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इसलिये [दर्शनम् ] दर्शन स्वप्रकाशक है
बहिर्विषयपना छोड़ा होनेसे, स्वप्रकाशकत्वप्रधान ही है
सर्वथा अंतर्मुख होनेके कारण, आत्मा निरन्तर अखण्ड
स्वस्मिन्नित्यं नियतवसतिर्निर्विकल्पे महिम्नि
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यह आत्मा सदा अपनी निर्विकल्प महिमामें निश्चितरूपसे वास करता है
लोकालोकको नहीं
कारण निःशेषरूपसे (सर्वथा ) अन्तर्मुख होनेसे केवल स्वरूपप्रत्यक्षमात्र व्यापारमें लीन ऐसे
निरंजन निज सहजदर्शन द्वारा सच्चिदानन्दमय आत्माको निश्चयसे देखता है (परन्तु
पेक्षतया निःशेषतोऽन्तर्मुखत्वात
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है, उसे वास्तवमें दूषण नहीं है
महिमाका धारण करनेवाला है, अत्यन्त धीर है और निज आत्मामें अत्यन्त अविचल
होनेसे सर्वदा अन्तर्मग्न है
नहीं )
स्वान्तःशुद्धयावसथमहिमाधारमत्यन्तधीरम्
तस्मिन्नैव प्रकृतिमहति व्यावहारप्रपंचः
वह निश्चयकथन है
हैं
संवेदन सहित जानते-देखते हैं उसीप्रकार लोकालोकको (परको) तद्रूप होकर परसुखदुःखादिके संवेदन
सहित नहीं जानते-देखते, परन्तु परसे बिलकुल भिन्न रहकर, परके सुखदुःखादिका संवेदन किये बिना
जानते-देखते हैं इतना ही सूचित करनेके लिये उसे व्यवहार कहा है
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भवति ] प्रत्यक्ष है
अर्हत्परमेश्वरका जो क्रम, इन्द्रिय और
सकलप्रत्यक्षं भवतीति
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सम्यक् प्रकारसे (बराबर ) [न च पश्यति ] नहीं देखता, [तस्य ] उसे [परोक्षदृष्टिः
लोकालोकौ स्वपरमखिलं चेतनाचेतनं च
तेनैवायं विदितमहिमा तीर्थनाथो जिनेन्द्रः
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हानिवृद्धिरूप, सूक्ष्म, परमागमके प्रमाणसे स्वीकार
ण्यादभ्युपगम्याः अर्थपर्यायाः षण्णां द्रव्याणां साधारणाः, नरनारकादिव्यंजनपर्याया जीवानां
पंचसंसारप्रपंचानां, पुद्गलानां स्थूलस्थूलादिस्कन्धपर्यायाः, चतुर्णां धर्मादीनां शुद्धपर्यायाश्चेति,
एभिः संयुक्तं तद्द्रव्यजालं यः खलु न पश्यति, तस्य संसारिणामिव परोक्ष
कालत्रयं च तरसा सकलज्ञमानी
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नहीं है; उस जड़ आत्माको सर्वज्ञता किसप्रकार होगी ?
आत्माको नहीं
करके), ‘सकल-विमल केवलज्ञान जिनका तीसरा लोचन है और अपुनर्भवरूपी सुन्दर
कामिनीके जो जीवितेश हैं (
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वचन (तेरी ) सर्वज्ञताका चिह्न है
चरमचरं च जगत्प्रतिक्षणम्
वचनमिदं वदतांवरस्य ते
स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम्
वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्य दोषः
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[आत्मानं न अपि जानाति ] यदि ज्ञान आत्माको न जाने तो [आत्मनः ] आत्मासे
[व्यतिरिक्तम् ] व्यतिरिक्त (पृथक् ) [भवति ] सिद्ध हो !
कश्चिदात्मा भव्यजीव इति अयं खलु स्वभाववादः
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जानती
(संक्षेपमें, ) यदि उस आत्माको ज्ञान न जाने तो वह ज्ञान, देवदत्त रहित कुल्हाड़ीकी भाँति,
है
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चाहनेवाले जीवको ज्ञानकी भावना भाना चाहिये
तो वह ज्ञान अविचल आत्मस्वरूपसे अवश्य भिन्न सिद्ध होगा ! २८६
स्वात्मात्मानं नियतमधुना तेन जानाति चैकम्
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[तस्मात् ] इसलिये उन्हें [केवलज्ञानी ] ‘केवलज्ञानी’ कहा है; [तेन तु ] और इसलिये
[सः अबन्धकः भणितः ] अबन्धक कहा है
हुए भी और देखते हुए भी, उन परम भट्टारक केवलीको मनप्रवृत्तिका (मनकी प्रवृत्तिका,
भावमनपरिणतिका ) अभाव होनेसे इच्छापूर्वक वर्तन नहीं होता; इसलिये वे भगवान
‘केवलज्ञानी’ रूपसे प्रसिद्ध हैं; और उस कारणसे वे भगवान अबन्धक हैं
उसे अबन्धक कहा है
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परको (
साक्षी (
पश्यन् तद्वत
ज्ञानज्योतिर्हतमलकलिः सर्वलोकैकसाक्षी
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[ज्ञानिनः ] ज्ञानीको (केवलज्ञानीको ) [हि ] वास्तवमें [बंधः न ] बंध नहीं है
[तस्मात् ] इसलिये [ज्ञानिनः ] ज्ञानीको (केवलज्ञानीको ) [हि ] वास्तवमें [बंधः न ]
बंध नहीं है
केवलीको होता नहीं है; (तथा) इच्छापूर्वक वचन ही
कारणभूत दिव्यध्वनि तो अनिच्छात्मक (इच्छारहित) होती है; इसलिये सम्यग्ज्ञानीको
(केवलज्ञानीको) बन्धका अभाव है
ईहापूर्वं वचनमेव साभिलाषात्मकजीवस्य बंधकारणं भवति, केवलिमुखारविन्दविनिर्गतो
दिव्यध्वनिरनीहात्मकः समस्तजनहृदयाह्लादकारणम्; ततः सम्यग्ज्ञानिनो बंधाभाव इति
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उन्हें वास्तवमें समस्त रागद्वेषादि समूह तो है नहीं
एक ही देव हैं
तस्मादेषः प्रकटमहिमा विश्वलोकैकभर्ता
सद्बोधस्थं भुवनमखिलं तद्गतं वस्तुजालम्
तस्मिन् काचिन्न भवति पुनर्मूर्च्छना चेतना च
रागाभावादतुलमहिमा राजते वीतरागः
ज्ञानज्योतिश्छुरितभुवनाभोगभागः समन्तात
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इसलिये [बंध न भवति ] उन्हें बन्ध नहीं है; [मोहनीयस्य ] मोहनीयवश जीवको
[साक्षार्थम् ] इन्द्रियविषयसहितरूपसे बन्ध होता है
मनप्रवृत्तिका अभाव है; अथवा, वे इच्छापूर्वक खड़े नहीं रहते, बैठते नहीं हैं अथवा
श्रीविहारादिक नहीं करते, क्योंकि ‘अमनस्काः केवलिनः (केवली मनरहित हैं )’ ऐसा
शास्त्रका वचन है
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(
साक्षार्थं मोहनीयस्य वशगतानां साक्षार्थप्रयोजनानां संसारिणामेव बंध इति
मुक्ति श्रीललनामुखाम्बुजरवेः सद्धर्मरक्षामणेः
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जलानेवाली अग्नि समान हैं
होता है; [पश्चात् ] फि र वे [शीघ्रं ] शीघ्र [समयमात्रेण ] समयमात्रमें [लोकाग्रं ]
लोकाग्रमें [प्राप्नोति ] पहुँचते हैं
आयुःकर्मक्षये जाते वेदनीयनामगोत्राभिधानशेषप्रकृतीनां निर्नाशो भवति
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आयुकर्मका क्षय होने पर शेष तीन कर्मोंका भी क्षय होता है और सिद्धक्षेत्रकी ओर
स्वभावगतिक्रिया होती है )
ही हैं ऐसा प्रसिद्ध है
प्रत्यक्षोऽद्य स्तवनविषयो नैव सिद्धः प्रसिद्धः
स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते