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द्रव्यपरावर्तन, क्षेत्रपरावर्तन, कालपरावर्तन, भवपरावर्तन और भावपरावर्तनसे मुक्त
करनेवाले), पाँचप्रकार सिद्धोंको (अर्थात् पाँच प्रकारकी मुक्तिको
अविनाशी और [अच्छेद्यम् ] अच्छेद्य है
और सहजचित्शक्तिमय होनेके कारण ज्ञानादिक चार स्वभाववाला है; सादि
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कर्मद्वन्द्वाभावादविनाशम्, वधबंधच्छेदयोग्यमूर्तिमुक्त त्वादच्छेद्यमिति
निखिलदुरितदुर्गव्रातदावाग्निरूपम्
सकलविमलबोधस्ते भवत्येव तस्मात
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[अनालंबम् ] निरालम्ब है
है; सर्व आत्मप्रदेशमें भरे हुए चिदानन्दमयपनेके कारण अतीन्द्रिय है; तीन तत्त्वोंमें विशिष्ट
होनेके कारण (बहिरात्मतत्त्व, अन्तरात्मतत्त्व और परमात्मतत्त्व इन तीनोंमें विशिष्ट
है; निज गुणों और पर्यायोंसे च्युत न होनेके कारण अचल है; परद्रव्यके अवलम्बनका
अभाव होनेके कारण निरालम्ब है
पुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाभावात्पुण्यपापनिर्मुक्त म्, पुनरागमनहेतुभूतप्रशस्ताप्रशस्तमोह-
रागद्वेषाभावात्पुनरागमनविरहितम्, नित्यमरणतद्भवमरणकारणकलेवरसंबन्धाभावान्नित्यम्,
निजगुणपर्यायप्रच्यवनाभावादचलम्, परद्रव्यावलम्बनाभावादनालम्बमिति
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है
है
जो बुद्धिमान पुरुष परम पारिणामिक भावका उग्ररूपसे आश्रय करता है, वही एक पुरुष
पापवनको जलानेमें अग्नि समान मुनिवर है )
सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमंधाः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति
स्थायी संसृतिनाशकारणमयं सम्यग्
एको भाति कलौ युगे मुनिपतिः पापाटवीपावकः
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है, [न अपि मरणं ] मरण नहीं है, [न अपि जननं ] जन्म नहीं है, [तत्र एव च निर्वाणम्
भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् दुःखादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है )
अशुभ कर्मके अभावके कारण दुःख नहीं है; शुभ परिणतिके अभावके कारण शुभ
कर्म नहीं है और शुभ कर्मके अभावके कारण वास्तवमें संसारसुख नहीं है; पीड़ायोग्य
शुभकर्म शुभकर्माभावान्न खलु संसारसुखम्, पीडायोग्ययातनाशरीराभावान्न पीडा,
श्रद्धान
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करता हूँ, सम्यक् प्रकारसे भाता हूँ
नोकर्महेतुभूतकर्मपुद्गलस्वीकाराभावान्न जननम्
जननमरणपीडा नास्ति यस्येह नित्यम्
स्मरसुखविमुखस्सन् मुक्ति सौख्याय नित्यम्
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निद्रा नहीं है, [न च तृष्णा ] तृषा नहीं है, [न एव क्षुधा ] क्षुधा नहीं है, [तत्र एव च
निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् इन्द्रियादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है )
अचेतनकृत उपसर्ग नहीं हैं; क्षायिकज्ञानमय और यथाख्यातचारित्रमय होनेके कारण (उसे)
दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ऐसे भेदवाला दो प्रकारका मोहनीय नहीं है; बाह्य प्रपंचसे
विमुख होनेके कारण (उसे) विस्मय नहीं है; नित्य
चारित्रभेदविभिन्नमोहनीयद्वितयमपि, बाह्यप्रपंचविमुखत्वान्न विस्मयः, नित्योन्मीलित-
शुद्धज्ञानस्वरूपत्वान्न निद्रा, असातावेदनीयकर्मनिर्मूलनान्न क्षुधा तृषा च
नहीं हैं
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स्थित होने पर भी, गुणमें बड़े ऐसे गुरुके चरणकमलकी सेवाके प्रसादसे अनुभव
करते हैं
संसारके मूलभूत अन्य (मोह
परिभवति न मृत्युर्नागतिर्नो गतिर्वा
गुणगुरुगुरुपादाम्भोजसेवाप्रसादात
ऽक्षानामुच्चैर्विविधविषमं वर्तनं नैव किंचित
तस्मिन्नित्यं निजसुखमयं भाति निर्वाणमेकम्
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ध्यान नहीं हैं, [न अपि धर्मशुक्लध्याने ] धर्म और शुक्ल ध्यान नहीं हैं, [तत्र एव
च निर्वाणम् भवति ] वहीं निर्वाण है (अर्थात् कर्मादिरहित परमतत्त्वमें ही निर्वाण है )
होनेके कारण चिंता नहीं है; औदयिकादि विभावभावोंका अभाव होनेके कारण आर्त
और रौद्र ध्यान नहीं हैं; धर्मध्यान और शुक्लध्यानके योग्य चरम शरीरका अभाव
होनेके कारण वे दो ध्यान नहीं हैं
शुक्लध्यानयोग्यचरमशरीराभावात्तद्द्वितयमपि न भवति
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केवलवीर्य, [अमूर्तत्वम् ] अमूर्तत्व, [अस्तित्वं ] अस्तित्व और [सप्रदेशत्वम् ]
सप्रदेशत्व [विद्यते ] होते हैं
कर्माशेषं न च न च पुनर्ध्यानकं तच्चतुष्कम्
काचिन्मुक्ति र्भवति वचसां मानसानां च दूरम्
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केवलसुख, अमूर्तत्व, अस्तित्व, सप्रदेशत्व आदि स्वभावगुण होते हैं
केवलसौख्यामूर्तत्वास्तित्वसप्रदेशत्वादिस्वभावगुणा भवंति इति
तस्मिन्सिद्धे भवति नितरां केवलज्ञानमेतत
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जाता है
इसप्रकार द्वारा निर्वाणशब्दका और सिद्धशब्दका एकत्व सफल हुआ
जाता है
जातम्
क्वचिदपि न च विद्मो युक्ति तश्चागमाच्च
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
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[जानीहि ] जान; [धर्मास्तिकायाभावे ] धर्मास्तिकायके अभावमें [तस्मात् परतः ]
उससे आगे [न गच्छंति ] वे नहीं जाते
गति है और विभावक्रिया
(गतिके निमित्तभूत) धर्मास्तिकायका अभाव है; जिसप्रकार जलके अभावमें मछलियोंकी
गतिक्रिया नहीं होती उसीप्रकार
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समयज्ञ (आगमके ज्ञाता ) [अपनीय ] उसे दूर करके [पूरयंतु ] पूर्ति करना
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पद करना
समस्त भव्यसमूहको निर्वाणका मार्ग है
कुर्वन्त्विति
हृदयसरसिजाते निर्वृतेः कारणत्वात
स खलु निखिलभव्यश्रेणिनिर्वाणमार्गः
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वचनं ] उनके वचन [श्रुत्वा ] सुनकर [जिनमार्गे ] जिनमार्गके प्रति [अभक्तिं ]
अभक्ति [मा कुरुध्वम् ] नहीं करना
अभक्ति नहीं करना, परन्तु भक्ति कर्तव्य है
दर्शनज्ञानचारित्रपरायणाः ईर्ष्याभावेन समत्सरपरिणामेन सुन्दरं मार्गं सर्वज्ञवीतरागस्य मार्गं
पापक्रियानिवृत्तिलक्षणं भेदोपचाररत्नत्रयात्मकमभेदोपचाररत्नत्रयात्मकं केचिन्निन्दन्ति, तेषां
स्वरूपविकलानां कुहेतु
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भक्षण करती है, जिसमें बुद्धिरूपी जल (?) सूखता है और जो दर्शनमोहयुक्त
जीवोंको अनेक कुनयरूपी मार्गोंके कारण अत्यन्त
जानता हूँ
विश्वाशातिकरालकालदहने शुष्यन्मनीयावने
स्तं शंखध्वनिकंपिताखिलभुवं श्रीनेमितीर्थेश्वरम्
जाने तत्स्तवनैककारणमहं भक्ति र्जिनेऽत्युत्सुका
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निजभावनानिमित्तसे [नियमसारनामश्रुतम् ] नियमसार नामका शास्त्र [कृतम् ] किया है
निकला होनेसे निर्दोष है
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जिसमें पाँच अस्तिकायका वर्णन किया गया है ), जिसमें पंचाचारप्रपंचका संचय किया
गया है (अर्थात् जिसमें ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचाररूप पाँच
प्रकारके आचारका कथन किया गया है ), जो छह द्रव्योंसे विचित्र है (अर्थात् जो छह
द्रव्योंके निरूपणसे विविध प्रकारका
निरूपण है ) और जो तीन उपयोगोंसे सुसम्पन्न है (अर्थात् जिसमें अशुभ, शुभ और
शुद्ध उपयोगका पुष्कल कथन है )
सप्ततत्त्वनवपदार्थगर्भीकृतस्य पंचभावप्रपंचप्रतिपादनपरायणस्य निश्चयप्रतिक्रमणप्रत्याख्यान-
प्रायश्चित्तपरमालोचनानियमव्युत्सर्गप्रभृतिसकलपरमार्थक्रियाकांडाडंबरसमृद्धस्य उपयोग-
त्रयविशालस्य परमेश्वरस्य शास्त्रस्य द्विविधं किल तात्पर्यं, सूत्रतात्पर्यं शास्त्रतात्पर्यं चेति
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शयनित्यशुद्धनिरंजननिजकारणपरमात्मभावनाकारणं समस्तनयनिचयांचितं पंचमगति-
हेतुभूतं पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण निर्मितमिदं ये खलु निश्चयव्यवहारनययोरविरोधेन
जानन्ति ते खलु महान्तः समस्ताध्यात्मशास्त्रहृदयवेदिनः परमानंदवीतरागसुखाभिलाषिणः
परित्यक्त बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहप्रपंचाः त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपनिरतनिजकारण-
परमात्मस्वरूपश्रद्धानपरिज्ञानाचरणात्मकभेदोपचारकल्पनानिरपेक्षस्वस्थरत्नत्रयपरायणाः सन्तः
शब्दब्रह्मफलस्य शाश्वतसुखस्य भोक्तारो भवन्तीति
ललितपदनिकायैर्निर्मितं शास्त्रमेतत
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः