Pravachansar (Hindi). Gatha: 108-115.

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सद्द्रव्यं संश्च गुणः संश्चैव च पर्याय इति विस्तारः
यः खलु तस्याभावः स तदभावोऽतद्भावः ।।१०७।।
यथा खल्वेकं मुक्ताफलस्रग्दाम हार इति सूत्रमिति मुक्ताफलमिति त्रेधा विस्तार्यते,
तथैकं द्रव्यं द्रव्यमिति गुण इति पर्याय इति त्रेधा विस्तार्यते यथा चैकस्य
मुक्ताफलस्रग्दाम्नः शुक्लो गुणः शुक्लो हारः शुक्लं सूत्रं शुक्लं मुक्ताफलमिति त्रेधा
विस्तार्यते, तथैकस्य द्रव्यस्य सत्तागुणः सद्द्रव्यं सद्गुणः सत्पर्याय इति त्रेधा विस्तार्यते
यथा चैकस्मिन् मुक्ताफलस्रग्दाम्नि यः शुक्लो गुणः स न हारो न सूत्रं न मुक्ताफलं
यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभाव-
लक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः, तथैकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो
स्थानीयो योऽसौ शुक्लगुणः स प्रदेशाभेदेन किं किं भण्यते शुक्लो हार इति शुक्लं सूत्रमिति
शुक्लं मुक्ताफलमिति भण्यते, यश्च हारः सूत्रं मुक्ताफलं वा तैस्त्रिभिः प्रदेशाभेदेन शुक्लो गुणो
भण्यत इति तद्भावस्य लक्षणमिदम्
तद्भावस्येति कोऽर्थः हारसूत्रमुक्ताफलानां शुक्लगुणेन सह
तन्मयत्वं प्रदेशाभिन्नत्वमिति तथा मुक्तात्मपदार्थे योऽसौ शुद्धसत्तागुणः स प्रदेशाभेदेन किं किं
भण्यते सत्तालक्षणः परमात्मपदार्थ इति सत्तालक्षणः केवलज्ञानादिगुण इति सत्तालक्षणः सिद्धपर्याय
अन्वयार्थ :[सत् द्रव्यं ] ‘सत् द्रव्य’ [सत् च गुणः ] ‘सत् गुण’ [च ] और
[सत् च एव पर्यायः ] ‘सत् पर्याय’[इति ] इस प्रकार [विस्तारः ] (सत्तागुणका)
विस्तार है [यः खलु ] (उनमें परस्पर) जो [तस्य अभावः ] ‘उसका अभाव’ अर्थात्
‘उसरूप होनेका अभाव’ है [सः ] वह [तद्भावः ] ‘तद् -अभाव’ [अतद्भावः ] अर्थात्
अतद्भाव है
।।१०७।।
टीका :जैसे एक मोतियोंकी माला ‘हार’के रूपमें, ‘सूत्र’ (धागा) के रूपमें
और ‘मोती’ के रूपमें(त्रिधा) तीन प्रकारसे विस्तारित की जाती है, उसीप्रकार एक ‘द्रव्य,’
द्रव्यके रूपमें, ‘गुण’के रूपमें और ‘पर्याय’के रूपमेंतीन प्रकारसे विस्तारित किया
जाता है
और जैसे एक मोतियोंकी मालाका शुक्लत्व गुण, ‘शुक्ल हार,’ ‘शुक्ल धागा’, और
‘शुक्ल मोती’,ऐसे तीन प्रकारसे विस्तारित किया जाता है, उसीप्रकार एक द्रव्यका सत्तागुण
‘सत्द्रव्य’, ‘सत्गुण’, और ‘सत्पर्याय’,ऐसे तीन प्रकारसे विस्तारित किया जाता है
और जिस प्रकार एक मोतियोंकी मालामें जो शुक्लत्वगुण है वह हार नहीं है, धागा
नहीं है या मोती नहीं है, और जो हार, धागा या मोती है वह शुक्लत्वगुण नहीं है;इसप्रकार
१ मोतियोंकी माला = मोती का हार, मौक्तिकमाला

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न पर्यायो यच्च द्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वा स न सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः
स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्वनिबन्धनभूतः
।।१०७।।
इति भण्यते यश्च परमात्मपदार्थः केवलज्ञानादिगुणः सिद्धत्वपर्याय इति तैश्च त्रिभिः (प्रदेशाभेदेन ?)
शुद्धसत्तागुणो भण्यत इति तद्भावस्य लक्षणमिदम् तद्भावस्येति कोऽर्थः परमात्मपदार्थ-
केवलज्ञानादिगुणसिद्धत्वपर्यायाणां शुद्धसत्तागुणेन सह संज्ञादिभेदेऽपि प्रदेशैस्तन्मयत्वमिति जो खलु
तस्स अभावो यस्तस्य पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्य खलु स्फु टं संज्ञादिभेदविवक्षायामभावः सो तदभावो
पूर्वोक्तलक्षणस्तदभावो भण्यते स च तदभावः किं भण्यते अतब्भावो न तद्भावस्तन्मयत्वम् किंच
अतद्भावः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदः इत्यर्थः तद्यथायथा मुक्ताफलहारे योऽसौ शुक्लगुणस्तद्वाचके न
शुक्लमित्यक्षरद्वयेन हारो वाच्यो न भवति सूत्रं वा मुक्ताफलं वा, हारसूत्रमुक्ताफलशब्दैश्च शुक्लगुणो
वाच्यो न भवति
एवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य पूर्वोक्त लक्षण-
तद्भावस्याभावस्तदभावो भण्यते स च तदभावः पुनरपि किं भण्यते अतद्भावः संज्ञा-
लक्षणप्रयोजनादिभेद इति तथा मुक्तजीवे योऽसौ शुद्धसत्तागुणस्तद्वाचकेन सत्ताशब्देन मुक्तजीवो
प्र. २७
एक -दूसरेमें जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होनेका अभाव’ है वह ‘तद् -अभाव’ लक्षण
‘अतद्भाव’ है, जो कि अन्यत्वका कारण है
इसीप्रकार एक द्रव्यमें जो सत्तागुण है वह द्रव्य
नहीं है, अन्यगुण नहीं है, या पर्याय नहीं है; और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है वह सत्तागुण
इसप्रकार एक -दूसरेमें जो ‘उसका अभाव’ अर्थात् ‘तद्रूप होनेका अभाव’ है वह
‘तद् -अभाव’ लक्षण ‘अतद्भाव’ है जो कि अन्यत्वका कारण है
भावार्थ :एक आत्माका विस्तारकथनमें ‘आत्मद्रव्य’के रूपमें ‘ज्ञानादिगुण’ के
रूपमें और ‘सिद्धत्वादि पर्याय’ के रूपमेंतीन प्रकारसे वर्णन किया जाता है इसीप्रकार
सर्व द्रव्योंके सम्बन्धमें समझना चाहिये
और एक आत्माके अस्तित्व गुणको ‘सत् आत्मद्रव्य’, सत् ज्ञानादिगुण’ और ‘सत्
सिद्धत्वादि पर्याय’ऐसे तीन प्रकारसे विस्तारित किया जाता है; इसीप्रकार सभी द्रव्योंके
सम्बन्धमें समझना चाहिये
और एक आत्माका जो अस्तित्व गुण है वह आत्मद्रव्य नहीं है, (सत्ता गुणके बिना)
ज्ञानादिगुण नहीं है, या सिद्धत्वादि पर्याय नहीं है; और जो आत्मद्रव्य है, (अस्तित्वके सिवाय)
ज्ञानादिगुण है या सिद्धत्वादि पर्याय है वह अस्तित्व गुण नहीं है
इसप्रकार उनमें परस्पर अतद्भाव
है, जिसके कारण उनमें अन्यत्व है इसीप्रकार सभी द्रव्योंके सम्बन्धमें समझना चाहिये
१. अन्यगुण = सत्ता के अतिरिक्त दूसरा कोई भी गुण
२. तद् -अभाव = उसका अभाव; (तद् -अभाव = तस्य अभावः) तद्भाव अतद्भावका लक्षण (स्वरूप) है;
अतद्भाव अन्यत्वका कारण है

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अथ सर्वथाऽभावलक्षणत्वमतद्भावस्य निषेधयति
जं दव्वं तं ण गुणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो
एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णिद्दिट्ठो ।।१०८।।
यद्द्रव्यं तन्न गुणो योऽपि गुणः स न तत्त्वमर्थात
एष ह्यतद्भावो नैव अभाव इति निर्दिष्टः ।।१०८।।
वाच्यो न भवति केवलज्ञानादिगुणो वा सिद्धपर्यायो वा, मुक्तजीवकेवलज्ञानादिगुणसिद्धपर्यायशब्दैश्च
शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवति
इत्येवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः स तस्य
पूर्वोक्तलक्षणतद्भावस्याभावस्तदभावो भण्यते स च तदभावः पुनरपि किं भण्यते अतद्भावः संज्ञा-
लक्षणप्रयोजनादिभेद इत्यर्थः यथात्र शुद्धात्मनि शुद्धसत्तागुणेन सहाभेदः स्थापितस्तथा यथासंभवं
सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्य इत्यभिप्रायः ।।१०७।। अथ गुणगुणिनोः प्रदेशभेदनिषेधेन तमेव संज्ञादि-
भेदरूपमतद्भावं दृढयतिजं दव्वं तं ण गुणो यद्द्रव्यं स न गुणः, यन्मुक्तजीवद्रव्यं स शुद्धः सन् गुणो
न भवति मुक्तजीवद्रव्यशब्देन शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवतीत्यर्थः जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो
इसप्रकार इस गाथामें सत्ताका उदाहरण देकर अतद्भावको स्पष्टतया समझाया है
(यहाँ इतना विशेष है कि जो सत्ता गुणके सम्बन्धमें कहा है, वह अन्य गुणोंके विषयमें
भी भलीभाँति समझ लेना चाहिये जैसे कि :सत्ता गुणकी भाँति एक आत्माके पुरुषार्थ
गुणको ‘पुरुषार्थी आत्मद्रव्य’ ‘पुरुषार्थी ज्ञानादिगुण’ और ‘पुरुषार्थी सिद्धत्वादि पर्याय’
इसप्रकार विस्तरित कर सकते हैं अभिन्नप्रदेश होनेसे इसप्रकार विस्तार किया जाता है, फि र
भी संज्ञा -लक्षण -प्रयोजनादि भेद होनेसे पुरुषार्थगुणको तथा आत्मद्रव्यको, ज्ञानादि अन्य गुण
और सिद्धत्वादि पर्यायको अतद्भाव है, जो कि उनमें अन्यत्वका कारण है
।।१०७।।
अब, सर्वथा अभाव वह अतद्भावका लक्षण है, इसका निषेध करते हैं :
अन्वयार्थ :[अर्थात् ] स्वरूप अपेक्षासे [यद् द्रव्यं ] जो द्रव्य है [तत् न गुणः ]
वह गुण नहीं है, [यः अपि गुणः ] और जो गुण है [सः न तत्त्वं ] यह द्रव्य नहीं है [एषः
हि अतद्भावः ] यह अतद्भाव है; [न एव अभावः ] सर्वथा अभाव वह अतद्भाव नहीं है;
[इति निर्दिष्टः ] ऐसा (जिनेन्द्रदेव द्वारा) दरशाया गया है
।।१०८।।
स्वरूपे नथी जे द्रव्य ते गुण, गुण ते नहि द्रव्य छे ,
आने अतत्पणुं जाणवुं, न अभावने; भाख्युं जिने. १०८.

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एकस्मिन्द्रव्ये यद् द्रव्यं गुणो न तद्भवति, यो गुणः स द्रव्यं न भवतीत्येवं यद् द्रव्यस्य
गुणरूपेण गुणस्य वा द्रव्यरूपेण तेनाभवनं सोऽतद्भावः, एतावतैवान्यत्वव्यवहारसिद्धेः
पुनर्द्रव्यस्याभावो गुणो गुणस्याभावो द्रव्यमित्येवंलक्षणोऽभावोऽतद्भावः एवं सत्येकद्रव्य-
स्यानेकत्वमुभयशून्यत्वमपोहरूपत्वं वा स्यात तथा हियथा खलु चेतनद्रव्यस्याभावो-
ऽचेतनद्रव्यमचेतनद्रव्यस्याभावश्चेतनद्रव्यमिति तयोरनेकत्वं, तथा द्रव्यस्याभावो गुणो
गुणस्याभावो द्रव्यमित्येकस्यापि द्रव्यस्यानेकत्वं स्यात
यथा सुवर्णस्याभावे सुवर्णत्वस्या-
भावः सुवर्णत्वस्याभावे सुवर्णस्याभाव इत्युभयशून्यत्वं, तथा द्रव्यस्याभावे गुणस्याभावो
योऽपि गुणः स न तत्त्वं द्रव्यमर्थतः परमार्थतः, यः शुद्धसत्तागुणः स मुक्तात्मद्रव्यं न भवति
शुद्धसत्ताशब्देन मुक्तात्मद्रव्यं वाच्यं न भवतीत्यर्थः एसो हि अतब्भावो एष उक्तलक्षणो हि
स्फु टमतद्भावः उक्तलक्षण इति कोऽर्थः गुणगुणिनोः संज्ञादिभेदेऽपि प्रदेशभेदाभावः णेव अभावो
त्ति णिद्दिट्ठो नैवाभाव इति निर्दिष्टः नैव अभाव इति कोऽर्थः यथा सत्तावाचकशब्देन मुक्तात्म-
द्रव्यं वाच्यं न भवति तथा यदि सत्ताप्रदेशैरपि सत्तागुणात्सकाशाद्भिन्नं भवति तदा यथा
टीका :एक द्रव्यमें, जो द्रव्य है वह गुण नहीं है, जो गुण है वह द्रव्य नहीं है;
इसप्रकार जो द्रव्यका गुणरूपसे अभवन (-न होना) अथवा गुणका द्रव्यरूपसे अभवन वह
अतद्भाव है; क्योंकि इतनेसे ही अन्यत्वव्यवहार (-अन्यत्वरूप व्यवहार) सिद्ध होता है
परन्तु
द्रव्यका अभाव गुण है, गुणका अभाव द्रव्य है;ऐसे लक्षणवाला अभाव वह अतद्भाव नहीं
है यदि ऐसा हो तो (१) एक द्रव्यको अनेकत्व आ जायगा, (२) उभयशून्यता (दोनोंका
अभाव) हो जायगी, अथवा (३) अपोहरूपता आ जायगी इसी को समझाते हैं :
(द्रव्यका अभाव वह गुण है और गुणका अभाव वह द्रव्य; वह ऐसा मानने पर प्रथम
दोष इस प्रकार आयगा :)
(१) जैसे चेतनद्रव्यका अभाव वह अचेतन द्रव्य है, अचेतनद्रव्यका अभाव वह
चेतनद्रव्य है,इसप्रकार उनके अनेकत्व (द्वित्व) है, उसीप्रकार द्रव्यका अभाव वह गुण,
गुणका अभाव वह द्रव्यइसप्रकार एक द्रव्यके भी अनेकत्व आ जायगा (अर्थात् द्रव्यके
एक होनेपर भी उसके अनेकत्वका प्रसंग आ जायगा )
(अथवा उभयशून्यत्वरूप दूसरा दोष इस प्रकार आता है :)
(२) जैसे सुवर्णके अभाव होने पर सुवर्णत्वका अभाव हो जाता है और
सुवर्णत्वका अभाव होने पर सुवर्णका अभाव हो जाता है,इसप्रकार उभयशून्यत्व
दोनोंका अभाव हो जाता है; उसीप्रकार द्रव्यका अभाव होने पर गुणका अभाव और गुणका
अभाव होने पर द्रव्यका अभाव हो जायगा;
इसप्रकार उभयशून्यता हो जायगी (अर्थात्

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गुणस्याभावे द्रव्यस्याभाव इत्युभयशून्यत्वं स्यात यथा पटाभावमात्र एव घटो घटाभावमात्र
एव पट इत्युभयोरपोहरूपत्वं, तथा द्रव्याभावमात्र एव गुणो गुणाभावमात्र एव द्रव्य-
मित्यत्राप्यपोहरूपत्वं स्यात
ततो द्रव्यगुणयोरेकत्वमशून्यत्वमनपोहत्वं चेच्छता यथोदित
एवातद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः ।।१०८।।
अथ सत्ताद्रव्ययोर्गुणगुणिभावं साधयति
जो खलु दव्वसहावो परिणामो सो गुणो सदविसिट्ठो
सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति जिणोवदेसोयं ।।१०९।।
जीवप्रदेशेभ्यः पुद्गलद्रव्यं भिन्नं सद्द्रव्यान्तरं भवति तथा सत्तागुणप्रदेशेभ्यो मुक्तजीवद्रव्यं
सत्तागुणाद्भिन्नं सत्पृथग्द्रव्यान्तरं प्राप्नोति
एवं किं सिद्धम् सत्तागुणरूपं पृथग्द्रव्यं मुक्तात्मद्रव्यं
च पृथगिति द्रव्यद्वयं जातं, न च तथा द्वितीयं च दूषणं प्राप्नोतियथा सुवर्णत्वगुणप्रदेशेभ्यो
द्रव्य तथा गुण दोनोंके अभावका प्रसंग आ जायगा )
(अथवा अपोहरूपता नामक तीसरा दोष इसप्रकार आता है :)
(३) जैसे पटाभावमात्र ही घट है, घटाभावमात्र ही पट है, (अर्थात् वस्त्रके केवल
अभाव जितना ही घट है, और घटके केवल अभाव जितना ही वस्त्र है)इसप्रकार दोनोंके
अपोहरूपता है, उसीप्रकार द्रव्याभावमात्र ही गुण और गुणाभावमात्र ही द्रव्य होगा;इसप्रकार
इसमें भी (द्रव्य -गुणमें भी) अपोहरूपता आ जायगी, (अर्थात् केवल नकाररूपताका प्रसङ्ग
आ जायगा )
इसलिये द्रव्य और गुणका एकत्व, अशून्यत्व और अनपोहत्व चाहनेवालेको यथोक्त
ही (जैसा कहा वैसा ही) अतद्भाव मानना चाहिये ।।१०८।।
अब, सत्ता और द्रव्यका गुणगुणीपना सिद्ध करते हैं :
१. अपोहरूपता = सर्वथा नकारात्मकता; सर्वथा भिन्नता (द्रव्य और गुणमें एक -दूसरेका केवल नकार ही
हो तो ‘द्रव्य गुणवाला है’ ‘यह गुण इस द्रव्यका है’इत्यादि कथनसे सूचित किसी प्रकारका सम्बन्ध
ही द्रव्य और गुणके नहीं बनेगा )
२. अनपोहत्व = अपोहरूपताका न होना; केवल नकारात्मकताका न होना
परिणाम द्रव्यस्वभाव जे, ते गुण ‘सत्’-अविशिष्ट छे;
‘द्रव्यो स्वभावे स्थित सत् छे’
ए ज आ उपदेश छे. १०९.

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यः खलु द्रव्यस्वभावः परिणामः स गुणः सदविशिष्टः
सदवस्थितं स्वभावे द्रव्यमिति जिनोपदेशोऽयम् ।।१०९।।
द्रव्यं हि स्वभावे नित्यमवतिष्ठमानत्वात्सदिति प्राक् प्रतिपादितम् स्वभावस्तु
द्रव्यस्य परिणामोऽभिहितः य एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः, स एव सदविशिष्टो
गुण इतीह साध्यते यदेव हि द्रव्यस्वरूपवृत्तिभूतमस्तित्वं द्रव्यप्रधाननिर्देशात्सदिति
संशब्द्यते तदविशिष्टगुणभूत एव द्रव्यस्य स्वभावभूतः परिणामः, द्रव्यवृत्तेर्हि त्रिकोटिसमय-
भिन्नस्य सुवर्णस्याभावस्तथैव सुवर्णप्रदेशेभ्यो भिन्नस्य सुवर्णत्वगुणस्याप्यभावः, तथा सत्तागुण-
प्रदेशेभ्यो भिन्नस्य मुक्तजीवद्रव्यस्याभावस्तथैव मुक्तजीवद्रव्यप्रदेशेभ्यो भिन्नस्य सत्तागुणस्याप्यभावः

इत्युभयशून्यत्वं प्राप्नोति
यथेदं मुक्तजीवद्रव्ये संज्ञादिभेदभिन्नस्यातद्भावस्तस्य सत्तागुणेन सह
प्रदेशाभेदव्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासंभवं ज्ञातव्यमित्यर्थः ।।१०८।। एवं द्रव्यस्यास्तित्व-
कथनरूपेण प्रथमगाथा, पृथक्त्वलक्षणातद्भावाभिधानान्यत्वलक्षणयोः कथनेन द्वितीया, संज्ञालक्षण-
प्रयोजनादिभेदरूपस्यातद्भावस्य विवरणरूपेण तृतीया, तस्यैव दृढीकरणार्थं च चतुर्थीति द्रव्यगुण-

योरभेदविषये युक्तिकथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन पञ्चमस्थलं गतम्
अथ सत्ता गुणो भवति, द्रव्यं
१. वृत्ति = वर्तना; अस्तित्व रहना वह; टिकना वह
अन्वयार्थ :[यः खलु ] जो, [द्रव्यस्वभावः परिणामः ] द्रव्यका स्वभावभूत
(उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक) परिणाम है [सः ] वह (परिणाम) [सदविशिष्टः गुणः ] ‘सत्’
से अविशिष्ट (-सत्तासे अभिन्न है ऐसा) गुण है
[स्वभावे अवस्थितं ] ‘स्वभावमें
अवस्थित (होनेसे) [द्रव्यं ] द्रव्य [सत् ] सत् है’[इति जिनोपदेशः ] ऐसा जो (९९
वीं गाथामें कथित) जिनोपदेश है [अयम् ] वही यह है (अर्थात् ९९वीं गाथाके
कथनमेंसे इस गाथामें कथित भाव सहज ही निकलता है ) ।।१०९।।
टीका :द्रव्य स्वभावमें नित्य अवस्थित होनेसे सत् है, ऐसा पहले (९९वीं
गाथामें) प्रतिपादित किया गया है; और (वहाँ) द्रव्यका स्वभाव परिणाम कहा गया है
यहाँ यह सिद्ध किया जा रहा है किजो द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम है वही ‘सत्’
से अविशिष्ट (-अस्तित्वसे अभिन्न ऐसाअस्तित्वसे कोई अन्य नहीं ऐसा) गुण है
द्रव्यके स्वरूपका वृत्तिभूत ऐसा जो अस्तित्व द्रव्यप्रधान कथनके द्वारा ‘सत्’ शब्दसे
कहा जाता है उससे अविशिष्ट (-उस अस्तित्वसे अनन्य) गुणभूत ही द्रव्यस्वभावभूत
परिणाम है; क्योंकि द्रव्यकी
वृत्ति (अस्तित्व) तीन प्रकारके समयको स्पर्शित करती होनेसे

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स्पर्शिन्याः प्रतिक्षणं तेन तेन स्वभावेन परिणमनात द्रव्यस्वभावभूत एव तावत्परिणामः
स त्वस्तित्वभूतद्रव्यवृत्त्यात्मकत्वात्सदविशिष्टो द्रव्यविधायको गुण एवेति सत्ताद्रव्ययो-
र्गुणगुणिभावः सिद्धयति
।।१०९।।
अथ गुणगुणिनोर्नानात्वमुपहन्ति
णत्थि गुणो त्ति व कोई पज्जाओ त्तीह वा विणा दव्वं
दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दव्वं सयं सत्ता ।।११०।।
च गुणी भवतीति प्रतिपादयतिजो खलु दव्वसहावो परिणामो यः खलु स्फु टं द्रव्यस्य स्वभावभूतः
परिणामः पञ्चेन्द्रियविषयानुभवरूपमनोव्यापारोत्पन्नसमस्तमनोरथरूपविकल्पजालाभावे सति यश्चिदा-
नन्दैकानुभूतिरूपः स्वस्थभावस्तस्योत्पादः, पूर्वोक्तविकल्पजालविनाशो व्ययः, तदुभयाधारभूतजीवत्वं

ध्रौव्यमित्युक्तलक्षणोत्पादव्ययध्रौव्यात्मकजीवद्रव्यस्य स्वभावभूतो योऽसौ परिणामः
सो गुणो स गुणो
भवति स परिणामः कथंभूतः सन्गुणो भवति सदविसिट्ठो सतोऽस्तित्वादविशिष्टोऽभिन्नस्तदुत्पादादित्रयं
तिष्ठत्यस्तित्वं चैकं तिष्ठत्यस्तित्वेन सह कथमभिन्नो भवतीति चेत् ‘‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’’
इति वचनात् एवं सति सत्तैव गुणो भवतीत्यर्थः इति गुणव्याख्यानं गतम् सदवट्ठिदं सहावे दव्वं ति
सदवस्थितं स्वभावे द्रव्यमिति द्रव्यं परमात्मद्रव्यं भवति किं कर्तृ सदिति केन अभेद-
नयेन कथंभूतम् सत् अवस्थितम् क्व उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकस्वभावे जिणोवदेसोयं अयं
जिनोपदेश इति ‘सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हु परिणामो’ इत्यादिपूर्वसूत्रे यदुक्तं
तदेवेदं व्याख्यानम्, गुणकथनं पुनरधिकमिति तात्पर्यम्
यथेदं जीवद्रव्ये गुणगुणिनोर्व्याख्यानं
(वह वृत्तिअस्तित्व) प्रतिक्षण उस -उस स्वभावरूप परिणमित होती है
(इसप्रकार) प्रथम तो द्रव्यका स्वभावभूत परिणाम है; और वह (उत्पाद -व्यय-
ध्रौव्यात्मक परिणाम) अस्तित्वभूत ऐसी द्रव्यकी वृत्तिस्वरूप होनेसे, ‘सत्’ से अविशिष्ट,
द्रव्यविधायक (-द्रव्यका रचयिता) गुण ही है
इसप्रकार सत्ता और द्रव्यका गुणगुणीपना
सिद्ध होता है ।।१०९।।
अब गुण और गुणीके अनेकत्वका खण्डन करते हैं :
पर्याय के गुण एवुं कोई न द्रव्य विण विश्वे दीसे;
द्रव्यत्व छे वळी भाव; तेथी द्रव्य पोते सत्त्व छे . ११०.

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नास्ति गुण इति वा कश्चित् पर्याय इतीह वा विना द्रव्यम्
द्रव्यत्वं पुनर्भावस्तस्माद्द्रव्यं स्वयं सत्ता ।।११०।।
न खलु द्रव्यात्पृथग्भूतो गुण इति वा पर्याय इति वा कश्चिदपि स्यात्; यथा
सुवर्णात्पृथग्भूतं तत्पीतत्वादिकमिति वा तत्कुण्डलत्वादिकमिति वा अथ तस्य तु द्रव्यस्य
स्वरूपवृत्तिभूतमस्तित्वाख्यं यद्द्रव्यत्वं स खलु तद्भावाख्यो गुण एव भवन् किं हि
द्रव्यात्पृथग्भूतत्वेन वर्तते
न वर्तत एव तर्हि द्रव्यं सत्ताऽस्तु स्वयमेव ।।११०।।
अथ द्रव्यस्य सदुत्पादासदुत्पादयोरविरोधं साधयति
एवंविहं सहावे दव्वं दव्वत्थपज्जयत्थेहिं
सदसब्भावणिबद्धं पादुब्भावं सदा लभदि ।।१११।।
कृतं तथा सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्यमिति ।।१०९।। अथ गुणपर्यायाभ्यां सह द्रव्यस्याभेदं दर्शयतिणत्थि
नास्ति न विद्यते स कः गुणो त्ति व कोई गुण इति कश्चित् न केवलं गुणः पज्जाओ त्तीह वा पर्यायो
वेतीह कथम् विणा विना किं विना दव्वं द्रव्यम् इदानीं द्रव्यं कथ्यते दव्वत्तं पुण भावो
द्रव्यत्वमस्तित्वम् तत्पुनः किं भण्यते भावः भावः कोऽर्थः उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकसद्भावः तम्हा
दव्वं सयं सत्ता तस्मादभेदनयेन सत्ता स्वयमेव द्रव्यं भवतीति तद्यथामुक्तात्मद्रव्ये परमावाप्तिरूपो
अन्वयार्थ :[इह ] इस विश्वमें [गुणः इति वा कश्चित् ] गुण ऐसा कुछ [पर्यायः
इति वा ] या पर्याय ऐसा कुछ [द्रव्यं विना नास्ति ] द्रव्यके बिना (-द्रव्यसे पृथक्) नहीं होता;
[द्रव्यत्वं पुनः भावः ] और द्रव्यत्व वह भाव है (अर्थात् अस्तित्व गुण है); [तस्मात् ] इसलिये
[द्रव्यं स्वयं सत्ता ] द्रव्य स्वयं सत्ता (अस्तित्व) है
।।११०।।
टीका :वास्तवमें द्रव्यसे पृथग्भूत (भिन्न) ऐसा कोई गुण या ऐसी कोई पर्याय
कुछ नहीं होता; जैसेसुवर्णसे पृथग्भूत उसका पीलापन आदि या उसका कुण्डलत्वादि नहीं
होता तदनुसार अब, उस द्रव्यके स्वरूपकी वृत्तिभूत जो ‘अस्तित्व’ नामसे कहा जानेवाला
द्रव्यत्व वह उसका ‘भाव’ नामसे क हा जानेवाला गुण ही होनेसे, क्या वह द्रव्यसे पृथक्रूप
वर्तता है ? नहीं ही वर्तता
तब फि र द्रव्य स्वयमेव सत्ता हो ।।११०।।
अब, द्रव्यके सत् -उत्पाद और असत् -उत्पाद होनेमें अविरोध सिद्ध करते हैं :
आवुं दरव द्रव्यार्थपर्यायार्थथी निजभावमां
सद्भाव -अणसद्भावयुत उत्पादने पामे सदा. १११.

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एवंविधं स्वभावे द्रव्यं द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्याम्
सदसद्भावनिबद्धं प्रादुर्भावं सदा लभते ।।१११।।
एवमेतद्यथोदितप्रकारसाकल्याकलंक लांछनमनादिनिधनं सत्स्वभावे प्रादुर्भावमास्कन्दति
द्रव्यम् स तु प्रादुर्भावो द्रव्यस्य द्रव्याभिधेयतायां सद्भावनिबद्ध एव स्यात्; पर्यायाभिधेयतायां
त्वसद्भावनिबद्ध एव तथा हियदा द्रव्यमेवाभिधीयते न पर्यायास्तदा प्रभवावसान-
वर्जिताभिर्यौगपद्यप्रवृत्ताभिर्द्रव्यनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिः प्रभवावसानलांछनाः क्रमप्रवृत्ताः
मोक्षपर्यायः केवलज्ञानादिरूपो गुणसमूहश्च येन कारणेन तद्द्वयमपि परमात्मद्रव्यं विना नास्ति,
न विद्यते
कस्मात् प्रदेशाभेदादिति उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकशुद्धसत्तारूपं मुक्तात्मद्रव्यं भवति
तस्मादभेदेन सत्तैव द्रव्यमित्यर्थः यथा मुक्तात्मद्रव्ये गुणपर्यायाभ्यां सहाभेदव्याख्यानं कृतं तथा
यथासंभवं सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्यमिति ।।११०।। एवं गुणगुणिव्याख्यानरूपेण प्रथमगाथा, द्रव्यस्य
गुणपर्यायाभ्यां सह भेदो नास्तीति कथनरूपेण द्वितीया चेति स्वतन्त्रगाथाद्वयेन षष्ठस्थलं गतम् ।। अथ
द्रव्यस्य द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यां सदुत्पादासदुत्पादौ दर्शयतिएवंविहसब्भावे एवंविधसद्भावे
सत्तालक्षणमुत्पादव्ययध्रौव्यलक्षणं गुणपर्यायलक्षणं द्रव्यं चेत्येवंविधपूर्वोक्तसद्भावे स्थितं, अथवा एवंविहं
सहावे
इति पाठान्तरम्
तत्रैवंविधं पूर्वोक्तलक्षणं स्वकीयसद्भावे स्थितम् किम् दव्वं द्रव्यं कर्तृ किं
१. अकलंक = निर्दोष (यह द्रव्य पूर्वकथित सर्वप्रकार निर्दोष लक्षणवाला है )
२. अभिधेयता = कहने योग्यपना; विवक्षा; कथनी
३. अन्वयशक्ति = अन्वयरूपशक्ति (अन्वयशक्तियाँ उत्पत्ति और नाशसे रहित हैं, एक ही साथ प्रवृत्त
होती हैं और द्रव्यको उत्पन्न करती हैं ज्ञान, दर्शन, चारित्र इत्यादि आत्मद्रव्यकी अन्वयशक्तियाँ हैं )
अन्वयार्थ :[एवंविधं द्रव्यं ] ऐसा (पूर्वोक्त) द्रव्य [स्वभावे ] स्वभावमें
[द्रव्यार्थपर्यायार्थाभ्यां ] द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंके द्वारा [सदसद्भावनिबद्धं प्रादुर्भावं ]
सद्भावसंबद्ध और असद्भावसंबद्ध उत्पादको [सदा लभते ] सदा प्राप्त करता है
।।१११।।
टीका :इसप्रकार यथोदित (पूर्वकथित) सर्व प्रकारसे अकलंक लक्षणवाला,
अनादिनिधन वह द्रव्य सत् -स्वभावमें (अस्तित्वस्वभावमें) उत्पादको प्राप्त होता है द्रव्यका
वह उत्पाद, द्रव्यकी अभिधेयताके समय सद्भावसंबद्ध ही है और पर्यायोंकी अभिधेयताके
समय असद्भावसंबद्ध ही है इसे स्पष्ट समझाते हैं :
जब द्रव्य ही कहा जाता हैपर्यायें नहीं, तब उत्पत्तिविनाश रहित, युगपत् प्रवर्तमान,
द्रव्यको उत्पन्न करनेवाली अन्वयशक्तियोंके द्वारा, उत्पत्तिविनाशलक्षणवाली, क्रमशः प्रवर्तमान,

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पर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो द्रव्यस्य सद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः,
हेमवत
तथा हियदा हेमैवाभिधीयते नांगदादयः पर्यायास्तदा हेमसमानजीविताभिर्यौग-
पद्यप्रवृत्ताभिर्हेमनिष्पादिकाभिरन्वयशक्ति भिरंगदादिपर्यायसमानजीविताः क्रमप्रवृत्ता अंगदादि-
पर्यायनिष्पादिका व्यतिरेकव्यक्तीस्तास्ताः संक्रामतो हेम्नः सद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः
यदा
तु पर्याया एवाभिधीयन्ते न द्रव्यं, तदा प्रभवावसानलांछनाभिः क्रमप्रवृत्ताभिः
पर्यायनिष्पादिकाभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिः प्रभवावसानवर्जिता यौगपद्यप्रवृत्ता द्रव्य-
करोति सदा लभदि सदा सर्वकालं लभते किं कर्मतापन्नम् पादुब्भावं प्रादुर्भावमुत्पादम्
कथंभूतम् सदसब्भावणिबद्धं सद्भावनिबद्धमसद्भावनिबद्धं च काभ्यां कृत्वा दव्वत्थपज्जयत्थेहिं
द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्यामिति तथाहियथा यदा काले द्रव्यार्थिकनयेन विवक्षा क्रियते यदेव
कटकपर्याये सुवर्णं तदेव कङ्कणपर्याये नान्यदिति, तदा काले सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः कस्मादिति
चेत् द्रव्यस्य द्रव्यरूपेणाविनष्टत्वात् यदा पुनः पर्यायविवक्षा क्रियते कटकपर्यायात् सकाशादन्यो यः
कङ्कणपर्यायः सुवर्णसम्बन्धी स एव न भवति, तदा पुनरसदुत्पादः कस्मादिति चेत् पूर्वपर्यायस्य
विनष्टत्वात् तथा यदा द्रव्यार्थिकनयविवक्षा क्रियते य एव पूर्वं गृहस्थावस्थायामेवमेवं गृहव्यापारं
कृतवान् पश्चाज्जिनदीक्षां गृहीत्वा स एवेदानीं रामादिकेवलिपुरुषो निश्चयरत्नत्रयात्मकपरमात्मध्याने-
*१. व्यतिरेकव्यक्ति = भेदरूप प्रगटता [व्यतिरेकव्यक्तियाँ उत्पत्ति विनाशको प्राप्त होती हैं, क्रमशः प्रवृत्त
होती हैं और पर्यायोंको उत्पन्न करती हैं श्रुतज्ञान, केवलज्ञान इत्यादि तथा स्वरूपाचरण चारित्र,
यथाख्यातचारित्र इत्यादि आत्मद्रव्यकी व्यतिरेकव्यक्तियाँ हैं व्यतिरेक और अन्वयके अर्थोंके लिये
१९९वें पृष्ठका फु टनोट (टिप्पणी) देखें ]
२. सद्भावसंबद्ध = सद्भाव -अस्तित्वके साथ संबंध रखनेवाला,संकलित [द्रव्यकी विवक्षाके समय
अन्वय शक्तियोंको मुख्य और व्यतिरेकव्यक्तियोंको गौण कर दिया जाता है, इसलिये द्रव्यके
सद्भावसंबद्ध उत्पाद (सत् -उत्पाद, विद्यमानका उत्पाद) है
]
પ્ર. ૨૮
पर्यायोंकी उत्पादक उन -उन व्यतिरेकव्यक्तियोंको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको सद्भावसंबद्ध ही
उत्पाद है; सुवर्णकी भाँति जैसे :जब सुवर्ण ही कहा जाता हैबाजूबंधा आदि पर्यायें
नहीं, तब सुवर्ण जितनी स्थायी, युगपत् प्रवर्तमान, सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियोंके द्वारा
बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितने स्थायी, क्रमशः प्रवर्तमान, बाजूबंध इत्यादि पर्यायोंकी उत्पादक
उन -उन व्यतिरेकव्यक्तियोंको प्राप्त होनेवाले सुवर्णका सद्भावसंबद्ध ही उत्पाद है
और जब पर्यायें ही कही जाती हैं,द्रव्य नहीं, तब उत्पत्तिविनाश जिनका लक्षण है
ऐसी, क्रमशः प्रवर्तमान, पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली उन -उन व्यतिरेकव्यक्तियोंके द्वारा,
उत्पत्तिविनाश रहित, युगपत् प्रवर्तमान, द्रव्यकी उत्पादक अन्वयशक्तियोंको प्राप्त होनेवाले

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निष्पादिका अन्वयशक्तीः संक्रामतो द्रव्यस्यासद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः, हेमवदेव तथा
हियदांगदादिपर्याया एवाभिधीयन्ते, न हेम, तदांगदादिपर्यायसमानजीविताभिः
क्रमप्रवृत्ताभिरंगदादिपर्यायनिष्पादिकाभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिस्ताभिस्ताभिर्हेमसमानजीविता
यौगपद्यप्रवृत्ता हेमनिष्पादिका अन्वयशक्तिः संक्रामतो हेम्नोऽसद्भावनिबद्ध एव प्रादुर्भावः
अथ पर्यायाभिधेयतायामप्यसदुत्पत्तौ पर्यायनिष्पादिकास्तास्ता व्यतिरेकव्यक्तयो यौगपद्यप्रवृत्ति-
मासाद्यान्वयशक्तित्वमापन्नाः पर्यायान् द्रवीकुर्युः, तथांगदादिपर्यायनिष्पादिकाभिस्ताभि-
स्ताभिर्व्यतिरेकव्यक्तिभिर्यौगपद्यप्रवृत्तिमासाद्यान्वयशक्तित्वमापन्नाभिरंगदादिपर्याया अपि हेमी-
क्रियेरन्
द्रव्याभिधेयतायामपि सदुत्पत्तौ द्रव्यनिष्पादिका अन्वयशक्तयः क्रमप्रवृत्तिमासाद्य
तत्तद्वयतिरेकव्यक्तित्वमापन्ना द्रव्यं पर्यायीकुर्युः, तथा हेमनिष्पादिकाभिरन्वयशक्तिभिः
नानन्तसुखामृततृप्तो जातः, न चान्य इति, तदा सद्भावनिबद्ध एवोत्पादः कस्मादिति चेत्
पुरुषत्वेनाविनष्टत्वात् यदा तु पर्यायनयविवक्षा क्रियते पूर्वं सरागावस्थायाः सकाशादन्योऽयं
भरतसगररामपाण्डवादिकेवलिपुरुषाणां संबन्धी निरुपरागपरमात्मपर्यायः स एव न भवति, तदा
द्रव्यको असद्भावसंबद्ध ही उत्पाद है; सुवर्णकी ही भाँति वह इसप्रकार जब बाजूबंधादि
पर्यायें ही कही जाती हैंसुवर्ण नहीं, तब बाजूबंध इत्यादि पर्याय जितनी टिकनेवाली, क्रमशः
प्रवर्तमान, बाजूबंध इत्यादि पर्यायोंकी उत्पादक उन -उन व्यतिरेक -व्यक्तियोंके द्वारा, सुवर्ण
जितनी टिकनेवाली, युगपत् प्रवर्तमान, सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियोंको प्राप्त सुवर्णके
असद्भावयुक्त ही उत्पाद है
अब, पर्यायोंकी अभिधेयता (कथनी) के समय भी, असत् -उत्पादमें पर्यायोंको उत्पन्न
करनेवाली वे -वे व्यतिरेकव्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयशक्तिपनेको प्राप्त होती हुई
पर्यायोंको द्रव्य करता है (-पर्यायोंकी विवक्षाके समय भी व्यतिरेकव्यक्तियाँ अन्वयशक्तिरूप
बनती हुई पर्यायोंको द्रव्यरूप करती हैं ); जैसे बाजूबंध आदि पर्यायोंको उत्पन्न करनेवाली वे-
वे व्यतिरेकव्यक्तियाँ युगपत् प्रवृत्ति प्राप्त करके अन्वयशक्तिपनेको प्राप्त करती हुई बाजुबंध
इत्यादि पर्यायोंको सुवर्ण करता है तद्नुसार
द्रव्यकी अभिधेयताके समय भी, सत् -उत्पादमें
द्रव्यकी उत्पादक अन्वयशक्तियाँ क्रमप्रवृत्तिको प्राप्त करके उस -उस व्यतिरेकव्यक्तित्वको प्राप्त
होती हुई, द्रव्यको पर्यायें (-पर्यायरूप) करती हैं; जैसे सुवर्णकी उत्पादक अन्वयशक्तियाँ
१. असद्भावसंबंद्ध = अनस्तित्वके साथ संबंधवालासंकलित [पर्यायोंकी विवक्षाके समय
व्यतिरेकव्यक्तियोंको मुख्य और अन्वयशक्तियोंको गौण किया जाता है, इसलिये द्रव्यके असद्भावसंबद्ध
उत्पाद (असत् -उत्पाद, अविद्यमानका उत्पाद) है
]

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क्रमप्रवृत्तिमासाद्य तत्तद्वयतिरेकमापन्नाभिर्हेमांगदादिपर्यायमात्रीक्रियेत ततो द्रव्यार्थादेशा-
त्सदुत्पादः, पर्यायार्थादेशादसत् इत्यनवद्यम् ।।१११।।
अथ सदुत्पादमनन्यत्वेन निश्चिनोति
जीवो भवं भविस्सदि णरोऽमरो वा परो भवीय पुणो
किं दव्वत्तं पजहदि ण जहं अण्णो कहं होदि ।।११२।।
पुनरसद्भावनिबद्ध एवोत्पादः कस्मादिति चेत् पूर्वपर्यायादन्यत्वादिति यथेदं जीवद्रव्ये सदुत्पादा-
सदुत्पादव्याख्यानं कृतं तथा सर्वद्रव्येषु यथासंभवं ज्ञातव्यमिति ।।१११।। अथ पूर्वोक्तमेव सदुत्पादं
द्रव्यादभिन्नत्वेन विवृणोतिजीवो जीवः कर्ता भवं भवन् परिणमन् सन् भविस्सदि भविष्यति तावत्
क्रमप्रवृत्ति प्राप्त करके उस -उस व्यतिरेकव्यक्तित्वको प्राप्त होती हुई, सुवर्णको बाजूबंधादि
पर्यायमात्र (-पर्यायमात्ररूप) करती हैं
इसलिये द्रव्यार्थिक कथनसे सत् -उत्पाद है, पर्यायार्थिक कथनसे असत् -उत्पाद है
यह बात अनवद्य (निर्दोष, अबाध्य) है
भावार्थ :जो पहले विद्यमान हो उसीकी उत्पत्तिको सत् -उत्पाद कहते हैं और जो
पहले विद्यमान न हो उसकी उत्पत्तिको असत् -उत्पाद कहते हैं जब पर्यायोंको गौण करके
द्रव्यका मुख्यतया कथन किया जाता है, तब तो जो विद्यमान था वही उत्पन्न होता है, (क्योंकि
द्रव्य तो तीनों कालमें विद्यमान है); इसलिये द्रव्यार्थिक नयसे तो द्रव्यको सत् -उत्पाद है; और
जब द्रव्यको गौण करके पर्यायोंका मुख्यतया कथन किया जाता है तब जो विद्यमान नहीं था
वह उत्पन्न होता है (क्योंकि वर्तमान पर्याय भूतकालमें विद्यमान नहीं थी), इसलिये पर्यायार्थिक
नयसे द्रव्यके असत् -उत्पाद है
यहाँ यह लक्ष्यमें रखना चाहिये कि द्रव्य और पर्यायें भिन्न -भिन्न वस्तुएँ नहीं हैं; इसलिये
पर्यायोंकी विवक्षाके समय भी, असत् -उत्पादमें, जो पर्यायें हैं वे द्रव्य ही हैं, और द्रव्यकी
विवक्षाके समय भी सत् -उत्पादमें, जो द्रव्य है वे ही पर्यायें ही हैं
।।१११।।
अब (सर्व पर्यायोंमें द्रव्य अनन्य है अर्थात् वह का वही है, इसलिये उसके सत् -उत्पाद
इसप्रकार) सत् -उत्पादको अनन्यत्व के द्वारा निश्चित करते हैं :
जीव परिणमे तेथी नरादिक ए थशे; पण तेरूपे
शुं छोडतो द्रव्यत्वने ? नहि छोडतो क्यम अन्य ए ? ११२.

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जीवो भवन् भविष्यति नरोऽमरो वा परो भूत्वा पुनः
किं द्रव्यत्वं प्रजहाति न जहदन्यः कथं भवति ।।११२।।
द्रव्यं हि तावद् द्रव्यत्वभूतामन्वयशक्तिं नित्यमप्यपरित्यजद्भवति सदेव यस्तु द्रव्यस्य
पर्यायभूताया व्यतिरेकव्यक्तेः प्रादुर्भावः तस्मिन्नपि द्रव्यत्वभूताया अन्वयशक्तेरप्रच्यवनाद
द्रव्यमनन्यदेव ततोऽनन्यत्वेन निश्चीयते द्रव्यस्य सदुत्पादः तथा हिजीवो द्रव्यं
भवन्नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वानामन्यतमेन पर्यायेण द्रव्यस्य पर्यायदुर्ललितवृत्तित्वाद-
वश्यमेव भविष्यति
स हि भूत्वा च तेन किं द्रव्यत्वभूतामन्वयशक्तिमुज्झति, नोज्झति
किं किं भविष्यति निर्विकारशुद्धोपयोगविलक्षणाभ्यां शुभाशुभोपयोगाभ्यां परिणम्य णरोऽमरो वा परो
नरो देवः परस्तिर्यङ्नारकरूपो वा निर्विकारशुद्धोपयोगेन सिद्धो वा भविष्यति भवीय पुणो एवं
पूर्वोक्तप्रकारेण पुनर्भूत्वापि अथवा द्वितीयव्याख्यानम् भवन् वर्तमानकालापेक्षया भविष्यति
भाविकालापेक्षया भूत्वा भूतकालापेक्षया चेति कालत्रये चैवं भूत्वापि किं दव्वत्तं पजहदि किं द्रव्यत्वं
परित्यजति ण चयदि द्रव्यार्थिकनयेन द्रव्यत्वं न त्यजति, द्रव्याद्भिन्नो न भवति अण्णो कहं हवदि
अन्वयार्थ :[जीवः ] जीव [भवन् ] परिणमित होता हुआ [नरः ] मनुष्य,
[अमरः ] देव [वा ] अथवा [परः ] अन्य (-तिर्यंच, नारकी या सिद्ध) [भविष्यति ] होगा,
[पुनः ] परन्तु [भूत्वा ] मनुष्य देवादि होकर [किं ] क्या वह [द्रव्यत्वं प्रजहाति ] द्रव्यत्वको
छोड़ देता है ? [न जहत् ] नहीं छोड़ता हुआ वह [अन्यः कथं भवति ] अन्य कैसे हो सकता
है ? (अर्थात् वह अन्य नहीं, वहका वही है
)।।११२।।
टीका :प्रथम तो द्रव्य द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिको कभी भी न छोड़ता हुआ सत्
(विद्यमान) ही है और द्रव्यके जो पर्यायभूत व्यतिरेकव्यक्तिका उत्पाद होता है उसमें भी
द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिका अच्युतपना होनेसे द्रव्य अनन्य ही है, (अर्थात् उस उत्पादमें भी
अन्वयशक्ति तो अपतित -अविनष्ट -निश्चल होनेसे द्रव्य वहका वही है, अन्य नहीं
) इसलिये
अनन्यपनेके द्वारा द्रव्यका सत् -उत्पाद निश्चित होता है, (अर्थात् उपरोक्त कथनानुसार द्रव्यका
द्रव्यापेक्षासे अनन्यपना होनेसे, उसके सत् -उत्पाद है,
ऐसा अनन्यपने द्वारा सिद्ध होता है )
इसी बातको (उदाहरण से) स्पष्ट किया जाता है :
जीव द्रव्य होनेसे और द्रव्य पर्यायोंमें वर्तनेसे जीव नारकत्व, तिर्यंचत्व, मनुष्यत्व,
देवत्व और सिद्धत्वमेंसे किसी एक पर्यायमें अवश्यमेव (परिणमित) होगा परन्तु वह
जीव उस पर्यायरूप होकर क्या द्रव्यत्वभूत अन्वयशक्तिको छोड़ता है ? नहीं छोड़ता

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यदि नोज्झति कथमन्यो नाम स्यात्, येन प्रकटितत्रिकोटिसत्ताकः स एव न
स्यात।।११२।।
अथासदुत्पादमन्यत्वेन निश्चिनोति
मणुवो ण होदि देवो देवो वा माणुसो व सिद्धो वा
एवं अहोज्जमाणो अणण्णभावं कधं लहदि ।।११३।।
मनुजो न भवति देवो देवो वा मनुषो वा सिद्धो वा
एवमभवन्ननन्यभावं कथं लभते ।।११३।।
अन्यो भिन्नः कथं भवति किंतु द्रव्यान्वयशक्तिरूपेण सद्भावनिबद्धोत्पादः स एवेति द्रव्यादभिन्न इति
भावार्थः ।।११२।। अथ द्रव्यस्यासदुत्पादं पूर्वपर्यायादन्यत्वेन निश्चिनोतिमणुवो ण हवदि देवो
आकुलत्वोत्पादकमनुजदेवादिविभावपर्यायविलक्षणमनाकुलत्वरूपस्वभावपरिणतिलक्षणं परमात्मद्रव्यं
यद्यपि निश्चयेन मनुष्यपर्याये देवपर्याये च समानं तथापि मनुजो देवो न भवति
कस्मात्
यदि नहीं छोड़ता तो वह अन्य कैसे हो सकता है कि जिसने त्रिकोटि सत्ता (-तीन
प्रकारकी सत्ता) जिसके प्रगट है ऐसा वह (जीव), वही न हो ?
भावार्थ :जीव मनुष्य -देवादिक पर्यायरूप परिणमित होता हुआ भी अन्य नहीं
हो जाता, अनन्य रहता है, वहका वही रहता है; क्योंकि ‘वही यह देवका जीव है, जो
पूर्वभवमें मनुष्य था और अमुक भवमें तिर्यंच था’ ऐसा ज्ञान हो सकता है
इसप्रकार
जीवकी भाँति प्रत्येक द्रव्य अपनी सर्व पर्यायोंमें वहका वही रहता है, अन्य नहीं हो
जाता,
अनन्य रहता है इसप्रकार द्रव्यका अनन्यपना होनेसे द्रव्यका सत् -उत्पाद निश्चित
होता है ।।११२।।
अब, असत् -उत्पादको अन्यत्वके द्वारा निश्चित करते हैं :
अन्वयार्थ :[मनुजः ] मनुष्य [देवः न भवति ] देव नहीं है, [वा ] अथवा
[देवः ] देव [मानुषः वा सिद्धः वा ] मनुष्य या सिद्ध नहीं है; [एवं अभवन् ] ऐसा न
होता हुआ [अनन्य भावं कथं लभते ] अनन्यभावको कैसे प्राप्त हो सकता है ?
।।११३।।
(अर्थात् उत्पाद -व्यय -ध्रौव्यात्मक जीव, मनुष्यादि पर्यायोंरूप परिणमित होने पर भी, अन्वयशक्तिको नहीं
छोड़ता होनेसे अनन्य
वहका वहीहै )
मानव नथी सुर, सुर पण नहि मनुज के नहि सिद्ध छे;
ए रीत नहि होतो थको क्यम ते अनन्यपणुं धरे ? ११३.

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पर्याया हि पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः काल एव सत्त्वात्ततोऽन्यकालेषु
भवन्त्यसन्त एव यश्च पर्यायाणां द्रव्यत्वभूतयान्वयशक्त्यानुस्यूतः क्रमानुपाती स्वकाले
प्रादुर्भावः तस्मिन्पर्यायभूताया आत्मव्यतिरेकव्यक्तेः पूर्वमसत्त्वात्पर्याया अन्य एव ततः
पर्यायाणामन्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृकरणाधिकरणभूतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य
द्रव्यस्यासदुत्पादः
तथा हिन हि मनुजस्त्रिदशो वा सिद्धो वा स्यात्, न हि त्रिदशो
मनुजो वा सिद्धो वा स्यात एवमसन् कथमनन्यो नाम स्यात्, येनान्य एव न स्यात्;
येन च निष्पद्यमानमनुजादिपर्यायं जायमानवलयादिविकारं कांचनमिव जीवद्रव्यमपि प्रतिपद-
मन्यन्न स्यात
।।११३।।
देवपर्यायकाले मनुष्यपर्यायस्यानुपलम्भात् देवो वा माणुसो व सिद्धो वा देवो वा मनुष्यो न भवति
स्वात्मोपलब्धिरूपसिद्धपर्यायो वा न भवति कस्मात् पर्यायाणां परस्परं भिन्नकालत्वात्,
सुवर्णद्रव्ये कुण्डलादिपर्यायाणामिव एवं अहोज्जमाणो एवमभवन्सन् अणण्णभावं कधं लहदि अनन्यभाव-
टीका :पर्यायें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिके कालमें ही सत् (-विद्यमान)
होनेसे, उससे अन्य कालोंमें असत् (-अविद्यमान) ही हैं और पर्यायोंका द्रव्यत्वभूत
अन्वयशक्तिके साथ गुंथा हुआ (-एकरूपतासे युक्त) जो क्रमानुपाती (क्रमानुसार) स्वकालमें
उत्पाद होता है उसमें पर्यायभूत स्वव्यतिरेकव्यक्तिका पहले असत्पना होनेसे, पर्यायें अन्य ही
हैं
इसीलिये पर्यायोंकी अन्यताके द्वारा द्रव्यकाजो कि पर्यायोंके स्वरूपका कर्ता, करण
और अधिकरण होनेसे पर्यायोंसे अपृथक् है उसकाअसत् -उत्पाद निश्चित होता है
इस बातको (उदाहरण देकर) स्पष्ट करते हैं :
मनुष्य वह देव या सिद्ध नहीं है, और देव, वह मनुष्य या सिद्ध नहीं है; इसप्रकार
न होता हुआ अनन्य (-वहका वही) कैसे हो सकता है, कि जिससे अन्य ही न हो और जिससे
मनुष्यादि पर्यायें उत्पन्न होती हैं ऐसा जीव द्रव्य भी
वलयादि विकार (कंकणादि पर्यायें)
जिसके उत्पन्न होती हैं ऐसे सुवर्णकी भाँतिपद -पद पर (प्रति पर्याय पर) अन्य न हो ?
[जैसे कंकण, कुण्डल इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, (-भिन्न -भिन्न हैं, वे की वे ही नहीं हैं) इसलिये
उन पर्यायोंका कर्ता सुवर्ण भी अन्य है, इसीप्रकार मनुष्य, देव इत्यादि पर्यायें अन्य हैं, इसलिये
उन पर्यायोंका कर्ता जीवद्रव्य भी पर्यायापेक्षासे अन्य है
]
भावार्थ :जीवके अनादि अनन्त -होने पर भी, मनुष्य पर्यायकालमें देवपर्यायकी
या स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धपर्यायकी अप्राप्ति है अर्थात् मनुष्य, देव या सिद्ध नहीं है, इसलिये
वे पर्यायें अन्य अन्य हैं
ऐसा होनेसे, उन पर्यायोंका कर्त्ता, साधन और आधार जीव भी
पर्यायापेक्षासे अन्यपनेको प्राप्त होता है इसप्रकार जीवकी भाँति प्रत्येक द्रव्यके पर्यायापेक्षासे

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अथैकद्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वविप्रतिषेधमुद्धुनोति
दव्वट्ठिएण सव्वं दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो
हवदि य अण्णमणण्णं तक्काले तम्मयत्तादो ।।११४।।
द्रव्यार्थिकेन सर्वं द्रव्यं तत्पर्यायार्थिकेन पुनः
भवति चान्यदनन्यत्तत्काले तन्मयत्वात।।११४।।
सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्य-
विशेषौ परिच्छिन्दती द्वे किल चक्षुषी, द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति तत्र पर्यायार्थिक-
मेकत्वं कथं लभते, न कथमपि तत एतावदायाति असद्भावनिबद्धोत्पादः पूर्वपर्यायाद्भिन्नो
भवतीति ।।११३।। अथैकद्रव्यस्य पर्यायैस्सहानन्यत्वाभिधानमेकत्वमन्यत्वाभिधानमनेकत्वं च नय-
विभागेन दर्शयति, अथवा पूर्वोक्तसद्भावनिबद्धासद्भावनिबद्धमुत्पादद्वयं प्रकारान्तरेण समर्थयतिहवदि
भवति किं कर्तृ सव्वं दव्वं सर्वं विवक्षिताविवक्षितजीवद्रव्यम् किंविशिष्टं भवति अणण्णं
अनन्यमभिन्नमेकं तन्मयमिति केन सह तेन नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवरूपविभावपर्यायसमूहेन केवल-
ज्ञानाद्यनन्तचतुष्टयशक्तिरूपसिद्धपर्यायेण च केन कृत्वा दव्वट्ठिएण शुद्धान्वयद्रव्यार्थिकनयेन
कस्मात् कुण्डलादिपर्यायेषु सुवर्णस्येव भेदाभावात् तं पज्जयट्ठिएण पुणो तद्द्रव्यं पर्यायार्थिकनयेन
अन्यपना है इसप्रकार द्रव्यको अन्यपना होनेसे द्रव्यके असत् -उत्पाद है,ऐसा निश्चित होता
है ।।११३।।
अब, एक ही द्रव्यके अनन्यपना और अनन्यपना होनेमें जो विरोध है, उसे दूर करते
हैं (अर्थात् उसमें विरोध नहीं आता, यह बतलाते हैं) :
अन्वयार्थ :[द्रव्यार्थिकेन ] द्रव्यार्थिक (नय) से [सर्व ] सब [द्रव्यं ] द्रव्य है;
[पुनः च ] और [पर्यायार्थिकेन ] पर्यायार्थिक (नय) से [तत् ] वह (द्रव्य) [अन्यत् ] अन्य-
अन्य है, [तत्काले तन्मयत्वात् ] क्योंकि उस समय तन्मय होनेसे [अनन्यत् ] (द्रव्य पर्यायोंसे)
अनन्य है
।।११४।।
टीका :वास्तवमें सभी वस्तु सामान्य -विशेषात्मक होनेसे वस्तुका स्वरूप
देखनेवालोंके क्रमशः (१) सामान्य और (२) विशेषको जाननेवाली दो आँखें हैं
(१) द्रव्यार्थिक और (२) पर्यायार्थिक
द्रव्यार्थिके बधुं द्रव्य छे; ने ते ज पर्यायार्थिके
छे अन्य, जेथी ते समय तद्रूप होई अनन्य छे. ११४
.

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मेकान्तनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा नारकतिर्यङ्-
मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मकेषु विशेषेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यमेकमवलोकयतामनव-
लोकितविशेषाणां तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति
यदा तु द्रव्यार्थिकमेकान्तनिमीलितं विधाय
केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा जीवद्रव्ये व्यवस्थितान्नारकतिर्यङ्मनुष्यदेव-
सिद्धत्वपर्यायात्मकान् विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यत्प्रतिभाति,
द्रव्यस्य तत्तद्विशेषकाले तत्तद्विशेषेभ्यस्तन्मयत्वेनानन्यत्वात
्, गणतृणपर्णदारुमयहव्यवाहवत
यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते
तदा नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायेषु व्यवस्थितं जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता
नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवसिद्धत्वपर्यायात्मका विशेषाश्च तुल्यकालमेवावलोक्यन्ते
तत्रैकचक्षुरव-
पुनः अण्णं अन्यद्भिन्नमनेकं पर्यायैः सह पृथग्भवति कस्मादिति चेत् तक्काले तम्मयत्तादो तृणाग्नि-
काष्ठाग्निपत्राग्निवत् स्वकीयपर्यायैः सह तत्काले तन्मयत्वादिति एतावता किमुक्तं भवति द्रव्यार्थिक-
नयेन यदा वस्तुपरीक्षा क्रियते तदा पर्यायसन्तानरूपेण सर्वं पर्यायकदम्बकं द्रव्यमेव प्रतिभाति यदा
तु पर्यायनयविवक्षा क्रियते तदा द्रव्यमपि पर्यायरूपेण भिन्नं भिन्नं प्रतिभाति यदा च परस्परसापेक्ष-
नयद्वयेन युगपत्समीक्ष्यते, तदैकत्वमनेकत्वं च युगपत्प्रतिभातीति यथेदं जीवद्रव्ये व्याख्यानं कृतं तथा
इनमेंसे पर्यायार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके जब मात्र खुली हुई द्रव्यार्थिक चक्षुके
द्वारा देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपनावह
पर्यायस्वरूप विशेषोंमें रहनेवाले एक जीवसामान्यको देखनेवाले और विशेषोंको न देखनेवाले
जीवोंको ‘वह सब जीव द्रव्य है’ ऐसा भासित होता है
और जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा
बन्द करके मात्र खुली हुई पर्यायार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब जीवद्रव्यमें रहनेवाले
नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना, देवपना और सिद्धपना
वे पर्यायस्वरूप अनेक विशेषोंको
देखनेवाले और सामान्यको न देखनेवाले जीवोंको (वह जीव द्रव्य) अन्य -अन्य भासित होता
है, क्योंकि द्रव्य उन -उन विशेषोंके समय तन्मय होनेसे उन -उन विशेषोंसे अनन्य है
कण्डे,
घास, पत्ते और काष्ठमय अग्निकी भाँति (जैसे घास, लकड़ी इत्यादिकी अग्नि उस -उस समय
घासमय, लकडीमय इत्यादि होनेसे घास, लकड़ी इत्यादिसे अनन्य है उसीप्रकार द्रव्य उन-
उन पर्यायरूप विशेषोंके समय तन्मय होनेसे उनसे अनन्य है
पृथक् नहीं है ) और जब उन
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखोंको एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा और इनके द्वारा
(-द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक चक्षुओंके) देखा जाता है तब नारकपना, तिर्यंचपना, मनुष्यपना,
देवपना और सिद्धपना पर्यायोंमें रहनेवाला जीवसामान्य तथा जीवसामान्यमें रहनेवाला
नारकपना -तिर्यंचपना -मनुष्यपना -देवपना और सिद्धत्वपर्यायस्वरूप विशेष तुल्यकालमें ही
(एक ही साथ) दिखाई देते हैं

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लोकनमेकदेशावलोकनं, द्विचक्षुरवलोकनं सर्वावलोकनम् ततः सर्वावलोकने द्रव्यस्या-
न्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते ।।११४।।
अथ सर्वविप्रतिषेधनिषेधिकां सप्तभंगीमवतारयति
अत्थि त्ति य णत्थि त्ति य हवदि अवत्तव्वमिदि पुणो दव्वं
पज्जाएण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ।।११५।।
सर्वद्रव्येषु यथासंभवं ज्ञातव्यमित्यर्थः ।।११४।। एवं सदुत्पादासदुत्पादकथनेन प्रथमा, सदुत्पाद-
विशेषविवरणरूपेण द्वितीया, तथैवासदुत्पादविशेषविवरणरूपेण तृतीया, द्रव्यपर्याययोरेकत्वानेकत्व-
प्रतिपादनेन चतुर्थीति सदुत्पादासदुत्पादव्याख्यानमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन सप्तमस्थलं गतम्
अथ
समस्तदुर्नयैकान्तरूपविवादनिषेधिकां नयसप्तभङ्गीं विस्तारयतिअत्थि त्ति य स्यादस्त्येव स्यादिति
प्र. २९
वहाँ, एक आँखसे देखा जाना वह एकदेश अवलोकन है और दोनों आँखोंसे
देखना वह सर्वावलोकन (-सम्पूर्ण अवलोकन) है इसलिये सर्वावलोकनमें द्रव्यके
अन्यत्व और अनन्यत्व विरोधको प्राप्त नहीं होते
भावार्थ :प्रत्येक द्रव्य सामान्यविशेषात्मक है, इसलिये प्रत्येक द्रव्य वहका
वही रहता है और बदलता भी है द्रव्यका स्वरूप ही ऐसा उभयात्मक होनेसे द्रव्यके
अनन्यत्वमें और अन्यत्वमें विरोध नहीं है जैसेमरीचि और भगवान महावीरका
जीवसामान्यकी अपेक्षासे अनन्यत्व और जीव विशेषोंकी अपेक्षासे अन्यत्व होनेमें किसी
प्रकारका विरोध नहीं है
द्रव्यार्थिकनयरूपी एक चक्षुसे देखने पर द्रव्यसामान्य ही ज्ञात होता है, इसलिये
द्रव्य अनन्य अर्थात् वहका वही भासित होता है और पर्यायार्थिकनयरूपी दूसरी एक
चक्षुसे देखने पर द्रव्यके पर्यायरूप विशेष ज्ञात होते हैं, इसलिये द्रव्य अन्य -अन्य भासित
होता है
दोनों नयरूपी दोनों चक्षुओंसे देखने पर द्रव्यसामान्य और द्रव्यके विशेष दोनों
ज्ञात होते हैं, इसलिये द्रव्य अनन्य तथा अन्य -अन्य दोनों भासित होता है ।।११४।।
अब, समस्त विरोधोंको दूर करनेवाली सप्तभंगी प्रगट करते हैं :
अस्ति, तथा छे नास्ति, तेम ज द्रव्य अणवक्तव्य छे,
वळी उभय को पर्यायथी, वा अन्यरूप कथाय छे. ११५.

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अस्तीति च नास्तीति च भवत्यवक्तव्यमिति पुनर्द्रव्यम्
पर्यायेण तु केनचित् तदुभयमादिष्टमन्यद्वा ।।११५।।
स्यादस्त्येव १, स्यान्नास्त्येव २, स्यादवक्तव्यमेव ३, स्यादस्तिनास्त्येव ४, स्याद-
स्त्यवक्तव्यमेव ५, स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव ६, स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यमेवेति ७, स्वरूपेण १,
पररूपेण २, स्वपररूपयौगपद्येन ३, स्वपररूपक्र मेण ४, स्वरूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यां ५,
पररूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यां ६, स्वरूपपररूपस्वपररूपयौगपद्यैः ७, आदिश्यमानस्य स्वरूपेण
कोऽर्थः कथंचित् कथंचित्कोऽर्थः विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन तच्चतुष्टयं शुद्ध-
जीवविषये कथ्यते शुद्धगुणपर्यायाधारभूतं शुद्धात्मद्रव्यं द्रव्यं भण्यते, लोकाकाशप्रमिताः
शुद्धासंख्येयप्रदेशाः क्षेत्रं भण्यते, वर्तमानशुद्धपर्यायरूपपरिणतो वर्तमानसमयः कालो भण्यते,
शुद्धचैतन्यं भावश्चेत्युक्तलक्षणद्रव्यादिचतुष्टय इति प्रथमभङ्गः १
णत्थि त्ति य स्यान्नास्त्येव स्यादिति
अन्वयार्थ :[द्रव्यं ] द्रव्य [अस्ति इति च ] किसी पर्यायसे ‘अस्ति’, [नास्ति
इति च ] किसी पर्यायसे ‘नास्ति’ [पुनः ] और [अवक्तव्यम् इति भवति ] किसी
पर्यायसे ‘अवक्तव्य’ है, [केनचित् पर्यायेण तु तदुभयं ] और किसी पर्यायसे ‘अस्ति-
नास्ति’ [वा ] अथवा [अन्यत् आदिष्टम् ] किसी पर्यायसे अन्य तीन भंगरूप कहा
गया है
।।११५।।
टीका :द्रव्य (१) स्वरूपापेक्षासे ‘स्यात् अस्ति’; (२) पररूपकी अपेक्षासे
‘स्यात् नास्ति’; (३) स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् अवक्तव्य’;
(४) स्वरूप -पररूपके क्रमकी अपेक्षासे ‘स्यात् अस्ति -नास्ति’; (५) स्वरूपकी और
स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् अस्ति -अवक्तव्य’; (६) पररूपकी और
स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् नास्ति’, अवक्तव्य; और (७) स्वरूपकी,
पररूपकी तथा स्वरूप -पररूपकी युगपत् अपेक्षासे ‘स्यात् अस्ति -नास्ति -अवक्तव्य’ है
१. ‘स्यात्’ = कथंचित्; किसीप्रकार; किसी अपेक्षासे (प्रत्येक द्रव्य स्वचतुष्टयकी अपेक्षासेस्वद्रव्य,
स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षासे‘अस्ति’ है शुद्ध जीवका स्वचतुष्टय इसप्रकार है :शुद्ध
गुण -पर्यायोंका आधारभूत शुद्धात्मद्रव्य वह द्रव्य है; लोकाकाशप्रमाण शुद्ध असंख्यप्रदेश वह क्षेत्र है, शुद्ध
पर्यायरूपसे परिणत वर्तमान समय वह काल है, और शुद्ध चैतन्य वह भाव है
।)
२. अवक्तव्य = जो कहा न जा सके (एक ही साथ स्वरूप तथा पररूपकी अपेक्षासे द्रव्य कथनमें नहीं
आ सकता, इसलिये ‘अवक्तव्य है )

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सतः, पररूपेणासतः, स्वपररूपाभ्यां युगपद्वक्तुमशक्यस्य, स्वपररूपाभ्यां क्रमेण सतोऽसतश्च,
स्वरूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यां सतो वक्तुमशक्यस्य च, पररूपस्वपररूपयौगपद्याभ्यामसतो वक्तुम-
शक्यस्य च, स्वरूपपररूपस्वपररूपयौगपद्यैः सतोऽसतो वक्तुमशक्यस्य चानन्तधर्मणो द्रव्यस्यै-
कैकं धर्ममाश्रित्य विवक्षिताविवक्षितविधिप्रतिषेधाभ्यामवतरन्ती सप्तभंगिकैवकारविश्रान्तम-
कोऽर्थः कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयेन २ हवदि भवति कथंभूतम् अवत्तव्वमिदि
स्यादवक्तव्यमेव स्यादिति कोऽर्थः कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन ३
स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यं, स्यादस्तिनास्ति, स्यादस्त्येवावक्तव्यं, स्यान्नास्त्येवावक्तव्यं,
स्यादस्तिनास्त्येवावक्तव्यम्
पुणो पुनः इत्थंभूतम् किं भवति दव्वं परमात्मद्रव्यं कर्तृ पुनरपि कथंभूतं
भवति तदुभयं स्यादस्तिनास्त्येव स्यादिति कोऽर्थः कथंचिद्विवक्षितप्रकारेण क्रमेण स्वपर-
द्रव्यादिचतुष्टयेन ४ कथंभूतं सदित्थमित्थं भवति आदिट्ठं आदिष्टं विवक्षितं सत् केन कृत्वा
पज्जाएण दु पर्यायेण तु प्रश्नोत्तररूपनयविभागेन तु कथंभूतेन केण वि केनापि विवक्षितेन
नैगमादिनयरूपेण अण्णं वा अन्यद्वा संयोगभङ्गत्रयरूपेण तत्कथ्यतेस्यादस्त्येवावक्तव्यं स्यादिति
कोऽर्थः कथंचित् विवक्षितप्रकारेण स्वद्रव्यादिचतुष्टयेन युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ५
स्यान्नास्त्येवावक्त व्यं स्यादिति कोऽर्थः क थंचित् विवक्षितप्रकारेण परद्रव्यादिचतुष्टयेन
युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ६ स्यादस्तिनास्त्येवावक्तव्यं स्यादिति कोऽर्थः कथंचित्
विवक्षितप्रकारेण क्रमेण स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन युगपत्स्वपरद्रव्यादिचतुष्टयेन च ७ पूर्वं पञ्चास्तिकाये
स्यादस्तीत्यादिप्रमाणवाक्येन प्रमाणसप्तभङ्गी व्याख्याता, अत्र तु स्यादस्त्येव, यदेवकारग्रहणं
तन्नयसप्तभङ्गीज्ञापनार्थमिति भावार्थः
यथेदं नयसप्तभङ्गीव्याख्यानं शुद्धात्मद्रव्ये दर्शितं तथा यथासंभवं
द्रव्यका कथन करनेमें, (१) जो स्वरूपसे ‘सत्’ है; (२) जो पररूपसे ‘असत्’
है; (३) जिसका स्वरूप और पररूपसे युगपत् ‘कथन अशक्य’ है; (४) जो स्वरूपसे
और पररूपसे क्रमशः ‘सत् और असत्’ है; (५) जो स्वरूपसे, और स्वरूप -पररूपसे
युगपत् ‘सत् और अवक्तव्य’ है; (६) जो पररूपसे, और स्वरूप -पररूपसे युगपत्
‘असत् और अवक्तव्य’ है; तथा (७) जो स्वरूपसे पर -रूप और स्वरूप -पररूपसे
युगपत् ‘सत्’, ‘असत्’ और ‘अवक्तव्य’ है
ऐसे अनन्त धर्मोंवाले द्रव्यके एक एक
धर्मका आश्रय लेकर विवक्षित -अविवक्षितताके विधि -निषेधके द्वारा प्रगट होनेवाली
१. विवक्षित (कथनीय) धर्मको मुख्य करके उसका प्रतिपादन करनेसे और अविवक्षित (न कहने योग्य)
धर्मको गौण करके उसका निषेध करनेसे सप्तभंगी प्रगट होती है