Niyamsar (Hindi). Gatha: 110-115 ; Adhikar-8 : Shuddh Nishchay Prayashchitt adhikAr.

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निजबोधके स्थानभूत कारणपरमात्माको निरवशेषरूपसे अन्तर्मुख निज स्वभावनिरत सहज
अवलोकन द्वारा निरंतर देखता है (अर्थात् जो जीव कारणपरमात्माको सर्वथा अन्तर्मुख ऐसा
जो निज स्वभावमें लीन सहज
- अवलोकन उसके द्वारा निरंतर देखता हैअनुभवता है );
क्या करके देखता है ? पहले निज परिणामको समतावलम्बी करके, परमसंयमीभूतरूपसे
रहकर देखता है; वही आलोचनाका स्वरूप है ऐसा, हे शिष्य ! तू परम जिननाथके उपदेश
द्वारा जान
ऐसा यह, आलोचनाके भेदोंमें प्रथम भेद हुआ
[अब इस १०९वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज छह श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] इसप्रकार जो आत्मा आत्माको आत्मा द्वारा आत्मामें अविचल
निवासवाला देखता है, वह अनंग - सुखमय (अतीन्द्रिय आनन्दमय) ऐसे मुक्तिलक्ष्मीके
विलासोंको अल्प कालमें प्राप्त करता है वह आत्मा सुरेशोंसे, संयमधरोंकी पंक्तियोंसे,
खेचरोंसे (विद्याधरोंसे) तथा भूचरोंसे (भूमिगोचरियोंसे) वंद्य है मैं उस सर्ववंद्य
सकलगुणनिधिको (सर्वसे वंद्य ऐसे समस्त गुणोंके भण्डारको) उसके गुणोंकी अपेक्षासे
(अभिलाषासे) वंदन करता हूँ १५४
[श्लोकार्थ : ] जिसने ज्ञानज्योति द्वारा पापतिमिरके पुंजका नाश किया है और
शेषेणान्तर्मुखस्वस्वभावनिरतसहजावलोकनेन निरन्तरं पश्यति; किं कृत्वा ? पूर्वं निज-
परिणामं समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमीभूत्वा तिष्ठति; तदेवालोचनास्वरूपमिति हे शिष्य
त्वं जानीहि परमजिननाथस्योपदेशात
् इत्यालोचनाविकल्पेषु प्रथमविकल्पोऽयमिति
(स्रग्धरा)
आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलनिलयं चात्मना पश्यतीत्थं
यो मुक्ति श्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति
सोऽयं वंद्यः सुरेशैर्यमधरततिभिः खेचरैर्भूचरैर्वा
तं वंदे सर्ववंद्यं सकलगुणनिधिं तद्गुणापेक्षयाहम्
।।१५४।।
(मंदाक्रांता)
आत्मा स्पष्टः परमयमिनां चित्तपंकेजमध्ये
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तपुंजः पुराणः

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जो पुराण (सनातन) है ऐसा आत्मा परमसंयमियोंके चित्तकमलमें स्पष्ट है वह आत्मा
संसारी जीवोंके वचन - मनोमार्गसे अतिक्रांत (वचन तथा मनके मार्गसे अगोचर) है इस
निकट परमपुरुषमें विधि क्या और निषेध क्या ? १५५
इसप्रकार इस पद्य द्वारा परम जिनयोगीश्वरने वास्तवमें व्यवहार - आलोचनाके
प्रपंचका उपहास किया है
[श्लोकार्थ : ] जो सकल इन्द्रियोंके समूहसे उत्पन्न होनेवाले कोलाहलसे
विमुक्त है, जो नय और अनयके समूहसे दूर होने पर भी योगियोंको गोचर है, जो सदा
शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियोंको परम दूर है, ऐसा यह
अनघ - चैतन्यमय
सहजतत्त्व अत्यन्त जयवन्त है १५६
[श्लोकार्थ : ] निज सुखरूपी सुधाके सागरमें डूबते हुए इस शुद्धात्माको
सोऽतिक्रान्तो भवति भविनां वाङ्मनोमार्गमस्मि-
न्नारातीये परमपुरुषे को विधिः को निषेधः
।।१५५।।
एवमनेन पद्येन व्यवहारालोचनाप्रपंचमुपहसति किल परमजिनयोगीश्वरः
(पृथ्वी)
जयत्यनघचिन्मयं सहजतत्त्वमुच्चैरिदं
विमुक्त सकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम्
नयानयनिकायदूरमपि योगिनां गोचरं
सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम्
।।१५६।।
(मंदाक्रांता)
शुद्धात्मानं निजसुखसुधावार्धिमज्जन्तमेनं
बुद्ध्वा भव्यः परमगुरुतः शाश्वतं शं प्रयाति
तस्मादुच्चैरहमपि सदा भावयाम्यत्यपूर्वं
भेदाभावे किमपि सहजं सिद्धिभूसौख्यशुद्धम्
।।१५७।।
उपहास = हँसी; मजाक; खिल्ली; तिरस्कार
अनघ = निर्दोष; मल रहित; शुद्ध

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जानकर भव्य जीव परम गुरु द्वारा शाश्वत सुखको प्राप्त करते हैं; इसलिये, भेदके
अभावकी दृष्टिसे जो सिद्धिसे उत्पन्न होनेवाले सौख्य द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी
(अद्भुत) सहज तत्त्वको मैं भी सदा अति
- अपूर्व रीतिसे अत्यन्त भाता हूँ १५७
[श्लोकार्थ : ] सर्व संगसे निर्मुक्त, निर्मोहरूप, अनघ और परभावसे मुक्त
ऐसे इस परमात्मतत्त्वको मैं निर्वाणरूपी स्त्रीसे उत्पन्न होनेवाले अनंग सुखके लिये
नित्य संभाता हूँ (
सम्यक्रूपसे भाता हूँ) और प्रणाम करता हूँ १५८
[श्लोकार्थ : ] निज भावसे भिन्न ऐसे सकल विभावको छोड़कर एक
निर्मल चिन्मात्रको मैं भाता हूँ संसारसागरको तर जानेके लिये, अभेद कहे हुए
(जिसे जिनेन्द्रोंने भेद रहित कहा है ऐसे) मुक्तिके मार्गको भी मैं नित्य नमन करता
हूँ १५९
(वसंततिलका)
निर्मुक्त संगनिकरं परमात्मतत्त्वं
निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्त म्
संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं
निर्वाणयोषिदतनूद्भवसंमदाय
।।१५८।।
(वसंततिलका)
त्यक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि
संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं
निर्मुक्ति मार्गमपि नौम्यविभेदमुक्त म्
।।१५९।।
कम्ममहीरुहमूलच्छेदसमत्थो सकीयपरिणामो
साहीणो समभावो आलुंछणमिदि समुद्दिट्ठं ।।११०।।
जो कर्म - तरु - जड़ नाशके सामर्थ्यरूप स्वभाव है
स्वाधीन निज समभाव आलुंछन वही परिणाम है ।।११०।।

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गाथा : ११० अन्वयार्थ :[कर्ममहीरुहमूलछेदसमर्थः ] कर्मरूपी वृक्षका
मूल छेदनेमें समर्थ ऐसा जो [समभावः ] समभावरूप [स्वाधीनः ] स्वाधीन
[स्वकीयपरिणामः ] निज परिणाम [आलुंछनम् इति समुद्दिष्टम् ] उसे आलुञ्छन कहा है
टीका :यह, परमभावके स्वरूपका कथन है
भव्यको पारिणामिकभावरूप स्वभाव होनेके कारण परम स्वभाव है वह पंचम भाव
औदयिकादि चार विभावस्वभावोंको अगोचर है इसीलिये वह पंचम भाव उदय, उदीरणा,
क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारोंसे रहित है इस कारणसे इस एकको परमपना है, शेष
चार विभावोंको अपरमपना है समस्त कर्मरूपी विषवृक्षके मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ ऐसा
यह परमभाव, त्रिकाल - निरावरण निज कारणपरमात्माके स्वरूपकी श्रद्धासे प्रतिपक्ष तीव्र
मिथ्यात्वकर्मके उदयके कारण कुदृष्टिको, सदा निश्चयसे विद्यमान होने पर भी, अविद्यमान
ही है (कारण कि मिथ्यादृष्टिको उस परमभावके विद्यमानपनेकी श्रद्धा नहीं है )
नित्यनिगोदके
जीवोंको भी शुद्धनिश्चयनयसे वह परमभाव ‘अभव्यत्वपारिणामिक’ ऐसे नाम सहित नहीं है
(परन्तु शुद्धरूपसे ही है )
जिसप्रकार मेरुके अधोभागमें स्थित सुवर्णराशिको भी सुवर्णपना
है, उसीप्रकार अभव्योंको भी परमस्वभावपना है; वह वस्तुनिष्ठ है, व्यवहारयोग्य नहीं है
(अर्थात् जिसप्रकार मेरुके नीचे स्थित सुवर्णराशिका सुवर्णपना सुवर्णराशिमें विद्यमान है किन्तु
वह काममें
उपयोगमें नहीं आता, उसीप्रकार अभव्योंका परमस्वभावपना आत्मवस्तुमें
विद्यमान है किन्तु वह काममें नहीं आता क्योंकि अभव्य जीव परमस्वभावका आश्रय करनेके
कर्ममहीरुहमूलछेदसमर्थः स्वकीयपरिणामः
स्वाधीनः समभावः आलुंछनमिति समुद्दिष्टम् ।।११०।।
परमभावस्वरूपाख्यानमेतत
भव्यस्य पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभावः औदयिकादिचतुर्णां विभाव-
स्वभावानामगोचरः स पंचमभावः अत एवोदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविधविकारविवर्जितः
अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम्, इतरेषां चतुर्णां विभावानामपरमत्वम् निखिलकर्मविषवृक्ष-
मूलनिर्मूलनसमर्थः त्रिकालनिरावरणनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानप्रतिपक्षतीव्रमिथ्यात्वकर्मो-
दयबलेन कु
द्रष्टेरयं परमभावः सदा निश्चयतो विद्यमानोऽप्यविद्यमान एव नित्यनिगोदक्षेत्र-
ज्ञानामपि शुद्धनिश्चयनयेन स परमभावः अभव्यत्वपारिणामिक इत्यनेनाभिधानेन न संभवति

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लिये अयोग्य हैं ) सुदृष्टियोंकोअति आसन्नभव्य जीवोंकोयह परमभाव सदा
निरंजनपनेके कारण (अर्थात् सदा निरंजनरूपसे प्रतिभासित होनेके कारण) सफल हुआ है;
जिससे, इस परम पंचमभाव द्वारा अति
- आसन्नभव्य जीवको निश्चय - परम - आलोचनाके
भेदरूपसे उत्पन्न होनेवाला ‘आलुंछन’ नाम सिद्ध होता है, कारण कि वह परमभाव समस्त
कर्मरूपी विषम
- विषवृक्षके विशाल मूलको उखाड़ देनेमें समर्थ है
[अब इस ११०वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज दो श्लोक
कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] जो कर्मकी दूरीके कारण प्रगट सहजावस्थापूर्वक विद्यमान है,
जो आत्मनिष्ठापरायण (आत्मस्थित) समस्त मुनियोंको मुक्तिका मूल है, जो एकाकार है
(अर्थात् सदा एकरूप है ), जो निज रसके फै लावसे भरपूर होनेके कारण पवित्र है और
जो पुराण (सनातन) है, वह शुद्ध
- शुद्ध एक पंचम भाव सदा जयवन्त है १६०
[श्लोकार्थ : ] अनादि संसारसे समस्त जनताको (जनसमूहको) तीव्र
मोहके उदयके कारण ज्ञानज्योति सदा मत्त है, कामके वश है और निज आत्मकार्यमें
यथा मेरोरधोभागस्थितसुवर्णराशेरपि सुवर्णत्वं, अभव्यानामपि तथा परमस्वभावत्वं; वस्तुनिष्ठं,
न व्यवहारयोग्यम्
सुद्रशामत्यासन्नभव्यजीवानां सफलीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनत्वात्;
यतः सकलकर्मविषमविषद्रुमपृथुमूलनिर्मूलनसमर्थत्वात् निश्चयपरमालोचनाविकल्पसंभवा-
लुंछनाभिधानम् अनेन परमपंचमभावेन अत्यासन्नभव्यजीवस्य सिध्यतीति
(मंदाक्रांता)
एको भावः स जयति सदा पंचमः शुद्धशुद्धः
कर्मारातिस्फु टितसहजावस्थया संस्थितो यः
मूलं मुक्तेर्निखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणां
एकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः
।।१६०।।
(मंदाक्रांता)
आसंसारादखिलजनतातीव्रमोहोदयात्सा
मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा
ज्ञानज्योतिर्धवलितककुभ्मंडलं शुद्धभावं
मोहाभावात्स्फु टितसहजावस्थमेषा प्रयाति
।।१६१।।

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मूढ़ है मोहके अभावसे यह ज्ञानज्योति शुद्धभावको प्राप्त करती हैकि जिस
शुद्धभावने दिशामण्डलको धवलित (उज्ज्वल) किया है तथा सहज अवस्था प्रगट की
है १६१
गाथा : १११ अन्वयार्थ :[मध्यस्थभावनायाम् ] जो मध्यस्थभावनामें
[कर्मणः भिन्नम् ] कर्मसे भिन्न [आत्मानं ] आत्माको[विमलगुणनिलयं ] कि जो विमल
गुणोंका निवास है उसे[भावयति ] भाता है, [अविकृतिकरणम् इति विज्ञेयम् ] उस
जीवको अविकृतिकरण जानना
टीका :यहाँ शुद्धोपयोगी जीवकी परिणतिविशेषका (मुख्य परिणतिका)
कथन है
पापरूपी अटवीको जलानेके लिये अग्नि समान ऐसा जो जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म
और नोकर्मसे भिन्न आत्माकोकि जो सहज गुणोंका निधान है उसेमध्यस्थभावनामें
भाता है, उसे अविकृतिकरण-नामक परम - आलोचनाका स्वरूप वर्तता ही है
[अब इस १११वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज नौ श्लोक
कहते हैं : ]
कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं
मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विण्णेयं ।।१११।।
कर्मणः आत्मानं भिन्नं भावयति विमलगुणनिलयम्
मध्यस्थभावनायामविकृतिकरणमिति विज्ञेयम् ।।१११।।
इह हि शुद्धोपयोगिनो जीवस्य परिणतिविशेषः प्रोक्त :
यः पापाटवीपावको द्रव्यभावनोकर्मभ्यः सकाशाद् भिन्नमात्मानं सहजगुण-[निलयं
मध्यस्थभावनायां भावयति तस्याविकृतिकरण-] अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति
निर्मलगुणाकर कर्म-विरहित अनुभवन जो आत्मका
माध्यस्थ भावोंमें करे, अविकृतिकरण उसे कहा ।।१११।।

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[श्लोकार्थ : ] आत्मा निरंतर द्रव्यकर्म और नोकर्मके समूहसे भिन्न है,
अन्तरंगमें शुद्ध है और शम - दमगुणरूपी कमलोंका राजहंस है (अर्थात् जिसप्रकार राजहंस
कमलोंमें केलि करता है उसीप्रकार आत्मा शान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी गुणोंमें रमता
है )
सदा आनन्दादि अनुपम गुणवाला और चैतन्यचमत्कारकी मूर्ति ऐसा वह आत्मा मोहके
अभावके कारण समस्त परको (समस्त परद्रव्यभावोंको) ग्रहण नहीं ही करता १६२
[श्लोकार्थ : ] जो अक्षय अन्तरंग गुणमणियोंका समूह है, जिसने सदा विशद -
-विशद (अत्यन्त निर्मल) शुद्धभावरूपी अमृतके समुद्रमें पापकलंकको धो डाला है तथा
जिसने इन्द्रियसमूहके कोलाहलको नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञानज्योति द्वारा
अंधकारदशाका नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है
१६३
[श्लोकार्थ : ] संसारके घोर, सहज इत्यादि रौद्र दुःखादिकसे प्रतिदिन परितप्त
(मंदाक्रांता)
आत्मा भिन्नो भवति सततं द्रव्यनोकर्मराशे-
रन्तःशुद्धः शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंसः
मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं
नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः
।।१६२।।
(मंदाक्रांता)
अक्षय्यान्तर्गुणमणिगणः शुद्धभावामृताम्भो-
राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहःकलंकः
शुद्धात्मा यः प्रहतकरणग्रामकोलाहलात्मा
ज्ञानज्योतिःप्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति
।।१६३।।
(वसंततिलका)
संसारघोरसहजादिभिरेव रौद्रै-
र्दुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने
लोके शमामृतमयीमिह तां हिमानीं
यायादयं मुनिपतिः समताप्रसादात
।।१६४।।
सहज = साथमें उत्पन्न अर्थात् स्वाभाविक [निरंतर वर्तता हुआ आकुलतारूपी दुःख तो संसारमें स्वाभाविक
ही है, अर्थात् संसार स्वभावसे ही दुःखमय है तदुपरान्त तीव्र असाता आदिका आश्रय करनेवाले घोर
दुःखोंसे भी संसार भरा है ।]

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होनेवाले इस लोकमें यह मुनिवर समताके प्रमादसे शमामृतमय जो हिम - राशि (बफ र्का ढेर)
उसे प्राप्त करते हैं १६४
[श्लोकार्थ : ] मुक्त जीव विभावसमूहको कदापि प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसने
उसके हेतुभूत सुकृत और दुष्कृतका नाश किया है इसलिये अब मैं सुकृत और
दुष्कृतरूपी कर्मजालको छोड़कर एक मुमुक्षुमार्ग पर जाता हूँ [अर्थात् मुमुक्षु जिस मार्ग
पर चले हैं उसी एक मार्ग पर चलता हूँ ]
१६५
[श्लोकार्थ : ] पुद्गलस्कन्धों द्वारा जो अस्थिर है (अर्थात् पुद्गलस्कन्धोंके
आने - जानेसे जो एक-सी नहीं रहती) ऐसी इस भवमूर्तिको (भवकी मूर्तिरूप कायाको)
छोड़कर मैं सदाशुद्ध ऐसा जो ज्ञानशरीरी आत्मा उसका आश्रय करता हूँ १६६
[श्लोकार्थ : ] शुभ और अशुभसे रहित शुद्धचैतन्यकी भावना मेरे अनादि
संसाररोगकी उत्तम औषधि है १६७
[श्लोकार्थ : ] पाँच प्रकारके (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावके
(वसंततिलका)
मुक्त : कदापि न हि याति विभावकायं
तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात
तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं
मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि
।।१६५।।
(अनुष्टुभ्)
प्रपद्येऽहं सदाशुद्धमात्मानं बोधविग्रहम्
भवमूर्तिमिमां त्यक्त्वा पुद्गलस्कन्धबन्धुराम् ।।१६६।।
(अनुष्टुभ्)
अनादिममसंसाररोगस्यागदमुत्तमम्
शुभाशुभविनिर्मुक्त शुद्धचैतन्यभावना ।।१६७।।
(मालिनी)
अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं
शुभमशुभसुकर्म प्रस्फु टं तद्विदित्वा
भवमरणविमुक्तं पंचमुक्ति प्रदं यं
तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि
।।१६८।।

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परावर्तनरूप) संसारका मूल विविध भेदोंवाला शुभाशुभ कर्म है ऐसा स्पष्ट जानकर, जो
जन्ममरण रहित है और पाँच प्रकारकी मुक्ति देनेवाला है उसे (
शुद्धात्माको) मैं नमन
करता हूँ और प्रतिदिन भाता हूँ १६८
[श्लोकार्थ : ] इस प्रकार आदि - अन्त रहित ऐसी यह आत्मज्योति सुललित
(सुमधुर) वाणीका अथवा सत्य वाणीका भी विषय नहीं है; तथापि गुरुके वचनों द्वारा उसे
प्राप्त करके जो शुद्ध दृष्टिवाला होता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात्
मुक्तिसुन्दरीका पति होता है )
१६९
[श्लोकार्थ : ] जिसने सहज तेजसे रागरूपी अन्धकारका नाश किया है, जो
मुनिवरोंके मनमें वास करता है, जो शुद्ध - शुद्ध है, जो विषयसुखमें रत जीवोंको सर्वदा दुर्लभ
है, जो परम सुखका समुद्र है, जो शुद्ध ज्ञान है तथा जिसने निद्राका नाश किया है, ऐसा
यह (शुद्ध आत्मा) जयवन्त है
१७०
(मालिनी)
अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं
न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम्
तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धद्रष्टिः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ।।१६९।।
(मालिनी)
जयति सहजतेजःप्रास्तरागान्धकारो
मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः
विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं
परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः
।।१७०।।
मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति
परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं ।।११२।।
अर्हंत लोकालोक दृष्टाका कथन है भव्यको
‘है भावशुद्धि मान, माया, लोभ, मद बिन भाव जो’ ।।११२।।

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गाथा : ११२ अन्वयार्थ :[मदमानमायालोभविवर्जितभावः तु ] मद (मदन),
मान, माया और लोभ रहित भाव वह [भावशुद्धिः ] भावशुद्धि है [इति ] ऐसा [भव्यानाम् ]
भव्योंको [लोकालोकप्रदर्शिभिः ] लोकालोकके द्रष्टाओंने [परिकथितः ] कहा है
टीका :यह, भावशुद्धिनामक परम - आलोचनाके स्वरूपके प्रतिपादन द्वारा शुद्ध-
निश्चय - आलोचना अधिकारके उपसंहारका कथन है
तीव्र चारित्रमोहके उदयके कारण पुरुषवेद नामक नोकषायका विलास वह मद है
यहाँ ‘मद’ शब्दका अर्थ ‘मदन’ अर्थात् कामपरिणाम है (१) चतुर वचनरचनावाले
वैदर्भकवित्वके कारण, आदेयनामकर्मका उदय होने पर समस्त जनों द्वारा पूजनीयतासे,
(२) माता - पिता सम्बन्धी कुल - जातिकी विशुद्धिसे, (३) प्रधान ब्रह्मचर्यव्रत द्वारा उपार्जित
लक्षकोटि सुभट समान निरुपम बलसे, (४) दानादि शुभ कर्म द्वारा उपार्जित सम्पत्तिकी
वृद्धिके विलाससे, (५) बुद्धि, तप, विक्रिया, औषध, रस, बल और अक्षीण
इन सात
ऋद्धियोंसे, अथवा (६) सुन्दर कामिनियोंके लोचनको आनन्द प्राप्त करानेवाले
शरीरलावण्यरसके विस्तारसे होनेवाला जो आत्म
- अहङ्कार (आत्माका अहंकारभाव) वह
मान है गुप्त पापसे माया होती है योग्य स्थान पर धनव्ययका अभाव वह लोभ है;
मदमानमायालोभविवर्जितभावस्तु भावशुद्धिरिति
परिकथितो भव्यानां लोकालोकप्रदर्शिभिः ।।११२।।
भावशुद्धयभिधानपरमालोचनास्वरूपप्रतिपादनद्वारेण शुद्धनिश्चयालोचनाधिकारोप-
संहारोपन्यासोऽयम्
तीव्रचारित्रमोहोदयबलेन पुंवेदाभिधाननोकषायविलासो मदः अत्र मदशब्देन मदनः
कामपरिणाम इत्यर्थः चतुरसंदर्भगर्भीकृतवैदर्भकवित्वेन आदेयनामकर्मोदये सति
सकलजनपूज्यतया, मातृपितृसम्बन्धकुलजातिविशुद्धया वा, शतसहस्रकोटिभटाभिधान-
प्रधानब्रह्मचर्यव्रतोपार्जितनिरुपमबलेन च, दानादिशुभकर्मोपार्जितसंपद्वृद्धिविलासेन, अथवा
बुद्धितपोवैकुर्वणौषधरसबलाक्षीणर्द्धिभिः सप्तभिर्वा, कमनीयकामिनीलोचनानन्देन वपुर्लावण्य-
रसविसरेण वा आत्माहंकारो मानः
गुप्तपापतो माया युक्त स्थले धनव्ययाभावो लोभः;
वैदर्भकवि = एक प्रकारकी साहित्यप्रसिद्ध सुन्दर काव्यरचनामें कुशल कवि

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निश्चयसे समस्त परिग्रहका परित्याग जिसका लक्षण (स्वरूप) है ऐसे निरंजन निज
परमात्मतत्त्वके परिग्रहसे अन्य परमाणुमात्र द्रव्यका स्वीकार वह लोभ है
इन चारों
भावोंसे परिमुक्त (रहित) शुद्धभाव वही भावशुद्धि है ऐसा भव्य जीवोंको लोकालोकदर्शी,
परमवीतराग सुखामृतके पानसे परितृप्त अर्हंतभगवन्तोंने कहा है
[अब इस परम - आलोचना अधिकारकी अन्तिम गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए
टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव नौ श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] जो भव्य लोक (भव्यजनसमूह) जिनपतिके मार्गमें कहे हुए
समस्त आलोचनाके भेदजालको देखकर तथा निज स्वरूपको जानकर सर्व ओरसे
परभावको छोड़ता है, वह परमश्रीरूपी कामिनीका वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्तिसुन्दरीका
पति होता है )
१७१
[श्लोकार्थ : ] संयमियोंको सदा मोक्षमार्गका फल देनेवाली तथा शुद्ध
आत्मतत्त्वमें नियत आचरणके अनुरूप ऐसी जो निरंतर शुद्धनयात्मक आलोचना वह मुझे
संयमीको वास्तवमें कामधेनुरूप हो १७२
निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वपरिग्रहात् अन्यत् परमाणुमात्र-
द्रव्यस्वीकारो लोभः एभिश्चतुर्भिर्वा भावैः परिमुक्त : शुद्धभाव एव भावशुद्धिरिति भव्य-
प्राणिनां लोकालोकप्रदर्शिभिः परमवीतरागसुखामृतपानपरितृप्तैर्भगवद्भिरर्हद्भिरभिहित इति
(मालिनी)
अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं
परिहृतपरभावो भव्यलोकः समन्तात
तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपं च बुद्ध्वा
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः
।।१७१।।
(वसंततिलका)
आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या
निर्मुक्ति मार्गफलदा यमिनामजस्रम्
शुद्धात्मतत्त्वनियताचरणानुरूपा
स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः
।।१७२।।
नियत = निश्चित; दृढ; लीन; परायण [आचरण शुद्ध आत्मतत्त्वके आश्रित होता है ]

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[श्लोकार्थ : ] मुमुक्षु जीव तीन लोकको जाननेवाले निर्विकल्प शुद्ध तत्त्वको
भलीभाँति जानकर उसकी सिद्धिके हेतु शुद्ध शीलका (चारित्रका) आचरण करके,
सिद्धिरूपी स्त्रीका स्वामी होता है
सिद्धिको प्राप्त करता है १७३
[श्लोकार्थ : ] तत्त्वमें मग्न ऐसे जिनमुनिके हृदयकमलकी केसरमें जो आनन्द
सहित विराजमान है, जो बाधा रहित है, जो विशुद्ध है, जो कामदेवके बाणोंकी गहन
(
दुर्भेद्य) सेनाको जला देनेके लिये दावानल समान है और जिसने शुद्धज्ञानरूप दीपक
द्वारा मुनियोंके मनोगृहके घोर अंधकारका नाश किया है, उसेसाधुओं द्वारा वंद्य तथा
जन्मार्णवको लाँघ जानेमें नौकारूप उस शुद्ध तत्त्वकोमैं वंदन करता हूँ १७४
[श्लोकार्थ : ] हम पूछते हैं किजो समग्र बुद्धिमान होने पर भी दूसरेको
‘यह नवीन पाप कर’ ऐसा उपदेश देते हैं, वे क्या वास्तवमें तपस्वी हैं ? अहो ! खेद है
(शालिनी)
शुद्धं तत्त्वं बुद्धलोकत्रयं यद्
बुद्ध्वा बुद्ध्वा निर्विकल्पं मुमुक्षुः
तत्सिद्धयर्थं शुद्धशीलं चरित्वा
सिद्धिं यायात
् सिद्धिसीमन्तिनीशः ।।१७३।।
(स्रग्धरा)
सानन्दं तत्त्वमज्जज्जिनमुनिहृदयाम्भोजकिंजल्कमध्ये
निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम्
शुद्धज्ञानप्रदीपप्रहतयमिमनोगेहघोरान्धकारं
तद्वन्दे साधुवन्द्यं जननजलनिधौ लंघने यानपात्रम्
।।१७४।।
(हरिणी)
अभिनवमिदं पापं यायाः समग्रधियोऽपि ये
विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्विन एव हि
हृदि विलसितं शुद्धं ज्ञानं च पिंडमनुत्तमं
पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपि यान्ति सरागताम्
।।१७५।।

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कि वे हृदयमें विलसित शुद्धज्ञानरूप और सर्वोत्तम पिंडरूप इस पदको जानकर पुनः भी
सरागताको प्राप्त होते हैं ! १७५
[श्लोकार्थ : ] तत्त्वोंमें वह सहज तत्त्व जयवन्त हैकि जो सदा अनाकुल
है, जो निरन्तर सुलभ है, जो प्रकाशमान है, जो सम्यग्दृष्टियोंको समताका घर है, जो परम
कला सहित विकसित निज गुणोंसे प्रफु ल्लित (खिला हुआ) है, जिसकी सहज अवस्था
स्फु टित (
प्रकटित) है और जो निरन्तर निज महिमामें लीन है १७६
[श्लोकार्थ : ] सात तत्त्वोंमें सहज परम तत्त्व निर्मल है, सकल - विमल (सर्वथा
विमल) ज्ञानका आवास है, निरावरण है, शिव (कल्याणमय) है, स्पष्ट - स्पष्ट है, नित्य है,
बाह्य प्रपंचसे पराङ्मुख है और मुनिको भी मनसे तथा वाणीसे अति दूर है; उसे हम नमन
करते हैं
१७७
[श्लोकार्थ : ] जो (जिन) शान्त रसरूपी अमृतके समुद्रको (उछालनेके
(हरिणी)
जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु नित्यमनाकुलं
सततसुलभं भास्वत्सम्यग्
द्रशां समतालयम्
परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैर्निजैः
स्फु टितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम्
।।१७६।।
(हरिणी)
सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम्
विशदविशदं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ्मुखं
किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः
।।१७७।।
(द्रुतविलंबित)
जयति शांतरसामृतवारिधि-
प्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः
अतुलबोधदिवाकरदीधिति-
प्रहतमोहतमस्समितिर्जिनः
।।१७८।।
पिंड = (१) पदार्थ; (२) बल

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लिये) प्रतिदिन उदयमान सुन्दर चन्द्र समान है और जिसने अतुल ज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंसे
मोहतिमिरके समूहका नाश किया है, वह जिन जयवन्त है
१७८
[श्लोकार्थ : ] जिसने जन्म - जरा - मृत्युके समूहको जीत लिया है, जिसने दारुण
रागके समूहका हनन कर दिया है, जो पापरूपी महा अंधकारके समूहके लिये सूर्य समान
है तथा जो परमात्मपदमें स्थित है, वह जयवन्त है
१७९
इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलोंके लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियोंके
विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसारकी
तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार
परमागमकी निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामकी टीकामें)
परम - आलोचना अधिकार नामका सातवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ
(द्रुतविलंबित)
विजितजन्मजरामृतिसंचयः
प्रहतदारुणरागकदम्बकः
अघमहातिमिरव्रजभानुमान्
जयति यः परमात्मपदस्थितः
।।१७९।।
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां
नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमालोचनाधिकारः सप्तमः श्रुतस्कन्धः ।।

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अब समस्त द्रव्यकर्म, भावकर्म तथा नोकर्मके संन्यासके हेतुभूत शुद्धनिश्चय-
प्रायश्चित्त अधिकार कहा जाता है
गाथा : ११३ अन्वयार्थ :[व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामः ] व्रत, समिति,
शील और संयमरूप परिणाम तथा [करणनिग्रहः भावः ] इन्द्रियनिग्रहरूप भाव [सः ]
वह [प्रायश्चित्तम् ] प्रायश्चित्त [भवति ] है [च एव ] और वह [अनवरतं ] निरंतर
[कर्तव्यः ] कर्तव्य है
टीका :यह, निश्चय - प्रायश्चित्तके स्वरूपका कथन है
शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार
अथाखिलद्रव्यभावनोकर्मसंन्यासहेतुभूतशुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः कथ्यते
वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो
सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव कायव्वो ।।११३।।
व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामः करणनिग्रहो भावः
स भवति प्रायश्चित्तम् अनवरतं चैव कर्तव्यः ।।११३।।
निश्चयप्रायश्चित्तस्वरूपाख्यानमेतत
व्रत, समिति, संयम, शील, इन्द्रियरोधका जो भाव है
वह भाव प्रायश्चित्त है, अरु अनवरत कर्तव्य है ।।११३।।

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पाँच महाव्रतरूप, पाँच समितिरूप, शीलरूप और सर्व इन्द्रियोंके तथा
मनवचनकायाके संयमरूप परिणाम तथा पाँच इन्द्रियोंका निरोधयह परिणतिविशेष सो
प्रायश्चित्त है प्रायश्चित्त अर्थात् प्रायः चित्तप्रचुररूपसे निर्विकार चित्त अन्तर्मुखाकार
परमसमाधिसे युक्त, परम जिनयोगीश्वर, पापरूपी अटवीको (जलानेके लिये) अग्नि समान,
पाँच इन्द्रियोंके फै लाव रहित देहमात्र परिग्रहके धारी, सहजवैराग्यरूपी महलके शिखरके
शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस
- झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभको यह प्रायश्चित्त
निरंतर कर्तव्य है
[अब इस ११३वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्री
पद्मप्रभमलधारिदेव श्लोक कहते हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] मुनियोंको स्वात्माका चिंतन वह निरंतर प्रायश्चित्त है; निज सुखमें
रतिवाले वे उस प्रायश्चित्त द्वारा पापको झाड़कर मुक्ति प्राप्त करते हैं यदि मुनियोंको
(स्वात्माके अतिरिक्त) अन्य चिन्ता हो तो वे विमूढ़ कामार्त पापी पुनः पापको उत्पन्न करते
हैं
इसमें क्या आश्चर्य है ? १८०
पंचमहाव्रतपंचसमितिशीलसकलेन्द्रियवाङ्मनःकायसंयमपरिणामः पंचेन्द्रियनिरोधश्च स
खलु परिणतिविशेषः, प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चान्तर्मुखाकार-
परमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण
सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति
(मंदाक्रांता)
प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां
मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः
अन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्ताः
पापाः पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत
।।१८०।।
कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं
पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ।।११४।।
क्रोधादि आत्म - विभावके क्षय आदिकी जो भावना
है नियत प्रायश्चित्त वह जिसमें स्वगुणकी चिंतना ।।११४।।

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गाथा : ११४ अन्वयार्थ :[क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां ] क्रोध
आदि स्वकीय भावोंके (अपने विभावभावोंके) क्षयादिककी भावनामें [निर्ग्रहणम् ] रहना
[च ] और [निजगुणचिन्ता ] निज गुणोंका चिंतन करना वह [निश्चयतः ] निश्चयसे
[प्रायश्चित्तं भणितम् ] प्रायश्चित्त कहा है
टीका :यहाँ (इस गाथामें) सकल कर्मोंको मूलसे उखाड़ देनेमें समर्थ ऐसा
निश्चय - प्रायश्चित्त कहा गया है
क्रोधादिक समस्त मोहरागद्वेषरूप विभावस्वभावोंके क्षयके कारणभूत निज
कारणपरमात्माके स्वभावकी भावना होने पर निसर्गवृत्तिके कारण (अर्थात् स्वाभाविक
सहज परिणति होनेके कारण) प्रायश्चित्त कहा गया है; अथवा, परमात्माके गुणात्मक ऐसे
जो शुद्ध
- अंतःतत्त्वरूप (निज) स्वरूपके सहजज्ञानादिक सहजगुण उनका चिंतन करना वह
प्रायश्चित्त है
[अब इस ११४वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक कहते
हैं : ]
[श्लोकार्थ : ] मुनियोंको कामक्रोधादि अन्य भावोंके क्षयकी जो संभावना
क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां निर्ग्रहणम्
प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिंता च निश्चयतः ।।११४।।
इह हि सकलकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तमुक्त म्
क्रोधादिनिखिलमोहरागद्वेषविभावस्वभावक्षयकारणनिजकारणपरमात्मस्वभावभावनायां
सत्यां निसर्गवृत्त्या प्रायश्चित्तमभिहितम्, अथवा परमात्मगुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूप-
सहजज्ञानादिसहजगुणचिंता प्रायश्चित्तं भवतीति
(शालिनी)
प्रायश्चित्तमुक्त मुच्चैर्मुनीनां
कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च
किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा
सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे
।।१८१।।

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अथवा तो अपने ज्ञानकी जो संभावना (सम्यक् भावना) वह उग्र प्रायश्चित्त कहा है
सन्तोंने आत्मप्रवादमें ऐसा जाना है (अर्थात् जानकर कहा है ) १८१
गाथा : ११५ अन्वयार्थ :[क्रोधं क्षमया ] क्रोधको क्षमासे, [मानं
स्वमार्दवेन ] मानको निज मार्दवसे, [मायां च आर्जवेन ] मायाको आर्जवसे [च ] तथा
[लोभं संतोषेण ] लोभको संतोषसे
[चतुर्विधकषायान् ] इसप्रकार चतुर्विध कषायोंको
[खलु जयति ] (योगी) वास्तवमें जीतते हैं
टीका :यह, चार कषायों पर विजय प्राप्त करनेके उपायके स्वरूपका कथन है
जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे (तीन) भेदोंके कारण क्षमा तीन (प्रकारकी) है
(१) ‘बिना-कारण अप्रिय बोलनेवाले मिथ्यादृष्टिको बिना-कारण मुझे त्रास देनेका उद्योग
वर्तता है, वह मेरे पुण्यसे दूर हुआ;’
ऐसा विचारकर क्षमा करना वह प्रथम क्षमा है
(२) ‘(मुझे) बिना-कारण त्रास देनेवालेको ताड़नका और वधका परिणाम वर्तता है,
वह मेरे सुकृतसे दूर हुआ;’ऐसा विचारकर क्षमा करना वह द्वितीय क्षमा है (३) वध
कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च
संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चहुविहकसाए ।।११५।।
क्रोधं क्षमया मानं स्वमार्दवेन आर्जवेन मायां च
संतोषेण च लोभं जयति खलु चतुर्विधकषायान् ।।११५।।
चतुष्कषायविजयोपायस्वरूपाख्यानमेतत
जघन्यमध्यमोत्तमभेदात्क्षमास्तिस्रो भवन्ति अकारणादप्रियवादिनो मिथ्याद्रष्टेरकारणेन
मां त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा अकारणेन संत्रासकरस्य
ताडनवधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा वधे सत्यमूर्तस्य
ताड़न = मार मारना वह
वध = मार डालना वह
अभिमान मार्दवसे तथा जीते क्षमासे क्रोधको
कौटिल्य आर्जवसे तथा संतोष द्वारा लोभको ।।११५।।

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होनेसे अमूर्त परमब्रह्मरूप ऐसे मुझे हानि नहीं होतीऐसा समझकर परम समरसीभावमें
स्थित रहना वह उत्तम क्षमा है इन (तीन) क्षमाओं द्वारा क्रोधकषायको जीतकर, मार्दव
द्वारा मानकषायको, आर्जव द्वारा मायाकषायको तथा परमतत्त्वकी प्राप्तिरूप सन्तोषसे
लोभकषायको (योगी) जीतते हैं
इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामीने (आत्मानुशासनमें २१६, २१७, २२१
तथा २२३वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :
[श्लोकार्थ : ] कामदेव (अपने) चित्तमें रहने पर भी (अपनी) जड़ताके
कारण उसे न पहिचानकर, शंकरने क्रोधी होकर बाह्यमें किसीको कामदेव समझकर उसे
जला दिया
(चित्तमें रहनेवाला कामदेव तो जीवित होनेके कारण) उसने की हुई घोर
अवस्थाको (कामविह्वल दशाको) शंकर प्राप्त हुए क्रोधके उदयसे (क्रोध उत्पन्न
होनेसे) किसे कार्यहानि नहीं होती ?’’
‘‘[श्लोकार्थ : ] (युद्धमें भरतने बाहुबलि पर चक्र छोड़ा परन्तु वह चक्र
परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति परमसमरसीभावस्थितिरुत्तमा क्षमा आभिः क्षमाभिः
क्रोधकषायं जित्वा, मानकषायं मार्दवेन च, मायाकषायं चार्जवेण, परमतत्त्वलाभसन्तोषेण
लोभकषायं चेति
तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः
(वसंततिलका)
‘‘चित्तस्थमप्यनवबुद्धय हरेण जाडयात
क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङ्गबुद्धया
घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां
क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः
।।’’
(वसंततिलका)
‘‘चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं
यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत
क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय
मानो मनागपि हतिं महतीं करोति
।।’’
मार्दव = कोमलता; नरमाई; निर्मानता आर्जव = ऋजुता; सरलता

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बाहुबलिके दाहिने हाथमें आकर स्थिर हो गया ) अपने दाहिने हाथमें स्थित (उस) चक्रको
छोड़कर जब बाहुबलिने प्रव्रज्या ली तभी (तुरन्त ही) वे उस कारण मुक्ति प्राप्त कर लेते,
परन्तु वे (मानके कारण मुक्ति प्राप्त न करके) वास्तवमें दीर्घ काल तक प्रसिद्ध (मानकृत)
क्लेशको प्राप्त हुए
थोड़ा भी मान महा हानि करता है !’’
‘‘[श्लोकार्थ : ] जिसमें (जिस गड्ढेमें) छिपे हुए क्रोधादिक भयंकर सर्प देखे
नहीं जा सकते ऐसा जो मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाला मायारूपी महान गड्ढा उससे डरते
रहना योग्य है
’’
‘‘[श्लोकार्थ : ] वनचरके भयसे भागती हुई सुरा गायकी पूँछ दैवयोगसे
बेलमें उलझ जाने पर जड़ताके कारण बालोंके गुच्छेके प्रति लोलुपतावाली वह गाय
(अपने सुन्दर बालोंको न टूटने देनेके लोभमें) वहाँ अविचलरूपसे खड़ी रह गई, और
अरेरे ! उस गायको वनचर द्वारा प्राणसे भी विमुक्त कर दिया गया ! (अर्थात् उस गायने
बालोंके लोभमें प्राण भी गँवा दिये !) जिन्हें तृष्णा परिणमित हुई है उन्हें प्रायः ऐसी ही
विपत्तियाँ आती हैं
’’
और (इस ११५ वीं गाथाकी टीका पूर्ण करते हुए टीकाकार मुनिराज श्लोक
कहते हैं ) :
(अनुष्टुभ्)
‘‘भेयं मायामहागर्तान्मिथ्याघनतमोमयात
यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः ।।’’
(हरिणी)
‘‘वनचरभयाद्धावन् दैवाल्लताकुलवालधिः
किल जडतया लोलो वालव्रजेऽविचलं स्थितः
बत स चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः
परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः
।।’’
तथा हि
वनचर = वनमें रहनेवाले, भील आदि मनुष्य अथवा शेर आदि जङ्गली पशु