Pravachansar (Hindi). Gatha: 210-222.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 22 of 28

 

Page 388 of 513
PDF/HTML Page 421 of 546
single page version

सामायिकसंयमविकल्पत्वात् श्रमणानां मूलगुणा एव तेषु यदा निर्विकल्पसामायिक-
संयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा केवलकल्याणमात्रार्थिनः कुण्डलवलयांगुली-
यादिपरिग्रहः किल श्रेयान्, न पुनः सर्वथा कल्याणलाभ एवेति सम्प्रधार्य विकल्पेनात्मान-
मुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति
।।२०८ २०९।।
अथास्य प्रव्रज्यादायक इव छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्तीत्याचार्यविकल्पप्रज्ञापन-
द्वारेणोपदिशति
लिंगग्गहणे तेसिं गुरु त्ति पव्वज्जदायगो होदि
छेदेसूवट्ठवगा सेसा णिज्जावगा समणा ।।२१०।।
परमसामायिकाभिधानेन निश्चयैकव्रतेन मोक्षबीजभूतेन मोक्षे जाते सति सर्वे प्रकटा भवन्ति तेन
कारणेन तदेव सामायिकं मूलगुणव्यक्तिकारणत्वात् निश्चयमूलगुणो भवति यदा पुनर्निर्विकल्पसमाधौ
समर्थो न भवत्ययं जीवस्तदा यथा कोऽपि सुवर्णार्थी पुरुषः सुवर्णमलभमानस्तपर्यायानपि कुण्डलादीन्
गृह्णाति, न च सर्वथा त्यागं करोति; तथायं जीवोऽपि निश्चयमूलगुणाभिधानपरमसमाध्यभावे

छेदोपस्थानं चारित्रं गृह्णाति
छेदे सत्युपस्थापनं छेदोपस्थापनम् अथवा छेदेन व्रतभेदेनोपस्थापनं
छेदोपस्थापनम् तच्च संक्षेपेण पञ्चमहाव्रतरूपं भवति तेषां व्रतानां च रक्षणार्थं पश्चसमित्यादिभेदेन
पुनरष्टाविंशतिमूलगुणभेदा भवन्ति तेषां च मूलगुणानां रक्षणार्थं द्वाविंशतिपरीषहजयद्वादशविध-
तपश्चरणभेदेन चतुस्त्रिंशदुत्तरगुणा भवन्ति तेषां च रक्षणार्थं देवमनुष्यतिर्यगचेतनकृतचतुर्विधोपसर्ग-
जयद्वादशानुप्रेक्षाभावनादयश्चेत्यभिप्रायः ।।२०८२०९।। एवं मूलोत्तरगुणकथनरूपेण द्वितीयस्थले
होनेसे श्रमणोंके मूलगुण ही हैं जब (श्रमण) निर्विकल्प सामायिकसंयममें आरूढ़ताके कारण
जिसमें विकल्पोंका अभ्यास (सेवन) नहीं है ऐसी दशामेंसे च्युत होता है, तब
‘केवलसुवर्णमात्रके अर्थीको कुण्डल, कंकण, अंगूठी आदिको ग्रहण करना (भी) श्रेय है,
किन्तु ऐसा नहीं है कि (कुण्डल इत्यादिका ग्रहण कभी न करके) सर्वथा स्वर्णकी ही प्राप्ति
करना ही श्रेय है’ ऐसा विचार करके मूलगुणोंमें विकल्परूपसे (भेदरूपसे) अपनेको स्थापित
करता हुआ छेदोपस्थापक होता है
।।२०८२०९।।
अब इनके (श्रमणके) प्रव्रज्यादायककी भाँति छेदोपस्थापक पर (दूसरा) भी होता है
ऐसा, आचार्यके भेदोंके प्रज्ञापन द्वारा उपदेश करते हैं :
जे लिंगग्रहणे साधुपद देनार ते गुरु जाणवा;
छेदद्वये स्थापन करे ते शेष मुनि निर्यापका. २१०
.

Page 389 of 513
PDF/HTML Page 422 of 546
single page version

लिङ्गग्रहणे तेषां गुरुरिति प्रव्रज्यादायको भवति
छेदयोरुपस्थापकाः शेषा निर्यापकाः श्रमणाः ।।२१०।।
यतो लिंगग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः
प्रव्रज्यादायकः स गुरुः, यः पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकत्वेन छेदं
प्रत्युपस्थापकः स निर्यापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसन्धानविधानप्रतिपादकत्वेन छेदे
सत्युपस्थापकः सोऽपि निर्यापक एव
ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति ।।२१०।।
सूत्रद्वयं गतम् अथास्य तपोधनस्य प्रव्रज्यादायक इवान्योऽपि निर्यापकसंज्ञो गुरुरस्ति इति
गुरुव्यवस्थां निरूपयतिलिंगग्गहणे तेसिं लिङ्गग्रहणे तेषां तपोधनानां गुरु त्ति होदि गुरुर्भवतीति
कः पव्वज्जदायगो निर्विकल्पसमाधिरूपपरमसामायिकप्रतिपादको योऽसौ प्रव्रज्यादायकः स एव
दीक्षागुरुः, छेदेसु अ वट्टगा छेदयोश्च वर्तकाः ये सेसा णिज्जावगा समणा ते शेषाः श्रमणा निर्यापका भवन्ति
शिक्षागुरवश्च भवन्तीति अयमत्रार्थःनिर्विकल्पसमाधिरूपसामायिकस्यैकदेशेन च्युतिरेकदेशच्छेदः,
अन्वयार्थ :[लिंगग्रहणे ] लिंगग्रहणके समय [प्रव्रज्यादायकः भवति ] जो
प्रव्रज्या (दीक्षा) दायक हैं वह [तेषां गुरुः इति ] उनके गुरु हैं और [छेदयोंः उपस्थापकाः ]
जो
छेदद्वयमें उपस्थापक हैं (अर्थात् (१)जो भेदोंमें स्थापित करते हैं तथा (२)जो
संयममें छेद होने पर पुनः स्थापित करते हैं ) [शेषाः श्रमणाः ] वे शेष श्रमण [निर्यापकाः ]
निर्यापक हैं ।।२१०।।
टीका :जो आचार्य लिंगग्रहणके समय निर्विकल्प सामायिकसंयमके प्रतिपादक
होनेसे प्रव्रज्यादायक हैं, वे गुरु हैं; और तत्पश्चात् तत्काल ही जो (आचार्य) सविकल्प
छेदोपस्थापनासंयमके प्रतिपादक होनेसे ‘छेदके प्रति उपस्थापक (भेदमें स्थापित करनेवाले)’
हैं, वे निर्यापक हैं; उसीप्रकार जो (आचार्य)
छिन्न संयमके प्रतिसंधानकी विधिके प्रतिपादक
होनेसे ‘छेद होने पर उपस्थापक (-संयममें छेद होने पर उसमें पुनः स्थापित करनेवाले)’ हैं,
वे भी निर्यापक ही हैं
इसलिये छेदोपस्थापक, पर भी होते हैं ।।२१०।।
१. छेदद्वय = दो प्रकारके छेद [यहाँ (१) संयममें जो २८ मूलगुणरूप भेद होते हैं उसे भी छेद कहा
है और (२) खण्डन अथवा दोषको भी छेद कहा है ]]
२. निर्यापक = निर्वाह करनेवाला; सदुपदेशसे दृढ़ करनेवाला; शिक्षागुरु, श्रुतगुरु
३. छिन्न = छेदको प्राप्त; खण्डित; टूटा हुआ, दोष प्राप्त
४. प्रतिसंधान = पुनः जोड़ देना वह; दोषोंको दूर करके एकसा (दोष रहित) कर देना वह
५. छेदोपस्थापकके दो अर्थ हैं : (१) जो ‘छेद (भेद) के प्रति उपस्थापक’ है, अर्थात् जो २८ मूलगुणरूप
भेदोंको समझाकर उसमें स्थापित करता है वह छेदोपस्थापक है; तथा (२) जो ‘छेदके होने पर
उपस्थापक’ है, अर्थात् संयमके छिन्न (खण्डित) होने पर उसमें पुनः स्थापित करता है, वह भी
छेदोपस्थापक है

Page 390 of 513
PDF/HTML Page 423 of 546
single page version

अथ छिन्नसंयमप्रतिसन्धानविधानमुपदिशति
पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि
जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया ।।२११।।
छेदुवजुत्तो समणो समणं ववहारिणं जिणमदम्हि
आसेज्जालोचित्ता उवदिट्ठं तेण कायव्वं ।।२१२।।
प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायाम्
जायते यदि तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया ।।२११।।
छेदोपयुक्तः श्रमणः श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते
आसाद्यालोच्योपदिष्टं तेन कर्तव्यम् ।।२१२।।
सर्वथा च्युतिः सक लच्छेद इति देशसकलभेदेन द्विधा छेदः तयोश्छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्वा संवेग-
वैराग्यजनकपरमागमवचनैः संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यन्ते
दीक्षादायकस्तु दीक्षागुरुरित्यभिप्रायः ।।२१०।। अथ पूर्वसूत्रोक्तच्छेदद्वयस्य प्रायश्चित्तविधानं कथयति
पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेट्ठम्हि जायदि जदि प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायां
जायते यदि चेत् अथ विस्तरःछेदो जायते यदि चेत् स्वस्थभावच्युतिलक्षणः छेदो भवति कस्याम्
कायचेष्टायाम् कथंभूतायाम् प्रयतायां स्वस्थभावलक्षणप्रयत्नपरायां समारब्धायां अशनशयनयान-
अब छिन्नसंयमके प्रतिसंधानकी विधिका उपदेश करते हैं :
अन्वयार्थ :[यदि ] यदि [श्रमणस्य ] श्रमणके [प्रयतायां ] प्रयत्नपूर्वक
[समारब्धायां ] की जानेवाली [कायचेष्टायां ] कायचेष्टामें [छेदः जायते ] छेद होता
१. मुनिके (मुनित्वोचित) शुद्धोपयोग वह अन्तरंग अथवा निश्चयप्रयत्न है, और उस शुद्धोपयोगदशामें प्रवर्तमान
(हठरहित) देहचेष्टादि संबन्धी शुभोपयोग वह बहिरंग अथवा व्यवहारप्रयत्न है [जहाँ शुद्धोपयोगदशा नहीं
होती वहाँ शुभोपयोग हठसहित होता है; वह शुभोपयोग व्यवहारप्रयत्नको भी प्राप्त नहीं होता ]
जो छेद थाय प्रयत्न सह कृत कायनी चेष्टा विषे,
आलोचनापूर्वक क्रिया कर्तव्य छे ते साधुने. २११
.
छेदोपयुक्त मुनि, श्रमण व्यवहारविज्ञ कने जई,
निज दोष आलोचन करी, श्रमणोपदिष्ट करे विधि. २१२
.

Page 391 of 513
PDF/HTML Page 424 of 546
single page version

है तो [तस्य पुनः ] उसे तो [आलोचनापूर्विका क्रिया ] आलोचनापूर्वक क्रिया करना
चाहिये
[श्रमणः छेदोपयुक्तः ] (किन्तु) यदि श्रमण छेदमें उपयुक्त हुआ हो तो उसे
[जिनमत ] जैनमतमें [व्यवहारिणं ] व्यवहारकुशल [श्रमणं आसाद्य ] श्रमणके पास जाकर
[आलोच्य ]
आलोचना करके (अपने दोषका निवेदन करके), [तेन उपदिष्टं ] वे जैसा
उपदेश दें वह [कर्तव्यम् ] करना चाहिये ।।२११ -२१२।।
टीका :संयमका छेद दो प्रकारका है; बहिरंग और अन्तरंग उसमें मात्र कायचेष्टा
संबंधी वह बहिरंग है और उपयोग संबंधी वह अन्तरंग है उसमें, यदि भलीभाँति उपर्युक्त
श्रमणके प्रयत्नकृत कायचेष्टाका कथंचित् बहिरंग छेद होता है, तो वह सर्वथा अन्तरंग छेदसे
रहित है इसलिये आलोचनापूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतीकार (इलाज) होता है
किन्तु यदि
वही श्रमण उपयोगसंबंधी छेद होनेसे साक्षात् छेदमें ही उपयुक्त होता है तो जिनोक्त
व्यवहारविधिमें कुशल श्रमणके आश्रयसे, आलोचनापूर्वक, उनके द्वारा उपदिष्ट अनुष्ठान द्वारा
(संयमका) प्रतिसंधान होता है
१. आलोचना = सूक्ष्मतासे देख लेना वह, सूक्ष्मतासे विचारना वह, ठीक ध्यानमें लेना वह
२. निवेदन; कथन [२११ वीं गाथामें आलोचनाका प्रथम अर्थ घटित होता है और २१२ वीं में दूसरा ]
द्विविधः किल संयमस्य छेदः, बहिरंगोऽन्तरंगश्च तत्र कायचेष्टामात्राधिकृतो
बहिरंगः, उपयोगाधिकृतः पुनरन्तरंगः तत्र यदि सम्यगुपयुक्तस्य श्रमणस्य प्रयत्नसमार-
ब्धायाः कायचेष्टायाः कथंचिद्बहिरंगच्छेदो जायते तदा तस्य सर्वथान्तरंगच्छेदवर्जितत्वादा-
लोचनपूर्विकया क्रिययैव प्रतीकारः
यदा तु स एवोपयोगाधिकृतच्छेदत्वेन साक्षाच्छेद
एवोपयुक्तो भवति तदा जिनोदितव्यवहारविधिविदग्धश्रमणाश्रययालोचनपूर्वकतदुपदिष्टानुष्ठानेन
प्रतिसन्धानम्
।।२११२१२।।
स्थानादिप्रारब्धायाम् तस्स पुणो आलोयणपुव्विया किरिया तस्य पुनरालोचनपूर्विका क्रिया तदाकाले
तस्य तपोधनस्य स्वस्थभावस्य बहिरङ्गसहकारिकारणभूता प्रतिक्रमणलक्षणालोचनपूर्विका पुनः क्रियैव
प्रायश्चित्तं प्रतिकारो भवति, न चाधिकम्
कस्मादिति चेत् अभ्यन्तरे स्वस्थभावचलनाभावादिति
प्रथमगाथा गता छेदपउत्तो समणो छेदे प्रयुक्तः श्रमणो, निर्विकारस्वसंवित्तिभावनाच्युतिलक्षणच्छेदेन
यदि चेत् प्रयुक्तः सहितः श्रमणो भवति समणं ववहारिणं जिणमदम्हि श्रमणं व्यवहारिणं जिनमते, तदा
जिनमते व्यवहारज्ञं प्रायश्चित्तकुशलं श्रमणं आसेज्ज आसाद्य प्राप्य, न केवलमासाद्य आलोचित्ता
निःप्रपञ्चभावेनालोच्य दोषनिवेदनं कृत्वा उवदिट्ठं तेण कायव्वं उपदिष्टं तेन कर्तव्यम् तेन प्रायश्चित्त-
परिज्ञानसहिताचार्येण निर्विकारस्वसंवित्तिभावनानुकूलं यदुपदिष्टं प्रायश्चित्तं तत्कर्तव्यमिति सूत्र-
तात्पर्यम्
।।२११२१२।। एवं गुरुव्यवस्थाकथनरूपेण प्रथमगाथा, तथैव प्रायश्चित्तकथनार्थं गाथाद्वय-

Page 392 of 513
PDF/HTML Page 425 of 546
single page version

अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् परद्रव्यप्रतिबन्धाः प्रतिषेध्या इत्युपदिशति
अधिवासे व विवासे छेदविहूणो भवीय सामण्णे
समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो णिबंधाणि ।।२१३।।
अधिवासे वा विवासे छेदविहीनो भूत्वा श्रामण्ये
श्रमणो विहरतु नित्यं परिहरमाणो निबन्धान् ।।२१३।।
मिति समुदायेन तृतीयस्थले गाथात्रयं गतम् अथ निर्विकारश्रामण्यच्छेदजनकान्परद्रव्यानु-
बन्धान्निषेधयतिविहरदु विहरतु विहारं करोतु स कः समणो शत्रुमित्रादिसमचित्तश्रमणः णिच्चं
नित्यं सर्वकालम् किं कुर्वन्सन् परिहरमाणो परिहरन्सन् कान् णिबंधाणि चेतनाचेतनमिश्र-
परद्रव्येष्वनुबन्धान् क्व विहरतु अधिवासे अधिकृतगुरुकुलवासे निश्चयेन स्वकीयशुद्धात्मवासे
वा, विवासे गुरुविरहितवासे वा किं कृत्वा सामण्णे निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयचारित्रे छेदविहूणो
भावार्थ :यदि मुनिके स्वस्थभावलक्षण प्रयत्न सहित की जानेवाली अशनशयन
गमनादिक शारीरिक चेष्टासंबंधी छेद होता है तो उस तपोधनके स्वस्थभावकी बहिरंग
सहकारीकारणभूत प्रतिक्रमणस्वरूप आलोचनापूर्वक क्रियासे ही उसका प्रतीकार
प्रायश्चित्त हो
जाता है, क्योंकि वह स्वस्थभावसे चलित नहीं हुआ है किन्तु यदि उसके निर्विकार
स्वसंवेदनभावनासे च्युतिस्वरूप छेद होता है, तो उसे जिनमतमें व्यवहारज्ञप्रायश्चित्तकुशल
आचार्यके निकट जाकर, निष्पप्रंचभावसे दोषका निवेदन करके, वे आचार्य निर्विकार
स्वसंवेदनभावनाके अनुकूल जो कुछ भी प्रायश्चित्त उपदेशें वह करना चाहिये
।।२११२१२।।
अब, श्रामण्यके छेदके आयतन होनेसे परद्रव्यप्रतिबंध निषेध करने योग्य हैं, ऐसा
उपदेश करते हैं :
अन्वयार्थ :[अधिवासे ] अधिवासमें (आत्मवासमें अथवा गुरुओंके सहवासमें)
वसते हुए [वा ] या [विवासे ] विवासमें (गुरुओंसे भिन्न वासमें) वसते हुए, [नित्यं ] सदा
[निबंधान् ] (परद्रव्यसम्बन्धी) प्रतिबंधोंको [परिहरमाणः ] परिहरण करता हुआ [श्रामण्ये ]
श्रामण्यमें [छेदविहीनः भूत्वा ] छेदविहीन होकर [श्रमणः विहरतु ] श्रमण विहरो
।।२१३।।
१. परद्रव्य -प्रतिबंध = परद्रव्योंमें रागादिपूर्वक संबंध करना; परद्रव्योंमें बँधनारुकना; लीन होना; परद्रव्योंमें
रुकावट
प्रतिबंध परित्यागी सदा अधिवास अगर विवासमां,
मुनिराज विहरो सर्वदा थई छेदहीन श्रामण्यमां. २१३
.

Page 393 of 513
PDF/HTML Page 426 of 546
single page version

सर्व एव हि परद्रव्यप्रतिबन्धा उपयोगोपरंजकत्वेन निरुपरागोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य
छेदायतनानि; तदभावादेवाछिन्नश्रामण्यम् अत आत्मन्येवात्मनो नित्याधिकृत्य वासे वा
गुरुत्वेन गुरूनधिकृत्य वासे वा गुरुभ्यो विशिष्टे वासे वा नित्यमेव प्रतिषेधयन्
परद्रव्यप्रतिबन्धान् श्रामण्ये छेदविहीनो भूत्वा श्रमणो वर्तताम्
।।२१३।।
अथ श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनत्वात् स्वद्रव्य एव प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति
चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्हि दंसणमुहम्हि
पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ।।२१४।।
चरति निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे
प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्णश्रामण्यः ।।२१४।।
भवीय छेदविहीनो भूत्वा, रागादिरहितनिजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयचारित्रच्युतिरूपच्छेदरहितो भूत्वा
तथाहिगुरुपार्श्वे यावन्ति शास्त्राणि तावन्ति पठित्वा तदनन्तरं गुरुं पृष्ट्वा च समशीलतपोधनैः सह,
भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भव्यानामानन्दं जनयन्, तपःश्रुतसत्त्वैकत्वसन्तोषभावनापञ्चकं भावयन्,
प्र. ५०
टीका :वास्तवमें सभी परद्रव्यप्रतिबंध उपयोगके उपरंजक होनेसे निरुपराग
उपयोगरूप श्रामण्यके छेदके आयतन हैं; उनके अभावसे ही अछिन्न श्रामण्य होता है इसलिये
आत्मामें ही आत्माको सदा अधिकृत करके (आत्माके भीतर) बसते हुए अथवा गुरुरूपसे
गुरुओंको अधिकृत करके (गुरुओंके सहवासमें) निवास करते हुए या गुरुओंसे विशिष्टभिन्न
वासमें वसते हुए, सदा ही परद्रव्यप्रतिबंधोंको निषेधता (परिहरता) हुआ श्रामण्यमें छेदविहीन
होकर श्रमण वर्तो
।।२१३।।
अब, श्रामण्यकी परिपूर्णताका आयतन होनेसे स्वद्रव्यमें ही प्रतिबंध (सम्बन्ध लीनता)
करने योग्य है, ऐसा उपदेश करते हैं :
अन्वयार्थ :[यः श्रमणः ] जो श्रमण [नित्यं ] सदा [ज्ञाने दर्शनमुखे ] ज्ञानमें और
दर्शनादिमें [निबद्धः ] प्रतिबद्ध [च ] तथा [मूलगुणेषु प्रयतः ] मूलगुणोंमें प्रयत (प्रयत्नशील)
[चरति ] विचरण करता है, [सः ] वह [परिपूर्णश्रामण्यः ] परिपूर्ण श्रामण्यवान् है
।।२१४।।
१. उपरंजक = उपराग करनेवाले, मलिनताविकार करनेवाले २. निरुपराग = उपरागरहित; विकाररहित
३. अधिकृत करके = स्थापित करके; रखकर
४. अधिकृत करके = अधिकार देकर; स्थापित करके; अंगीकृत करके
जे श्रमण ज्ञानदृगादिके प्रतिबद्ध विचरे सर्वदा,
ने प्रयत मूळगुणो विषे, श्रामण्य छे परिपूर्ण त्यां. २१४.

Page 394 of 513
PDF/HTML Page 427 of 546
single page version

एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन मार्जितोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य
परिपूर्णतायतनं; तत्सद्भावादेव परिपूर्णं श्रामण्यम् अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धेन
मूलगुणप्रयततया चरितव्यं; ज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तित्वमात्रेण वर्तितव्यमिति
तात्पर्यम्
।।२१४।।
अथ श्रामण्यस्य छेदायतनत्वात् यतिजनासन्नः सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्धोऽपि प्रतिषेध्य
इत्युपदिशति
भत्ते वा खमणे वा आवसधे वा पुणो विहारे वा
उवधिम्हि वा णिबद्धं णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ।।२१५।।
तीर्थकरपरमदेवगणधरदेवादिमहापुरुषाणां चरितानि स्वयं भावयन्, परेषां प्रकाशयंश्च, विहरतीति
भावः
।।२१३।। अथ श्रामण्यपरिपूर्णकारणत्वात्स्वशुद्धात्मद्रव्ये निरन्तरमवस्थानं कर्तव्यमित्याख्याति
चरदि चरति वर्तते क थंभूतः णिबद्धो आधीनः, णिच्चं नित्यं सर्वकालम् सः क : क र्ता समणो
लाभालाभादिसमचित्तश्रमणः क्व निबद्धः णाणम्हि वीतरागसर्वज्ञप्रणीतपरमागमज्ञाने तत्फलभूत-
स्वसंवेदनज्ञाने वा, दंसणमुहम्हि दर्शनं तत्त्वार्थश्रद्धानं तत्फलभूतनिजशुद्धात्मोपादेयरुचिरूप-
निश्चयसम्यक्त्वं वा तत्प्रमुखेष्वनन्तसुखादिगुणेषु पयदो मूलगुणेसु य प्रयतः प्रयत्नपरश्च केषु
मूलगुणेषु निश्चयमूलगुणाधारपरमात्मद्रव्ये वा जो सो पडिपुण्णसामण्णो य एवंगुणविशिष्टश्रमणः स
परिपूर्णश्रामण्यो भवतीति अयमत्रार्थःनिजशुद्धात्मभावनारतानामेव परिपूर्णश्रामण्यं भवतीति ।।२१४।।
टीका :एक स्वद्रव्यप्रतिबंध ही, उपयोगका मार्जन (-शुद्धत्व) करनेवाला
होनेसे, मार्जित (-शुद्ध) उपयोगरूप श्रामण्यकी परिपूर्णताका आयतन है; उसके सद्भावसे ही
परिपूर्ण श्रामण्य होता है
इसलिये सदा ज्ञानमें और दर्शनादिकमें प्रतिबद्ध रहकर मूलगुणोंमें
प्रयत्नशीलतासे विचरना;ज्ञानदर्शनस्वभाव शुद्धात्मद्रव्यमें प्रतिबद्ध ऐसा शुद्ध
अस्तित्वमात्ररूपसे वर्तना, यह तात्पर्य है ।।२१४।।
अब, मुनिजनको निकटका सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबंध भी, श्रामण्यके छेदका आयतन
होनेसे निषेध्य है, ऐसा उपदेश करते हैं :
१. प्रतिबद्ध = संबद्ध; रुका हुआ; बँधा हुआ; स्थित; स्थिर; लीन
२. आगम विरुद्ध आहारविहारादि तो मुनिके छूटा हुआ ही होनेसे उसमें प्रतिबंध होना तो मुनिके लिये दूर
है; किन्तु आगमकथित आहार विहारादिमें मुनि प्रवर्तमान है इसलिये उसमें प्रतिबंध हो जाना संभवित होनेसे
वह प्रतिबंध निकटका है
३. सूक्ष्मपरद्रव्यप्रतिबन्ध = परद्रव्यमें सूक्ष्म प्रतिबंध
मुनि क्षपण मांही, निवासस्थान, विहार या भोजन महीं,
उपधि
श्रमणविकथा महीं प्रतिबंधने इच्छे नहीं. २१५.

Page 395 of 513
PDF/HTML Page 428 of 546
single page version

भक्ते वा क्षपणे वा आवसथे वा पुनर्विहारे वा
उपधौ वा निबद्धं नेच्छति श्रमणे विकथायाम् ।।२१५।।
श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरवृत्तिहेतुमात्रत्वेनादीयमाने भक्ते, तथाविधशरीरवृत्त्य-
विरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरंगनिस्तरंगविश्रान्तिसूत्रणानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे, नीरंग्निस्तरंगान्त-
रंगद्रव्यप्रसिद्धयर्थमध्यास्यमाने गिरीन्द्रकन्दरप्रभृतावावसथे, यथोक्तशरीरवृत्तिहेतुमार्गणार्थमारभ्य-
अथ श्रामण्यछेदकारणत्वात्प्रासुकाहारादिष्वपि ममत्वं निषेधयतिणेच्छदि नेच्छति कम् णिबद्धं
निबद्धमाबद्धम् क्व भत्ते वा शुद्धात्मभावनासहकारिभूतदेहस्थितिहेतुत्वेन गृह्यमाणे भक्ते वा
प्रासुकाहारे, खमणे वा इन्द्रियदर्पविनाशकारणभूतत्वेन निर्विकल्पसमाधिहेतुभूते क्षपणे वानशने, आवसधे
वा परमात्मतत्त्वोपलब्धिसहकारिभूते गिरिगुहाद्यावसथे वा, पुणो विहारे वा शुद्धात्मभावनासहकारि-
भूताहारनीहारार्थव्यवहारार्थव्यवहारे वा पुनर्देशान्तरविहारे वा, उवधिम्हि शुद्धोपयोगभावनासहकारि-
भूतशरीरपरिग्रहे ज्ञानोपकरणादौ वा, समणम्हि परमात्मपदार्थविचारसहकारिकारणभूते श्रमणे
समशीलसंघातकतपोधने वा, विकधम्हि परमसमाधिविघातकश्रृङ्गारवीररागादिकथायां चेति
अयमत्रार्थःआगमविरुद्धाहारविहारादिषु तावत्पूर्वमेव निषिद्धः, योग्याहारविहारादिष्वपि ममत्वं न
कर्तव्यमिति ।।२१५।। एवं संक्षेपेणाचाराराधनादिकथिततपोधनविहारव्याख्यानमुख्यत्वेन चतुर्थस्थले
अन्वयार्थ :[भक्ते वा ] मुनि आहारमें, [क्षपणे वा ] क्षपणमें (उपवासमें),
[आवसथे वा ] आवासमें (निवासस्थानमें), [पुनः विहारे वा ] और विहारमें [उपधौ ] उपधिमें
(परिग्रहमें), [श्रमणे ]
श्रमणमें (अन्य मुनिमें) [वा ] अथवा [विकथायाम् ] विकथामें
[निबद्धं ] प्रतिबन्ध [न इच्छति ] नहीं चाहता ।।२१५।।
टीका :(१) श्रामण्यपर्यायके सहकारी कारणभूत शरीरकी वृत्तिके हेतुमात्ररूपसे
ग्रहण किया जानेवाला जो आहार, (२) तथाविध शरीरकी वृत्तिके साथ विरोध विना,
शुद्धात्मद्रव्यमें नीरंग और निस्तरंग विश्रांतिकी रचनानुसार प्रवर्तमान जो क्षपण (अर्थात् शरीरके
टिकनेके साथ विरोध न आये इसप्रकार, शुद्धात्मद्रव्यमें विकाररहित और तरंगरहित स्थिरता होती
जाये, तदनुसार प्रवर्तमान अनशनमें), (३) नीरंग और निस्तरंग
अन्तरंग द्रव्यकी प्रसिद्धि
(प्रकृष्ट सिद्धि) के लिये सेवन किया जानेवाला जो गिरीन्द्रकन्दरादिक आवसथमें (-उच्च
पर्वतकी गुफा इत्यादि निवासस्थानमें), (४) यथोक्त शरीरकी वृत्तिकी कारणभूत भिक्षाके लिये
१. छद्मस्थ मुनिके धार्मिक कथावार्त्ता करते हुये भी निर्मल चैतन्य विकल्पमुक्त होता है इसलिये अंशतः
मलिन होता है, अतः उस धार्मिक कथाको भी विकथा अर्थात् शुद्धात्मद्रव्यसे विरुद्ध कथा कहा है
२. वृत्ति = निर्वाह; टिकना
३. तथाविध = वैसा (श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारणभूत)
४. नीरंग = नीराग; निर्विकार

Page 396 of 513
PDF/HTML Page 429 of 546
single page version

माणे विहारकर्मणि, श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमाने केवलदेहमात्र उपधौ,
अन्योन्यबोध्यबोधकभावमात्रेण कथंचित्परिचिते श्रमणे, शब्दपुद्गलोल्लाससंवलनकश्मलित-
चिद्भित्तिभागायां शुद्धात्मद्रव्यविरुद्धायां कथायां चैतेष्वपि तद्विकल्पाचित्रितचित्तभित्तितया
प्रतिषेध्यः प्रतिबन्धः
।।२१५।।
अथ को नाम छेद इत्युपदिशति
अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु
समणस्स सव्वकाले हिंसा सा संतय त्ति मदा ।।२१६।।
गाथात्रयं गतम् अथ शुद्धोपयोगभावनाप्रतिबन्धकच्छेदं कथयतिमदा मता सम्मता का
हिंसा शुद्धोपयोगलक्षणश्रामण्यछेदकारणभूता हिंसा कथंभूता संतत्रिय त्ति संतता निरन्तरेति का
किये जानेवाले विहारकार्यमें, (५) श्रामण्यपर्यायका सहकारी कारण होनेसे जिसका निषेध नहीं
है ऐसे केवल देहमात्र परिग्रहमें, (६) मात्र अन्योन्य
बोध्यबोधकरूपसे जिनका कथंचित्
परिचय वर्तता है ऐसे श्रमण (अन्य मुनि) में, और (७) शब्दरूप पुद्गलोल्लास
(पुद्गलपर्याय) के साथ संबंधसे जिसमें चैतन्यरूपी भित्तिका भाग मलिन होता है, ऐसी
शुद्धात्मद्रव्यसे विरुद्ध कथामें भी प्रतिबंध निषेध्य
त्यागने योग्य है अर्थात् उनके विकल्पोंसे
भी चित्तभूमिको चित्रित होने देना योग्य नहीं है
भावार्थ :आगमविरुद्ध आहारविहारादि तो मुनिने पहले ही छोड़ दिये हैं अब
संयमके निमित्तपनेकी बुद्धिसे मुनिके जो आगमोक्त आहार, अनशन, गुफादिमें निवास, विहार,
देहमात्र परिग्रह, अन्य मुनियोंका परिचय और धार्मिक चर्चा
वार्ता पाये जाते हैं, उनके प्रति
भी रागादि करना योग्य नहीं है,उनके विकल्पोंसे भी मनको रँगने देना योग्य नहीं है;
इसप्रकार आगमोक्त आहारविहारादिमें भी प्रतिबंध प्राप्त करना योग्य नहीं है, क्योंकि उससे
संयममें छेद होता है ।।२१५।।
अब छेद क्या है, (अर्थात् छेद किसे कहते हैं ) उसका उपदेश करते हैं :
१. बोध्य वह है जिसे समझाया है अथवा जिसे उपदेश दिया जाता है और बोधक वह है जो समझाता
है, अर्थात् जो उपदेश देता है मात्र अन्य श्रमणोंसे स्वयंबोध ग्रहण करनेके लिये अथवा अन्य श्रमणोंको
बोध देनेके लिये मुनिका अन्य श्रमणके साथ परिचय होता है
आसनशयनगमनादिके चर्या प्रयत्नविहीन जे,
ते जाणवी हिंसा सदा संतानवाहिनी श्रमणने. २१६.

Page 397 of 513
PDF/HTML Page 430 of 546
single page version

अप्रयता वा चर्या शयनासनस्थानचङ्क्रमणादिषु
श्रमणस्य सर्वकाले हिंसा सा सन्ततेति मता ।।२१६।।
अशुद्धोपयोगो हि छेदः, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात्; तस्य हिंसनात् स
एव च हिंसा अतः श्रमणस्याशुद्धोपयोगाविनाभाविनी शयनासनस्थानचंक्रमणादिष्वप्रयता या
चर्या सा खलु तस्य सर्वकालमेव सन्तानवाहिनी छेदानर्थान्तरभूता हिंसैव ।।२१६।।
हिंसा मता चरिया चर्या चेष्टा यदि चेत् कथंभूता अपयत्ता वा अप्रयत्ना वा, निःकषायस्वसंवित्ति-
रूपप्रयत्नरहिता संक्लेशसहितेत्यर्थः केषु विषयेषु सयणासणठाणचंकमादीसु शयनासनस्थान-
चङ्क्र मणस्वाध्यायतपश्चरणादिषु कस्य समणस्स श्रमणस्य तपोधनस्य क्व सव्वकाले सर्वकाले
अयमत्रार्थः ---बाह्यव्यापाररूपाः शत्रवस्तावत्पूर्वमेव त्यक्तास्तपोधनैः, अशनशयनादिव्यापारैः पुनस्त्यक्तुं
नायाति
ततः कारणादन्तरङ्गक्रोधादिशत्रुनिग्रहार्थं तत्रापि संक्लेशो न कर्तव्य इति ।।२१६।।
अथान्तरङ्गबहिरङ्गहिंसारूपेण द्विविधच्छेदमाख्यातिमरदु व जियदु व जीवो, अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा
म्रियतां वा जीवतु वा जीवः, प्रयत्नरहितस्य निश्चिता हिंसा भवति; बहिरङ्गान्यजीवस्य मरणेऽमरणे
अन्वयार्थ :[श्रमणस्य ] श्रमणके [शयनासनस्थानचंक्रमणादिषु ] शयन, आसन
(बैठना), स्थान (खड़े रहना), गमन इत्यादिमें [अप्रयता वा चर्या ] जो अप्रयत चर्या है [सा ]
वह [सर्वकाले ] सदा [संतता हिंसा इति मता ] सतत हिंसा मानी गई है
।।२१६।।
टीका :अशुद्धोपयोग वास्तवमें छेद है, क्योंकि (उससे) शुद्धोपयोगरूप
श्रामण्यका छेदन होता है; और वही (-अशुद्धोपयोग ही) हिंसा है, क्योंकि (उससे)
शुद्धोपयोगरूप श्रामण्यका हिंसन (हनन) होता है
इसलिये श्रमणके, जो अशुद्धोपयोगके बिना
नहीं होती ऐसे शयनआसनस्थानगमन इत्यादिमें अप्रयत चर्या (आचरण) वह वास्तवमें
उसके लिये सर्वकालमें (सदा) ही संतानवाहिनी हिंसा ही हैजो कि छेदसे अनन्यभूत है
(अर्थात् छेदसे कोई भिन्न वस्तु नहीं है )
भावार्थ :अशुद्धोपयोगसे शुद्धोपयोगरूप मुनित्व (१) छिदता है (२) हनन होता
है, इसलिये अशुद्धोपयोग (१) छेद ही है, (२) हिंसा ही है और जहाँ सोने, बैठने, खड़े
होने, चलने इत्यादिमें अप्रयत आचरण होता है वहाँ नियमसे अशुद्धोपयोग तो होता ही है,
इसलिये अप्रयत आचरण छेद ही है, हिंसा ही है
।।२१६।।
१. अप्रयत = प्रयत्न रहित, असावधान, असंयमी, निरंकुश, स्वच्छन्दी [अप्रयत चर्या अशुद्धोपयोगके बिना
कभी नहीं होती ]]
२. संतानवाहिनी = संतत, सतत, निरंतर, धारावाही, अटूट; [जब तक अप्रयत चर्या है तब तक सदा ही हिंसा
सततरूपसे चालू रहती है ]]

Page 398 of 513
PDF/HTML Page 431 of 546
single page version

अथान्तरंगबहिरंगत्वेन छेदस्य द्वैविध्यमुपदिशति
मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा
पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।।२१७।।
म्रियतां वा जीवतु वा जीवोऽयताचारस्य निश्चिता हिंसा
प्रयतस्य नास्ति बन्धो हिंसामात्रेण समितस्य ।।२१७।।
अशुद्धोपयोगोऽन्तरंगच्छेदः, परप्राणव्यपरोपो बहिरंगः तत्र परप्राणव्यपरोपसद्भावे
तदसद्भावे वा तदविनाभाविनाप्रयताचारेण प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिंसा-
वा, निर्विकारस्वसंवित्तिलक्षणप्रयत्नरहितस्य निश्चयशुद्धचैतन्यप्राणव्यपरोपणरूपा निश्चयहिंसा भवति
पयदस्स णत्थि बंधो बाह्याभ्यन्तरप्रयत्नपरस्य नास्ति बन्धः केन हिंसामेत्तेण द्रव्यहिंसामात्रेण
कथंभूतस्य पुरुषस्य समिदस्स समितस्य शुद्धात्मस्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितस्तस्य
समितस्य, व्यवहारेणेर्यादिपञ्चसमितियुक्तस्य च अयमत्रार्थःस्वस्थभावनारूपनिश्चियप्राणस्य
विनाशकारणभूता रागादिपरिणतिर्निश्चयहिंसा भण्यते, रागाद्युत्पत्तेर्बहिरङ्गनिमित्तभूतः परजीवघातो
व्यवहारहिंसेति द्विधा हिंसा ज्ञातव्या
किंतु विशेषःबहिरङ्गहिंसा भवतु वा मा भवतु, स्वस्थ-
अब, छेदके अन्तरंग और बहिरंग ऐसे दो प्रकार बतलाते हैं :
अन्वयार्थ :[जीवः ] जीव [म्रियतां वा जीवतु वा ] मरे या जिये,
[अयताचारस्य ] अप्रयत आचारवालेके [हिंसा ] (अंतरंग) हिंसा [निश्चिता ] निश्चित है;
[प्रयतस्य समितस्य ]
प्रयतके, समितिवान्के [हिंसामात्रेण ] (बहिरंग) हिंसामात्रसे [बन्धः ]
बंध [नास्ति ] नहीं है ।।२१७।।
टीका :अशुद्धोपयोग अंतरंग छेद है; परप्राणोंका व्यपरोप (विच्छेद) वह
बहिरंगछेद है इनमेंसे अन्तरंग छेद ही विशेष बलवान है, बहिरंग छेद नहीं; क्योंकि
१. प्रयत = प्रयत्नशील, सावधान, संयमी [प्रयत्नके अर्थके लिये देखो गाथा २११ का फु टनोट]]
२. शुद्धात्मस्वरूपमें (मुनित्वोचित) सम्यक् ‘इति’ अर्थात् परिणति वह निश्चय समिति है
और उस दशामें
होनेवाली (हठ रहित) ईर्याभाषादि सम्बन्धी शुभ परिणति वह व्यवहारसमिति है [जहाँ शुद्धात्मस्वरूपमें
सम्यक्परिणतिरूप दशा नहीं होती वहाँ शुभ परिणति हठ सहित होती है; वह शुभपरिणति व्यवहारसमिति
भी नहीं है
]
जीवोमरो जीव, यत्नहीन आचार त्यां हिंसा नक्की;
समितिप्रयत्नसहितने नहि बंध हिंसामात्रथी. २१७.

Page 399 of 513
PDF/HTML Page 432 of 546
single page version

भावप्रसिद्धेः, तथा तद्विनाभाविना प्रयताचारेण प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगासद्भावपरस्य परप्राण-
व्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिंसाऽभावप्रसिद्धेश्चान्तरंग एव छेदो बलीयान्, न
पुनर्बहिरंगः
एवमप्यन्तरंगच्छेदायतनमात्रत्वाद्बहिरंगच्छेदोऽभ्युपगम्येतैव ।।२१७।।
भावनारूपनिश्चयप्राणघाते सति निश्चयहिंसा नियमेन भवतीति ततः कारणात्सैव मुख्येति ।।२१७।।
अथ तमेवार्थं दृष्टान्तदार्ष्टान्ताभ्यां दृढयति
उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए
आबाधेज्ज कुलिंगं मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ।।“१५।।
ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये
मुच्छा परिग्गहो च्चिय अज्झप्पपमाणदो दिट्ठो ।।“१६।। (जुम्मं)
परप्राणोंके व्यपरोपका सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होता ऐसे
अप्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला (-जाननेमें आनेवाला) अशुद्धोपयोगका सद्भाव जिसके
पाया जाता है उसके हिंसाके सद्भावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है; और इसप्रकार जो अशुद्धोपयोगके
बिना होता है ऐसे
प्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका असद्भाव जिसके पाया
जाता है उसके, परप्राणोंके व्यपरोपके सद्भावमें भी बंधकी अप्रसिद्धि होनेसे, हिंसाके अभावकी
प्रसिद्धि सुनिश्चित है
ऐसा होने पर भी (अर्थात् अंतरंग छेद ही विशेष बलवान है बहिरंग छेद
नहीं,ऐसा होन पर भी) बहिरंग छेद अंतरंग छेदका आयतनमात्र है, इसलिये उसे (बहिरंग
छेदको) स्वीकार तो करना ही चाहिये अर्थात् उसे मानना ही चाहिये
भावार्थ :शुद्धोपयोगका हनन होना वह अन्तरंग हिंसाअन्तरंग छेद है, और
दूसरेके प्राणोंका विच्छेद होना बहिरंग हिंसाबहिरंग छेद है
जीव मरे या न मरे, जिसके अप्रयत आचरण है उसके शुद्धोपयोगका हनन होनेसे
अन्तरंग हिंसा होती ही है और इसलिये अन्तरंग छेद होता ही है जिसके प्रयत आचरण है
उसके, परप्राणोंके व्यपरोपरूप बहिरंग हिंसाकेबहिरंग छेदकेसद्भावमें भी, शुद्धोपयोगका
हनन नहीं होनेसे अन्तरंग हिंसा नहीं होती और इसलिये अन्तरंग छेद नहीं होता ।।२१७।।
१. अशुद्धोपयोगके बिना अप्रयत आचार कभी नहीं होता, इसलिये जिसके अप्रयत आचार वर्तता है उसके
अशुद्ध उपयोग अवश्यमेव होता है इसप्रकार अप्रयत आचारके द्वारा अशुद्ध उपयोग प्रसिद्ध होता है
जाना जाता है
२. जहाँ अशुद्ध उपयोग नहीं होता वहीं प्रयत आचार पाया जाता है, इसलिये प्रयत आचारके द्वारा अशुद्ध
उपयोगका असद्भाव सिद्ध होता हैजाना जाता है

Page 400 of 513
PDF/HTML Page 433 of 546
single page version

अथ सर्वथान्तरंगच्छेदः प्रतिषेध्य इत्युपदिशति
अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो
चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरुवलेवो ।।२१८।।
अयताचारः श्रमणः षट्स्वपि कायेषु वधकर इति मतः
चरति यतं यदि नित्यं कमलमिव जले निरुपलेपः ।।२१८।।
यतस्तदविनाभाविना अप्रयताचारत्वेन प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगसद्भावः षट्कायप्राण-
व्यपरोपप्रत्ययबन्धप्रसिद्धया हिंसक एव स्यात यतश्च तद्विनाभाविना प्रयताचारत्वेन
उच्चालियम्हि पाए उत्क्षिप्ते चालिते सति पादे कस्य इरियासमिदस्स ईर्यासमितितपोधनस्य
क्व णिग्गमत्थाए विवक्षितस्थानान्निर्गमस्थाने आबाधेज्ज आबाध्येत पीडयेत स कः कुलिंगं
सूक्ष्मजन्तुः न केवलमाबाध्येत, मरिज्ज म्रियतां वा किं कृत्वा तं जोगमासेज्ज तं पूर्वोक्तं पादयोगं
पादसंघट्टनमाश्रित्य प्राप्येति ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये न हि तस्य तन्निमित्तो
बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये; तस्य तपोधनस्य तन्निमित्तो सूक्ष्मजन्तुघातनिमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि
स्तोकोऽपि नैव दृष्टः समये परमागमे
दृष्टान्तमाहमुच्छा परिग्गहो च्चिय मूर्च्छा परिग्रहश्चैव अज्झप्प-
पमाणदो दिट्ठो अध्यात्मप्रमाणतो दृष्ट इति अयमत्रार्थः‘मूर्च्छा परिग्रहः’ इति सूत्रे यथाध्यात्मानुसारेण
मूर्च्छारूपरागादिपरिणामानुसारेण परिग्रहो भवति, न च बहिरङ्गपरिग्रहानुसारेण; तथात्र सूक्ष्म-
जन्तुघातेऽपि यावतांशेन स्वस्थभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा तावतांशेन बन्धो भवति,
अब, सर्वथा अन्तरंग छेद निषेध्यत्याज्य है ऐसा उपदेश करते हैं :
अन्वयार्थ :[अयताचारः श्रमणः ] अप्रयत आचारवाला श्रमण [षट्सु अपि
कायेषु ] छहों काय संबंधी [वधकरः ] वधका करनेवाला [इति मतः ] माननेमेंकहनेमें आया
है; [यदि ] यदि [नित्यं ] सदा [यतं चरति ] प्रयतरूपसे आचरण करे तो [जले कमलम् इव ]
जलमें कमलकी भाँति [निरुपलेपः ] निर्लेप कहा गया है
।।२१८।।
टीका :जो अशुद्धोपयोगके बिना नहीं होता ऐसे अप्रयत आचारके द्वारा प्रसिद्ध
(ज्ञात) होनेवाला अशुद्धोपयोगका सद्भाव हिंसक ही है, क्योंकि छहकायके प्राणोंके
व्यपरोपके आश्रयसे होनेवाले बंधकी प्रसिद्धि है; और जो अशुद्धोपयोगके बिना होता है ऐसे
प्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका असद्भाव अहिंसक ही है, क्योंकि परके
मुनि यत्नहीन आचारवंत छ कायनो हिंसक कह्यो;
जलकमलवत् निर्लेप भाख्यो, नित्य यत्नसहित जो. २१८
.

Page 401 of 513
PDF/HTML Page 434 of 546
single page version

प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगासद्भावः परप्रत्ययबन्धलेशस्याप्यभावाज्जलदुर्ललितं कमलमिव निरुपलेपत्व-
प्रसिद्धेरहिंसक एव स्यात
ततस्तैस्तैः सर्वैः प्रकारैरशुद्धोपयोगरूपोऽन्तरंगच्छेदः प्रतिषेध्यो
यैर्यैस्तदायतनमात्रभूतः परप्राणव्यपरोपरूपो बहिरंगच्छेदो दूरादेव प्रतिषिद्धः स्यात।।२१८।।
अथैकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वादुपधिस्तद्वत्प्रतिषेध्य इत्युपदिशति
हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचेट्ठम्हि
बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छयिा सव्वं ।।२१९।।
न च पादसंघट्टनमात्रेण तस्य तपोधनस्य रागादिपरिणतिलक्षणभावहिंसा नास्ति ततः
कारणाद्बन्धोऽपि नास्तीति ।।“१५१६।। अथ निश्चयहिंसारूपोऽन्तरङ्गच्छेदः सर्वथा प्रतिषेध्य
इत्युपदिशतिअयदाचारो निर्मलात्मानुभूतिभावनालक्षणप्रयत्नरहितत्वेन अयताचारः प्रयत्नरहितः
स कः समणो श्रमणस्तपोधनः छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो षट्स्वपि कायेषु वधकरो
हिंसाकर इति मतः सम्मतः कथितः चरदि आचरति वर्तते कथं यथा भवति जदं यतं
यत्नपरं, जदि यदि चेत्, णिच्चं नित्यं सर्वकालं तदा कमलं व जले णिरुवलेवो कमलमिव जले निरुपलेप
इति एतावता किमुक्तं भवतिशुद्धात्मसंवित्तिलक्षणशुद्धोपयोगपरिणतपुरुषः षड्जीवकुले लोके
विचरन्नपि यद्यपि बहिरङ्गद्रव्यहिंसामात्रमस्ति, तथापि निश्चयहिंसा नास्ति ततः कारणाच्छुद्ध-
परमात्मभावनाबलेन निश्चयहिंसैव सर्वतात्पर्येण परिहर्तव्येति ।।२१८।। अथ बहिरङ्गजीवघाते बन्धो
પ્ર. ૫૧
आश्रयसे होनेवाले लेशमात्र भी बंधका अभाव होनेसे जलमें झूलते हुए कमलकी भाँति
निर्लेपताकी प्रसिद्धि है
इसलिये उनउन सर्वप्रकारसे अशुद्धोपयोगरूप अन्तरंग छेद निषेध्य
त्यागने योग्य है, जिनजिन प्रकारोंसे उसका आयतनमात्रभूत परप्राणव्यपरोपरूप बहिरंग छेद
अत्यन्त निषिद्ध हो
भावार्थ :शास्त्रोंमें अप्रयतआचारवान् अशुद्धोपयोगीको छह कायका हिंसक कहा
है और प्रयतआचारवान् शुद्धोपयोगको अहिंसक कहा है, इसलिये शास्त्रोंमें जिसजिस
प्रकारसे छह कायकी हिंसाका निषेध किया गया हो, उसउस समस्त प्रकारसे अशुद्धोपयोगका
निषेध समझना चाहिये ।।२१८।।
अब, उपधि (-परिग्रह) को ऐकान्तिक अन्तरंगछेदत्व होनेसे उपधि अन्तरंग छेदकी
भाँति त्याज्य है, ऐसा उपदेश करते हैं :
दैहिक क्रिया थकी जीव मरतां बंध थायन थाय छे,
परिग्रह थकी ध्रुव बंध, तेथी समस्त छोडयो योगीए. २१९.

Page 402 of 513
PDF/HTML Page 435 of 546
single page version

भवति वा न भवति बन्धो मृते जीवेऽथ कायचेष्टायाम्
बन्धो ध्रुवमुपधेरिति श्रमणास्त्यक्तवन्तः सर्वम् ।।२१९।।
यथा हि कायव्यापारपूर्वकस्य परप्राणव्यपरोपस्याशुद्धोपयोगसद्भावासद्भावाभ्याम-
नैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमनैकान्तिकमिष्टं, न खलु तथोपधेः, तस्य सर्वथा तदविनाभावित्व-
प्रसिद्धयदैकान्तिकाशुद्धोपयोगसद्भावस्यैकान्तिकबन्धत्वेन छेदत्वमैकान्तिकमेव
अत एव
भगवन्तोऽर्हन्तः परमाः श्रमणाः स्वयमेव प्रागेव सर्वमेवोपधिं प्रतिषिद्धवन्तः अत एव
चापरैरप्यन्तरंगच्छेदवत्तदनान्तरीयकत्वात्प्रागेव सर्व एवोपधिः प्रतिषेध्यः ।।२१९।।
भवति, न भवति वा, परिग्रहे सति नियमेन भवतीति प्रतिपादयतिहवदि व ण हवदि बंधो भवति
वा न भवति बन्धः कस्मिन्सति मदम्हि जीवे मृते सत्यन्यजीवे अध अहो कस्यां सत्याम्
कायचेट्ठम्हि कायचेष्टायाम् तर्हि कथं बन्धो भवति बंधो धुवमुवधीदो बन्धो भवति ध्रुवं निश्चितम्
कस्मात् उपधेः परिग्रहात्सकाशात् इदि इति हेतोः समणा छयिा सव्वं श्रमणा महाश्रमणाः सर्वज्ञाः
पूर्वं दीक्षाकाले शुद्धबुद्धैकस्वभावं निजात्मानमेव परिग्रहं कृत्वा, शेषं समस्तं बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहं
छर्दितवन्तस्त्यक्तवन्तः
एवं ज्ञात्वा शेषतपोधनैरपि निजपरमात्मपरिग्रहं स्वीकारं कृत्वा, शेषः सर्वोऽपि
परिग्रहो मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतैश्च त्यजनीय इति अत्रेदमुक्तं भवतिशुद्धचैतन्यरूपनिश्चय-
प्राणे रागादिपरिणामरूपनिश्चयहिंसया पातिते सति नियमेन बन्धो भवति परजीवघाते पुनर्भवति वा
अन्वयार्थ :[अथ ] अब (उपधिके संबंधमें ऐसा है कि), [कायचेष्टायाम् ]
कायचेष्टापूर्वक [जीवे मृते ] जीवके मरने पर [बन्धः ] बंध [भवति ] होता है [वा ] अथवा
[न भवति ] नहीं होता; [उपधेः ] (किन्तु) उपधिसे
परिग्रहसे [ध्रुवम् बंधः ] निश्चय ही बंध
होता है; [इति ] इसलिये [श्रमणाः ] श्रमणों (अर्हन्तदेवों) ने [सर्व ] सर्व परिग्रहको
[त्यक्तवन्तः ] छोड़ा है
।।२१९।।
टीका :जैसे कायव्यापारपूर्वक परप्राणव्यपरोपको अशुद्धोपयोगके सद्भाव और
असद्भावके द्वारा अनैकांतिक बंधरूप होनेसे उसे (कायव्यापारपूर्वक परप्राणव्यपरोपको) छेदपना
अनैकांतिक माना गया है, वैसा उपधिपरिग्रहका नहीं है परिग्रह सर्वथा अशुद्धोपयोगके बिना
नहीं होता, ऐसा जो परिग्रहका सर्वथा अशुद्धोपयोगके साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध
होनेवाले
ऐकान्तिक अशुद्धोपयोगके सद्भावके कारण परिग्रह तो ऐकान्तिक बंधरूप है, इसलिये
उसे (-परिग्रहको) छेदपना ऐकान्तिक ही है इसीलिये भगवन्त अर्हन्तोंनेपरम श्रमणोंने
स्वयं ही पहले ही सर्व परिग्रहको छोड़ा है; और इसीलिये दूसरोंको भी, अन्तरंग छेदकी भाँति प्रथम
ही सर्व परिग्रह छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह (परिग्रह) अन्तरंग छेदके बिना नहीं होता
१. अनैकान्तिक = अनिश्चित; नियमरूप न हो; ऐकांतिक न हो
२. ऐकान्तिक = निश्चित; अवश्यंभावी; नियमरूप

Page 403 of 513
PDF/HTML Page 436 of 546
single page version

वक्तव्यमेव किल यत्तदशेषमुक्त -
मेतावतैव यदि चेतयतेऽत्र कोऽपि
व्यामोहजालमतिदुस्तरमेव नूनं
निश्चेतनस्य वचसामतिविस्तरेऽपि
।।१४।।
न भवतीति नियमो नास्ति, परद्रव्ये ममत्वरूपमूर्च्छापरिग्रहेण तु नियमेन भवत्येवेति ।।२१९।। एवं
भावहिंसाव्याख्यानमुख्यत्वेन पञ्चमस्थले गाथाषटंक गतम् इति पूर्वोक्तक्रमेण ‘एवं पणमिय सिद्धे’
इत्याद्येकविंशतिगाथाभिः स्थलपञ्चकेनोत्सर्गचारित्रव्याख्याननामा प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः अतः
परं चारित्रस्य देशकालापेक्षयापहृतसंयमरूपेणापवादव्याख्यानार्थं पाठक्रमेण त्रिंशद्गाथाभिर्द्वितीयो-
ऽन्तराधिकारः प्रारभ्यते
तत्र चत्वारि स्थलानि भवन्ति तस्मिन्प्रथमस्थले निर्ग्रन्थमोक्षमार्ग-
स्थापनामुख्यत्वेन ‘ण हि णिरवेक्खो चागो’ इत्यादि गाथापञ्चकम् अत्र टीकायां गाथात्रयं नास्ति
तदनन्तरं सर्वसावद्यप्रत्याख्यानलक्षणसामायिकसंयमासमर्थानां यतीनां संयमशौचज्ञानोपकरण-
निमित्तमपवादव्याख्यानमुख्यत्वेन ‘छेदो जेण ण विज्जदि’ इत्यादि सूत्रत्रयम्
तदनन्तरं स्त्रीनिर्वाण-
निराकरणप्रधानत्वेन ‘पेच्छदि ण हि इह लोगं’ इत्याद्येकादश गाथा भवन्ति ताश्च अमृतचन्द्रटीकायां
सन्ति ततः परं सर्वोपेक्षासंयमासमर्थस्य तपोधनस्य देशकालापेक्षया किंचित्संयमसाधकशरीरस्य
वसंतातिलका छंद
भावार्थ :अशुद्धोपयोगका असद्भाव हो, तथापि कायकी हलनचलनादि क्रिया
होनेसे परजीवोंके प्राणोंका घात हो जाता है इसलिये कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे बंध
होनेका नियम नहीं है;अशुद्धोपयोगके सद्भावमें होनेवाले कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे
तो बंध होता है, और अशुद्धोपयोगके असद्भावमें होनेवाले कायचेष्टापूर्वक परप्राणोंके घातसे
बंध नहीं होता; इसप्रकार कायचेष्टापूर्वक होनेवाले परप्राणोंके घातसे बंधका होना अनैकान्तिक
होनेसे उसके छेदपना अनैकान्तिक है
नियमरूप नहीं है
जैसे भावके बिना भी परप्राणोंका घात हो जाता है, उसीप्रकार भाव न हो तथापि
परिग्रहका ग्रहण हो जाय, ऐसा कभी नहीं हो सकता जहाँ परिग्रहका ग्रहण होता है वहाँ
अशुद्धोपयोगका सद्भाव अवश्य होता ही है इसलिये परिग्रहसे बंधका होना ऐकांतिक
निश्चितनियमरूप है इसलिये परिग्रहके छेदपना ऐकान्तिक है ऐसा होनेसे ही परम श्रमण
ऐसे अर्हन्त भगवन्तोंने पहलेसे ही सर्व परिग्रहका त्याग किया है और अन्य श्रमणोंको भी
पहलेसे
ही सर्व परिग्रहका त्याग करना चाहिये ।।२१९।।
[अब, ‘कहने योग्य सब कहा गया है’ इत्यादि कथन श्लोक द्वारा किया जाता है ]
[अर्थ ] :जो कहने योग्य ही था वह अशेषरूपसे कहा गया है, इतने मात्रसे ही
यदि यहाँ कोई चेत जायसमझले तो, (अन्यथा) वाणीका अतिविस्तार किया जाय तथापि
निश्चेतन (-जड़वत्, नासमझ) को व्यामोहका जाल वास्तवमें अति दुस्तर है

Page 404 of 513
PDF/HTML Page 437 of 546
single page version

अथान्तरंगच्छेदप्रतिषेध एवायमुपधिप्रतिषेध इत्युपदिशति
ण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी
अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिदो ।।२२०।।
न हि निरपेक्षस्त्यागो न भवति भिक्षोराशयविशुद्धिः
अविशुद्धस्य च चित्ते कथं नु कर्मक्षयो विहितः ।।२२०।।
न खलु बहिरंसंगद्भावे तुषसद्भावे तण्डुलगताशुद्धत्वस्येवाशुद्धोपयोगरूप-
स्यान्तरंगच्छेदस्य प्रतिषेधः, तद्भावे च न शुद्धोपयोगमूलस्य कैवल्यस्योपलम्भः अतोऽशुद्धोप-
निरवद्याहारादिसहकारिकारणं ग्राह्यमिति पुनरप्यपवादविशेषव्याख्यानमुख्यत्वेन ‘उवयरणं जिणमग्गे’
इत्याद्येकादशगाथा भवन्ति
अत्र टीकायां गाथाचतुष्टयं नास्ति एवं मूलसूत्राभिप्रायेण त्रिंशद्गाथाभिः,
टीकापेक्षया पुनर्द्वादशगाथाभिः द्वितीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका तथाहिअथ भावशुद्धि-
पूर्वकबहिरङ्गपरिग्रहपरित्यागे कृते सति अभ्यन्तरपरिग्रहपरित्यागः कृत एव भवतीति निर्दिशति
हि णिरवेक्खो चागो न हि निरपेक्षस्त्यागः यदि चेत्, परिग्रहत्यागः सर्वथा निरपेक्षो न भवति किंतु
किमपि वस्त्रपात्रादिकं ग्राह्यमिति भवता भण्यते, तर्हि हे शिष्य ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी
भवति भिक्षोराशयविशुद्धिः, तदा सापेक्षपरिणामे सति भिक्षोस्तपोधनस्य चित्तशुद्धिर्न भवति
अविसुद्धस्य हि चित्ते शुद्धात्मभावनारूपशुद्धिरहितस्य तपोधनस्य चित्ते मनसि हि स्फुटं कहं तु
कम्मक्खओ विहिदो कथं तु कर्मक्षयो विहितः उचितो, न कथमपि अनेनैतदुक्तं भवतियथा
बहिरङ्गतुषसद्भावे सति तण्डुलस्याभ्यन्तरशुद्धिं कर्तुं नायाति तथा विद्यमाने वा बहिरङ्गपरि-
ग्रहाभिलाषे सति निर्मलशुद्धात्मानुभूतिरूपां चित्तशुद्धिं कर्तुं नायाति
यदि पुनर्विशिष्टवैराग्य-
अब, इस उपधि (परिग्रह) का निषेध वह अंतरंग छेदका ही निषेध है, ऐसा उपदेश
करते हैं :
अन्वयार्थ :[निरपेक्षः त्यागः न हि ] यदि निरपेक्ष (किसी भी वस्तुकी
अपेक्षारहित) त्याग न हो तो [भिक्षोः ] भिक्षुके [आशयविशुद्धिः ] भावकी विशुद्धि [न
भवति ]
नहीं होती; [च ] और [चित्ते अविशुद्धस्य ] जो भावमें अविशुद्ध है उसके
[कर्मक्षयः ] कर्मक्षय [कथं नु ] कैसे [विहितः ] हो सकता है ?
।।२२०।।
टीका :जैसे छिलकेके सद्भावमें चावलोंमे पाई जानेवाली (रक्ततारूप)
अशुद्धताका त्याग (-नाश, अभाव) नहीं होता, उसीप्रकार बहिरंग संगके सद्भावमें
निरपेक्ष त्याग न होय तो नहि भावशुद्धि भिक्षुने,
ने भावमां अविशुद्धने क्षय कर्मनो कइ रीत बने? २२०
.

Page 405 of 513
PDF/HTML Page 438 of 546
single page version

योगरूपस्यान्तरंगच्छेदस्य प्रतिषेधं प्रयोजनमपेक्ष्योपधेर्विधीयमानः प्रतिषेधोऽन्तरंगच्छेदप्रतिषेध
एव स्यात
।।२२०।।
अथैकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वमुपधेर्विस्तरेणोपदिशति
किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स
तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि ।।२२१।।
पूर्वकपरिग्रहत्यागो भवति तदा चित्तशुद्धिर्भवत्येव, ख्यातिपूजालाभनिमित्तत्यागे तु न भवति ।।२२०।।
अथ तमेव परिग्रहत्यागं द्रढयति
गेण्हदि व चेलखंडं भायणमत्थि त्ति भणिदमिह सुत्ते
जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो ।।“१७।।
वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमण्णं च गेण्हदि णियदं
विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चित्तम्मि ।।“१८।।
गेण्हइ विधुणइ धोवइ सोसेइ जदं तु आदवे खित्ता
पत्तं व चेलखंडं बिभेदि परदो य पालयदि ।।“१९।।
गेण्हदि व चेलखंडं गृह्णाति वा चेलखण्डं वस्त्रखण्डं, भायणं भिक्षाभाजनं वा अत्थि त्ति भणिदं
अस्तीति भणितमास्ते क्व इह सुत्ते इह विवक्षितागमसूत्रे जदि यदि चेत् सो चत्तालंबो हवदि कहं
निरालम्बनपरमात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन् स पुरुषो बहिर्द्रव्यालम्बनरहितः कथं भवति, न कथमपि; वा
अणारंभो
निःक्रियनिरारम्भनिजात्मतत्त्वभावनारहितत्वेन निरारम्भो वा कथं भवति, किंतु सारम्भ एव;
इति प्रथमगाथा वत्थक्खंडं दुद्दियभायणं वस्त्रखण्डं दुग्धिकाभाजनं अण्णं च गेण्हदि अन्यच्च गृह्णाति
कम्बलमृदुशयनादिकं यदि चेत् तदा किं भवति णियदं विज्जदि पाणारंभो निजशुद्धचैतन्य-
अशुद्धोपयोगरूप अंतरंग छेदका त्याग नहीं होता और उसके सद्भावमें शुद्धोपयोगमूलक
कैवल्य (मोक्ष) की उपलब्धि नहीं होती
(इससे ऐसा कहा गया है कि) अशुद्धोपयोगरूप
अंतरंग छेदके निषेधरूप प्रयोजनकी उपेक्षा रखकर विहित (-आदेश) किया जानेवाला
उपधिका निषेध वह अन्तरंग छेदका ही निषेध है
।।२२०।।
अब, ‘उपधि वह ऐकान्तिक अन्तरंग छेद है’ ऐसा विस्तारसे उपदेश करते हैं :
आरंभ, अणसंयम अने मूर्छा न त्यांए कयम बने ?
परद्रव्यरत जे होय ते कई रीत साधे आत्मने ? २२१.

Page 406 of 513
PDF/HTML Page 439 of 546
single page version

कथं तस्मिन्नास्ति मूर्च्छा आरम्भो वा असंयमस्तस्य
तथा परद्रव्ये रतः कथमात्मानं प्रसाधयति २२१।।
उपधिसद्भावे हि ममत्वपरिणामलक्षणाया मूर्च्छायास्तद्विषयकर्मप्रक्रमपरिणामलक्षण-
स्यारम्भस्य शुद्धात्मरूपहिंसनपरिणामलक्षणस्यासंयमस्य वावश्यम्भावित्वात्तथोपधिद्वितीयस्य पर-
द्रव्यरतत्वेन शुद्धात्मद्रव्यप्रसाधकत्वाभावाच्च ऐकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वमुपधेरवधार्यत एव
इदमत्र
तात्पर्यमेवंविधत्वमुपधेरवधार्य स सर्वथा संन्यस्तव्यः ।।२२१।।
लक्षणप्राणविनाशरूपो परजीवप्राणविनाशरूपो वा नियतं निश्चितं प्राणारम्भः प्राणवधो विद्यते, न केवलं
प्राणारम्भः,
विक्खेवो तस्स चित्तम्मि अविक्षिप्तचित्तपरमयोगरहितस्य सपरिग्रहपुरुषस्य विक्षेपस्तस्य विद्यते
चित्ते मनसीति इति द्वितीयगाथा गेण्हइ स्वशुद्धात्मग्रहणशून्यः सन् गृह्णाति किमपि बहिर्द्रव्यं; विधुणइ
कर्मधूलिं विहाय बहिरङ्गधूलिं विधूनोति विनाशयति; धोवइ निर्मलपरमात्मतत्त्वमलजनकरागादिमलं
विहाय बहिरङ्गमलं धौति प्रक्षालयति; सोसेइ जदं तु आदवे खित्ता निर्विकल्पध्यानातपेन संसारनदी-
शोषणमकुर्वन् शोषयति शुष्कं करोति यतं तु यत्नपरं तु यथा भवति किं कृत्वा आतपे निक्षिप्य
किं तत् पत्तं व चेलखंडं पात्रं वस्त्रखण्डं वा बिभेदि निर्भयशुद्धात्मतत्त्वभावनाशून्यः सन् बिभेति भयं
करोति कस्मात्सकाशात् परदो य परतश्चौरादेः पालयदि परमात्मभावनां न पालयन्न रक्षन्परद्रव्यं
किमपि पालयतीति तृतीयगाथा ।।“१७१९।। अथ सपरिग्रहस्य नियमेन चित्तशुद्धिर्नश्यतीति
विस्तरेणाख्यातिकिध तम्हि णत्थि मुच्छा परद्रव्यममत्वरहितचिच्चमत्कारपरिणतेर्विसदृशा मूर्च्छा कथं
अन्वयार्थ :[तस्मिन् ] उपधिके सद्भावमें [तस्य ] उस (भिक्षु) के [मूर्च्छा ]
मूर्छा, [आरम्भः ] आरंभ [वा ] या [असंयमः ] असंयम [नास्ति ] न हो [कथं ] यह कैसे
हो सकता है ? (कदापि नहीं हो सकता), [तथा ] तथा [परद्रव्ये रतः ] जो परद्रव्यमें रत हो
वह [आत्मानं ] आत्माको [कथं ] कैसे [प्रसाधयति ] साध सकता है ?
।।२२१।।
टीका :उपधिके सद्भावमें, (१) ममत्वपरिणाम जिसका लक्षण है ऐसी मूर्छा,
(२) उपधि संबंधी कर्मप्रक्रमके परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा आरम्भ, अथवा (३)
शुद्धात्मस्वरूपकी हिंसारूप परिणाम जिसका लक्षण है ऐसा असंयम अवश्यमेव होता ही है;
तथा उपधि जिसका द्वितीय हो (अर्थात् आत्मासे अन्य ऐसा परिग्रह जिसने ग्रहण किया हो)
उसके परद्रव्यमें रतपना (
लीनता) होनेके कारण शुद्धात्मद्रव्यकी साधकताका अभाव होता
है; इससे उपधिके ऐकान्तिक अन्तरंग छेदपना निश्चित होता ही है
यहाँ यह तात्पर्य है कि‘उपधि ऐसी है, (परिग्रह वह अन्तरंग छेद ही है ), ऐसा
निश्चित करके उसे सर्वथा छोड़ना चाहिये ।।२२१।।
१. कर्मप्रक्रम = काममें युक्त होना; कामकी व्यवस्था

Page 407 of 513
PDF/HTML Page 440 of 546
single page version

अथ कस्यचित्क्वचित्कदाचित्कथंचित्क श्चिदुपधिरप्रतिषिद्धोऽप्यस्तीत्यपवादमुपदिशति
छेदो जेण ण विज्जदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स
समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ।।२२२।।
छेदो येन न विद्यते ग्रहणविसर्गेषु सेवमानस्य
श्रमणस्तेनेह वर्ततां कालं क्षेत्रं विज्ञाय ।।२२२।।
आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्याभावात्सर्व एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः अयं तु
नास्ति, अपि त्वस्त्येव क्व तस्मिन् परिग्रहाकाङ्क्षितपुरुषे आरंभो वा मनोवचनकायक्रियारहित-
परमचैतन्यप्रतिबन्धक आरम्भो वा कथं नास्ति, किन्त्वस्त्येव; असंजमो तस्स शुद्धात्मानुभूतिविलक्षणा-
संयमो वा कथं नास्ति, किन्त्वस्त्येव तस्य सपरिग्रहस्य तध परदव्वम्मि रदो तथैव निजात्मद्रव्यात्परद्रव्ये
रतः कधमप्पाणं पसाधयदि स तु सपरिग्रहपुरुषः कथमात्मानं प्रसाधयति, न कथमपीति ।।२२१।। एवं
श्वेताम्बरमतानुसारिशिष्यसम्बोधनार्थं निर्ग्रन्थमोक्षमार्गस्थापनमुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथापञ्चकं गतम्
अथ कालापेक्षया परमोपेक्षासंयमशक्त्यभावे सत्याहारसंयमशौचज्ञानोपकरणादिकं किमपि
ग्राह्यमित्यपवादमुपदिशति
छेदो जेण ण विज्जदि छेदो येन न विद्यते येनोपकरणेन शुद्धोपयोग-
लक्षणसंयमस्य छेदो विनाशो न विद्यते कयोः गहणविसग्गेसु ग्रहणविसर्गयोः यस्योप-
करणस्यान्यवस्तुनो वा ग्रहणे स्वीकारे विसर्जने त्यागे किं कुर्वतः तपोधनस्य सेवमाणस्स तदुपकरणं
सेवमानस्य समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता श्रमणस्तेनोपकरणेनेह लोके वर्तताम् किं कृत्वा
कालं क्षेत्रं च विज्ञायेति अयमत्र भावार्थःकालं पञ्चमकालं शीतोष्णादिकालं वा, क्षेत्रं भरतक्षेत्रं
मनुषजाङ्गलादिक्षेत्रं वा, विज्ञाय येनोपकरणेन स्वसंवित्तिलक्षणभावसंयमस्य बहिरङ्गद्रव्यसंयमस्य वा
छेदो न भवति तेन वर्तत इति
।।२२२।। अथ पूर्वसूत्रोदितोपकरणस्वरूपं दर्शयतिअप्पडिकुट्ठं उवधिं
अब, ‘किसीके कहीं कभी किसी प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है’ ऐसे अपवादका
उपदेश करते हैं :
अन्वयार्थ :[ग्रहणविसर्गेषु ] जिस उपधिके (आहारनीहारादिके) ग्रहण-
विसर्जनमें सेवन करनेमें [येन ] जिससे [सेवमानस्य ] सेवन करनेवालेके [छेदः ] छेद [न
विद्यते ]
नहीं होता, [तेन ] उस उपधियुक्त, [कालं क्षेत्रं विज्ञाय ] काल क्षेत्रको जानकर,
[इह ] इस लोकमें [श्रमणः ] श्रमण [वर्तताम् ] भले वर्ते
।।२२२।।
टीका :आत्मद्रव्यके द्वितीय पुद्गलद्रव्यका अभाव होनेसे समस्त ही उपधि निषिद्ध
ग्रहणे विसर्गे सेवतां नहि छेद जेथी थाय छे,
ते उपधि सह वर्तो भले मुनि काळक्षेत्र विजाणीने. २२२
.