांचितं पंचमगति- हेतुभूतं पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण निर्मितमिदं ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहृदयवेदिनः परमानंदवीतरागसुखाभिलाषिणः परित्यक्त बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहप्रपंचाः त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरतनिजकारण- परमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणात्मकभेदोपचारकल्पनानिरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणाः सन्तः शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति
ललितपदनिकायैर्निर्मितं शास्त्रमेतत् ।
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।३०८।।
गतिके हेतुभूत है और जो पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र - परिग्रहधारीसे (निर्ग्रन्थ मुनिवरसे ) रचित है — ऐसे इस भागवत शास्त्रको जो निश्चयनय और व्यवहारनयके अविरोधसे जानते हैं, वे महापुरुष — समस्त अध्यात्मशास्त्रोंके १हृदयको जाननेवाले और परमानन्दरूप वीतराग सुखके अभिलाषी — बाह्य-अभ्यन्तर चौवीस परिग्रहोंके प्रपंचको परित्याग कर, त्रिकाल – निरुपाधि स्वरूपमें लीन निज कारणपरमात्माके स्वरूपके श्रद्धान - ज्ञान - आचरणात्मक भेदोपचार - कल्पनासे निरपेक्ष ऐसे २स्वस्थ रत्नत्रयमें परायण वर्तते हुए, शब्दब्रह्मके फलरूप शाश्वत सुखके भोक्ता होते हैं ।
[अब इस नियमसार - परमागमकी तात्पर्यवृत्ति नामक टीकाकी पूर्णाहुति करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव चार श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : — ] सुकविजनरूपी कमलोंको आनन्द देनेवाले ( – विकसित १-हृदय = हार्द; रहस्य; मर्म । (इस भागवत शास्त्रको जो सम्यक् प्रकारसे जानते हैं, वे समस्त
२-स्वस्थ = निजात्मस्थित । (निजात्मस्थित शुद्धरत्नत्रय भेदोपचार – कल्पनासे निरपेक्ष है ।)