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रेतेन मार्गेण विना न मोक्षः
है; इस मार्ग बिना मोक्ष नहीं है
अपेक्षा युक्त) [च ] और [निरपेक्षः ] निरपेक्ष
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कर्मक्षयोपशमेन स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रद्वारेण तत्तद्योग्यविषयान् पश्यति च
दर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमेन समस्तमूर्तपदार्थं पश्यति च
क्षयोपशमसे (जीव) स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र द्वारा उस-उसके योग्य विषयोंको देखता
है
सहित है अर्थात् अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण
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हानिश्च नीयते
सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम्
हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा
भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूल स त्वम्
क्वचित्सहजपर्ययैः क्वचिदशुद्धपर्यायकैः
भाँति) हानि भी लगाई जाती है
कामिनीका (मुक्तिसुन्दरीका) वल्लभ बनता है
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नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्धयै सदा
और क्वचित् अशुद्ध पर्यायों सहित विलसता है । इन सबसे सहित होने पर भी जो इन सबसे
रहित है ऐसे इस जीवतत्त्वको मैं सकल अर्थकी सिद्धिके लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ
हैं; [कर्मोपाधिविवर्जितपर्यायाः ] कर्मोपाधि रहित पर्यायें [ते ] वे [स्वभावाः ]
स्वभावपर्यायें [इति भणिताः ] कही गई हैं
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शक्ति युक्त फलरूपानंतचतुष्टयेन सार्धं परमोत्कृष्टक्षायिकभावस्य शुद्धपरिणतिरेव कार्यशुद्ध-
पर्यायश्च
कारणशुद्धपर्याय है, ऐसा अर्थ है
शुद्धपर्यायें हैं
क्षायिकभावपरिणति वह कार्यशुद्धपर्याय है ।
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जातः, तस्य नारकाकारो नारकपर्यायः; किञ्चिच्छुभमिश्रमायापरिणामेन तिर्यक्कायजो
व्यवहारेणात्मा, तस्याकारस्तिर्यक्पर्यायः; केवलेन शुभकर्मणा व्यवहारेणात्मा देवः, तस्याकारो
देवपर्यायश्चेति
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
मनुष्यपर्याय है; केवल अशुभ कर्मसे व्यवहारसे आत्मा नारक होता है, उसका नारक
तिर्यंचकायमें जन्मता है, उसका आकार वह तिर्चंयपर्याय है; और केवल शुभ कर्मसे
व्यवहारसे आत्मा देव होता है, उसका आकार वह देवपर्याय है
ऐसा मानकर, शीघ्र परमश्रीरूपी सुन्दरीका वल्लभ होता है
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पृथ्वीके भेदसे [नारकाः ] नारक [सप्तविधाः ज्ञातव्याः ] सात प्रकारके जानना; [तिर्यंञ्चः ]
तिर्यंचोंके [चतुर्दशभेदाः ] चौदहभेद [भणिताः ] कहे हैं; [सुरगणाः ] देवसमूहोंके
[चतुर्भेदाः ] चार भेद हैं
लालित
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चतुरिन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकासंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा-
च्चतुर्दशभेदा भवन्ति
और एक पल्योपम, दो पल्योपम अथवा तीन पल्योपमकी आयुवाले हैं
नरकके सत्रह सागरोपम, छठवें नरकके बाईस सागरोपम और सातवें नरकके नारकी तेतीस
सागरोपमकी आयुवाले हैं
(७-८) त्रीन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (९-१०) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त,
(११-१२) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त, (१३-१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और
अपर्याप्त
पूर्वाचार्यमहाराजने (वे विशेष भेद) नहीं कहे हैं
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ज्ज्योतिर्लोके फणपतिपुरे नारकाणां निवासे
भूयो भूयो भवतु भवतः पादपङ्केजभक्ति :
त्वं क्लिश्नासि मुधात्र किं जडमते पुण्यार्जितास्ते ननु
भक्ति स्ते यदि विद्यते बहुविधा भोगाः स्युरेते त्वयि
निवासमें होऊँ , जिनपतिके भवनमें होऊँ या अन्य चाहे जिस स्थान पर होऊँ, (परन्तु) मुझे
कर्मका उद्भव न हो, पुनः पुनः आपके पादपंकजकी भक्ति हो
होते हैं
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अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां
कर्ता
परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात
भावकर्मका कर्ता और भोक्ता है, अनुपचरित असद्भूत व्यवहारसे (देहादि) नोकर्मका
कर्ता है, उपचरित असद्भूत व्यवहारसे घट
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स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः
कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म
जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके
निष्कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे
स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः
जानता; उसे लोकमें (कोई) शरण नहीं है
चैतन्यमय, एकरूप, अद्वितीय निज भावको प्राप्त क रता है
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सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम्
न खलु न खलु मुक्ति र्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात
निजपरमगुणाः स्युः सिद्धिसिद्धाः समस्ताः
र्न च भवति भवो वा निर्णयोऽयं बुधानाम्
अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकारसे मुक्ति नहीं है, नहीं है, नहीं हि है
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प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक है
अर्थ) व्यर्थ सिद्ध होता है
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जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव
है
वर्तमानवत् संकल्पित करे (अथवा कहे), अथवा किंचित् निष्पन्नतायुक्त और किंचित् अनिष्पन्नतायुक्त
वर्तमान पर्यायको सर्वनिष्पन्नवत् संकल्पित करे (अथवा कहे), उस ज्ञानको (अथवा वचनको) नैगमनय
कहते हैं ।
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परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमत्तद्विरेफाः
क्षितिषु परमतोक्ते : किं फलं सज्जनानाम्
प्राप्त करते हैं
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें)
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[स्कन्धाः ] स्कन्ध [खलु ] वास्तवमें [षट्प्रकाराः ] छह प्रकारके हैं [परमाणुः च एव
द्विविकल्पः ] और परमाणुके दो भेद हैं
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(५) कर्मयोग्य स्कन्ध और (६) कर्मके अयोग्य स्कन्ध
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सूक्ष्मस्थूल, [सूक्ष्माः ] सूक्ष्म और [अतिसूक्ष्माः ] अतिसूक्ष्म [इति ] ऐसे [धरादयः
षड्भेदाः भवन्ति ] पृथ्वी आदि स्कन्धोंके छह भेद हैं
[स्थूलाः इति विज्ञेयाः ] स्थूल स्कन्ध जानना
स्कन्धोंको [सूक्ष्मस्थूलाः इति ] सूक्ष्मस्थूल [भणिताः ] कहा गया है
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[स्कन्धाः ] स्कन्ध [अतिसूक्ष्माः इति ] अतिसूक्ष्म [प्ररूपयन्ति ] कहे जाते हैं
जा सकते या हस्तादिकसे ग्रहण नहीं किये जा सकते वे स्कन्ध स्थूलसूक्ष्म हैं
ज्ञात होते हैं (
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वर्णादिमान् नटति पुद्गल एव नान्यः
स्कन्ध सूक्ष्मसूक्ष्म हैं