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जो निज स्वभावमें लीन सहज
रहकर देखता है; वही आलोचनाका स्वरूप है ऐसा, हे शिष्य ! तू परम जिननाथके उपदेश
द्वारा जान
परिणामं समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमीभूत्वा तिष्ठति; तदेवालोचनास्वरूपमिति हे शिष्य
त्वं जानीहि परमजिननाथस्योपदेशात
यो मुक्ति श्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति
तं वंदे सर्ववंद्यं सकलगुणनिधिं तद्गुणापेक्षयाहम्
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तपुंजः पुराणः
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शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियोंको परम दूर है, ऐसा यह
न्नारातीये परमपुरुषे को विधिः को निषेधः
विमुक्त सकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम्
सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम्
बुद्ध्वा भव्यः परमगुरुतः शाश्वतं शं प्रयाति
भेदाभावे किमपि सहजं सिद्धिभूसौख्यशुद्धम्
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अभावकी दृष्टिसे जो सिद्धिसे उत्पन्न होनेवाले सौख्य द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी
(अद्भुत) सहज तत्त्वको मैं भी सदा अति
नित्य संभाता हूँ (
निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्त म्
निर्वाणयोषिदतनूद्भवसंमदाय
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि
निर्मुक्ति मार्गमपि नौम्यविभेदमुक्त म्
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[स्वकीयपरिणामः ] निज परिणाम [आलुंछनम् इति समुद्दिष्टम् ] उसे आलुञ्छन कहा है
ही है (कारण कि मिथ्यादृष्टिको उस परमभावके विद्यमानपनेकी श्रद्धा नहीं है )
(परन्तु शुद्धरूपसे ही है )
(अर्थात् जिसप्रकार मेरुके नीचे स्थित सुवर्णराशिका सुवर्णपना सुवर्णराशिमें विद्यमान है किन्तु
वह काममें
दयबलेन कु
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जिससे, इस परम पंचमभाव द्वारा अति
कर्मरूपी विषम
(अर्थात् सदा एकरूप है ), जो निज रसके फै लावसे भरपूर होनेके कारण पवित्र है और
जो पुराण (सनातन) है, वह शुद्ध
न व्यवहारयोग्यम्
कर्मारातिस्फु टितसहजावस्थया संस्थितो यः
एकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः
मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा
मोहाभावात्स्फु टितसहजावस्थमेषा प्रयाति
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है )
जिसने इन्द्रियसमूहके कोलाहलको नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञानज्योति द्वारा
अंधकारदशाका नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है
रन्तःशुद्धः शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंसः
नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः
राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहःकलंकः
ज्ञानज्योतिःप्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति
र्दुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने
यायादयं मुनिपतिः समताप्रसादात
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पर चले हैं उसी एक मार्ग पर चलता हूँ ]
तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात
मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि
शुभमशुभसुकर्म प्रस्फु टं तद्विदित्वा
तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि
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जन्ममरण रहित है और पाँच प्रकारकी मुक्ति देनेवाला है उसे (
प्राप्त करके जो शुद्ध दृष्टिवाला होता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात्
मुक्तिसुन्दरीका पति होता है )
यह (शुद्ध आत्मा) जयवन्त है
न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम्
मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः
परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः
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भव्योंको [लोकालोकप्रदर्शिभिः ] लोकालोकके द्रष्टाओंने [परिकथितः ] कहा है
वृद्धिके विलाससे, (५) बुद्धि, तप, विक्रिया, औषध, रस, बल और अक्षीण
शरीरलावण्यरसके विस्तारसे होनेवाला जो आत्म
प्रधानब्रह्मचर्यव्रतोपार्जितनिरुपमबलेन च, दानादिशुभकर्मोपार्जितसंपद्वृद्धिविलासेन, अथवा
बुद्धितपोवैकुर्वणौषधरसबलाक्षीणर्द्धिभिः सप्तभिर्वा, कमनीयकामिनीलोचनानन्देन वपुर्लावण्य-
रसविसरेण वा आत्माहंकारो मानः
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परमात्मतत्त्वके परिग्रहसे अन्य परमाणुमात्र द्रव्यका स्वीकार वह लोभ है
परभावको छोड़ता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्तिसुन्दरीका
पति होता है )
परिहृतपरभावो भव्यलोकः समन्तात
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
निर्मुक्ति मार्गफलदा यमिनामजस्रम्
स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः
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सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है
(
बुद्ध्वा बुद्ध्वा निर्विकल्पं मुमुक्षुः
सिद्धिं यायात
निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम्
तद्वन्दे साधुवन्द्यं जननजलनिधौ लंघने यानपात्रम्
विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्विन एव हि
पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपि यान्ति सरागताम्
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कला सहित विकसित निज गुणोंसे प्रफु ल्लित (खिला हुआ) है, जिसकी सहज अवस्था
स्फु टित (
करते हैं
सततसुलभं भास्वत्सम्यग्
स्फु टितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम्
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम्
किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः
प्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः
प्रहतमोहतमस्समितिर्जिनः
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मोहतिमिरके समूहका नाश किया है, वह जिन जयवन्त है
है तथा जो परमात्मपदमें स्थित है, वह जयवन्त है
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
प्रहतदारुणरागकदम्बकः
जयति यः परमात्मपदस्थितः
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वह [प्रायश्चित्तम् ] प्रायश्चित्त [भवति ] है [च एव ] और वह [अनवरतं ] निरंतर
[कर्तव्यः ] कर्तव्य है
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पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रहके धारी, सहजवैराग्यरूपी महलके शिखरके
शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस
हैं
परमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण
सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति
मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः
पापाः पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत
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[प्रायश्चित्तं भणितम् ] प्रायश्चित्त कहा है
जो शुद्ध
सहजज्ञानादिसहजगुणचिंता प्रायश्चित्तं भवतीति
कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च
सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे
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[लोभं संतोषेण ] लोभको संतोषसे
वर्तता है, वह मेरे पुण्यसे दूर हुआ;’
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जला दिया
लोभकषायं चेति
क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः
यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत
मानो मनागपि हतिं महतीं करोति
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परन्तु वे (मानके कारण मुक्ति प्राप्त न करके) वास्तवमें दीर्घ काल तक प्रसिद्ध (मानकृत)
क्लेशको प्राप्त हुए
रहना योग्य है
(अपने सुन्दर बालोंको न टूटने देनेके लोभमें) वहाँ अविचलरूपसे खड़ी रह गई, और
अरेरे ! उस गायको वनचर द्वारा प्राणसे भी विमुक्त कर दिया गया ! (अर्थात् उस गायने
बालोंके लोभमें प्राण भी गँवा दिये !) जिन्हें तृष्णा परिणमित हुई है उन्हें प्रायः ऐसी ही
विपत्तियाँ आती हैं
किल जडतया लोलो वालव्रजेऽविचलं स्थितः
परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः