Benshreeke Vachanamrut (Hindi). Bol: 385-412.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 10 of 12

 

Page 166 of 212
PDF/HTML Page 181 of 227
single page version

background image
१६६
बहिनश्रीके वचनामृत
जीवने अनन्त कालमें अनन्त बार सब कुछ
किया परन्तु आत्माको नहीं पहिचाना । देव-गुरु क्या
कहते हैं वह बराबर जिज्ञासासे सुनकर, विचार
करके, यदि आत्माकी ठोस भूमि जो आत्म-अस्तित्व
उसे ख्यालमें लेकर निजस्वरूपमें लीनता की जाय तो
आत्मा पहिचाननेमें आयेआत्माकी प्राप्ति हो ।
इसके सिवा बाहरसे जितने मिथ्या प्रयत्न किये जायँ
वे सब भूसा कूटनेके बराबर हैं ।।३८५।।
बाह्य क्रियाएँ मार्ग नहीं बतलातीं, ज्ञान मार्ग
बतलाता है । मोक्षके मार्गका प्रारम्भ सच्ची समझसे
होता है, क्रियासे नहीं । इसलिये प्रत्यक्ष गुरुका उपदेश
और परमागमका प्रयोजनभूत ज्ञान मार्गप्राप्तिके प्रबल
निमित्त हैं । चैतन्यका स्पर्श करके निकलती हुई वाणी
मुमुक्षुको हृदयमें उतर जाती है । आत्मस्पर्शी वाणी
आती हो और जीव एकदम रुचिपूर्वक सुने तो
सम्यक्त्वके निकट हो जाता है ।।३८६।।
आत्मा उत्कृष्ट अजायबघर है । उसमें अनंत गुणरूप

Page 167 of 212
PDF/HTML Page 182 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१६७
अलौकिक आश्चर्य भरे हैं । देखने जैसा सब कुछ,
आश्चर्यकारी ऐसा सब कुछ, तेरे अपने अजायबघरमें ही
है, बाह्यमें कुछ नहीं है । तू उसीका अवलोकन कर न !
उसके भीतर एक बार झाँकनेसे भी तुझे अपूर्व आनन्द
होगा । वहाँसे बाहर निकलना तुझे सुहायगा ही नहीं ।
बाहरकी सर्व वस्तुओंके प्रति तेरा आश्चर्य टूट
जायगा । तू परसे विरक्त हो जायगा ।।३८७।।
मुनिराजको शुद्धात्मतत्त्वके उग्र अवलम्बन द्वारा
आत्मामेंसे संयम प्रगट हुआ है । सारा ब्रह्माण्ड पलट
जाये तथापि मुनिराजकी यह द्रढ़ संयमपरिणति नहीं
पलट सकती । बाहरसे देखने पर तो मुनिराज
आत्मसाधनाके हेतु वनमें अकेले बसते हैं, परन्तु
अंतरमें देखें तो अनंत गुणसे भरपूर स्वरूपनगरमें
उनका निवास है । बाहरसे देखने पर भले ही वे
क्षुधावंत हों, तृषावंत हों, उपवासी हों, परन्तु अंतरमें
देखा जाये तो वे आत्माके मधुर रसका आस्वादन
कर रहे हैं । बाहरसे देखने पर भले ही उनके चारों
ओर घनघोर अंधेरा व्याप्त हो, परन्तु अंतरमें देखो

Page 168 of 212
PDF/HTML Page 183 of 227
single page version

background image
१६८
बहिनश्रीके वचनामृत
तो मुनिराजके आत्मामें आत्मज्ञानका उजाला फै ल
रहा है । बाहरसे देखने पर भले ही मुनिराज सूर्यके
प्रखर तापमें ध्यान करते हो, परन्तु अंतरमें वे
संयमरूपी कल्पवृक्षकी शीतल छायामें विराजमान हैं ।
उपसर्गका प्रसंग आये तब मुनिराजको ऐसा लगता है
कि‘अपनी स्वरूपस्थिरताके प्रयोगका मुझे अवसर
मिला है इसलिये उपसर्ग मेरा मित्र है’ । अंतरंग
मुनिदशा अद्भुत है; वहाँ देहमें भी उपशमरसके ढाले
ढल गये होते हैं ।।३८८।।
जिसको द्रव्यद्रष्टि यथार्थ प्रगट होती है उसे द्रष्टिके
जोरमें अकेला ज्ञायक हीचैतन्य ही भासता है,
शरीरादि कुछ भासित नहीं होता । भेदज्ञानकी
परिणति ऐसी द्रढ़ हो जाती है कि स्वप्नमें भी आत्मा
शरीरसे भिन्न भासता है । दिनको जागृत दशामें तो
ज्ञायक निराला रहता है परन्तु रातको नींदमें भी
आत्मा निराला ही रहता है । निराला तो है ही परन्तु
प्रगट निराला हो जाता है ।
उसको भूमिकानुसार बाह्य वर्तन होता है परन्तु

Page 169 of 212
PDF/HTML Page 184 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१६९
चाहे जिस संयोगमें उसकी ज्ञान-वैराग्यशक्ति कोई
और ही रहती है । मैं तो ज्ञायक सो ज्ञायक ही हूँ,
निःशंक ज्ञायक हूँ; विभाव और मैं कभी एक नहीं
हुए; ज्ञायक पृथक् ही है, सारा ब्रह्माण्ड पलट जाय
तथापि पृथक् ही है ।ऐसा अचल निर्णय होता
है । स्वरूप-अनुभवमें अत्यन्त निःशंकता वर्तती है ।
ज्ञायक ऊपर चढ़करऊर्ध्वरूपसे विराजता है, दूसरा
सब नीचे रह जाता है ।।३८९।।
मुनिराज समाधिपरिणत हैं । वे ज्ञायकका
अवलंबन लेकर विशेष-विशेष समाधिसुख प्रगट
करनेको उत्सुक हैं । मुनिवर श्री पद्मप्रभमलधारिदेव
कहते हैं कि मुनि ‘सकलविमल केवलज्ञानदर्शनके
लोलुप’ हैं । ‘स्वरूपमें कब ऐसी स्थिरता होगी जब
श्रेणी लगकर वीतरागदशा प्रगट होगी ? कब ऐसा
अवसर आयेगा जब स्वरूपमें उग्र रमणता होगी और
आत्माका परिपूर्ण स्वभावज्ञानकेवलज्ञान प्रगट
होगा ? कब ऐसा परम ध्यान जमेगा कि आत्मा
शाश्वतरूपसे आत्मस्वभावमें ही रह जायगा ?’ ऐसी

Page 170 of 212
PDF/HTML Page 185 of 227
single page version

background image
१७०
बहिनश्रीके वचनामृत
भावना मुनिराजको वर्तती है । आत्माके आश्रयसे
एकाग्रता करते-करते वे केवलज्ञानके समीप जा रहे
हैं । प्रचुर शान्तिका वेदन होता है । कषाय बहुत
मन्द हो गये हैं । कदाचित् कुछ ऋद्धियाँचमत्कार
भी प्रगट होते जाते हैं; परन्तु उनका उनके प्रति दुर्लक्ष
है । ‘हमें ये चमत्कार नहीं चाहिये । हमें तो पूर्ण
चैतन्यचमत्कार चाहिये । उसके साधनरूप, ऐसा
ध्यानऐसी निर्विकल्पताऐसी समाधि चाहिये कि
जिसके परिणामसे असंख्य प्रदेशोंमें प्रत्येक गुण उसकी
परिपूर्ण पर्यायसे प्रगट हो, चैतन्यका पूर्ण विलास
प्रगट हो ।’ इस भावनाको मुनिराज आत्मामें अत्यन्त
लीनता द्वारा सफल करते हैं ।।३९०।।
अज्ञानीने अनादि कालसे अनंत ज्ञान-आनन्दादि
समृद्धिसे भरे हुए निज चैतन्यमहलको ताले लगा
दिये हैं और स्वयं बाहर भटकता रहता है । ज्ञान
बाहरसे ढूँढ़ता है, आनन्द बाहरसे ढूँढ़ता है, सब
कुछ बाहरसे ढूँढ़ता है । स्वयं भगवान होने पर भी
भीख माँगता रहता है ।

Page 171 of 212
PDF/HTML Page 186 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१७१
ज्ञानीने चैतन्यमहलके ताले खोल दिये हैं ।
अंतरमें ज्ञान-आनन्दादिकी अखूट समृद्धि देखकर,
और थोड़ी भोगकर, पहले कभी जिसका अनुभव
नहीं हुआ था ऐसी विश्रान्ति उसे हो गई है ।।३९१।।
एक चैतन्यतत्त्व ही उत्कृष्ट आश्चर्यकारी है ।
विश्वमें ऐसी कोई विभूति नहीं है कि जो
चैतन्यतत्त्वसे ऊँची हो । वह चैतन्य तो तेरे पास ही
है, तू ही वह है । तो फि र शरीर पर उपसर्ग आने
पर या शरीर छूटनेके प्रसंगमें तू डरता क्यों है ? जो
कोई बाधा पहुँचाता है वह तो पुद्गलको पहुँचाता
है, जो छूट जाता है वह तो तेरा था ही नहीं । तेरा
तो मंगलकारी, आश्चर्यकारी तत्त्व है । तो फि र तुझे
डर किसका ? समाधिमें स्थिर होकर एक आत्माका
ध्यान कर, भय छोड़ दे ।।३९२।।
जिसे भवभ्रमणसे सचमुच छूटना हो उसे अपनेको
परद्रव्यसे भिन्न पदार्थ निश्चित करके, अपने ध्रुव
ज्ञायकस्वभावकी महिमा लाकर, सम्यग्दर्शन प्रगट

Page 172 of 212
PDF/HTML Page 187 of 227
single page version

background image
१७२
बहिनश्रीके वचनामृत
करनेका प्रयास करना चाहिये । यदि ध्रुव ज्ञायक-
भूमिका आश्रय न हो तो जीव साधनाका बल किसके
आश्रयसे प्रगट करेगा ? ज्ञायककी ध्रुव भूमिमें द्रष्टि
जमने पर, उसमें एकाग्रतारूप प्रयत्न करते-करते,
निर्मलता प्रगट होती जाती है ।
साधक जीवकी द्रष्टि निरंतर शुद्धात्मद्रव्य पर होती
है, तथापि साधक जानता है सबको;वह शुद्ध-
अशुद्ध पर्यायोंको जानता है और उन्हें जानते हुए
उनके स्वभाव-विभावपनेका, उनके सुख-दुःखरूप
वेदनका, उनके साधक-बाधकपनेका इत्यादिका विवेक
वर्तता है । साधकदशामें साधकके योग्य अनेक
परिणाम वर्तते रहते हैं परन्तु ‘मैं परिपूर्ण हूँ’ ऐसा बल
सतत साथ ही साथ रहता है । पुरुषार्थरूप क्रिया
अपनी पर्यायमें होती है और साधक उसे जानता है,
तथापि द्रष्टिके विषयभूत ऐसा जो निष्क्रिय द्रव्य वह
अधिकका अधिक रहता है ।ऐसी साधक-
परिणतिकी अटपटी रीतिको ज्ञानी बराबर समझते हैं,
दूसरोंको समझना कठिन होता है ।।३९३।।

Page 173 of 212
PDF/HTML Page 188 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१७३
मुनिराजके हृदयमें एक आत्मा ही विराजता है ।
उनका सर्व प्रवर्तन आत्मामय ही है । आत्माके
आश्रयसे बड़ी निर्भयता प्रगट हुई है । घोर जंगल हो,
घनी झाड़ी हो, सिंह-व्याघ्र दहाड़ते हों, मेघाच्छन्न
डरावनी रात हो, चारों ओर अंधकार व्याप्त हो, वहाँ
गिरिगुफामें मुनिराज बस अकेले चैतन्यमें ही मस्त
होकर निवास करते हैं । आत्मामेंसे बाहर आयें तो
श्रुतादिके चिंतवनमें चित्त लगता है और फि र अंतरमें
चले जाते हैं । स्वरूपके झूलेमें झूलते हैं । मुनिराजको
एक आत्मलीनताका ही काम है । अद्भुत दशा
है ।।३९४।।
चेतनका चैतन्यस्वरूप पहिचानकर उसका अनुभव
करने पर विभावका रस टूट जाता है । इसलिये
चैतन्यस्वरूपकी भूमि पर खड़ा रहकर तू विभावको
तोड़ सकेगा । विभावको तोड़नेका यही उपाय है ।
विभावमें खड़े-खड़े विभाव नहीं टूटेगा; मन्द होगा,
और उससे देवादिकी गति मिलेगी, परन्तु चार गतिका
अभाव नहीं होगा ।।३९५।।

Page 174 of 212
PDF/HTML Page 189 of 227
single page version

background image
१७४
बहिनश्रीके वचनामृत
तीन लोकको जाननेवाला तेरा तत्त्व है उसकी
महिमा तुझे क्यों नहीं आती ? आत्मा स्वयं ही सर्वस्व
है, अपनेमें ही सब भरा है । आत्मा सारे विश्वका
ज्ञाता-द्रष्टा एवं अनन्त शक्ति का धारक है । उसमें क्या
कम है ? सर्व ऋद्धि उसीमें है । तो फि र बाह्य ऋद्धिका
क्या काम है ? जिसे बाह्य पदार्थोंमें कौतूहल है उसे
अंतरकी रुचि नहीं है । अंतरकी रुचिके बिना अंतरमें
नहीं पहुँचा जाता, सुख प्रगट नहीं होता ।।३९६।।
चैतन्य मेरा देव है; उसीको मैं देखता हूँ । दूसरा
कुछ मुझे दिखता ही नहीं है न !ऐसा द्रव्य पर जोर
आये, द्रव्यकी ही अधिकता रहे, तो सब निर्मल होता
जाता है । स्वयं अपनेमें गया, एकत्वबुद्धि टूट गई,
वहाँ सब रस ढीले हो गये । स्वरूपका रस प्रगट होने
पर अन्य रसमें अनन्त फीकापन आ गया । न्यारा,
सबसे न्यारा हो जानेसे संसारका रस घटकर अनन्तवाँ
भाग रह गया । सारी दशा पलट गई ।।३९७।।
मैंने अपने परमभावको ग्रहण किया उस परम-

Page 175 of 212
PDF/HTML Page 190 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१७५
भावके सामने तीन लोकका वैभव तुच्छ है । और तो
क्या परन्तु मेरी स्वाभाविक पर्यायनिर्मल पर्याय
प्रगट हुई वह भी, मैं द्रव्यद्रष्टिके बलसे कहता हूँ कि,
मेरी नहीं है । मेरा द्रव्यस्वभाव अगाध है, अमाप
है । निर्मल पर्यायका वेदन भले हो परन्तु द्रव्य-
स्वभावके आगे उसकी विशेषता नहीं है ।ऐसी
द्रव्यद्रष्टि कब प्रगट होती है कि जब चैतन्यकी महिमा
लाकर, सबसे विमुख होकर, जीव अपनी ओर झुके
तब ।।३९८।।
सम्यग्द्रष्टिको भले स्वानुभूति स्वयं पूर्ण नहीं है
परन्तु द्रष्टिमें परिपूर्ण ध्रुव आत्मा है । ज्ञानपरिणति
द्रव्य तथा पर्यायको जानती है परन्तु पर्याय पर जोर
नहीं है । द्रष्टिमें अकेला स्वकी ओरकाद्रव्यकी
ओरका बल रहता है ।।३९९।।
मैं तो शाश्वत पूर्ण चैतन्य जो हूँ सो हूँ । मुझमें
जो गुण हैं वे ज्योंके त्यों हैं, जैसेके तैसे ही हैं ।
मैं एकेन्द्रियके भवमें गया वहाँ मुझमें कुछ कम नहीं

Page 176 of 212
PDF/HTML Page 191 of 227
single page version

background image
१७६
बहिनश्रीके वचनामृत
हो गया है और देवके भवमें गया वहाँ मेरा कोई
गुण बढ़ नहीं गया है ।ऐसी द्रव्यद्रष्टि ही एक
उपादेय है । जानना सब, किन्तु द्रष्टि रखना एक
द्रव्य पर ।।४००।।
ज्ञानीका परिणमन विभावसे विमुख होकर
स्वरूपकी ओर ढल रहा है । ज्ञानी निज स्वरूपमें
परिपूर्णरूपसे स्थिर हो जानेको तरसता है । ‘यह
विभावभाव हमारा देश नहीं है । इस परदेशमें हम
कहाँ आ पहुँचे ? हमें यहाँ अच्छा नहीं लगता ।
यहाँ हमारा कोई नहीं है । जहाँ ज्ञान, श्रद्धा,
चारित्र, आनन्द, वीर्यादि अनंतगुणरूप हमारा परिवार
बसता है वह हमारा स्वदेश है । अब हम उस
स्वरूपस्वदेशकी ओर जा रहे हैं । हमें त्वरासे अपने
मूल वतनमें जाकर आरामसे बसना है जहाँ सब
हमारे हैं ।’ ।।४०१।।
जो केवलज्ञान प्राप्त कराये ऐसा अन्तिम
पराकाष्ठाका ध्यान वह उत्तम प्रतिक्रमण है । इन महा

Page 177 of 212
PDF/HTML Page 192 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१७७
मुनिराजने ऐसा प्रतिक्रमण किया कि दोष पुनः कभी
उत्पन्न ही नहीं हुए; ठेठ श्रेणी लगा दी कि जिसके
परिणामसे वीतरागता होकर केवलज्ञानका सारा समुद्र
उछल पड़ा ! अन्तर्मुखता तो अनेक बार हुई थी, परन्तु
यह अन्तर्मुखता तो अन्तिमसे अन्तिम कोटिकी !
आत्माके साथ पर्याय ऐसी जुड़ गई कि उपयोग अंदर
गया सो गया, फि र कभी बाहर आया ही नहीं ।
चैतन्यपदार्थको जैसा ज्ञानमें जाना था, वैसा ही
उसको पर्यायमें प्रसिद्ध कर लिया ।।४०२।।
जैसे पूर्णमासीके पूर्ण चन्द्रके योगसे समुद्रमें
ज्वार आता है, उसी प्रकार मुनिराजको पूर्ण
चैतन्यचन्द्रके एकाग्र अवलोकनसे आत्मसमुद्रमें ज्वार
आता है;वैराग्यका ज्वार आता है, आनन्दका
ज्वार आता है, सर्व गुण-पर्यायका यथासम्भव ज्वार
आता है । यह ज्वार बाहरसे नहीं, भीतरसे आता
है । पूर्ण चैतन्यचन्द्रको स्थिरतापूर्वक निहारने पर
अंदरसे चेतना उछलती है, चारित्र उछलता है, सुख
उछलता है, वीर्य उछलता हैसब कुछ उछलता

Page 178 of 212
PDF/HTML Page 193 of 227
single page version

background image
१७८
बहिनश्रीके वचनामृत
है । धन्य मुनिदशा ! ४०३।।
परसे भिन्न ज्ञायकस्वभावका निर्णय करके,
बारम्बार भेदज्ञानका अभ्यास करते-करते मतिश्रुतके
विकल्प टूट जाते हैं, उपयोग गहराईमें चला जाता है
और भोंयरेमें भगवानके दर्शन प्राप्त हों तदनुसार
गहराईमें आत्मभगवान दर्शन देते हैं । इस प्रकार
स्वानुभूतिकी कला हाथमें आने पर, किस प्रकार
पूर्णता प्राप्त हो वह सब कला हाथमें आ जाती है,
केवलज्ञानके साथ केलि प्रारम्भ होती है ।।४०४।।
अज्ञानी जीव ऐसे भावसे वैराग्य करता है कि
‘यह सब क्षणिक है, सांसारिक उपाधि दुःखरूप है’,
परन्तु उसे ‘मेरा आत्मा ही आनन्दस्वरूप है’ ऐसे
अनुभवपूर्वक सहज वैराग्य नहीं होनेके कारण सहज
शान्ति परिणमित नहीं होती । वह घोर तप करता है,
परन्तु कषायके साथ एकत्वबुद्धि नहीं टूटी होनेसे
आत्मप्रतपन प्रगट नहीं होता ।।४०५।।

Page 179 of 212
PDF/HTML Page 194 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१७९
तू अनादि-अनंत पदार्थ है । ‘जानना’ तेरा स्वभाव
है । शरीरादि जड़ पदार्थ कुछ जानते नहीं है ।
जाननेवाला कभी नहिं-जाननेवाला नहीं होता; नहिं-
जाननेवाला कभी जाननेवाला नहीं होता; सदा सर्वदा
भिन्न रहते हैं । जड़के साथ एकत्व मानकर तू दुःखी
हो रहा है । वह एकत्वकी मान्यता भी तेरे मूल
स्वरूपमें नहीं है ।शुभाशुभ भाव भी तेरा असली
स्वरूप नहीं है ।यह, ज्ञानी अनुभवी पुरुषोंका
निर्णय है । तू इस निर्णयकी दिशामें प्रयत्न कर ।
मति व्यवस्थित किये बिना चाहे जैसे तर्क ही उठाता
रहेगा तो पार नहीं आयगा ।।४०६।।
यहाँ (श्री प्रवचनसार प्रारम्भ करते हुए) कुन्द-
कुन्दाचार्यभगवानको पंच परमेष्ठीके प्रति कैसी भक्ति
उल्लसित हुई है ! पांचों परमेष्ठीभगवंतोंका स्मरण
करके भक्ति भावपूर्वक कैसा नमस्कार किया है ! तीनों
कालके तीर्थंकरभगवन्तोंकोसाथ ही साथ मनुष्य-
क्षेत्रमें वर्तते विद्यमान तीर्थंकरभगवन्तोंको अलग
स्मरण करके‘सबको एकसाथ तथा प्रत्येक-

Page 180 of 212
PDF/HTML Page 195 of 227
single page version

background image
१८०
बहिनश्रीके वचनामृत
प्रत्येकको मैं वंदन करता हूँ’ ऐसा कहकर अति,
भक्ति भीने चित्तसे आचार्यभगवान नम गये हैं । ऐसे
भक्ति के भाव मुनिकोसाधककोआये बिना नहीं
रहते । चित्तमें भगवानके प्रति भक्ति भाव उछले तब,
मुनि आदि साधकको भगवानका नाम आने पर भी
रोमरोम उल्लसित हो जाता है । ऐसे भक्ति आदिके
शुभ भाव आयें तब भी मुनिराजको ध्रुव ज्ञायकतत्त्व
ही मुख्य रहता है इसलिये शुद्धात्माश्रित उग्र
समाधिरूप परिणमन वर्तता ही रहता है और शुभ
भाव तो ऊपर-ऊपर ही तरते हैं तथा स्वभावसे
विपरीतरूप वेदनमें आते हैं ।।४०७।।
अहो ! सिद्धभगवानकी अनन्त शान्ति ! अहो !
उनका अपरिमित आनन्द ! साधकके अल्प निवृत्त
परिणाममें भी अपूर्व शीतलता लगती है तो जो सर्व
विभावपरिणामसे सर्वथा निवृत्त हुए हैं ऐसे
सिद्धभगवानको प्रगट हुई शान्तिका तो क्या कहना !
उनके तो मानों शान्तिका सागर उछल रहा हो ऐसी
अमाप शान्ति होती है; मानों आनन्दका समुद्र हिलोरें

Page 181 of 212
PDF/HTML Page 196 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१८१
ले रहा हो ऐसा अपार आनन्द होता है । तेरे
आत्मामें भी ऐसा सुख भरा है परन्तु विभ्रमकी चादर
आड़ी आ जानेसे तुझे वह दिखता नहीं है ।।४०८।।
जिस प्रकार वटवृक्षकी जटा पकड़कर लटकता
हुआ मनुष्य मधुबिन्दुकी तीव्र लालसामें पड़कर,
विद्याधरकी सहायताकी उपेक्षा करके विमानमें नहीं
बैठा, उसी प्रकार अज्ञानी जीव विषयोंके कल्पित
सुखकी तीव्र लालसामें पड़कर गुरुके उपदेशकी
उपेक्षा करके शुद्धात्मरुचि नहीं करता, अथवा ‘इतना
काम कर लूँ, इतना काम कर लूँ’ इस प्रकार
प्रवृत्तिके रसमें लीन रहकर शुद्धात्मप्रतीतिके उद्यमका
समय नहीं पाता, इतनेमें तो मृत्युका समय आ
पहुँचता है । फि र ‘मैंने कुछ किया नहीं, अरेरे !
मनुष्यभव व्यर्थ गया’ इस प्रकार वह पछताये तथापि
किस कामका ? मृत्युके समय उसे किसकी शरण
है ? वह रोगकी, वेदनाकी, मृत्युकी, एकत्वबुद्धिकी
और आर्तध्यानकी चपेटमें आकर देह छोड़ता है ।
मनुष्यभव हारकर चला जाता है ।

Page 182 of 212
PDF/HTML Page 197 of 227
single page version

background image
१८२
बहिनश्रीके वचनामृत
धर्मी जीव रोगकी, वेदनाकी या मृत्युकी चपेटमें
नहीं आता, क्योंकि उसने शुद्धात्माकी शरण प्राप्त की
है । विपत्तिके समय वह आत्मामेंसे शान्ति प्राप्त कर
लेता है । विकट प्रसंगमें वह निज शुद्धात्माकी शरण
विशेष लेता है । मरणादिके समय धर्मी जीव शाश्वत
ऐसे निजसुखसरोवरमें विशेष-विशेष डुबकी लगा
जाता हैजहाँ रोग नहीं है, वेदना नहीं है, मरण
नहीं है, शान्तिकी अखूट निधि है । वह शान्तिपूर्वक
देह छोड़ता है, उसका जीवन सफल है ।
तू मरणका समय आनेसे पहले चेत जा, सावधान
हो, सदा शरणभूतविपत्तिके समय विशेष शरणभूत
होनेवालेऐसे शुद्धात्मद्रव्यको अनुभवनेका उद्यम
कर ।।४०९।।
जिसने आत्माके मूल अस्तित्वको नहीं पकड़ा,
‘स्वयं शाश्वत तत्त्व है, अनंत सुखसे भरपूर है’ ऐसा
अनुभव करके शुद्ध परिणतिकी धारा प्रगट नहीं की,
उसने भले सांसारिक इन्द्रियसुखोंको नाशवंत और
भविष्यमें दुःखदाता जानकर छोड़ दिया हो और

Page 183 of 212
PDF/HTML Page 198 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१८३
बाह्य मुनिपना ग्रहण किया हो, भले ही वह दुर्धर
तप करता हो और उपसर्ग-परिषहमें अडिग रहता
हो, तथापि उसे वह सब निर्वाणका कारण नहीं
होता, स्वर्गका कारण होता है; क्योंकि उसे शुद्ध
परिणमन बिलकुल नहीं वर्तता, मात्र शुभ परिणाम
हीऔर वह भी उपादेयबुद्धिसेवर्तता है । वह
भले नौ पूर्व पढ़ गया हो तथापि उसने आत्माका
मूल द्रव्यसामान्यस्वरूप अनुभवपूर्वक नहीं जाना
होनेसे वह सब अज्ञान है ।
सच्चे भावमुनिको तो शुद्धात्मद्रव्याश्रित मुनियोग्य
उग्र शुद्धपरिणति चलती रहती है, कर्तापना तो
सम्यग्दर्शन होने पर ही छूट गया होता है, उग्र
ज्ञातृत्वधारा अटूट वर्तती रहती है, परम समाधि
परिणमित होती है । वे शीघ्र-शीघ्र निजात्मामें लीन
होकर आनन्दका वेदन करते रहते हैं; उनके प्रचुर
स्वसंवेदन होता है । वह दशा अद्भुत है, जगतसे
न्यारी है । पूर्ण वीतरागता न होनेसे उनके व्रत-तप-
शास्त्ररचना आदिके शुभ भाव आते हैं अवश्य,
परन्तु वे हेयबुद्धिसे आते हैं । ऐसी पवित्र मुनिदशा

Page 184 of 212
PDF/HTML Page 199 of 227
single page version

background image
१८४
बहिनश्रीके वचनामृत
मुक्ति का कारण है ।।४१०।।
अनन्त कालसे जीव भ्रान्तिके कारण परके कार्य
करनेका मिथ्या श्रम करता है, परन्तु परपदार्थके कार्य
वह बिलकुल नहीं कर सकता । प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र-
रूपसे परिणमित होता है । जीवके कर्ता-क्रिया-कर्म
जीवमें हैं, पुद्गलके पुद्गलमें हैं । वर्ण-गंध-रस-
स्पर्शादिरूपसे पुद्गल परिणमित होता है, जीव उन्हें
नहीं बदल सकता । चेतनके भावरूपसे चेतन परिणमित
होता है, जड़ पदार्थ उसमें कुछ नहीं कर सकते ।
तू ज्ञायकस्वभावी है । पौद्गलिक शरीर-वाणी-
मनसे तो तू भिन्न ही है, परन्तु शुभाशुभ भाव भी
तेरा स्वभाव नहीं है । अज्ञानके कारण तूने परमें
तथा विभावमें एकत्वबुद्धि की है, वह एकत्वबुद्धि
छोड़कर तू ज्ञाता हो जा । शुद्ध आत्मद्रव्यकी यथार्थ
प्रतीति करकेशुद्ध द्रव्यद्रष्टि प्रगट करके, तू
ज्ञायकपरिणति प्रगट कर कि जिससे मुक्ति का प्रयाण
प्रारम्भ होगा ।।४११।।

Page 185 of 212
PDF/HTML Page 200 of 227
single page version

background image
बहिनश्रीके वचनामृत
१८५
मरण तो आना ही है जब सब कुछ छूट
जायगा । बाहरकी एक वस्तु छोड़नेमें तुझे दुःख होता
है, तो बाहरके समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव एकसाथ
छूटने पर तुझे कितना दुःख होगा ? मरणकी वेदना
भी कितनी होगी ? ‘कोई मुझे बचाओ’ ऐसा तेरा
हृदय पुकारता होगा । परन्तु क्या कोई तुझे बचा
सकेगा ? तू भले ही धनके ढेर लगा दे, वैद्य-डाक्टर
भले सर्व प्रयत्न कर छूटें, आसपास खड़े हुए अनेक
सगे-सम्बन्धियोंकी ओर तू भले ही दीनतासे टुकुर-
टुकुर देखता रहे, तथापि क्या कोई तुझे शरणभूत हो
ऐसा है ? यदि तूने शाश्वत स्वयंरक्षित ज्ञानानन्दस्वरूप
आत्माकी प्रतीति-अनुभूति करके आत्म-आराधना की
होगी, आत्मामेंसे शान्ति प्रगट की होगी, तो वह एक
ही तुझे शरण देगी । इसलिये अभीसे वह प्रयत्न
कर । ‘सिर पर मौत मंडरा रहा है’ ऐसा बारम्बार
स्मरणमें लाकर भी तू पुरुषार्थ चला कि जिससे ‘अब
हम अमर भये, न मरेंगे’ ऐसे भावमें तू समाधिपूर्वक
देहत्याग कर सके । जीवनमें एक शुद्ध आत्मा ही
उपादेय है ।।४१२।।