Page 192 of 264
PDF/HTML Page 221 of 293
single page version
भवन्ति, तस्यावश्यं भवति शुभोऽशुभो वा परिणामः। तत्र यत्र प्रशस्तरागश्चित्तप्रसादश्च तत्र शुभः
परिणामः, यत्र तु मोहद्वेषावप्रशस्तरागश्च तत्राऽशुभ इति।। १३१।।
दोण्हं पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तणं
द्वयोः पुद्गलमात्रो भावः कर्मत्वं प्राप्तः।। १३२।।
[चारित्रमोहनीयके ही] मंद उदयसे होनेवाले जो विशुद्ध परिणाम वह
उसे अवश्य शुभ अथवा अशुभ परिणाम है। उसमें, जहाँ प्रशस्त राग तथा चित्तप्रसाद है वहाँ शुभ
परिणाम है और जहाँ मोह, द्वेष तथा अप्रशस्त राग है वहाँ अशुभ परिणाम है।। १३१।।
पुद्गलमात्र भाव [कर्मत्वं प्राप्तः] कर्मपनेको प्राप्त होते हैं [अर्थात् जीवके पुण्य–पापभावके निमित्तसे
साता–असातावेदनीयादि पुद्गलमात्र परिणाम व्यवहारसे जीवका कर्म कहे जाते हैं]।
तेना निमित्ते पौद्गलिक परिणाम कर्मपणुं लहे। १३२।
Page 193 of 264
PDF/HTML Page 222 of 293
single page version
द्रव्यपापस्य निमित्तमात्रत्वेन कारणीभूतत्वात्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपापम्। पुद्गलस्य
कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम्। पुद्गलस्य
कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवाशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपापम्। एवं
व्यवहारनिश्चयाभ्यामात्मनो मूर्तममूर्तञ्च कर्म प्रज्ञापितमिति।। १३२।।
[सातावेदनीयादि द्रव्यपुण्यास्रवका जो प्रसंग बनता है उसमें जीवके शुभपरिणाम निमित्तकारण हैं
इसलिये ‘द्रव्यपुण्यास्रव’ प्रसंगके पीछे–पीछे उसके निमित्तभूत शुभपरिणामको भी ‘भावपुण्य’ ऐसा
नाम है।] इस प्रकार जीवरूप कर्ताके निश्चयकर्मभूत अशुभपरिणाम द्रव्यपापको निमित्तमात्ररूपसे
कारणभूत हैं इसलिये ‘द्रव्यपापास्रव’के प्रसंगका अनुसरण करके [–अनुलक्ष करके] वे
अशुभपरिणाम ‘भावपाप’ हैं।
निश्चयकर्मभूत विशिष्टप्रकृतिरूप परिणाम [–असातावेदनीयादि खास प्रकृतिरूप परिणाम] – कि
जिनमें जीवके अशुभपरिणाम निमित्त हैं वे–द्रव्यपाप हैं।
२। पुद्गल कर्ता है और विशिष्टप्रकृतिरूप परिणाम उसका निश्चयकर्म है [अर्थात् निश्चयसे पुद्गल कर्ता हैे और
Page 194 of 264
PDF/HTML Page 223 of 293
single page version
जीवेण सुहं दुक्खं तम्हा कम्माणि मुत्ताणि।। १३३।।्रबद्य
जीवेन सुखं दुःखं तस्मात्कर्माणि मूर्तानि।। १३३।।
१३३।।
असातावेदनीयादि] द्रव्यपुण्यपाप व्यवहारसे जीवका कर्म कहे जाते हैं।। १३२।।
सुखरूपसे अथवा दुःखरूपसे [भुज्यते] भोगे जाते हैं, [तस्मात्] इसलिये [कर्माणि] कर्म [मूर्तानि]
मूर्त हैं।
मूर्त है उसी प्रकार कर्म मूर्त है, क्योंकि [मूषकविषके फलकी भाँति] मूर्तके सम्बन्ध द्वारा अनुभवमें
आनेवाला ऐसा मूर्त उसका फल है। [चूहेके विषका फल
जीव भोगवे दुःखे–सुखे, तेथी करम ते मूर्त छे। १३३।
Page 195 of 264
PDF/HTML Page 224 of 293
single page version
जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि।। १३४।।
जीवो मूर्तिविरहितो गाहति तानि तैरवगाह्यते।। १३४।।
अथ निश्चयनयेनामूर्तो जीवोऽनादिमूर्तकर्मनिमित्तरागादिपरिणामस्निग्धः सन् विशिष्टतया मूर्तानि
१३३।।
मूर्तकर्मोंको अवगाहता है और [तैः अवगाह्यते] मूर्तकर्म जीवको अवगाहते हैं [अर्थात् दोनों
एकदूसरेमें अवगाह प्राप्त करते हैं]।
वह वह उसके साथ, स्निग्धत्वगुणके वश [–अपने स्निग्धरूक्षत्वपर्यायके कारण], बन्धको प्राप्त
होता है। यह, मूर्तकर्मका मूर्तकर्मके साथ बन्धप्रकार है।
आत्मा अमूरत ने करम अन्योन्य अवगाहन लहे। १३४।
Page 196 of 264
PDF/HTML Page 225 of 293
single page version
कथञ्चिद्बन्धो न विरुध्यते।। १३४।।
चित्तम्हि णत्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसवदि।। १३५।।
चित्ते नास्ति कालुष्यं पुण्यं जीवस्यास्रवति।। १३५।।
मूर्तकर्मोंको विशिष्टरूपसे अवगाहता है [अर्थात् एक–दूसरेको परिणाममें निमित्तमात्र हों ऐसे
सम्बन्धविशेष सहित मूर्तकर्मोंके क्षेत्रमें व्याप्त होता है] और उस रागादिपरिणामके निमित्तसे जो
अपने [ज्ञानावरणादि] परिणामको प्राप्त होते हैं ऐसे मूर्तकर्म भी जीवको विशिष्टरूपसे अवगाहते हैं
[अर्थात् जीवके प्रदेशोंके साथ विशिष्टतापूर्वक एकक्षेत्रावगाहको प्राप्त होते हैं]। यह, जीव और
मूर्तकर्मका अन्योन्य–अवगाहस्वरूप बन्धप्रकार है। इस प्रकार
है, [जीवस्य] उस जीवको [पुण्यम् आस्रवति] पुण्य आस्रवित होता है।
मनमां नहीं कालुष्य छे, त्यां पुण्य–आस्रव होय छे। १३५।
Page 197 of 264
PDF/HTML Page 226 of 293
single page version
प्रशस्तरागोऽनुकम्पापरिणतिः चित्तस्याकलुषत्वञ्चेति त्रयः शुभा भावाः द्रव्यपुण्यास्रवस्य
योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यास्रव इति।। १३५।।
अणुगमणं पि गुरूणं पसत्थरागो त्ति
अनुगमनमपि गुरूणां प्रशस्तराग इति ब्रुवन्ति।। १३६।।
प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके शुभकर्मपरिणाम [–शुभकर्मरूप परिणाम] वे द्रव्यपुण्यास्रव हैं।। १३५।।
इति ब्रुवन्ति] वह ‘प्रशस्त राग’ कहलाता है।
‘भावपुण्यास्रव’ ऐसा नाम है।
गुरुओ तणुं अनुगमन–ए परिणाम राग प्रशस्तना। १३६।
Page 198 of 264
PDF/HTML Page 227 of 293
single page version
अनन्त चतुष्टय सहित हुए, वे अर्हन्त कहलाते हैं।
बिना वैसा ही अनुष्ठान–ऐसे निश्चयपंचाचारको तथा उसके साधक व्यवहारपंचाचारको–कि जिसकी विधि
आचारादिशास्त्रोंमें कही है उसेे–अर्थात् उभय आचारको जो स्वयं आचरते है और दूसरोंको उसका आचरण
कराते हैं, वे आचार्य हैं।
करते हैं और स्वयं भाते [–अनुभव करते ] हैं, वे उपाध्याय हैं।
३। भावनाप्रधान चेष्टा = भावप्रधान प्रवृत्ति; शुभभावप्रधान व्यापार।
४। अनुगमन = अनुसरण; आज्ञांकितपना; अनुकूल वर्तन। [गुरुओंके प्रति रसिकभावसे
Page 199 of 264
PDF/HTML Page 228 of 293
single page version
स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति। उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थान–
रागनिषेधार्थं तीव्ररागज्वरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनोऽपि भवतीति।। १३६।।
पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि
प्रतिपद्यते तं कृपया तस्यैषा भवत्यनुकम्पा।। १३७।।
करुणासे वर्तता है, [तस्य एषा अनुकम्पा भवति] उसका वह भाव अनुकम्पा है।
भूमिकामें विहरते हुए [–स्वयं नीचले गुणस्थानोंमें वर्तता हो तब], जन्मार्णवमें निमग्न जगतके
२। अस्थानका = अयोग्य स्थानका, अयोग्य विषयकी ओरका ; अयोग्य पदार्थोंका अवलम्बन लेने वाला।
दुःखित, तृषित वा क्षुधित देखी दुःख पामी मन विषे
करुणाथी वर्ते जेह, अनुकंपा सहित ते जीव छे। १३७।
Page 200 of 264
PDF/HTML Page 229 of 293
single page version
कञ्चिदुदन्यादिदुःखप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिचिकीर्षाकुलितचित्तत्वमज्ञानिनोऽनु–कम्पा।
जीवस्स कुणदि खोहं कलुसो त्ति य तं बुधा
जीवस्य करोति क्षोभं कालुष्यमिति च तं बुधा ब्रुवन्ति।। १३८।।
क्रोधमानमायालोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम्। तेषामेव मंदोदये तस्य
वृत्तेरसमग्रव्यावर्तितोपयोगस्यावांतरभूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भवतीति।। १३८।।
करते हैैं, तब [तं] उसे [बुधाः] ज्ञानी [कालुष्यम् इति च ब्रुवन्ति] ‘कलुषता’ कहते हैं।
व्याकुल होकर अनुकम्पा करता है; ज्ञानी तो स्वात्मभावनाको प्राप्त न करता हुआ [अर्थात् निजात्माके
अनुभवकी उपलब्धि न होती हो तब], संक्लेशके परित्याग द्वारा [–अशुभ भावको छोड़कर] यथासम्भव
प्रतिकार करता है तथा उसे दुःखी देखकर विशेष संवेग और वैराग्यकी भावना करता है।
जीवने करे जे क्षोभ, तेने कलुषता ज्ञानी कहे। १३८।
Page 201 of 264
PDF/HTML Page 230 of 293
single page version
परपरिदावपवादो पावस्स य आसवं
परपरितापापवादः पापस्य चास्रवं करोति।। १३९।।
प्रमादबहुलचर्यापरिणतिः, कालुष्यपरिणतिः, विषयलौल्यपरिणतिः, परपरितापपरिणतिः,
त्तदास्रवक्षणादूर्ध्वं भावपापास्रवः। तन्निमित्तोऽशुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां
द्रव्यपापास्रव इति।। १३९।।
विशिष्ट [–खास प्रकारका] क्षयोपशम होने पर, अज्ञानीको होती है; कषायके उदयका अनुसरण
करनेवाली परिणतिमेंसे उपयोगको
मध्यम गुणस्थानोंमें], कदाचित् ज्ञानीको भी होती है।। १३८।।
बोलना–वह [पापस्य च आस्रवं करोति] पापका आस्रव करता है।
परके अपवादरूप परिणति–यह पाँच अशुभ भाव द्रव्यपापास्रवको निमित्तमात्ररूपसे
परिताप ने अपवाद परना, पाप–आस्रवने करे। १३९।
Page 202 of 264
PDF/HTML Page 231 of 293
single page version
णाणं च दुप्पउत्तं मोहो पावप्पदा
ज्ञानं च दुःप्रयुक्तं मोहः पापप्रदा भवन्ति।। १४०।।
कृष्णनीलकापोतलेश्यास्तिस्रः, रागद्वेषोदयप्रकर्षादिन्द्रियाधीनत्वम्,
पुद्गलोंके अशुभकर्मपरिणाम [–अशुभकर्मरूप परिणाम] वे द्रव्यपापास्रव हैं।। १३९।।
कार्यमें लगा हुआ ज्ञान] [च] और [मोहः] मोह–[पापप्रदाः भवन्ति] यह भाव पापप्रद है।
‘भावपापास्रव’ ऐसा नाम है।
संज्ञा, त्रिलेश्या, इन्द्रिवशता, आर्तरौद्र ध्यान
Page 203 of 264
PDF/HTML Page 232 of 293
single page version
प्रयुक्तं ज्ञानम्, सामान्येन दर्शन–चारित्रमोहनीयोदयोपजनिताविवेकरूपो मोहः, –एषः
भावपापास्रवप्रपञ्चो द्रव्यपापास्रवप्रपञ्चप्रदो भवतीति।। १४०।।
जावत्तावत्तेसिं पिहिदं
और सामान्यरूपसे दर्शनचारित्र मोहनीयके उदयसे उत्पन्न अविवेकरूप मोह;– यह, भावपापास्रवका
विस्तार द्रव्यपापास्रवके विस्तारको प्रदान करनेवाला है [अर्थात् उपरोक्त भावपापास्रवरूप अनेकविध
भाव वैसे–वैसे अनेकविध द्रव्यपापास्रवमें निमित्तभूत हैं]।। १४०।।
२। उद्रेक = बहुलता; अधिकता ।
मार्गे रही संज्ञा–कषायो–इन्द्रिनो निग्रह करे,
पापासरवनुं छिद्र तेने तेटलुं रूंधाय छे। १४१।
Page 204 of 264
PDF/HTML Page 233 of 293
single page version
यावत्तावतेषां पिहितं पापास्रवछिद्रम्।। १४१।।
द्रव्यपापास्रवहेतुः पूर्वमुक्तः। इह तन्निरोधो भावपापसंवरो द्रव्यपापसंवरहेतुरवधारणीय इति।।१४१।।
णासवदि
[पापास्रवछिद्रम्] पापास्रवका छिद्र [तेषाम्] उनको [पिहितम्] बन्ध होता है।
पापास्रवद्वारा बन्ध होता है।
निरोध]–भावपापसंवर–द्रव्य–पापसंवरका हेतु अवधारना [–समझना]।। १४१।।
Page 205 of 264
PDF/HTML Page 234 of 293
single page version
नास्रवति शुभमशुभं समसुखदुःखस्य भिक्षोः।। १४२।।
मोहरागद्वेषपरिणामनिरोधो भावसंवरः। तन्निमित्तः शुभाशुभकर्मपरिणामनिरोधो योगद्वारेण प्रविशतां
पुद्गलानां द्रव्यसंवर इति।। १४२।।
सुखदुःखके प्रति समभाववाले मुनिको] [शुभम् अशुभम्] शुभ और अशुभ कर्म [न आस्रवति]
आस्रवित नहीं होते।
भावसंवर है, और वह [मोहरागद्वेषरूप परिणामका निरोध] जिसका निमित्त है ऐसा जो योगद्वारा
प्रविष्ट होनेवाले पुद्गलोंके शुभाशुभकर्मपरिणामका [शुभाशुभकर्मरूप परिणामका] निरोध सो
द्रव्यसंवर है।। १४२।।
विकाररहित है इसलिये समसुखदुःख है।]
Page 206 of 264
PDF/HTML Page 235 of 293
single page version
संवरणं तस्स तदा सुहासुहकदस्स
संवरणं तस्य तदा शुभाशुभकृतस्य कर्मणः।। १४३।।
स्वकारणाभावात्प्रसिद्धयति। तदत्र शुभाशुभपरिणामनिरोधो भावपुण्यपापसंवरो द्रव्यपुण्यपाप–संवरस्य
हेतुः प्रधानोऽवधारणीय इति।। १४३।।
[तस्य] उसे [शुभाशुभकृतस्य कर्मणाः] शुभाशुभभावकृत कर्मका [संवरणम्] संवर होता है।
द्रव्यकर्मका [–शुभाशुभभाव जिसका निमित्त होता है ऐसे द्रव्यकर्मका], स्वकारणके अभावके कारण
संवर होता है। इसलिये यहाँ [इस गाथामें] शुभाशुभ परिणामका निरोध–भावपुण्यपापसंवर–
द्रव्यपुण्यपापसंवरका
निरोध नहीं है। [ यहाँ यह ध्यान रखने योग्य है कि द्रव्यसंवरका उपादान कारण– निश्चय कारण तो पुद्गल
स्वयं ही है।]
त्यारे शुभाशुभकृत करमनो थाय संवर तेहने। १४३।
Page 207 of 264
PDF/HTML Page 236 of 293
single page version
कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं
कर्मणां निर्जरणं बहुकानां करोति स नियतम्।। १४४।।
स्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानभेदादन्तरङ्गैश्च बहुविधैर्यश्चेष्टते स खलु
[बहुकानाम् कर्मणाम्] अनेक कर्मोंकी [निर्जरणं करोति] निर्जरा करता है।
संवर अर्थात् शुभाशुभ परिणामका निरोध, और योग अर्थात् शुद्धोपयोग; उनसे [–संवर और
तथा कायक्लेशादि भेदोंवाले बहिरंग तपों सहित और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग
और ध्यान ऐसे भेदोंवाले अंतरंग तपों सहित–इस प्रकार बहुविध
उसमें वर्तता हुआ शुद्धिरूप अंश वह निश्चय–तप है और
यथार्थ तपका सद्भाव ही नहीं है, वहाँ उन शुभ भावोंमें आरोप किसका किया जावे?]
जे योग–संवरयुक्त जीव बहुविध तपो सह परिणमे,
तेने नियमथी निर्जरा बहु कर्म केरी थाय छे। १४४।
Page 208 of 264
PDF/HTML Page 237 of 293
single page version
भावनिर्जरा, तदनुभावनीरसीभूतानामेकदेशसंक्षयः समुपात्तकर्मपुद्गलानां द्रव्य–निर्जरेति।। १४४।।
कहा कि], कर्मके वीर्यका [–कर्मकी शक्तिका] शातन करनेमें समर्थ ऐसा जो बहिरंग और अंतरंग
तपों द्वारा वृद्धिको प्राप्त शुद्धोपयोग सो भावनिर्जरा हैे और उसके प्रभावसे [–वृद्धिको प्राप्त
शुद्धोपयोगके निमित्तसे] नीरस हुए ऐसे उपार्जित कर्मपुद्गलोंका एकदेश संक्षय सो द्रव्य निर्जरा
है।। १४४।।
मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरयं।। १४५।।
ज्ञात्वा ध्यायति नियतं ज्ञानं स संधुनोति कर्मरजः।। १४५।।
२। वृद्धिको प्राप्त = बढ़ा हुआ; उग्र हुआ। [संवर और शुद्धोपयोगवाले जीवको जब उग्र शुद्धोपयोग होता है तब
ही है। ऐसा करनेवालेको, सहजदशामें हठ रहित जो अनशनादि सम्बन्धी भाव वर्तते हैं उनमेंं [शुभपनेरूप
अंशके साथ] उग्र–शुद्धिरूप अंश होता है, जिससे बहुत कर्मोंकी निर्जरा होती है। [मिथ्याद्रष्टिको तो
शुद्धात्मद्रव्य भासित ही नहीं हुआ हैं, इसलिये उसे संवर नहीं है, शुद्धोपयोग नहीं है, शुद्धोपयोगकी वृद्धिकी
तो बात ही कहाँ रही? इसलिये उसे, सहज दशा रहित–हठपूर्वक–अनशनादिसम्बन्धी शुभभाव कदाचित् भले
हों तथापि, मोक्षके हेतुभूत निर्जरा बिलकुल नहीं होती।]]
३। संक्षय = सम्यक् प्रकारसे क्षय।
Page 209 of 264
PDF/HTML Page 238 of 293
single page version
त्वेनाभेदात्तदेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्संचेतयते स खलु नितान्तनिस्स्नेहः प्रहीण–
स्नेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फटिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरजः संधुनोति एतेन निर्जरामुख्यत्वे हेतुत्वं
ध्यानस्य द्योतितमिति।। १४५।।
स्वप्रयोजन साधनेमें जिसका
उसी
आत्माको जानकर [–अनुभव करके] [ज्ञानं नियतं ध्यायति] ज्ञानको निश्चलरूपसे ध्याता है, [सः]
वह [कर्मरजः] कर्मरजको [संधुनोति] खिरा देता है।
२। मन = मति; बुद्धि; भाव; परिणाम।
३। उद्यत होना = तत्पर होना ; लगना; उद्यमवंत होना ; मुड़़ना; ढलना।
४। गुणी और गुणमें वस्तु–अपेक्षासे अभेद है इसलिये आत्मा कहो या ज्ञान कहो–दोनों एक ही हैं। उपर जिसका
निजात्मा द्वारा निश्चल परिणति करके उसका संचेतन–संवेदन–अनुभवन करना सो ध्यान है।
जाणी, सुनिश्चळ ज्ञान ध्यावे, ते करमरज निर्जरे। १४५।
Page 210 of 264
PDF/HTML Page 239 of 293
single page version
तस्य शुभाशुभदहनो ध्यानमयो जायते अग्निः।। १४६।।
होनेसे उस विपाकको [अपनेसे भिन्न ऐसे अचेतन] कर्मोंमें समेटकर, तदनुसार परिणतिसे उपयोगको
व्यवृत्त करके [–उस विपाकके अनुरूप परिणमनमेंसे उपयोगका निवर्तन करके], मोही, रागी और
द्वेषी न होनेवाले ऐसे उस उपयोगको अत्यन्त शुद्ध आत्मामें ही निष्कम्परूपसे लीन करता
मुह्यन्तमरज्यन्तमद्विषन्तं चात्यन्तशुद्ध एवात्मनि निष्कम्पं
उसे [शुभाशुभदहनः] शुभाशुभको जलानेवाली [ध्यानमयः अग्निः] ध्यानमय अग्नि [जायते] प्रगट
होती है।
प्रगटे शुभाशुभ बाळनारो ध्यान–अग्नि तेहने। १४६।
Page 211 of 264
PDF/HTML Page 240 of 293
single page version
व्यापारयतः सकलशुभाशुभकर्मेन्धनदहनसमर्थत्वात् अग्निकल्पं परमपुरुषार्थसिद्धयुपायभूतं ध्यानं
जायते इति। तथा चोक्तम्–
सिक्खियव्वं जं जरमरणं खयं कुणई’’।। १४६।।
नहीं
वहाँ से चय कर [मनुष्यभव प्राप्त करके] निर्वाणको प्राप्त करते हैं।
१। भाना = चिंतवन करना; ध्याना; अनुभव करना।
२। व्यापार = प्रवृत्ति [स्वरूपविश्रान्त योगीको अपने पूर्वोपार्जित कर्मोंमें प्रवर्तन नहीं है, क्योंकि वह मोहनीयकर्मके
विमुख किया है।]
३। पुरुषार्थ = पुरुषका अर्थ; पुरुषका प्रयोजन; आत्माका प्रयोजन; आत्मप्रयोजन। [परमपुरुषार्थ अर्थात् आत्माका
ध्यान हैे।]